(ज्ञानमती माताजी की आत्मकथा)
आचार्यश्री के निकट पुनः एक दिन मैंने प्रार्थना की कि-‘‘हे गुरुदेव! अब हमें महावीर जयंती पर आर्यिका दीक्षा दे दीजिये।’’ महाराज जी ने साधुओं से परामर्श किया। सभी साधु एक स्वर से मेरे पक्ष में थे अतः महाराज जी ने ब्र. सूरजमल को बुलाया और दीक्षा के लिए मुहूर्त निकालने को कहा। बाबाजी ने पंचांग देखकर ‘वैशाख वदी द्वितीया’ का उत्तम मुहूर्त बता दिया। महाराज जी ने दीक्षा देने की घोषणा कर दी। समाज में हर्ष की लहर दौड़ गई। आर्यिकाओं ने बड़े ही प्रेम से प्रारंभिक उत्सव कराये। कु. प्रभावती की इच्छा न होते हुए भी सभी ने शाम को उनकी बिंदोरी का प्रोग्राम बना दिया। आचार्यश्री ने कहा-‘‘प्रभावती! तुम दशवीं प्रतिमा में आहार भी दे सकती हो और पूजन भी कर सकती हो अतः इच्छानुसार दान-पूजन कर लो, फिर जीवन भर दान-पूजन करने को नहीं मिलेगा।’’ यद्यपि प्रभावती का जीवन सभी विषय में उदास-उपेक्षित सा रहता था। कोई पूछता-‘‘तुम क्यों दीक्षा ले रही हो?’’ तो वह कह देतीं-‘‘हमें कुछ पता नहीं, अम्मा जैसा कहती हैं वैसा ही मैं कर लेती हूँ।’’ उन्होेंने आर्यिका वीरमती जी और सुमतिमती जी की प्रेरणा से अन्य ब्रह्मचारिणी के द्वारा पूजन की सामग्री दे देने पर भगवान् का पूजन भी कर लिया और जिस चौके में उनका कमंडलु लेकर श्रावक उन्हें ले गये उस चौके में जो साधु-साध्वी पड़गाये गये उन्हें आहार भी दे दिया। एक दिन पूज्य गुरुदेव आचार्य वीरसागर जी को भी आहार दिया। मध्याह्न में दीक्षा का प्रोग्राम था। उसके पूर्व आचार्यश्री ने हम दोनों को बुलाकर अन्य प्रमुख आर्यिकाओं के समक्ष ही बहुत कुछ शिक्षायें दी थीं। आचार्यश्री ने मुझसे कहा था- ‘‘देखो बाई१! तुम्हें दीक्षा लेकर अपना संघ बनाकर रहना है। अलग रहने के लिए तुम्हें चिंता नहीं करनी चाहिए। संघ में अशांति होने से अलग रहना अच्छा रहेगा।’’ मैंने भी कहा- ‘‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य।’’ ऐसा कहकर हाथ जोड़कर विनय से गुरू का आदेश स्वीकार किया था। पुनः प्रभावती से बोले-‘‘देखो! तुम्हें जीवन भर इन्हीं के साथ रहना है, चूँकि इन्हीं के निमित्त से तुम्हारा उपकार हुआ है। तुम्हें इनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए।’’ प्रभावती ने भी मौन रहकर ही सिर झुकाकर स्वीकृति दे दी थी पुनः सुमतिमती माताजी ने कहा- ‘‘देखो! तुम्हें दीक्षा लेकर कम से कम पाँच वर्ष संघ में ही रहना चाहिए। अकेले संघ बनाकर इतनी जल्दी अलग नहीं होना चाहिए। मैंने कहा-जैसी आपकी आज्ञा!’’ चूँकि मुझे भी संघ में ही रहना अभीष्ट था। भले ही कोई-कोई आर्यिकायें ईर्ष्या, द्वेषवश कभी अशांति कर देतीं फिर वात्सल्य भी करती थीं अतः मेरा स्वतंत्र घूमने का इरादा नहीं था। दीक्षा से पूर्व आर्यिकाओं ने जैसे बताया, वैसे ही सुवासिनी महिलाओं ने कु. प्रभावती को उबटन लगाकर मंगल स्नान करा कर सफेद साड़ी पहना दी और पहले से बनाये गये पण्डाल में दीक्षा के मंच पर लाकर बिठा दिया। सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा पहले से ही मंगल चौक बनाये गये थे। उन पर श्वेत वस्त्र बिछा था जिस पर भी साथिया बना हुआ था। उस मंगल चौक पर हम दोनों को बिठाया गया। उसके पहले मैंने तथा प्रभावती ने श्रीफल चढ़ाकर आचार्यश्री के समक्ष दीक्षा की याचना की थी तथा प्रभावती से बाबाजी ने वहीं पण्डाल में जिन प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक करवाया था। पहले मेरा केशलोंच प्रारंभ हुआ। मैंने लगभग एक माह पूर्व ही अपना केशलोंच किया था अतः दीक्षा के समय मेरे केश बहुत ही छोटे थे। दो तीन आर्यिकाओं ने मिलकर मेरा केशलोंच कर दिया। अनन्तर आचार्यश्री ने दीक्षा के संस्कार करने प्रारंभ कर दिये। मेरे मस्तक पर मुनि दीक्षा विधि के संस्कार किये तथा प्रभावती के सिर पर क्षुल्लक दीक्षा विधि के संस्कार किये पुनः संयम का उपकरण पिच्छी, शौच का उपकरण कमंडलु और ज्ञान का उपकरण शास्त्र भी दिये। मेरा नाम ‘ज्ञानमती’ रखा और प्रभावती का नाम ‘जिनमती’ घोषित किया। इसी मध्य एक अद्भुत चमत्कार हुआ। एक मोटा ताजा बैल दौड़ता हुआ सभा के मध्य आ गया। सभा में हल्ला मच गया किन्तु वह बीच के रास्ते से सीधे मंच के पास आ गया, वहाँ आकर खड़ा हो गया पुनः मस्तक टेक कर मानो नमस्कार कर रहा हो, बहुत देर तक वहीं खड़ा रहा। आचार्यश्री ने पिच्छी से आशीर्वाद दिया। वह शान्त हो गया और टकटकी लगाकर देखता रहा। बाबाजी ने सभा के कोलाहल को एकदम शांंत कर दिया और बोले- ‘‘कोई डरो मत’’। यह तो कोई भव्य जीव है जो दीक्षा देखने आया है।’’ दीक्षा संस्कार के बाद वह शांत भाव से बीच के रास्ते से चला गया। लोगों ने उसे लड्डू खिलाये। आचार्यश्री ने व्रत देते हुये कहा था- ‘‘आज से तुम्हारे अट्ठाईस मूलगुण हैं। ५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियनिरोध, ६ आवश्यक और केशलोंच आदि ७ शेष गुण, सभी २८ मूलगुण हैं। नग्नत्व और खड़े होकर आहार लेना इनके स्थान पर आर्यिकाओं के लिए दो साड़ी रखना और बैठकर करपात्र में आहार लेना ही ये दो मूलगुण हैं। तथा जिनमती क्षुल्लिका को समझाया कि- ‘‘आज से तुम्हारे ग्यारह प्रतिमा के व्रत हैं। दो दुपट्टे और थाली में भोजन के सिवाय शेष चर्या इन आर्यिकाओं के समान ही प्रायः रहती है।’’ बाद में आचार्यश्री का मंगल प्रवचन हुआ। अनन्तर सभा विसर्जित हो गई। मैं सभी आर्यिकाओं के साथ अपने स्थान पर आ गई। व्रत देते समय जो श्रीफल, सुपारी, अक्षत आदि दोनों हाथ की अंजुली में रहते हैं उन्हें किसी दम्पत्ति को दिला दिया जाता है। उन्हें माता-पिता या दातार की संज्ञा मिल जाती है। इसी परम्परा के अनुसार मेरे हाथ से श्रीफल आदि कुचामन के सेठ गंभीरमल पाण्ड्या को दिला दिये और जिनमती के हाथ के श्रीफल आदि भी एक सेठ को दिला दिये गये थे। बहुत ही अथक पुरुषार्थ से मेरा मनोरथ सफल हुआ था। अब मैंने स्त्री पर्याय में सर्वोच्च आर्यिका पद प्राप्त कर लिया था और अपने जीवन को भी धन्य मान लिया था। उस दिन भगवान् पार्श्वनाथ का गर्भकल्याणक था, अतः मुझे उस दिन की और भी अधिक विशेषता प्रतीत हुई थी। अब संघ में सभी आर्यिकाओं का व्यवहार अच्छा चल रहा था। बात यह है कि प्रारंभ में परीक्षा की दृष्टि से भी कसौटी पर कसा जाता है कि यह सोना खरा है या नहीं? जब खरा होता है तभी उसकी पूरी कीमत होती है अन्यथा कीमत घट जाती है। मेरे धैर्य और सहनशीलता गुण से प्रायः संघ में सभी साधुगण प्रभावित रहते थे। उस समय संघ की वासुमती आदि आर्यिकाओं ने मेरे पास में तत्त्वार्थ सूत्र अर्थ सहित का अध्ययन चालू कर दिया था। मैं क्षुल्लिका जिनमती को भी गोम्मटसार, परीक्षामुख आदि विषय पढ़ा रही थी तथा कातन्त्र व्याकरण का भी अच्छा अध्ययन करा रही थी। सायंकाल चार बजे आचार्यश्री स्वयं शास्त्र पढ़ते थे। शायद उस समय पंचाध्यायी ग्रन्थ पढ़ रहे थे। उनमें सभी साधु-साध्वी बैठते थे। अच्छी सूक्ष्म चर्चायें चलती थीं, बड़ा आनन्द आता था। बाद में आचार्यश्री सभी शिष्य-शिष्याओं के समक्ष कुछ शिक्षास्पद बातें भी सुनाया करते थे और मनोरंजन का चुटकुला कह देते थे। एक बार एक आर्यिका ने कुछ अपनी बात कही, दूसरी ने कुछ अपने शारीरिक कष्ट कहे। तब महाराज जी बोले- ‘‘बाई! मुझे तो कुछ भी रोग नहीं हैै, मात्र सबसे बड़े दो रोग हैं। एक तो नींद आती है, दूसरे भूख लगती है।’’ इतना सुनकर सभी साधु-साध्वी हँस पड़े और बोले-‘सचमुच में ये दो रोग ही सबसे बड़े रोग हैं और इन्हें ही नष्ट करने के लिए यह जैनेश्वरी दीक्षा ली गई है।’’ आचार्य महाराज अपने प्रवचन में सदा यही कहा करते थे कि-‘‘भाई! सुई का काम करो, कैची का मत करो। देखो! सुई तो फटे पुराने सभी कपड़ों को जोड़कर एक वस्त्र बना देती है और कैची काटती ही रहती है।’’ चतुर्दशी के बड़े प्रतिक्रमण के बाद कई बार आचार्यश्री की आँखें सजल हो जातीं। वे कहते- ‘‘भाई! मैं तुम सभी साधुओं को प्रायश्चित दे दूँगा, सबका मन साफ कर दूँगा लेकिन मेरे गुरु का वियोग हो गया है, अब मैं किससे प्रायश्चित्त लूँ?’’ उनके हृदय में गुरुभक्ति अटूट थी। एक बार महाराज जी ने कहा-‘‘आचार्य शांतिसागर जी महाराज को मैं इस युग का पच्चीसवां तीर्थंकर समझता हूँ। यदि वे न होते तो निर्दोष मोक्षमार्ग का कैसे पता चलता? कौन दिखाता?’’ मैंने उनके श्रीमुख से एक बार यह भी सुना था कि- ‘‘जिसने अपने जीवन में तीर्थों में महातीर्थ सम्मेदशिखर के दर्शन नहीं किये, मूर्तियों में विशाल और सौम्य गोम्मटेश बाहुबली के दर्शन नहीं किये तथा गुरुओं में गुरु आचार्य शांतिसागर जी महाराज के दर्शन नहीं किये, उसका जीवन व्यर्थ ही चला गया।’’ तब मुझे ऐसा प्रतीत होता कि- ‘‘अहो! मैंने तीर्थराज की भी वंदना कर ली है, आचार्य शांतिसागर जी के भी दर्शन कर लिये हैंं किन्तु भगवान् बाहुबलि के दर्शन चुका दिये हैं। देखो, कब होते हैं? आचार्यश्री ने दीक्षा से पूर्व ही शिक्षा दी थी कि कोई भी मन का त्याग दीक्षा के बाद पर्याय बदल जाने से पूरा हो जाता है अथवा गुरू आज्ञा से अपने मन से किये गये त्याग को छोड़ देने में बाधा नहीं है अतः मैंने दीक्षा के बाद गुरू की आज्ञा से सभी अन्न लेना शुरू कर दिया था। आज मैं अच्छी तरह से यह बात समझती हूँ कि-अपने ‘‘मन से किये गये त्याग आवेश में या विशेष विरक्ति में होते हैं। उनसे शरीर और आत्मा की हानि की भी संभावना रहती है अतः त्याग चाहे छोटा हो या बड़ा, गुरु की साक्षी से ही लेना चाहिए।’ मेरा सतत उपदेश भी यही रहता है क्योंकि अनुभव ज्ञान से ही मैंने यह शिक्षा पाई है। उस समय इन सब कारणों से आचार्यश्री का वात्सल्य मेरे प्रति बहुत ही अच्छा था। मुझे भी इस बात की प्रसन्नता थी।