सिद्धों को शीश झुका करके शत-शत वंदन शत-शत वंदन।
वृषभादिक वीरप्रभु तक चौबिस जिनवर को भी शत-शत वंदन।।
गणधर गुरु सर्व साधुओं को शत-शत वंदन शत-शत वंदन।
माँ सरस्वती जिनवाणी को नित शीश झुका शत-शत वंदन।।१।।
मैं रचूँ ‘‘सर्वतोभद्र’’ नाम पूजा विधान जिन भक्ति से।
यह सर्व तरफ से भद्र-स्वस्ति-कल्याण करे जिन शक्ती से।।
जिनदेवदेव की पूजा के हैं चार भेद आगम वर्णित।
ये नित्ययजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ कल्पद्रुम चतुर्थ आष्टान्हिक।।२।।
जो महामुकुट बद्ध राजा जिनमहायज्ञ को करते हैं।
पूजा सुनाम ‘‘सर्वतोभद्र’’ इसके हि ‘‘चतुर्मुख’’ कहते हैं।।
यह कहाँ सर्वतोभद्र यह अतिशायी मुनिगण मान्य अहो!
अति अज्ञमती मैं कहाँ तथापि भक्ति वाचालित करे अहो!।।३।।
अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं को भक्ती उद्वेलित होने से।
सब भूत भविष्यत् वर्तमान जिनवर पद भक्ती होने से।।
पूजा रचना प्रारंभ किया यह मेरा अतिसाहस ही है।
फिर भी यह जन-जन मन भावे इसमें प्रभु आप सहायक हैं।।४।।
निजदेव देव को नित वंदूँ जिनप्रतिमाओं का नमन करूँ।
सब जिनमंदिर को नित प्रणमूँ जिनतीर्थों का संस्तवन करूँ।।
जिनवर के चरण कमल में तिन पुष्पांजलि करके नमन करूँ।
भक्ती अमृत सरिता में नित अवगाहन कर गुण रतन भरूँ।।५।।
इति श्री जिनसर्वतोभद्रमहामहप्रतिज्ञापनाय जिनप्रतिमाग्रे पुष्पांजलिंक्षिपेत्।
घंटा टंकार शंख आदिक नानाविध वाद्य ध्वनी सुन्दर।
सब विघ्न शत्रु डर कर भागें अघरिपु भी भाग रहें डरकर।।
मंगलमय दुंदुभि बाजों की मंगलध्वनि दशदिश पैलेगी।
त्रिभुवन में हर्ष लहर दौडे जिन कीर्ती त्रिभुवन पैलेगी।।६।।
तीर्थेश्वरा: सिद्धिकरा: त्रिलोक, भूता भवन्त: किल भाविनश्च।
सर्वे जिनेंद्रा हतमोहतंद्रा, स्वस्ति क्रियासुर्जिनपुगवा न:।।१।।
येऽकृत्रिमा जैनगृहा त्रिलोके, देवेंद्रनागेंद्रनरेंद्रपूज्या:।
योगीन्द्रवृन्दैरपि१ वंदितास्ते, स्वास्ति क्रियासु: जिननाथगेहा:।।२।।
देवैर्नरैर्निर्मितजैनगेहा: सौख्यालया धर्मधुरं दधाना:।
भव्याब्जसूर्या मुनिनाथवंद्या:, स्वस्ति क्रियासुश्च जिनालया न:।।३।।
आद्यन्तशून्या मणिरत्नजाता:, साध्विंद्रवंद्या: किल या जिनार्चा:।
चिंतामणीव स्वहितैषिणां च, स्वस्ति क्रियासु: जिनमूर्तयो न:।।४।।
या मूर्तयो मानवनिर्मिताश्च, मंत्रादिभिर्या: परिपूजनीया:।
सर्वैर्गणीन्द्रै: प्रणुता: सुरार्च्या:, स्वस्ति क्रियासु: जिनमूर्तयो न:।।५।।
पंचापि पूज्या गुरवस्त्रिलोके, सद्धर्मवाणी जिनमूर्तिगेहा:।
त्रैलोक्य पूज्याश्च यतीन्द्रवंद्या:, स्वस्ति क्रियासु: नवदेवता न:।।६।।
सप्तर्द्धियुक्ता मदमोहमुक्ता:, संघाधिनाथा हतविघ्नसार्था:।
इष्टार्थदा ये गणिगौतमान्त्या:, स्वस्ति क्रियासु: गणनायका न:।।७।।
आनंदपीयूषसरिन्निमग्नान्, यानंतसिद्धान् सुविभर्ति स्वांके।
लोकाग्रभागेर्धशशीव भाति, स्वस्ति क्रियासु: सिद्धशिलासदा न:।।८।।
अनुष्टुप्- स्वस्तिस्तवं पठेन्नित्यं, कृत्वा ज्ञानमतिं मतिम्।
प्राप्नुयात् सर्वतोभद्रं कल्याणं स पदे पदे।।९।।
इति मंडलस्योपरि दिव्य पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
इसविध स्वस्तिस्तव को पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपण करता हूँ।
चांदी की स्वास्तिक पुष्प लिये सर्वस्व समर्पण करता हूँ।।
इस पूजा में जो नर नारी चांदी के पुष्प चढ़ायेंगे।
वे सर्वमुखी कल्याण पाय फिर पंच कल्याणक पायेंगे।।१०।।
इति मंडलस्योपरि जिनप्रतिमाग्रे रजतस्वस्तिकं रजतपुष्पमिश्रित-दिव्यपुष्पांजलिं क्षिपेत्।
मम मंगलं अरहंता य सिद्धा य बुद्धा य जिणा केवलिणो ओहिणाणिणो मणजज्जवणाणिणो चउदसपुव्वंगामिणो सुदसमिदिसमिद्धा य तवो य वारसविहो तवस्सी य, गुणा य गुणवंतो य महरिसी, तित्थं तित्थंकरा य, पवयणं पवयणो य, णाणं णाणी य, दंसणं दंसणी य, संजमो संजदा य, विणओ विणदा य, बंभचेरवासो बंभचारी य, गुत्तीओ चेव गुत्तिमंतो य, मुत्तीओ चेव मुत्तिमंतो य, समिदीओ वेच समिदिमंतो य, सुसमयपरमसमयविदू खंती य खंतिमंतो य, खवगा य खीणमोहा य, खीणमंतो य, बोहियबुद्धा य बुद्धिमंतो य, चेइयरुक्खा य चेइयाणि।
उड्ढमहतिरियलोए सिद्धायदणाणि णमंसामि, सिद्धणिसीहियाओ अट्ठावयपव्वदे सम्मेदे उज्जंते चंपाए पावाए मज्झिमाए हत्थिबालियसहाए जाओ अण्णाओ काओविणिसीहियाओ जीवलोयम्मि, इसिपब्भारतलग्गयाणं सिद्धाणं बुद्धाणं कम्मचक्कमुक्काणं, णीरयाणं, णिम्मलाणं, गुरुआइरिय-उवज्झायाणं पव्वत्तित्थेरकुलयराणं, चउवण्णो य समणसंघो य दससु भरहेरावएसु, पंचसु महाविदेहेसु जे लोए संति साहवो संजदा तवसी एदे मम मंगलं पवित्तं। एदेहं मंगलं करेमि भावदो विसुद्धो सिरसा अहिवंदिऊण सिद्धे काऊण अंजलिं मत्थयम्मि तिविहं तियरणसुद्धो।
उथ श्री सर्वतोभद्रविधानप्रारम्भक्रियाया:ं भावपूजावंदनास्तवसमेत्चैत्य-भक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(इस प्रतिज्ञावाक्य को पढ़कर पंचांग नमस्कार करके मुकुलित हाथ जोड़कर तीन आर्वत एक शिरोनति करके मुक्ताशुक्ति मुद्रा से हाथ जोड़कर सामायिक दण्डक पढ़ें।)
चत्ता रिमंगलं- अरिहंत मंगलं, सिद्धमंगलं, साहूमंगलं केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरण पव्वज्ज्ाामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
अड्ढाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु जाव अरहंताणं भयवंताणं आदियराणं तित्थयराणं जिणाणं जिणोत्तमाणं केवलियाणं सिद्धाणं, बुद्धाणं, परिणिव्वुदाणं, अंतयडाणं, पारयडाणं, धम्माइरियाणं, धम्मदेसियाणं, धम्मणायगाणं, धम्मवरचाउरंगचक्कवट्ठीणं, देवाहिदेवाणं णाणाणं, दंसणाणं, चरित्ताणं सदा करेमि किरियम्मं।
करेमि भंते! सामायियं सव्वसावज्जजोगं पच्चक्खामि जावज्जीवं तिविहेण मणसा वचसा काएण ण करेमि ण करेमि कीरंतं पि ण समणुमणामि। तस्स भंते! अइचारं पच्चक्खामि णिंदामि गरहामि अप्पाणं, जाव अरहंताणं, भयवंताणं पज्जुवासं करेमि तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि।
(मूकुलित हाथ जोड़कर तीन आर्वत एक शिरोनति करके बैठकर योगमुद्रा१ से या खड़े होकर जिनमुद्रा२ से सत्ताइस उच्छ्वास में नवबार णमोकार मंत्र का जाप करें। पुन: पंचांग नमस्कार करके मुक्ताशुक्ति३ मुद्रा से हाथ जोड़कर थोस्सामिस्तव पढ़ें।)
थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली अणंतजिणे।
णरपवर लोयमहिए, विहुयरयमले महप्पण्णे।।१।।
लोयस्सुज्जोययरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे।
अरहंते कित्तिस्से, चउवीसं चेव केवलिणो।।२।।
उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइं च।
पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे।।३।।
सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयल सेयं च वासुपुज्जं च।
विमलमणंतं भयवं, धम्मं संति च वंदामि।।४।।
कुंथुं च जिणवरिंदं अरंच मल्लिं च सुव्वयं च णमिं।
वंदामि रिट्ठणेमिं, तह पासं वड्ढमाणं च।।५।।
एवं मए अभित्थुया, विहुयरयमला पहीणजरमरणा।
चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु।।६।।
कित्तिय वंदिय महिया, एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा।
आरोग्गणाणलाहं, दिंतु समाहिं च मे बोहिंं।।७।।
चंदेहिं णिम्मलयरा, आइच्चेहिं अहिय पयासंता।
सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिर्द्धि मम दिसंतु।।८।।
(पुन: तीन आवर्त एक शिरोनति करके वंदनामुद्रा१ से हाथ जोड़कर चैत्यभक्ति पढ़ें।)
वर्षेषु वर्षातर पर्वतेषु, नंदीश्वरे यानि च मंदरेषु।
यावंति चैत्यायतनानि लोके,
सर्वाणि वंदे जिनपुंगवानाम्।।१।।
अवनितलगतानां, कृत्रिमा-कृत्रिमाणां,
वनभवनगतानां दिव्यवैमानिकानाम्।
इह मनुजकृतानां देवराजार्चितानां,
जिनवरनिलयानां भावतोहं स्मरामि।।२।।
जंबूधातकिपुष्करार्धवसुधाक्षेत्रत्रये ये भवा-
श्चंद्राम्भोजशिखंडिकंठकनकप्रावृड्घनाभाजिना:।
सम्यग्ज्ञानचरित्रलक्षणधरा दग्धाष्टकर्मेन्धना:।
भूतानागतवर्तमानसमये तेभ्यो जिनेभ्यो नम:।।३।।
श्रीमन्मेरौ कुलाद्रौ रजतगिरिवरे शाल्मलौ जंबुवृक्षे।
वक्षारे चैत्यवृक्षे रतिकररूचके कुंडले मानुषांके।।
इष्वाकारैऽजनाद्रौ दधिमुखशिखरे व्यंतरे स्वर्गलोके।
ज्योतिर्लोकेऽभिबंदे भुवनमहितले यानि चैत्यालयानि।।४।।
देवासुरेंद्रनरनागसमर्चितेभ्य:,
पापप्रणाशकरभव्यमनोहरेभ्य:।
घंटाध्वजादिपरिवारविभूषितेभ्य:,
नित्यं नमो जगति सर्वजिनालयेभ्य:।।५।।
अंचलिका-इच्छामि भंते! चेइयभत्ति काउसग्गो कओ तस्सआलोचेउं, अहलोयतिरियलोयउड्लोयम्मि किट्टिमाकिट्टिमाणि जाणिं जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि तीसुवि लोएसु भवणवासियवाणविंतरजोइसियकप्पवासियत्ति चउविहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुप्फेण, दिव्वेण दीवेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण वासेण, दिव्वेण ण्हाणेण, णिच्चकालं अंचंति, पुज्जंति वंदंति, णमंसंति, अहमवि इह संतो तत्व संताइ णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि वंदामि णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाओ, सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
इति जिनप्रतिमाग्रे दिव्यपुष्पांजलिं क्षिपेत्।