(वसंततिलका छंद)
तीर्थंकर – स्नपननीर – पवित्रजात:,
तुङ्गोऽस्ति यस्त्रिभुवने निखिलाद्रितोऽपि।
देवेन्द्र – दानव – नरेन्द्र – खगेन्द्रवंद्य:,
तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।१।।
यो भद्रसालवन – नंदन – सौमनस्यै:,
भातीह पांडुकवनेन च शाश्वतोऽपि।
चैत्यालयान् प्रतिवनं चतुरो विधत्ते,
तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।२।।
जन्माभिषेकविधये जिनबालकानाम्,
वंद्या: सदा यतिवरैरपि पांडुकाद्या:।
धत्ते विदिक्षु महनीयशिलाश्-चतसृ:,
तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।३।।
योगीश्वरा: प्रतिदिनं विहरन्ति यत्र,
शान्त्यैषिण: समरसैक-पिपासवश्च।
ते चारणर्द्धि-सफलं खलु कुर्वतेऽत्र,
तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।४।।
ये प्रीतितो गिरिवरं सततं नमन्ति,
वंदन्त एव च परोक्षमपीह भक्त्या।
ते प्राप्नुवंति किल ‘ज्ञानमिंत’ श्रियं हि,
तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।५।।
-अंचलिका-
इच्छामि भंते! सुदंसणमेरु-भत्तिकाओसग्गो कओ तस्सालोचेउं, इमम्हि
मज्झलोए जंबूदीवमज्झट्ठिद-सव्वोच्चमंदरसेले भद्दसालणंदणसोमणसपांडुकवणेसु
चउचउदिसासु सोलसजिनायदणाणं पांडुवणविदिसासु तित्थयर-ण्हवणपवित्त-
पांडु-पहुदिसिलाणं जिण-जिणघरवंदणट्ठ-विहरमाण-चारणरिद्धिजुत्तरिसीणं
णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो
सुगइगमणं समाहिमरणं जिनगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
यह मेरु सुदर्शन त्रिभुवन में, सबसे ऊँचा कहलाता है।
योजन इक लाख कहा ऊँचा, इक सहस नींव में जाता है।।
चालिस योजन चूलिका कही, वैडूर्यमणीमय प्यारी है।
यह भू पर चौड़ा दश हजार, इसकी छवि जग से न्यारी है।।१।।
पृथ्वी पर भद्रशाल वन है, नंदनवन पाँच शतक ऊपर।
इससे साढ़े बासठ हजार, योजन पर सौमनसं सुन्दर।।
इससे ऊपर छत्तिस हजार, योजन जाकर पांडुक वन है।
चारों वन में शुभ चार-चार, जिनमंदिर अतिशय सुन्दर है।।२।।
इकसठ हजार योजन तक गिरि, बहुवर्णमयी बहुरत्नमयी।
ऊपर में पांडुक वन तक है, अतिसुंदर श्रेष्ठ सुवर्णमयी।।
पांडुक वन की विदिशाओं में, वर पांडुक आदि चार शिला।
तीर्थंकर के जन्माभिषेक, से पावन पूज्य हुई विमला।।३।।
ईशान दिशा में शिला कही, जो पांडुक नामा कनकमयी।
हो भरत क्षेत्र के जिनवर का, इस पर अभिषेक अनूपम ही।।
आग्नेय दिशा में शिला कही, जो पांडुकम्बला रजतमयी।
पश्चिम विदेह के जिनवर का, होता अभिषेक सुपुण्यमयी।।४।।
नैऋत दिश में रक्ता नामा, है शिला तपाये स्वर्णसमा।
ऐरावत के तीर्थंकर का, उस पर अभिषेक कहा सुषमा।।
वायव्य दिशा में लाल शिला, जो रक्तकम्बला नाम धरे।
अभिषेक वहाँ पूरब विदेह, तीर्थंकर का इंद्रादि करें।।५।।
ये अर्ध चंद्र आकार शिला, सौ योजन लम्बी मानी हैं।
योजन पचास चौड़ी ऊँची, हैं आठ कहे जिनवाणी है।।
इन मध्य श्रेष्ठ सिंहासन हैं, जो तीर्थंकर के लिए कहे।
द्वय पार्श्व भाग दो भद्रासन, सौधर्म ईशान के लिए रहे।।६।।
जब-जब तीर्थेश जन्मते हैं, इंद्रों के आसन कंपते हैं।
इंद्रों के मुकुट स्वयं झुकते, सब वाद्य स्वयं बज उठते हैं।।
ऐरावत हाथी पर चढ़कर, सौधर्म इन्द्र आ जाता है।
उस समय असंख्यों देवों का, समुदाय उमड़कर आता है।।७।।
इन्द्राणी जिनशिशु को लाकर, सौधर्म इन्द्र को देती है।
तत्क्षण ही स्त्रीलिंग छेद, निज एक ही भव कर लेती है।।
प्रभु को सुमेरु पर ले जाकर, क्षीरोदधि से जल भर लाते।
इक सहस आठ कलशों द्वारा, प्रभु न्हवन करें अति हर्षाते।।८।।
मेरु के सोलह जिनमंदिर, भक्ती से उन दर्शन कीजे।
जिन प्रतिमाओं का वंदन कर, पूजन कर पाप शमन कीजे।।
जिन वचनों से श्रद्धा करके, निज सम्यक् ‘‘ज्ञानमती’’ कीजे।
रत्नत्रय निधि को पा करके, क्रम से जिनगुण संपति लीजे।।९।।
।।इति जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।