राजीमतिं परित्यज्य, महादयार्द्रमानस:।
लेभे सिद्धिवधूं सिद्ध्यै, नेमिनाथ! नमोऽस्तु ते।।
शार्दूलविक्रीडित छंद-
यावन्नो प्रभवेच्च नेमि भगवन्! तेंऽघ्रिप्रसादोदय:।
तावद्दु:खमुपैति जीवनिवह:, तावत्सुखं नाश्नुते।।
यावद्भक्तिरतस्य मे नहि भवेद्, दृष्टि: प्रसन्ना प्रभो:।
तावद्धि प्रभवेत् स तापजनको, दुर्वारकर्मोदय:।।
प्रमदानन छंद-
भववारिधौ ब्रुडता मया कथमप्यवाप्य सुशर्मदां।
व्रतशीलसंयमसंपदं त्वधुना प्रमाद इहास्तु मा।।
प्रभु नेमिनाथ! प्रयच्छ शांतिमभीप्सितामविनश्वरीं।
प्रणमाम्यहं जिनपुंगवं सितशंखचिन्हसमन्वितम्।।
ॐ ह्रीं जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
भव वन में भ्रमते-भ्रमते अब, मुझको कथमपि विज्ञान मिला।
हे नेमि प्रभो! अब नियम बिना, नहिं जाने पावे एक कला।।
मैं निज से पर को पृथक् करूँ, निज समरस में ही रम जाऊँ।
मैं मोह ध्वांत को नाश करूँ, निज ज्ञान सूर्य को प्रकटाऊँ।।१।।
शौरीपुरि में प्रभु जन्में तक, रत्नों की वर्षा खूब हुई।
धन धन्य समुद्रविजय राजा, कृतकृत्य शिवादेवी भी थी।।
कार्तिक सुदि छठ के गर्भागम, श्रावण सुदि छट्ठ जन्म लीना।
यौवन में राजमती के संग, परिजन ने ब्याह रचा दीना।।२।।
पशु बंधन को देखा प्रभु ने, तत्क्षण सब बंधन तोड़ दिया।
राजीमति मोह परिग्रह तज, तपश्री से नाता जोड़ लिया।।
श्रावण सुदि छट्ठ सुखद प्यारी, सिरसा वन में जा ध्यान धरा।
आश्विन सुदि एकम आते ही, कैवल्य श्री ने आन वरा।।३।।
तब राजमती जी दीक्षा ले, आर्या में गणिनी मान्य हुईं।
प्रभु ने शिव का पथ दर्शाया, धर्मामृत वर्षा खूब हुई।।
तनु चालिस हाथ प्रमाण कहा, प्रभु आयू एक हजार वर्ष।
वैडूर्य१ मणी सम कांति अहो, प्रभु शंख चिन्ह से हैं चिह्नित ।।४।।
प्रभु समवसरण में कमलासन, पर चतुरंगुल से अधर रहें।
चउदिश में प्रभु का मुख दीखे, अतएव चतुर्मुख ब्रह्मा हैं।।
प्रभु के विहार में चरण कमल, तल स्वर्ण कमल खिलते जाते।
बहु कोसों तक दुर्भिक्ष टले, षट् ऋतुज फूल फल खिल जाते।।५।।
तरुवर अशोक था शोक रहित, सिंहासन रत्न खचित सुन्दर।
छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर।।
सुरदुंदुभि बाजे बाज रहें, ढुरते हैें चौंसठ श्वेत चमर।
सुर पुष्पवृष्टि नभ से बरसें, दिव्य ध्वनि फैले योजन भर।।६।।
आषाढ़ सुदी सप्तमि तिथि थी, प्रभु ऊर्जयंत से सिद्ध हुए।
श्रीकृष्ण तथा बलदेव आदि, तुम पूजें ध्यावें भक्ति लिए।।
हे भगवन्! तुम बाह्याभ्यंतर, अनुपम लक्ष्मी के स्वामी हो।
दो मुझे अनंतचतुष्टय श्री, ‘सज्ज्ञानमती’ सिद्धिप्रिय जो।।७।।
ॐ ह्रीं जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।