नय—प्रमाणै: सकलं सुतत्त्वं, प्रकाशयन् यो जगतामुदेति।
स: सर्वलोवैकविभास्वराख्यां, वन्दे सुमत्यै सुमिंत जिनं तम्।।१।।
श्रीसुमतिजिन स्तोत्र
(श्रीसमन्तभद्राचार्य—विरचितं)
अन्वर्थसंज्ञ: सुमति-र्मुनिस्त्वं, स्वयं मतं येन सुयुक्तिनीतम् ।
यतश्च शेषेषु मतेषु नास्ति, सर्वक्रिया-कारक-तत्त्वसिद्धि:।।१।।
अनेक-मेकं च तदेव तत्त्वं, भेदान्वय-ज्ञान-मिदं हि सत्यम् ।
मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे, तच्छेष-लोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम्।।२।।
सतः कथंचित्-तदसत्त्व-शक्तिः, खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम्।
सर्वस्वभाव-च्युत-मप्रमाणं, स्ववाग्-विरुद्धं तव दृष्टितोऽन्यत्।।३।।
न सर्वथा नित्य-मुदेत्यपैति, न च क्रियाकारक-मत्र युक्तम् ।
नैवासतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तमः पुद्गल-भावतोऽस्ति।।४।।
विधि-र्निषेधश्च कथंचिदिष्टौ, विवक्षया मुख्य-गुण-व्यवस्था।
इति प्रणीतिः सुमतेस्तवेयं, मति-प्रवेक:स्तुवतोऽस्तु नाथ।।५।।
पद्यानुवाद (गणिनी ज्ञानमती)
हे सुमतिनाथ! आपका सार्थक सुनाम है।
सुयुक्ति सहित आप मत स्वयं सुमान्य है।।
क्योंकि क्रिया व कारक जो तत्त्व कहे हैं।
सब शेष मतों में न उनकी सिद्धि हुई है।।१।।
अनेक और एकरूप वही तत्त्व है।
वह भेद तथा अन्वय ज्ञान से ही सत्य है।।
उपचार कथन मिथ्या एक का अभाव हो।
हो शेष का अभाव भी फिर तत्त्व अकथ हो।।२।।
सत् वस्तु में कथंचित् असत्त्वशक्ति है।
आकाश में कुसुम नहीं वृक्षों में दिखे हैं।।
यदि तत्त्व सब स्वभाव-शून्य अप्रमाण है।
तव मत से अन्य मत प्रभो! स्ववचविरुद्ध हैं।।३।।
जो नित्य सर्वथा न वो जन्मे न नष्ट हो।
उसमें न क्रिया कारक युक्ती से घटित होें।।
निंह जन्म असत् का व सत् का नाश नहीं है।
दीपक बुझा तो तिमिर भी पुद्गलमयी ही है।।४।।
अस्तित्व व नास्तित्व कथंचित् ही इष्ट हैं।
वक्ता की इच्छा से ही मुख्य गौणरूप हैं।।
हे सुमतिनाथ! आपकी यह कथन पद्धती।
मुझ स्तुतिकर्ता की हो उत्कृष्टतम मती।।५।।