अरहंत देव को नमूँ जो सौख्य प्रदाता,
सिद्धों को नमूँ जो हैं भवि को सिद्धिप्रदाता।
आचार्य, उपाध्याय, साधु परम पूज्य हैं,
इनकी करूँ मैं वन्दना दें सर्व सौख्य है।।१।।
श्री ऋषभदेव वीर जिन हैं चतुर्विंशती,
प्रणमूँ मैं भक्तिभाव से उन चरण में नती।
गौतम गणीश आदि गणधरों को नित नमूँ,
उन क्रम परम्परा में अखिल साधु को प्रणमूँ।।२।।
उनमें ही वादिराज सूरि जग में ख्यात हैं,
स्तोत्र रचा एकीभाव जो विख्यात है।
अतिशायि चमत्कार से परिपूर्ण यह कृती,
तन का मिटा था कुष्ट, हुई काया स्वर्ण सी।।३।।
चारित्र चक्रवर्ति शांतिसिंधुवर्य को,
वंदूँ मैं वीरसिन्धु प्रथम पट्टशिष्य को।
उनकी ही शिष्या ज्ञानमती मात को नमूँ,
पथ मुक्तिमार्ग का दिखाया कोटिश: प्रणमूँ।।४।।
उनके पदारविंद में जीवन है समर्पण,
उनकी ही प्रेरणा उन्हें ये कृती है अर्पण।
मैंने ये एकीभाव का विधान बनाया,
तीर्थंकरों की भक्ति में गुणगान है गाया।।५।।
अतिशायि यह विधान रोग, शोक दुख हरे,
हों पूर्ण मनोरथ भविक शिवांगना वरें।।
जिनदेव को मैं बार-बार भक्ति से नमूँ।
पूजन करूँ प्रारंभ मैं पुष्पांजली करूँ।।६।।
।।अथ विधियज्ञप्रतिज्ञापनाय मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।