-उपजाति छंद-
कल्याणकल्पद्रुमसारभूतं, चिंतामणि चतितदानदक्षम्।
श्री पार्श्वनाथस्य सुपादपद्मं, नमामि भक्त्या परया मुदा च।।१।।
श्री पार्श्वनाथस्य नमोऽस्तु तुभ्यं।
दु:खार्तिनाशाय नमोऽस्तु तुभ्यं।।
अभीप्सितार्थाय नमोऽस्तु तुभ्यं।
त्रैलोक्यनाथाय नमोऽस्तु तुभ्यं।।२।।
-उपेंद्रवङ्काा छंद-
भवे भवे दैत्यकृतोपसर्गं, सोढ्वा क्षमावान् जिनराजराज:।
महामना: पार्श्वजिन: स्तुवे त्वां, सर्वंसहा मे कुरु नाथ! शक्तिम्।।३।।
-शंभु छंद-
भवसंकट हर्ता पार्श्वनाथ! विघ्नों के संहारक तुम हो।
हे महामना हे क्षमाशील! मुझमें भी पूर्ण क्षमा भर दो।।
यद्यपि मैंने शिव पथ पाया, पर यह विघ्नों से भरा हुआ।
इन विघ्नों को अब दूर करो, सब सिद्धि लहूँ निर्विघ्नतया।।१।।
वाराणसि नगरी धन्य हुई, धन धन्य हुए सब नर नारी।
हे अश्वसेन नंदन१! तुम से ब्राह्मी२ माँ भी मंगलकारी।।
वैशाख वदी वह दूज भली, माता उर आप पधारे थे।
श्री आदि देवियों ने आकर, माता से प्रश्न विचारे थे।।२।।
शुभ पौष वदी ग्यारस तिथि थी, जब आए प्रभु साक्षात् यहाँ।
शैशव में सुर संग खेल रहे, अहियुग३ को दीना मंत्र महा।।
तब नागयुगल धरणेन्द्र तथा, पद्मावती होकर भक्त बने।
शुभ पौष वदी ग्यारस के दिन, प्रभु दीक्षा ले मुनि श्रेष्ठ बने।।३।।
तत्क्षण मनपर्ययज्ञानी हो, सब ऋद्धी से परिपूर्ण हुए।
इक समय सघन वन के भीतर, प्रभु निश्चल ध्यानारूढ़ हुए।।
कमठासुर ने उपसर्ग किया, अग्नी ज्वाला को उगल—उगल।
पत्थर फेंके मूसलधारा, वर्षायी आंधी उछल—उछल।।४।।
निष्कारण ही कमठासुर ने, दश भव तक वैर निकाला था।
प्रभु को दुख दे देकर उसने, खुद को दुर्गति में डाला था।।
प्रभु महासहिष्णु क्षमा सिन्धु, भव—भव से सहते आये हैं।
तन से ममता को छोड़ दिया, निंह कचित् भी घबराये हैं।।५।।
प्रभु क्षपक श्रेणि में चढ़ करके, मोहनी कर्म का नाश किया।
उस ही क्षण धरणीपति पद्मावती, आ करके बहु भक्ति किया।।
प्रभु को मस्तक पर धारण कर, ऊपर से फण का छत्र किया।
प्रभुवर ने ही उस ही क्षण में, वैवल्यश्री को वरण किया।।६।।
पृथ्वी से बीस हजार हाथ, ऊपर पहुँचे अर्हंत बने।
इन्द्रों के आसन कांप उठे, प्रभु समवसरण गगनांगण में।।
वदि चैत्र चतुर्दश१ तिथि उत्तम, जब प्रभु में ज्ञान प्रकाश हुआ।
उस स्थल का उस ही क्षण से, ‘अहिच्छत्र’ तीर्थ यह नाम हुआ।।७।।
नव हाथ देह सौ वर्ष आयु, मरकतमणि सम आभाधारी।
अहि२ चिह्न सहित वे पार्श्वप्रभो! मुझको हों नित मंगलकारी।।
श्रावणसुदि सप्तमि तिथि के दिन, सिद्धीकांता से प्रीति लगी।
मैं नमूं तुम्हें पल—पल क्षण—क्षण, मेरी हो सर्वं सहा मती।।८।।
।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।