(चतुर्थ_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. ज्ञान-भक्ति वात्सल्य की त्रिवेणी यहाँ प्रवाहित हुई।
२. अनगिनत ग्रंथों का स्वाध्याय।
३. अनेक स्तोत्रों एवं ग्रंथों की रचना।
४. प्रारंभिक जिज्ञासुओं एवं महिलाओं को ज्ञानदान।
५. जैन भूगोल को भूमि पर उतारा।
जैसे बादल जल बरसाता, करता चलता जग उपकार।
वैसे संत जहाँ पर जाते, आती-जाती वहाँ बहार।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी, संघ सहित कर रहीं गमन।
महाराष्ट्र की सुंदर नगरी, हुआ सोलापुर शुभागमन।।४९७।।
जैन जगत की अनुपम साध्वी, आगम की उत्तम ज्ञाता।
लख चर्या, सुनकर वचनामृत, जन-जन को आनंद आता।।
पाकर ऐसी निधि अमूल्य को, किया निवेदन पूरो आस।
हे माताजी! सोलापुर में, करें स्थापित चातुर्मास।।४९८।।
धर्मध्यान अनुकूल क्षेत्र है, भक्त-पंथ, अनुकूल रहा।
जलवायू अनुकूल संघ के, विमल सिंधु सान्निध्य महा।।
श्रेष्ठी-श्रावक गुणी व्रतीजन, अनुनय-विनय विलोकी खास।
परम पूज्य श्रीमाताजी ने, किया स्थापित चातुर्मास।।४९९।।
सोलापुर का चतुर्मास यह, विस्मृत होगा नहीं कदा।
ज्ञानाराधन-चिंतन में ही, लीन रहा उपयोग सदा।।
स्वाध्याय-प्रवचन-चर्चा का, सदाकाल वातास रहा।
ज्ञान-भक्ति-वात्सल्य त्रिवेणी, का प्रवाह दिन-रात बहा।।५००।।
प्रातकाल स्वाध्याय में रहा, लब्धिसार ग्रंथ का नाम।
समयसार तदनंतर चलता, अतिविशुद्धि पाते परिणाम।।
त्रिलोकसार श्लोकवार्तिक, मध्य दिवस होता स्वाध्याय।
चर्चा-तत्त्व अहर्निश चलती, फलत: होती मंद कषाय।।५०१।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती की, कलम न लेती कभी विराम।
वह तो नित बढ़ती ही रहती, ज्यों पावन गंगा अभिराम।।
माताजी ने रचे यहाँ पर, संस्कृत में स्तोत्र अनेक।
त्रिलोक-चन्द्रप्रभ-शिखर-प्रभाती, महासाहित्यनिधि प्रत्येक।।५०२।।
माताजी वैदुष्य अतिशयी, विविध विधाओं पर अधिकार।
संस्कृत-न्याय-छंद-व्याकरण, सिद्धांत ज्ञान है अमित अपार।।
बहुभाषा विज्ञा माताजी, गद्य-पद्य-में परम प्रवीण।
अनुवादन में दक्ष आप हैं, रहतीं ज्ञानध्यान में लीन।।५०३।।
प्रारम्भिक जिज्ञासुजनों को, द्रव्य-संग्रह सुज्ञान दिया।
संस्कृत में सामायिक पढ़ना, महिलाओं को सिखा दिया।।
ज्ञानामृत दे पा ली शिष्या, अम्मा का पाया सम्मान।
ज्ञान समान वात्सल्य भी दिया, तेरहद्वीप कराया ध्यान।।५०४।।
जैनागम भूगोल विषय का, माताजी को अनुपम ज्ञान।
उसके बल पर रचा आपने, उत्तम इन्द्रध्वज का विधान।।
जम्बूद्वीप सकल रचना को, सफल दिया भू-पर आयाम।
पत्थर-पत्थर बोल रहा है, ज्ञानमती माता का नाम।।५०५।।
नारी होकर माताजी ने, किए अप्रतिम कार्य अनेक।
नर भी वैसा कर ना पाये, उत्तम-पूर्ण-सुष्ठु-प्रत्येक।।
आप भाव से दिव्य पुरुष हैं, दिव्य द्रव्य से नारी हैं।
इसीलिए तो आज पुरुष भी, माता के आभारी हैंं।।५०६।।