चउवीसंगुलभूमी खणेवि पूरिज्ज पुण वि सा गत्ता।
तेणेव मट्टियाए हीणाहियसमफला नेया।।३।।
मकान आदि बनाने की भूमि में २४ अंगुल गहरा खड्डा खोदकर निकली हुई मिट्टी से फिर उसकी खड्डे को पूरे। यदि मिट्टी कम हो जाय, खड्डा पूरा भरे नहीं तो हीन फल, बढ़ जाय तो उत्तम और बराबर हो जाय तो समान फल जानना।।३।।
अह सा भरिय जलेण य चरणसयं गच्छमाण जा सुसइ।
ति–दु—इग अंगुल भूमी अहम मज्झम उत्तमा जाण।।४।।
अथवा उसी ही २४ अंगुल के खड्डे में बराबर पूर्ण जल भरे, पीछे एक सौ कदम दूर जाकर और वापिस लौटकर उसी ही जलपूर्ण खड्डे को देखे। यदि खड्डे में तीन अंगुल पानी सूख जाय तो अधम, दो अंगुल सूख जाय तो मध्यम और एक अंगुल पानी सूख जाय तो उत्तम भूमि समझना।४।।
सयविप्पि अरुणखत्तिणि पीयवइसी अ कसिणसुद्दी अ।
भट्टियवण्णपमाणा भूमी निय निय वण्णसुक्खयरी।।५।।
सपेद वर्ण की भूमि ब्राह्मणों को, लाल वर्ण की भूमि क्षत्रियों को, पीले वर्ण की भूमि वैश्यों को और काले वर्ण की भूमि शूद्रों को, इस प्रकार अपने अपने वर्ण के सदृश रङ्गवाली भूमि सुखकारक होती है।।५।।
रमभूमि दुकरवित्थरि दुरेह चक्कस्स मज्झि रविसंवं।
मंतछायगब्भे जमुत्तरा अद्धि—उदयत्थं।।६।।
समतल भूमि पर दो हाथ के विस्तार वाला एक गोल चक्र करना और इस गोल के मध्य केन्द्र में बारह अंगुल का एक शंकु स्थापन करना। पीछे सूर्य के उदयाद्र्ध में देखना, जहाँ शंकु की छाया का अत्य भाग गोल की परिधि में लगे वहाँ एक चिह्न करना, इसको पश्चिम दिशा समझना। पीछे सूर्य के अस्त समय देखना, जहाँ शंकु की छाया का अंत्य भाग गोल की परिधि में लगे वहाँ दूसरा चिह्न करना, इसको पूर्व दिशा समझना। पीछे पूर्व और पश्चिम दिशा तक एक सरल रेखा खींचना। इस रेखा तुल्य व्यासाद्र्ध मानकर एक पूर्व िबदु से और दूसरा पश्चिम िंबदु से ऐसे दो गोल खींचने से पूर्व पश्चिम रेखा पर एक मत्स्याकृति (मछली की आकृति) जैसा गोल बनेगा। इसके मध्य बिन्दु से एक सीधी रेखा खींची जाय जो गोल के संपात के मध्य भाग में लगे, जहाँ ऊपर के भाग में स्पर्श करे यह उत्तर दिशा और जहाँ नीचे भाग में स्पर्श करे यह दक्षिण दिशा समझना।।६।। जैसे—‘इ उ ए’ गोल का मध्य बिन्दु ‘अ’ है, इस पर बारह अंगुल का शंकु स्थापन करके सूर्योदय के समय देखा तो शंकु की छाया गोल में ‘श’ बिन्दु के पास प्रवेश करती हुई मालूम पड़ती है, तो यह ‘क’ बिन्दु पश्चिम दिशा समझता और यही छाया मध्याह्न के बाद ‘च’ बिन्दु के पास गोल से बाहर निकलती मालूम होती हे, तो यह ‘च’ बिन्दु पूर्व दिशा समझना।
पीछे ‘क’ बिन्दु से ‘च’ बिन्दु तक एक सरल रेखा खींचना, यही पूर्वापर रेखा होती है। यही पूर्वापर रेखा से बराबर व्यासाद्र्ध मान कर एक ‘क’ बिन्दु से ‘च छ ज’ और दूसरा ‘च’ बिन्दु से ‘क ख ग’ गोल किया जाय तो मध्य में मछली के आकार का गोल बन जाता है। अब मध्य बिन्दु ‘अ’ से ऐसी एक लम्बी सरल रेखा खींची जाय, जो मछली के आकार वाले गोल के मध्य में होकर दोनों गोल के स्पर्श बिन्दु से बाहर निकले, यही उत्तर दक्षिण रेखा समझना। मानलो शंकु की छाया तिरछी ‘इ’ बिन्दु के पास गोल में प्रवेश करती है, तो ‘इ’ पश्चिम बिन्दु और ‘उ’ बिन्दु के पास बाहर निकलती है, तो ‘उ’ पूर्व बिन्दु समझना। पीछे ‘इ’ बिन्दु से ‘उ’ बिन्दु तक सरल रेखा खींची जाय तो यह पूर्वापर रेखा होती है। पीछे पूर्ववत् ‘अ’ मध्य बिन्दु से उत्तर दक्षिण रेखा खींचना।
समभूमीति ट्ठीए वट्टंति अट्ठकोण कक्कडए।
वूण दुदिसि त्तरंगुल मज्झि तिरिय हत्थुचउर्रसे।।७।।
एक हाथ प्रमाण समतल भूमि पर आठ कोनों वाला त्रिज्या युक्त ऐसा एक गोल बनाओ कि कोने के दोनों तरफ सत्रह २ अंगुल के भुजा वाला एक तिरछा समचोरस हो जाय।।७।। यदि एक हाथ के विस्तार वाले गोल में अष्टमांश बनाया जाय तो प्रत्येक भुजा का माप नव अंगुल होगा और चतुर्भुज बनाया जाय तो प्रत्येक भुजा का माप सत्रह अंगुल होगा।
चउरंसि क्कि क्कि दिसे बारस भागाउ भाग पण मज्झे।
कुणेिह सड्ढ तिय तिय इय जायइ सुद्ध अट्ठंसं।।८।।
सम चौरस भूमि की प्रत्येक दिशा में बारह २ भाग करना, इनमें से पाँच भाग मध्य में और साढ़े तीन २ भाग कोने में रखने से शुद्ध अष्टमांश होता है।।८।। इस प्रकार का अष्टमांश मंदिरों के और राजमहलों के मंडपों में विशेष करके किया जाता है।
दिणतिग बीयप्पसवा चउरंसाऽवम्मिणी अपुट्टा य।
अक्कल्लर भू सुहया पुव्वेसाणुत्तरंबुवहा।।९।।
वम्मइणी वाहिकरी ऊसर भूमीइ हवइ रोरकरी।
अइपुट्टा मिच्चुकरी दुक्खकरी तह य ससल्ला।।१०।।
जो भूमि बोये हुए बीजों को तीन दिन में उगाने वाली, सम चौरस, दीमक रहित, बिना फटी हुई, शल्य रहित और जिसमें पानी का प्रवाह पूर्व ईशान अथवा उत्तर तरफ जाता हो अर्थात् पूर्व ईशान या उत्तर तरफ नीची हो ऐसी भूमि सुख देने वाली है।।९।। दीपक वाली व्याधि कारक हैं, खारी भूमि निर्धन कारक है, बहुत फटी हुई भूमि मृत्यु करने वाली और शल्य वाली भूमि दु:ख करने वाली है।।१०।।
‘‘धर्मागमे हिमस्पर्शा या स्यादुष्णा हिमागमे।
प्रावृष्युष्णा हिमस्पर्शा सा प्रशस्ता वसुन्धरा।।’’
ग्रीष्म ऋतु ठंढी, ठंढी ऋतु में गरम और चौमासे में गरम और ठंढी जो भूमि रहती हो वह प्रशसंनीय है।
‘‘शस्तौषधिद्रु मलता मधुरा सुगंधा,
स्निग्धा समा न सुषिरा च मही नराणाम्।
अप्यध्वनि श्रमविनोदमुपागतानां,
धत्ते श्रियं किमुत शास्वतमन्दिरेषु।।’’
जो भूमि अनेक प्रकार के प्रशंसनीय औषधि वृक्ष और लताओं से सुशोभित हो तथा मधुर स्वाद वाली, अच्छी सुगन्ध वाली, चिकनी, बिना खड्डे वाली हो ऐसी भूमि मार्ग में परिश्रम को शांत करने वाले मनुष्यों को आनन्द देती है ऐसी भूमि पर अच्छा मकान बनवाकर क्यों न रहे।
‘‘मनसश्चक्षुषोर्यत्र सन्तोषो जायते भूवि।
तस्यां कार्यं गृहं सर्वै—रति गर्गादिसम्मतम्।।’’
जिस भूमि के पर मन और आंख का सन्तोष हो अर्थात् जिस भूमि को देखने से उत्साह बड़े उस भूमि पर घर करना ऐसा गर्ग आदि ऋषियों का मत है।
बकचतएहसपज्जा इअ नव वण्णा कमेण लिहियव्वा।।
पुव्वाइदिसासु तहा भूमिं काऊण नव भाए।।१।।
अहिमंतिऊण खडियं विहिपुव्वं कन्नाया करे दाओ।
आणाविज्जइ पण्हं पण्हा इस अक्खरे सल्लं।।१२।।
जिस भूमि पर मकान आदि बनवाना हो, उसी भूमि में समान नव भाग करें। नव भागों में पूर्वादि आठ दिशा और एक मध्य में ‘ब क च त ए ह स प और ज (य) ऐसे नव अक्षर क्रम में लिखें।।११।। पीछे ऊँ ह्रीं श्रीं ऐं नमो वाग्वादिनिी मम प्रश्ने अवतर २, इसी मंत्र से खड़ी (सपेद मट्टी) मंत्र करके कन्या के हाथ में देकर कोई प्रश्नाक्षर लिखवाना या बोलवाना। जो ऊपर कहे हुए नव अक्षरों में कोई एक अक्षर लिखे या बोले तो उसी अक्षर वाले भाग में शल्य है ऐसा समझना। यदि उपरोक्त नव अक्षरों में से कोई अक्षर प्रश्न में न आवे तो शल्य रहित भूमि जानना।।१२।।
बप्पण्हे नरसल्लं सड्ढकरे मिच्चुकारगं पुव्वे।
कप्पण्हे खरसल्लं अग्गीए दुकरि निवदंडं।।१३।।
यदि प्रश्नाक्षर ‘ब’ आवे तो पूर्व दिशा में घर की भूमि में डेढ़ हाथ नीचे नर शल्य अर्थात् मनुष्य के हाड़ आदि है, यह घर धणी को करण कारक है। प्रश्नाक्षर में ‘क’ आवे तो अग्नि कोण में भूमि के भीतर दो हाथ नीचे गधे की हड्डी आदि हैं, यह घर की भूमि में रह जाय तो राज दंड होता है अर्थात् राजा के भय रहे।।१३।।
जामे चप्पण्हेणं नरसल्लं कडितलम्मि मिच्चुकरं।
तप्पण्हे निरईए सड्ढकरे साणुसल्लु सिसुहाणी।।१४।।
जो प्रश्नाक्षर में ‘च’ आवे तो दक्षिण दिशा में गृह भूमि में कटी बराबर नीचे मनुष्य का शल्य है, यह गृहस्वामी को मृत्तु कारक है। प्रश्नाक्षर में ‘त’ आवे तो नैर्ऋत्य कोण में भूमि में डेढ़ हाथ नीचे कुत्ते का शल्य है यह बालक को हानि कारक है अर्थात् गृहस्वामी को सन्तान का सुख न रहे।।१४।।
पच्छिमदिसि एपण्हे सिसुसल्लं करदुगम्मि परएसं।
वायवि हपण्हि चउकरि अंगारा मित्तनासयरा।।१५।।
प्रश्नाक्षर में यदि ‘ए’ आवे तो पश्चिम दिशा में भूमि में दो हाथ के नीचे बालक का शल्य जानना, इसी से गृहस्वामी परदेश रहे अर्थात् इसी घर में निवास नहीं कर सकता। प्रश्नाक्षर में ‘ह’ आवे तो वायव्य कोण में भूमि में चार हाथ नीचे अङ्गारे (कोयले) हैं, यह मित्र (सम्बन्धी) मनुष्य को नाश कारक है।।१६।।
उत्तरदिसि सप्पण्हे दियवरसल्लं कडिम्मि रोरकरं।
पप्पण्हे गोसल्लं सड्ढकरे धणविणासमीसाणे।।१६।।
प्रश्नाक्षर में यदि ‘स’ आवे तो उत्तर दिशा में भूमि के भीतर कमर बराकर नीचे ब्रह्मण का शल्य जानना, यह रह जाय तो गृहस्वामी को दरिद्र करता है। यदि प्रश्नाक्षर में ‘प’ आवे तो ईशान कोण में डेढ़ हाथ नीचे गौ का शल्य जानना, यह गृहपति के धन का नाश कारक है।।१६।।
जप्पण्हे मज्झगिहे अइच्छार—कवाल—केस बहुसल्ला।
वच्छच्छलप्पमाणा पाएएा य हुंति मिच्चुकरा।।१७।।
प्रश्नाक्षर में यदि ‘ज’ आवे तो भूमि के मध्य भाग में छाती बराकर नीचे अतिक्षार, कपाल, केश आदि बहुत शल्य जानना ये घर के मालिक को मृत्युकारक है।।१७।।
इअ एवमाइ अन्निवि जे पुव्वगयाइं हुंति सल्लाइं।
ते सव्ववेविय य सोहिवि वच्छबले कीरए गेहं।।१८।।
इस प्रकार जो पहले शल्य कहे हैं वे और दूसरे जो कोई शल्य देखने में आवे उन सबको निकाल कर भूमि को शुद्ध करें, पीछे वत्स बल देखकर मकान बनावावे।।१८।।
‘‘जलान्तं प्रस्तरान्तं वा पुरुषान्तमथापि वा।
क्षेत्रं संशोध्य चोद्धृत्य शल्यं सदनमारभेत्।।’’
जल तक या पत्थर तक या एक पुरुष प्रमाण खोदकर, शल्य को निकाल कर भूमि को शुद्ध करें, पीछे उस भूमि पर घर बनाना आरम्भ करें।