(श्री बाहुबली वंदना)
-दोहा-
जय जय बाहूबलि प्रभो! श्री जिनवर जिनसूर्य।
नमूँ अनन्तों बार मैं, भव्यकमलिनी सूर्य।।१।।
-चौबोल छंद-
बाहुबली कैलाशगिरी पर, जाकर जिनदीक्षा लेकर।
एक वर्ष का महायोग ले, खड़े हुए निश्चल होकर।।
काम चक्रेश्वर कामभोग तज, कामदेव मद हरते हैं।
योग चक्रमय ध्यानलीन हो, योग चक्रेश्वर बनते हैं।।२।।
भक्तिभाव से दर्शन-वंदन, करते भाक्तिकगण आकर।
मानों पूजें चरण कमलयुग, नील कमल को ला-लाकर।।
ऐसा भान कराते फणधर, सर्प फिरें ऊँचे फण कर।
चरणों में बल्मीक बनायें, फुंकारें निर्भय होकर।।३।।
बड़े प्रेम से हरिणी भी, सिंहों के बच्चे पाल रही।
व्याघ्र शिशू को दूध पिलाकर, गाय अहो! फिर चाट रही।।
जात विरोधी जीव सभी, आपस में मैत्री भाव करें।
हाथी-सिंह-श्रृगाल-सर्प, खरगोश सभी मिलकर विचरें।।४।।
सौम्य मूर्ति को शांत छवी को, देख-देख अनुकरण करें।
शांत भाव से जन्मजात भी, क्रूर वैर दुर्भाव हरें।।
वन के वृक्ष पुष्प-फल युत हो, अतिशय झुकते जाते हैं।
मानों भक्ती में विभोर हो, झुक-झुक शीश नमाते हैं।।५।।
लता वल्लरी निज पुष्पों से, पुष्पवृष्टि करती रहतीं।
मधुकर के मधुर स्वर से, गुणगान सदा करती रहतीं।।
सुखद पवन बह रही सुगंधित, लता डालियाँ हिलती हैं।
मानों वनलक्ष्मी भुजप्रसरित, लय से नर्तन करती हैं।।६।।
षट् ऋतु के सब फल पुष्पादिक, फलित फूलते हैं वन में।
योगीश्वर दर्शन से मानों, हर्षित होते हैं मन में।।
वनक्रीडा के लिए वहाँ पर, विद्याधरियाँ आती हैं।
योगीश्वर को नमस्कार कर-कर विस्मित हो जाती हैं।।७।।
योगलीन तनु पर बिच्छू, सर्पादिक क्रीड़ा करते हैंं।
लता भुजाओं तक चढ़ती हैं, बहु वनजंतु विचरते हैं।।
लता मंजरी हटा-हटा कर, सर्प को दूर भगाती हैं।
फिर भी मानों अधिक प्रेम से, ही आ-आ लग जाती हैं।।८।।
अहो! ध्यान है धन्य धन्य, धन धन्य योगमय मुद्रा है।
सदा खड़े हैं धर्मध्यान में, नहीं कदाचित् तंद्रा है।।
विद्याधर ज्योतिर्व्यंतर सुर, के विमान रुक जाते हैं।
उतर-उतर कर सब दर्शन-पूजन करके सुख पाते हैं।।९।।
हाथी हथिनी कमल पत्र में, प्रीती से जल लाते हैं।
भक्ति भाव से बाहुबली के, श्री चरणों में चढ़ाते हैं।।
अहो! प्रभू की अद्भुत महिमा, देख-देख सब चकित हुए।
मनो मोहिनी सुंदर छवि को, देख-देख सब मुदित हुए।।१०।।
प्रिया हजारों छोड़ीं फिर भी, मुक्तिरमा से प्रीति करें।
राज्य भोग संपत्ति में निस्पृह, कर्मशत्रु से युद्ध करें।।
मनसिज हो मन को वश में कर, मनोज मद का नाश किया।
इन्द्रिय सुख में निस्पृह हो भी, निरुपम सुख की आश किया।।११।।
चतुराहार त्याग है तो भी, स्वात्म सुधारस पीते हैं।
क्रोध मान से रहित अहो!, फिर भी कषाय अरि जीते हैं।।
षट्कायों की दया पालते, मोहराज प्रति निर्दयता।
चरित्र व्रत गुण में ममत्व है, निज शरीर से निर्ममता।।१२।।
सब जीवों में प्रेमभाव है, नहीं किसी से मत्सर द्वेष।
पंचम गति को मन उत्सुक है, चतुर्गती दुख से विद्वेष।।
रत्नत्रय निधि के स्वामी हैं, फिर भी आकिंचन्य अहो!।
पंच परावर्तन से डर कर, पाया निर्भय पंथ अहो!।।१३।।
सब जग से वैरागी होकर, आत्म गुणों में रागी हैं।
योगी निजानंद सुख भोगी, शुद्धातम अनुरागी हैं।।
ज्ञानी ध्यानी मौनी त्यागी, अकंप निश्चल सुमेरु सम।
महामना हे महाप्रभावी, दृढ़प्रतिज्ञ हैं महानतम।।१४।।
बाहुबली भुजबली दोर्बली, मनोबली हैं कायबली।
निर्बल भी प्रभु से बल पाते, आत्मबली भी महाबली।।
शीत तुषार ग्रीष्म वर्षादिक, सभी परीषह सहते हैं।
महा परीषह विजयी स्वामी, महोग्रोग्रतप करते हैं।।१५।।
महा तप:प्रभाव से बुद्धी, विक्रिय सर्वौषधि ऋद्धी।
आदि सभी ऋद्धियाँ प्रगट हो, करतीं जन जन की सिद्धी।।
परन्तु योगी योगलीन हैं, नहीं प्रयोजन इनसे है।
जन-जन आकर विष रोगादिक, कष्टनिवारण करते हैं।।१६।।
-दोहा-
नमूँ नमूँ बाहूबली, गुण रत्नाकर सिद्ध।
तुम पूजा चिन्तामणी, देवे नवनिधि ऋद्धि।।१७।।
अथ श्री बाहुबलीपूजायज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
महा तपोबल से देवों के, आसन कंपित हो जाते।
बार-बार सब शीश झुकाते, नमस्कार हैं कर जाते।।
सब संकल्प-विकल्प रहित प्रभु, आत्म ध्यान में निश्चल हैं।
एक वर्ष उपवास पूर्ण कर, शुक्लध्यान के सन्मुख हैं।।१।।
उस ही दिन भरतेश्वर आकर, विधिवत् पूजा करते हैं।
बाहुबली तत्काल परम, केवलज्ञानेश्वर बनते हैं।।
बाहुबली का हृदय कदाचित्, स्वल्प विकल्पित हो जाता।
भरत को मुझसे क्लेश हो गया, भ्रातृप्रेम यह जग जाता।।२।।
अत: भरत के पूजन करते, केवलज्ञान प्रकाश हुआ।
निज अपराध निवारण कारण, भरत प्रथमत: नमन किया।।
केवलज्ञान सूर्य के उगते, देवों के आसन कांपे।
मुकुट कोटि झुक गये स्वयं, कल्पद्रुम से सुपुष्प बरसे।।३।।
स्वर्गों से इन्द्रादिक आकर, जय जय जय ध्वनि करते हैं।
गंधकुटी की रचना करके, प्रभु की पूजा करते हैं।।
छत्र फिरे ढुर रहे चंवर, सिंहासन दुंदुभि ध्वनि होती।
मंद सुगंधित पवन चल रही, पुष्पों की वृष्टी होती।।४।।
भरतेश्वर बहु हर्षित होकर, अनुपम पूजा करते हैं।
नहिं समर्थ है सरस्वती, जन क्या वर्णन कर सकते हैं।।
भ्रातृप्रेम धर्मानुराग, जन्मान्तर का संस्कार महान।
केवलपद की भक्ति चार के, मिलने से वैशिष्ट्य महान।।५।।
अहो! एक के ही निमित्त से, भाक्तिक जन का मन खिलता।
फिर जब चारों ही मिल जावें, हर्ष पार क्या हो सकता।।
गंगाजल की है जलधारा, गंध सुगंधित चंदन है।
मोती के अक्षत कल्पद्रुम, पारिजात के शुभ सुम हैं।।६।।
अमृतमय नैवेद्य रत्न के, दीप मलयगिरि धूप महा।
कल्पवृक्ष के फल रत्नों के, अर्घ्य चढ़ावें श्रेष्ठ अहा।।
षट्खंडाधिप भरत चक्रेश्वर, स्वयं पुजारी भक्त जहाँ।
योग चक्रेश्वर पूज्य केवली, पूजन का क्या ठाठ वहाँ।।७।।
सुर किन्नर गंधर्व खगेश्वर, नरपति पूजन करते हैं।
जय जय महाबली बाहूबलि, जय जयकार उचरते हैं।।
केवलज्ञान ज्योति से प्रभु ने, जगत चराचर देख लिया।
सबके स्वामी अंतर्यामी, सबको हित उपदेश दिया।।८।।
इन्द्र नरेन्द्र मुनींद्र मध्य में, बाहुबली प्रभु शोभ रहे।
चक्रवर्ति जित घातिकर्मजित, अनुपम सुख को प्राप्त हुए।।
मनसिज मर्दन मनुकुल वर्धन, कर्माटवि को दहन किया।
मुनिजन हृदय सरोरुह भास्कर, स्वात्मसौख्य आनंद लिया।।९।।
देश-देश में विहार करते, धर्मामृत बरसाते हैं।
केवलज्ञान सूर्य किरणों से, भव्य कमल विकसाते हैं।।
चतुर्गती परिवर्तन के दुख, से भव्यों को बचा लिया।
शिवपथ भ्रष्ट पथिक जन-जन को, मुक्तिमार्ग शुभ दिखा दिया।।१०।।
-दोहा-
केवलज्ञानादर्श में, लोकालोक समस्त।
इक नक्षत्र समान है, नमूँ नमूँ सुखमस्तु।।११।।
अथ केवलज्ञानार्हन्त्यलक्ष्मीप्राप्ताय श्री बाहुबलिचरणकमलयो: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
अष्टापद गिरि पर जाकर के, त्रिकरण योगनिरोध किया।
कर्म अघाती भी विनाश कर, नि:श्रेयससुख प्राप्त किया।।
परमानंद सुखास्पद अनुपम, लोक शिखर पर जाते हैं।
शतेन्द्र पूजित मुनिजन वंदित, त्रिजग ईश कहलाते हैं।।१।।
जय जय हे त्रैलोक्य शिखामणि! जय इक्ष्वाकु वंश भूषण!।
जय जय जन्म जरामृति भयहर! जय जय मोह मल्ल चूरण!।
जय जय कर्मशत्रु मदभंजन, नित्य निरंजन नमो नमो।
सिद्ध शुद्ध परमात्म चिदंबर! चिन्मय ज्योती नमो नमो।।२।।
-दोहा-
श्रीबाहूबलि सिद्धप्रभु, परमानंद सुखकार।
स्वात्मसिद्धि के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।३।।
अथ परमसिद्धिपदप्राप्ताय श्रीबाहुबलिचरणकमलयो: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।