नमस्तेऽजितनाथाय, कर्मशत्रुजयाय ते।
अजेयशक्तिलाभार्थ—मजिताय नमो नम:।।१।।
(श्रीमत्समन्तभद्राचार्य—विरचित)
—उपजाति छंद—
यस्य प्रभावात्त्रिदिव-च्युतस्य क्रीडास्वपि क्षीव-मुखारविन्दः।
अजेयशक्ति -र्भुवि बन्धुवर्ग: चकार नामाजित इत्यवन्ध्यम्।।१।।
अद्यापि य स्या – जितशासनस्य, सतां प्रणेतुः प्रतिमंगलार्थम् ।
प्रगृह्यते नाम परं पवित्रं, स्वसिद्धि – कामेन जनेन लोके।।२।।
यः प्रादु-रासीत्-प्रभुशक्ति-भूम्ना, भव्याशया-लीन-कलंकशान्त्यै।
महामुनि-र्मुक्तघनोपदेहो, यथा-रविन्दा, भ्युदयाय भास्वान्।।३।।
येन प्रणीतं पृथुधर्म- तीर्थं, ज्येष्ठं जना: प्राप्य जयन्ति दुःखम्।
गांगं हृदं चन्दन – पंकशीतं गज- प्रवेका इव घर्म – तप्ता:।।४।।
स ब्रह्मनिष्ठ:-सममित्रशत्रु- र्विद्याविनि- र्वान्त- कषायदोषः।
लब्धात्म-लक्ष्मी-रजितो-ऽजितात्मा जिनः श्रियं मे भगवान् विधत्ताम् ।।५।।
—शेर छंद—
प्रभु स्वर्ग से अवतीर्ण हुए तुम प्रभाव से।
सब बन्धुओं के मुखकमल खिलते हैं हर्ष से।।
सब खेल में भी वे अजेयशक्ति हों यहाँ।
इस हेतु ‘‘अजित’’ नाम ये सार्थक प्रभो कहा।।१।।
सत्पुरुष के नायक अजय्य शासनं कहा।
तुम नाम भी परम पवित्र आज भी यहाँ।।
स्वसिद्धि के इच्छुक मनुष्य नाम को जपते।
प्रत्येक मंगलार्थ ‘‘अजित’’ नाथ को नमते।।२।।
प्रभुत्व महाशक्ति से प्रभु आप उदित हों।
भव्यों के हृदय के कलंक शांति हेतु हो।।
सब कर्म सघन लेपरहित महामुनि हो।
जैसे कमल विकसित करे भास्कर उदय अहो।।३।।
तुमने विशाल श्रेष्ठ धर्म तीर्थ प्रकाशा।
जीवों ने इसे प्राप्त करके दुःख को जीता।।
गजराज जैसे धूप से पीड़ित हुए आके।
चन्दन समान शीत गंगनीर में न्हाते।।४।।
स्वब्रह्म में निलीन मित्र-शत्रु में समता।
सज्ज्ञानचरित्र में कषाय दोष को हता।।
स्वात्मा की लक्ष्मी प्राप्त जितेन्द्रिय अजित अहो!।
भगवन् ! मुझे अर्हंतलक्ष्मी दीजिए प्रभो!।।५।।
।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।