हे आदिनाथ! हे आदीश्वर! हे ऋषभ जिनेश्वर! नाभिललन!
पुरुदेव! युगादि पुरुष ! ब्रह्मा, विधि और विधाता मुक्तिकरण।।
मैं अगणित बार नमूँ तुमको, वन्दूँ ध्याउँ गुणगान करूँ।
स्वात्मैक परम आनन्दमयी, सुज्ञान सुधा का पान करूँ।।१।।
आषाढ़ वदी दुतिया तिथि थी, मरूदेवी गर्भ पधारे थे।
श्री हृी धृति आदि देवियों ने, माता के चरण पखारे थे।।
शुभ चैत्र वदी नवमी तिथि थी, भगवान यहाँ जब थे जन्में।
तब मेरू सुदर्शन के ऊपर, अभिषेक किया था इन्द्रों ने।।२।।
वो घड़ी धन्य थी धन्य दिवस, धन धन्य अयोध्या नगरी थी।
श्री नाभिराज भी धन्य तथा, तब धन्य प्रजा भी सगरी थी।।
प्रभु ने असि मसि आदिक किरिया, उपदेशी आदि विधाता थे।
थे युग के आदिपुरुष ब्रह्मा, श्रावक मुनि मार्ग विधाता थे।।३।।
थे कनक वर्ण धनु पंच शतक, तनु वे युग के अवतारी थे।
आयू चौरासी लाख पूर्व, धारक वृष लक्षण धारी थे।।
सब परिग्रह ग्रंथी को तजकर, निर्गंथ दिगम्बर रूप धरा।
वह चैत्र वदी नवमी शुभ थी, जिस दिन प्रभु ने कचलोच करा।।४।।
षट् मास योग में लीन रहे, लंबित भुज नासादृष्टी थी।
निज आत्म सुधारस पीते थे, तन से बिल्कुल निर्ममता थी।।
फिर ध्यान समाप्त किया प्रभु ने, आहार विधी बतलाने को।
भवसिंधू में डूबे जन को, मुनिमार्ग सरल समझाने को।।५।।
षट् मास भ्रमण करते-करते, प्रभु हस्तिनागपुर में आये।
सोमप्रभ नृप श्रेयांस तभी, आहारदान दे हर्षाये।।
रत्नों की वर्षा हुई गगन से, सुरगण मिल जयकार किया।
धन-धन्य हुई वैशाख सुदी, अक्षय तृतिया आहार हुआ।।६।।
जब आप क्षपक श्रेणी चढ़कर, घाती पर ध्यान चक्र छोड़ा।
एकादशि फाल्गुन कृष्णा थी, केवलश्री से नाता जोड़ा।।
त्रिभुवन में ज्ञान लता फैली, भविजन को छाया सुखद मिली।
फिर माघ कृष्ण चौदश के दिन, मुक्तिश्री प्रभु को स्वयं मिली।।७।।
क्रोधादिक रिपु को जीत प्रभो, स्वात्मा से जनित सुखामृत को।
पीकर अत्यर्थतया निशदिन, भवदधि से निकाला आत्मा को।।
त्रिभुवन के मस्तक पर जाकर, अब तक व अनंते कालों तक।
ठहरेंगे वे वृषभेश! मुझे, शुभ ‘‘ज्ञानमती’’ श्री देवें झट।।८।।
अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(मंडल के ऊपर पुष्पांजलि क्षेपण करें)