अनादिनिधन णमोकार महामंत्र
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।
पुष्यन्ति भव्यास्तव नाममंत्रै:, तुष्यन्ति नित्यं गुणकीर्तनेन।
पुष्यान्मनो मे जिनपुष्पदंत:, त्वां भक्ति पुष्पांजलिनार्चयामि।।१।।
श्रीमुखालोकनादेव श्रीमुखालोकनं भवेत्।
आलोकनविहीनस्य तत्सुखावाप्तय: कुत:।।२।।
अद्याभवत् सफलता नयनद्वयस्य, देव! त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन।
अद्य त्रिलोकतिलक! प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणम् ।।३।।
अद्य मे क्षालितं गात्रं नेत्रे च विमलीकृते।
स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात्।।४।।
नमो नम: सत्त्वहितंकराय, वीराय भव्याम्बुजभास्कराय।
अनन्तलोकाय सुरार्चिताय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय।।५।।
श्रीमुख के अवलोकन से, श्रीमुख का अवलोकन होता।
अवलोकन से रहित जनों को, वह सुख प्राप्त कहाँ होता।।१।।
हे भगवन् ! मम नेत्र युगल शुचि, सफल हुए हैं आज अहो।
तव चरणांबुज का दर्शन कर, जन्म सफल है आज अहो।।
हे त्रैलोक्य तिलक जिन! तव, दर्शन से प्रतिभासित होता।
यह संसार वार्धि चुल्लुक, जलसम हो गया अहो ऐसा।।२।।
आज पवित्र हुआ तनु मेरा, नेत्र युगल भी विमल हुए।
धर्मतीर्थ में मैं स्नान, किया जिनवर! तव दर्श किए।।३।।
नमो नमो हे सत्त्वहितंकर! भव्यकमलभास्कर हे ईश।
अनंत लोकपति सुर अर्चित जिन, नमूँ सुराधिप देव हमेश।।४।।
त्रैलोक्यपति देवेन्द्र नमित, साधूगण वंद्य सदा जिनवर।
सुख आत्माधीन अचल तव है, स्थान भ्रमण विरहित सुस्थिर।।
तव कीर्तिलता त्रिभुवन व्यापी, औ सिद्धि रमा तव चरणरता।
तव दिव्यसुधावच भव जलधि, से तिरने को उत्तम नौका।।५।।
काकंदी में सुग्रीव पिता, माता जयरामा जग पूजित।
फाल्गुनवदि नवमी के दिन प्रभु, गर्भावतरण मंगल मंडित।।
मगसिर शुक्ला प्रतिपद तिथि थी, जब जन्में थे भगवान यहां।
उन पुष्पदन्त की दिव्यकथा, हरती है भवमय त्रास महा।।६।।
मगसिर सुदि एकम के प्रभु ने, जिनमुद्रा धर मोहारि हना।
कार्तिक सुदि दूज दिवस केवल—लक्ष्मी ने आन लिया शरणा।।
भादों सुदि अष्टमि के दिन प्रभु, सम्मेदाचल से सिद्ध हुए।
सुखस्वात्मसुधारस पान तृप्त, त्रिभुवन के अग्र विराज गये।।७।।
चउशतकर तुंग मकर लाँछन, दो लाख वर्ष पूर्वायु कही।
शशिकांत देह भी पुष्पदंत! अंतक के अन्तक तुम्हीं सही।।
निश्चय व्यवहार रत्नत्रय से, भूषित शिवकांता वरण किया।
मेरे भी उभय रत्नत्रय को, बस पूर्ण करों मैं शरण लिया।।८।।
।।अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।