जिनवर! स्वयमेव स्वयं द्वारा, निज में निज हेतू ही निज को।
उत्पन्न किया अतएव ‘स्वयंभू’ कहलाये वंदूं तुमको।।
प्रभु तुम माहात्म्य अचिन्त्य कहा, अतएव कोटि कोटि वंदन।
त्रिभुवन के स्वामी शत इन्द्रों, से वंद्य अत: तव अभिनन्दन।।१।।
प्रभु तुम अनन्त संसार नष्ट, करके ‘अनंतजित’ कहलाये।
मृत्यु को जीता ‘मृत्युंजय’ हो गये यही गणधर गायें।।
प्रभु जन्म जरा अरु मरण हना, इसलिये आप ‘त्रिपुरारी’ हो।
त्रिभुवन को त्रयकालिक जाना, अतएव ‘त्रिनेत्र’ तुम्हीं हो।।२।।
अठ कर्मों में चउ घाति अरी, निंह अत: ‘अर्धनारीश्वर’ हो।
शिवपद पाया ‘शिव’ बने पाप, हर के ‘हर’ महादेव भी हो।।
जग में शांति कर ‘शंकर’ हो, जग श्रेष्ठ अत: तुम ‘वृषभ’ कहे।
उत्तम गुणधारी होने से, ‘पुरुदेव’ तुम्हीं यह मुनि कहें।।३।।
स्वर्गावतार के होने से, प्रभु ‘सद्योजात’ नमन तुमको।
जन्माभिषेक में अति सुन्दर, हो ‘वामदेव’ वंदन तुमको।।
दीक्षा ले ‘परम शान्त’ माने, केवलज्ञानी ‘ईशान’ बने।
शिवगामी भगवन्! नमूँ तुम्हें, मेरे सब वांछित कार्य बने।।४।।
प्रभु ज्ञानावरण विनाश किया, अतएव ‘अनंतचक्षु’ तुम हो।
दर्शन आवरण विनाश किया, अतएव ‘विश्वदृश्वा’ जिन हो।।
प्रभु दर्शन मोह नाश क्षायिक-दृष्टि हो तुमको शत वन्दन।
चारित्रमोह हन ‘वीतराग’, बन गये कोटि-कोटि वन्दन।।५।।
प्रभु अंतराय नाशा अनंत, शक्ति अनंत सुख प्राप्त किया।
संपूर्ण अनंतों जीवों को, दे अभयदान ‘प्रभु’ नाम लिया।।
नव केवललब्धि के स्वामी, अर्हंत परमपद के धारी।
मैं नमूँ अनंतों बार तुम्हें, हे नाथ! तुम्हीं भव भय हारी।।६।।
हे नाथ! मोक्षगति पाने से, बस आप ‘सुगत’ कहलाते हो।
इन्द्रिय मन रहित अतीन्द्रिय हो, ज्ञानी अनन्त कहलाते हो।।
प्रभु अनाहार फिर भी ‘परिपूर्ण’, तृप्त माने हो इस जग में।
अतएव सभी गणधर मुनिगण, तुम पादपद्म को नित प्रणमें।।७।।
प्रभु समवसरण में द्वादश गण, बैठे क्रम से ध्वनि सुनें सभी।
पहले में गणधर गण मुनिगण, दूजे में कल्पवासि देवी।।
तीजे में आर्यिका श्राविकायें, चौथे में भवनवासि देवी।
पंचम में व्यंतरनी, छट्ठे में बैठी ज्योतिष्की देवी।।८।।
सप्तम में भावनसुर, अष्टम में व्यंतर, नवमें में ज्योतिष सुर।
दशवें में कल्पवासि सुर हैं, ग्यारहवें चक्री श्रावक नर।।
बारहवें में पशुगण बैठे, सब बाधा रहित बैठते हैं।
संख्यात मनुज तिर्यंच, असंख्याते सुरवृंद तिष्ठते हैं।।९।।
सब निज निज भाषा में प्रभु की, ध्वनि सुनते सम्यग्दृष्टि हैं।
अठरा महभाषा सात शतक, लघु भाषा में ध्वनि खिरती है।।
जब सहस्राक्ष ही स्वयं सहस्रों, नामों से संस्तुति करता।
तव नाम मंत्र ये अतिशायी, इन जपते ही भव भय नशता।।१०।।
मैं सहस्रनाम विधान रचूँ, ये मंत्र सहस्रों पाप हरें।
वांछा सहस्र भी पूर्ण करें, अरु विघ्न हजारों चूर करें।।
इस विधि मंगलकारी विधान, सम्पूर्ण अमंगल दूर करें।
मैं पुष्पांजलि कर आरंभू, शुभ क्षेम परम आनन्द भरे।।११।।
अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजिंल क्षिपेत्।