महाव्रतधरो धीर:, सुव्रतो मुनिसुव्रत:।
नमस्तुभ्यं प्रदद्यान्मे, रत्नत्रयपूर्णताम्।।१।।
-शंभु छंद-
मुनिसुव्रत! सुव्रत के दाता, भव हर्ता मुक्ति विधाता हो।
मैं नमूँ तुम्हें मेरे स्वामी, मुझको भी सिद्धि प्रदाता हो।।
वह राजगृही नगरी धन है, त्रैलोक्य गुरू यहाँ थे जन्में।
हैं धन्य सुमित्र पिता माता, सोमा भी धन्य हुईं जग में।।१।।
श्रावण वदि दूज गर्भ बारस१, वैशाख वदी में जन्म लहा।
बैशाख वदी दशमी नवमी, क्रम से दीक्षा औ ज्ञान लहा।।
अस्सी कर तुंग शरीर कहा, प्रभु नील वर्ण अतिशय सुन्दर।
थी तीस हजार वर्ष आयु, कच्छप२ के चिन्ह से जानें नर।।२।।
फाल्गुन वदि बारस को गिरि पर, प्रभु ने सब कर्म विनाशा था।
सुरगण ने आकर के तत्क्षण, शिव हेतु नमाया माथा था।।
भगवन्! मैं वर्ण स्पर्श गंध, औ रस से रहित अरूपी हूँ।
बस तव भक्ती से व्यक्ती हो, मैं एक स्वयं चिद्रूपी हूँ।।३।।
हे देव! तुम्हारी भक्ती का, फल एक यही बस मिल जावे।
प्रतिदिन प्रतिपल अंतिम क्षण तक, तव नाम मंत्र जिह्वा गावे।।
नहिं पीड़ा हो नहिं हों कषाय, बस कंठ अकुंठित बना रहे।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों की, भक्ती में ही मन रमा रहे।।४।।
अथ श्रीजिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।