-शेर छंद-
कृतयुग के प्रथम देव, आदिनाथ को नमूँ।
प्रभु वीर तक चौबीस-जिनेश्वर को भी प्रणमूँ।।
माँ भारती को ज्ञानप्राप्ति हेतु मैं नमूँ।
फिर तीन लोक के समस्त सूरिवर नमूँ।।१।।
आचार्य श्री धरसेन जी जग में प्रसिद्ध थे।
श्री पुष्पदन्त-भूतबलि उनके शिष्य थे।।
गुरु की कृपा से जो हुए श्रुतज्ञान के ज्ञाता।
षट्खण्डजिनागम स्वरूप श्रुत के प्रदाता।।२।।
उस ही अती प्राचीन, पूज्य-पवित्र ग्रंथ पे।
टीका रची संस्कृत में, ज्ञानमती मात ने।।
‘सिद्धान्तचिंतामणि’ नाम, टीका का रखा।
हिन्दी में अनूवादकार्य, मैंने भी किया।।३।।
उनमें से ही अठहत्तर, मंत्रों को चुन लिया।
माँ ज्ञानमती ने हमें, प्रदान कर दिया।।
उन मंत्रों को आधार बना करके बंधुओं!
मैंने रचा विधान यह, तुम सब इसे करो।।४।।
इसके प्रभाव से तुम्हारा, ज्ञान बढ़ेगा।
क्रम-क्रम से वही ज्ञान, केवलज्ञान बनेगा।।
वैवल्यज्ञान तो अमूल्य, सम्पदा मानी।
पुरुषार्थ सारे इसके लिए, करता है प्राणी।।५।।
षट्खण्ड जिनागम का एक, व्रत भी बताया।
आगम के गूढ़ रहस्य से, परिचित है कराया।।
इस व्रत को भक्ति-श्रद्धा से, जो भी करेंगे।
वे शीघ्र ही कैवल्यरमा-पति बनेंगे।।६।।
हमने नहीं देखे थे, वे धरसेनसूरि जी।
नहिं देखे हमने पुष्पदंत-भूतबली भी।।
पर वर्तमान में हमारा, भाग्य खिल गया।
श्री ज्ञानमती माताजी का, दर्श मिल गया।।७।।
जिनकी पवित्र-प्रासुक व शुद्ध लेखनी।
सिद्धान्तचिन्तामणि टीका, जिससे है लिखी।।
अरु ढाई शतक ग्रन्थ भी, लिखे हैं मात ने।
उनके चरण-कमल में नमूँ, भक्ति-भाव से।।८।।
शंभु छंद-
ॐकारमयी दिव्यध्वनि से, प्रभु वीर ने जग उपकार किया।
गौतमगणधर ने द्वादशांग में, गूँथ उसे साकार किया।।
फिर परम्पराचार्यों द्वारा, शास्त्रों में लिखकर प्राप्त हुआ।
उस द्वादशांग को नमन करूँ, जिससे ज्ञानामृत प्राप्त हुआ।।९।।
अथ षट्खण्डागम पूजा विधान प्रतिज्ञापनाय मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।