श्रेयस्करो जगत्यस्मिन्, भो श्रेयन् ! ते नमो नम:।
अन्वर्थनामधृत् देव! श्रेयो मे कुरुतात् सदा।।१।।
रूपं ते निरुपाधिसुन्दरमिदं पश्यन्सहस्रेक्षणः।
प्रेक्षाकौतुककारिकोऽत्र भगवन्नोपैत्यवस्थान्तरम्।।
वाणीं गदगद्यन्वपुः पुलकयन्नेत्रद्वयं स्रावयन्।
मूर्द्धानं नमयन्करौ मुकुलयंश्चेतोऽपि निर्वापयन्।।२।।
त्रिलोकराजेन्द्रकिरीटकोटि-प्रभाभिरालीढपदारविन्दम्।
निर्मूलमुन्मूलितकर्मवृक्षम् जिनेंद्रचंद्रं प्रणमामि भक्त्या।।३।।
(पद्यानुवाद)
सुन्दररूप उपाधि रहित तव, देख इंद्र भी अति हर्षित।
नेत्र हजार किये दर्शक, कौतुक कर भगवन् ! भक्तीवश।।
गद्गद वाणी पुलकित तनु, नेत्रों से आनंदाश्रु झरें।
मस्तक झुका हाथ युग जोड़ें, मन भी तुष्टी हर्ष धरे।।२।।
तीनलोक राजेन्द्र मुकुट, तटमणि की आभा से चुंबित।
जिनके चरण सरोरुह उत्तम, कांतिमान् चमके संतत।।
जिनने है जड़मूल उखाड़ा, कर्मवृक्ष ऐसे प्रभु जो।
जिनवर चन्द्र तुम्हें मैं प्रणमूं, भक्ति भाव से शिरनत हो।।३।।
श्री श्रेयांसजिन स्तोत्र
—शंभु छंद—
श्रेयस्कर चिच्चैतन्यात्मा, से प्रकटित अमृत को पीकर।
जो प्रभु श्रेयांस हुए जग में, वे मुझको भी हों श्रेयस्कर।।
श्रेयो अर्थी जो भविजन हैं तव चरण सरोरुह में नमते।
मैं भी श्रद्धा से नमूं सदा, नमते ही विघ्न कर्म भगते।।१।।
है सहपुरी सुरनर पूजित, नृप विष्णुमित्र भगवंत पिता।
नंदा जननी आनंदकरणी, सब नारी को मंगल दाता।।
छठ ज्येष्ठ वदी में गर्भ बसे, फाल्गुन वदि ग्यारस में जन्मे।
फाल्गुन वदि ग्यारस में प्रभु को, था वरण किया तप लक्ष्मी ने।।२।।
शुभ माघ अमावस में ज्ञानी, श्रावण पूर्णा को यम जीता।
तब सिद्धि कन्या ने आकर, प्रभु को लोकांत तरफ खींचा।।
पहले प्रभु ने प्रज्ञा असि से, नृप मोह का मस्तक काट लिया।
फिर ध्यान चक्र से मृत्यु को, मारा त्रिभुवन का राज्य लिया।।३।।
तनु तुंग तीन सौ बीस हाथ, आयु चौरासी लाख वर्ष।
तपनीय स्वर्णसम देह नाथ!, गेंडा लांछन से आप सहित।।
निज पर का भेद ज्ञान मेरा, दृढ़ हो ऐसी शक्ति दीजे।।
मैं स्वात्मसुधारस आनंद में, रम जाऊँ ऐसी मति दीजे।।४।।
अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजिंल क्षिपेत् ।