श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भर्त्रे , नम: संसारभीमुषे।।१।।
जो अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरंग और अष्टप्रातिहार्यरूप बहिरंग लक्ष्मी से सहित हैं, जिन्होंने समस्त पदार्थों को जानने वाले केवलज्ञानरूपी साम्राज्य का पद प्राप्त कर लिया है, जो धर्मचक्र के धारक हैं, लोकत्रय के अधिपति हैं और पंच परावर्तनरूप संसार का भय नष्ट करने वाले हैं, ऐसे श्री अर्हन्तदेव को हमारा नमस्कार है।।१।। जो सभारूपी सरोवर में बैठे हुए भव्यजीवों के मुखरूपी कमलों को प्रकाशित करने के लिए सूर्य के समान थे, जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करने वाले समीचीन धर्म का उपदेश दिया था और जिनसे अपने वंश का माहात्म्य सुनकर वल्कलों को पहिने हुए भरतपुत्र मरीचि ने लीलापूर्वक नृत्य किया, ऐसे उन नाभिराजा के पुत्र वृषभचिन्ह से सहित आदिदेव (प्रथम तीर्थंकर) भगवान् वृषभदेव को मैं नमस्कार कर एकाग्रचित्त से बार-बार उनकी स्तुति करता हूँ। इनके पश्चात् जो धर्मसाम्राज्य के अधिपति हैं, ऐसे अजितनाथ को आदि लेकर महावीरपर्यन्त तेईस तीर्थंकरों को भी नमस्कार करता हूँ। इसके बाद, केवलज्ञानरूपी साम्राज्य के युवराज पद में स्थित रहने वाले तथा सम्यग्ज्ञानरूपी कण्ठाभरण को प्राप्त हुए गणधरों की मैं बार-बार स्तुति करता हूँ। हे भव्यपुरुषों ! जो द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आदि और अन्त से रहित है, उन्नत है, अनेक फलों को देने वाला है और विस्तृत तथा सघन छाया से युक्त है, ऐसे श्रुतस्कंधरूपी वृक्ष की उपासना करो।