-अनुष्टुप् छंद-
शीतलेश! नमस्तुभ्यं, वचस्ते सर्वतापहृत्।
श्रीमत् शीतलनाथाय, शीतीभूताय देहिनाम्।।१।।
-इंद्रवङ्काा छंद-
संसारदावाग्निषु दग्धजीवा:, शीतीभवन्त्याश्रयतस्तवैव।
श्रीशीतलेशो भुवनत्रयेश:, शीतं मनो मे कुरु वाक्सुधाभि:।।२।।
श्री शीतलजिनस्तवनम्—
न शीतलाश्चन्दन— चन्द्र रश्मयो।
न गाङ्गमम्भो न च हार—यष्टय:।
यथा मुनेस्तेऽनघ वाक्य—रश्मय:।
शमाऽम्बु—गर्भा: शिशिरा विपश्चितां।।३।।
सुखाऽभिलाषाऽनल—दाह—मूर्च्छितं।
मनो निजं ज्ञानमयाऽमृताम्बुभि:।
व्यदिध्यपस्त्वं विष—दाह—मोहितं—
यथा भिषग्—मन्त्र—गुणै: स्व—विग्रहम्।।४।।
त्वमुत्तम—ज्योतिरज: क्व निर्वृत:
क्व ते परे बुद्धि — लवोद्धव—क्षता:।
तत: स्व नि:श्रेयस—भावना—परै—
र्बुधप्रवेवैर्जिन! शीतलेऽड्यसे१।।५।।
श्री शीतलजिन स्तोत्र
यदि किसी तरह से हे शीतल! शशि किरण सदृश तव वचन मिले।
भव आतप से झुलसे प्राणी, के तत्क्षण ही मन कुमुद खिले।।
फव्वारागृह अमृतवाणी, मलयाचल चंदन भी फिर क्या ?
त्रिभुवन दुख दाव शांत करते, शीतल तव वचन अहो फिर क्या?।।१।।
वह भद्रपुरी प्रभु जन्म लिया, जग भद्रकरी सुर पूज्य हुई।
दृढ़रथ नरनाथ सुनंदा भी, सुरवंद्य प्रजा भी धन्य हुई।।
वदि चैत्र अष्टमी गर्भ बसे, वदि बारस माघ सुजन्मे थे।
शुभ माघ वदी बारस के प्रभु, दीक्षा ले वन—वन घूमे थे।।२।।
वदि पौष चतुर्दशि केवल रवि, किरणों ने जगत प्रकाश किया।
आश्विन सित अष्टमि के प्रभु ने, वर मुक्ति नगर का राज्य लिया।।
सम्मेदशिखर है पूज्य धाम, शीतल प्रभु शीतल कृत जग में।
सबसे शीतल है स्वात्मधाम, उसमें ही आप विराज रहे।।३।।
इक्ष्वाकु वंश कनकाभतनु, श्रीवृक्ष चिन्ह से जाने सब।
तनु तुंग तीन सौ साठ हाथ, आयु इक लक्ष वर्ष पूरब।।
शीतल प्रभु तुमको नमूं सदा, मेरे मन को शीतल करिए।
भव—भव में भक्ति रहे तुझमें, बस मुझ पर कृपा दृष्टि धरिये।।४।।
।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।