(चतुर्थ_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. मुक्तागिरि से बांसवाड़ा।
२. बांसवाड़ा में माताजी के प्रवचन।
३. बांसवाड़ा की उपलब्धि-कलादेवी से आर्यिका कैलाशमती।
४. पिता-पुत्री-शिष्या सम्बन्ध।
५. माताजी का गुरु संघ में पुनर्मिलन।
६. चातुर्मास की स्थापना।
७. माताजी द्वारा धर्म प्रभावना।
८. माताजी द्वारा मोतीचंद-यशवंत कुमार आदि को अध्यापन।
९. श्री रवीन्द्र दर्शनार्थ आये-माताजी द्वारा सम्बोधन।
१०. चातुर्मास अनंतर महावीर जी को विहार।
११. माताजी की निर्दोष चर्या।
१२. माताजी द्वारा अनेक ग्रंथों का अध्ययन।
१३. कोटा-चमत्कार जी होकर महावीर जी में आगमन।
१४. महावीरजी में आचार्य श्री शिवसागर जी की समाधि।
१५. आचार्यपट्ट धर्मसागर जी को।
१६. एकादश मुनि एवं आर्यिका दीक्षाएँ।
१७. संयमियों की मूलप्रेरक माताजी रहीं।
१८. माताजी ने इतिहास सुरक्षा के लिए संघ के चित्र खिंचवाये।
१९. माताजी स्व-पर कल्याण में संलग्न।
२०. महावीर जयंती पश्चात् संघ का विहार।
मुक्तागिरि में पुण्यार्जन कर, संघ बांसवाड़ा आया।
माताजी के प्रवचन सुनकर, जन-जन का मन हर्षाया।।
एक ग्राम से इक-इक श्रावक, देवें मुझको पुत्री एक।
मैं विदुषी कर उन्हें बना दूँ, मनोरमा-सीता सी नेक।।५१७।।
हुये प्रभावित पन्नालाल जी, कनक-कला दो पुत्री ला।
माताजी के चरण कमल में, वंदामि सह दीं बिठला।।
पाँच वर्ष को सौंप रहा हूँ, माताजी दें रत्न बना।
ब्रह्मचर्यव्रत देकर उनको, माँ आशीष दिया अपना।।५१८।।
कनकलता औ कला उभय को, व्रत संयम की घुटी पिला।
खूब पढ़ाया, खूब सिखाया, जिससे जीवन सुमन खिला।।
समय प्राप्त श्री कलादेविजी, ज्ञान-ध्यान-तप हुई प्रवीण।
कैलाशमती आर्यिका होकर, आत्म-धर्म में अधुना लीन।।५१९।।
पुत्री रहे कहीं भी लेकिन, सकती नहीं पिता को भूल।
रहती चाह पिता के मन में, पुत्री हो आँखों के कूल।।
गुरुवर होते पिता से बढ़कर, मिट्टी को देते आकार।
संस्कार के प्राण फूकते, गुरू पूर्ण माँ का अवतार।।५२०।।
शिष्या भी पुत्री से बढ़कर, रखती सदा गुरू का ध्यान।
गुरु ही उसके मात-पिता हैं, गुरुवर ही उसके भगवान।।
पाँच वर्ष पश्चात् श्री माँ, शिवसागर में मिलीं तथा।
मिलती है सागर में जाके, जल भर सरिता समय यथा।५२१।।
गुरुवर संघ राजित करावली, किए श्रीशिवनिधि दर्शन।
हर्ष अश्रु बह पड़े नयन से, हुआ संघ-सह संघ मिलन।।
बढ़ा संघ लख निज शिष्या का, श्रीगुरु अति ही हर्षाए।
कुशल-क्षेम, रत्नत्रय पूछा, वत्सलभाव उमड़ आए।।५२२।।
नगर प्रतापगढ़ शोभन सुन्दर, राजस्थानी शान रहा।
आचार्य संघ शिवसागर जी का, स्थापित चातुर्मास रहा।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी, चर्या-चर्चा-प्रवचन कर।
की प्रभावना जैन धर्म की, सकल समाज बोध देकर।।५२३।।
माताजी ने किये अध्यापित, मोतीचंद-यशवंत कुमार।
अन्यानेक शिष्य-शिष्याओं, पायी शिक्षा भली प्रकार।।
यही नहीं मोती-यशादि नौ, कक्षा शास्त्री की उत्तीर्ण।
और आज सान्निध्य उन्हीं के, लगे भवोदधि करने तीर्ण।।५२४।।
प्रतापगढ़ के चातुर्मास का, लेखनीय है एक प्रसंग।
मात-पिता संग सुत रवीन्द्र भी, आये दर्शनार्थ मुनि संघ।।
माताजी ने अवसर पाकर, ब्रह्मचर्य दी घुटी पिला।
कालान्तर में संघ आर्यिका, को यह अनुपम रत्न मिला।।५२५।।
माताजी की चर्या निर्मल, उनकी समता करेगा कौन?
पिता बात जब करते घर की, धारण कर लेतीं तब मौन।।
अनुमति त्याग धरा व्रत जिसने, गृह चर्चा में लगता दोष।
धन्य-धन्य माताजी तुम हो, आपकी चर्या अति निर्दोष।।५२६।।
माताजी ने यहाँ पढ़ाये, न्याय दीपिका-गोम्मटसार।
ज्ञान दिया शिष्य-शिष्याओं, कातंत्र व्याकरण-सह विस्तार।।
तिलोयपण्णति ज्योतिर्लोक को, पढ़ा प्रभू को साक्षी कर।
कौशल पाया, शिविर लगाया, ज्ञान दिया, कृति छपवाकर।।५२७।।
माताजी से प्राप्त प्रेरणा, हुए सफलतम आयोजन।
गुरूपूर्णिमा, रक्षाबंधन, मुकुट सप्तमी, पर्यूषण।।
निष्ठापन सम्पन्न हो गया, समय उड़ गया पंख पसार।
चाँदनपुर को लक्ष्य बनाकर, आचार्य संघ का हुआ विहार।।५२८।।
संघ चला कोटा पधराया, फिर चमत्कार जी आया।
जैनधर्म की कर प्रभावना, महावीर चरण में शिर नाया।।
आचार्यश्री शिवसागर जी की, सहसा यहाँ समाधि हुई।
साधू भी मानव होते हैं, नयनों अँसुवन धार बही।।५२९।।
श्री मुनिराज धर्मसागर ने, आचार्यपट्ट का पद धारा।
एकादश जन हुए सु-दीक्षित, छोड़ चुके जो गृहकारा।।
श्री क्षुल्लिका अभयमती जी, हुई आर्यिका अभयमती।
मूल में प्रेरक रहीं सभी की, पूज्य आर्यिका ज्ञानमती।।५३०।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमतीजी, रहीं संघ में प्रेरक-प्राण।
प्रथम बुलाना, ज्ञान कराना, समय कराना दीक्षा दान।।
माँ ने घर-बाहर ना देखा, पकड़ लिया जो आया हाथ।
मोक्षमार्ग पर उसे लगाया, हम सब तुम्हें नमाते माथ।।५३१।।
माताजी व्युत्पन्नमति हैं, बुद्धि महाविलक्षण हैं।
एक महानारी के उनमें, एकत्रित सब लक्षण हैं।।
उन्हें पता है सब कुछ अस्थिर, कैसे हो रक्षित इतिहास।
अत: आपने साधु संघ के, चित्र खिंचाये किये प्रयास।।५३२।।
माताजी हैं बड़ी पारखी, मणि-मोती सबका है ज्ञान।
जिसको हाथ लगा देती हैं, हो जाता उसका कल्याण।।
किस-किस का उल्लेख करें हम, यहाँ तो लम्बी सूची है।
सच है, उदार चरित संतों की, होती धरा समूची है।।५३३।।
चैत्र शुक्ल तेरस के शुभदिन, वीरप्रभू का जन्म हुआ।
हुआ बृहद् मेला आयोजन, उत्सव महा अनन्य हुआ।।
महावीर के श्रीचरणों में, माथ नमाया द्वय कर जोर।
धर्मनिधि आचार्य संघ ने, गमन किया जयपुर की ओर।।५३४।।