अनादिनिधन णमोकार महामंत्र
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।
नमोऽस्तु धर्मनाथाय, धर्मतीर्थकराय ते।
धर्मचक्रेश! मे नित्यं, धर्म्यध्यानं विधीयताम्।।१।।
नमो जिनाय त्रिदशार्चिताय, विनष्टदोषाय गुणार्णवाय।
विमुक्तिमार्गप्रतिबोधनाय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय।।२।।
जितमदहर्षद्वेषा, जितमोहपरीषहा जितकषाया:।
जितजन्ममरणरोगा, जितमात्सर्या जयन्तु जिना:।।३।।
जय जय जय त्रैलोक्यकाण्डशोभिशिखामणे।
नुद नुद नुद स्वान्तध्वान्तं जगत्कमलार्क! न:।।
नय नय नय स्वामिन्! शांतिं नितान्तमनन्तिमां।
नहि नहि नहि त्राता लोकैकमित्र! भवत्पर:।।४।।
नमूँ सुरों से अर्चित जिनवर, दोषरहित गुणसिंधु तुम्हें।
हे देवाधिदेव जिन शिवपथ, प्रतिबोधक मैं नमूँ तुम्हें।।५।।
मद अरु हर्ष द्वेष के विजयी, मोह परीषह के विजयी।
महा कषाय भटों के विजयी, भव कारण के अतःजयी।।
जन्म-मरण रोगों को जीता, मात्सर्यादिक दोषजयी।
सबको जीत कहाए तुम ‘जिन’, अत: रहो जयशील सही।।६।।
जय जय जय त्रैलोक्यकाण्ड के शोभित चूड़ामणि जिनवर।
मन के तम को हरो हरो, मम हरो जगत पंकज भास्कर।।
स्वामिन् ! शक्ति अनन्ती मुझको, करो करो झट करो सदा।
नहिं नहिं नहिं लोकैकमित्र प्रभु, तुम सम अन्य कोई सुखदा।।७।।
हे धर्मधुरन्धर धर्मनाथ! धर्मामृतदायी मेघ तुम्हीं।
रत्नों की वर्षा होने से, वह रत्नपुरी थी रत्नमयी।।
यह सुतवन्ती सुप्रभावती, पितु भानुराज महिमाशाली।
वैसाख सुदी तेरस के दिन, गर्भागम उत्सव था भारी।।१।।
तिथि माघ सुदी तेरस शुभ थी, इन्द्रों ने जन्म न्हवन कीना।
उस ही तिथि में प्रभु दीक्षा ली, निज पर को पृथक्-पृथक् कीना।।
पौषी पूर्णा को ज्ञान पूर्ण, हो गया उजाला त्रिभुवन में।
शुभ ज्येष्ठ सुदी चौथी के प्रभु, शिवपद को प्राप्त किया क्षण में।।२।।
इक सौ अस्सी कर देह प्रभु! दस लाख वर्ष तिथि कनक कांति।
है वज्र चिह्न प्रभु कर्म शैल, को चूर किया तुम वज्र भांति।।
हे धर्मतीर्थ के तीर्थंकर ! तुमने यम को चकचूर किया।
मैंने भी शरणा ले तेरी, अगणित दु:खों को दूर किया।।३।।
मैं मिथ्या अविरति क्रोध—मान, माया लोभों से भिन्न सही।
ये सब औपाधिक भाव कहे, मेरा स्वभाव है ज्ञानमयी।।
मैं तुमको वंदन कर करके, बस तुम जैसा ही बन जाऊँ।
प्रभु ऐसा ही वर दो मुझको, मैं स्वयं स्वयंभू बन जाऊँ।।४।।