आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के चरण-सानिध्य में आर्यिका अवस्था का प्रथम वर्षायोग व्यतीत करने का पुण्य अवसर मिला था। सन् १९५६ की बात है, इतने बड़े विशाल संघ का चातुर्मास खानिया में हो रहा था।
संघ में वयोवृद्धा आर्यिका धर्ममती माताजी का वात्सल्य मेरे प्रति बहुत ही अच्छा था। आर्यिका विमलमती माताजी, जो कि कई वर्षों बाद आचार्यश्री के दर्शनार्थ आई थीं, वे भी यहीं मंदिरजी में ठहरी थीं। आचार्यश्री और सभी मुनि तथा क्षुल्लकगण बड़ी नशिया जी में विराजमान थे।
आर्यिकायें छोटी नशिया में मंदिर के बाहर की धर्मशाला में ठहरी थीं। धर्ममती माताजी और उनके पास रहने वाली एक क्षुल्लिका ज्ञानमती जी-ये दोनों मंदिर के बाहर ही एक छोटे से कमरे में ठहरी थीं। आर्यिका पार्श्वमती माताजी, आर्यिका विमलमती माताजी और मैं मंदिरजी में ही बरामदे में रहती थीं।
मेरे साथ क्षुल्लिका जिनमती थीं और ब्र. सोनूबाई थीं। आर्यिका विमलमती जी के पास में ब्र. मदीबाई थीं। हम सभी आपस में खूब ही धर्मचर्चा किया करती थीं। एक बार लालाराम जी शास्त्री आचार्यश्री के दर्शनार्थ आये थे। वे मुझे देखते ही बहुत प्रसन्न हुए। चूंकि उस समय संघ में सबसे छोटी उम्र की मैं थी।
मेरी बुद्धि के क्षयोपशम और व्याकरण के ज्ञान से वे बहुत ही प्रभावित हुए, पुनः मुझसे बोले- ‘‘माताजी! मैं आपकी कुछ सेवा करना चाहता हूँ। मैं चाहता हॅूं कि आप मुझे कुछ स्वाध्याय का अवसर दें। अर्थात् वे मुझे कुछ अध्ययन कराना चाहते थे किन्तु उनके शब्दों में बहुत ही विनम्रता थी। उनके बारे में हमें यह भी जानकारी मिली थी कि इन्होंने लगभग ४० ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद किया है।
महापुराण, उत्तरपुराण आदि ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित भी हो चुके थे। ये पं. मक्खनलाल जी के बड़े भाई थे। इनके एक भाई श्री चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज से मुनिदीक्षा लेकर मुनि सुधर्मसागर जी हुए हैं। इन्होंने बड़े आचार्य संघ में अनेक मुनियों को संस्कृत का ठोस अध्ययन कराया है।
पं. लालाराम जी की प्रार्थना को सुनकर मैंने उन्हें उत्तर दिया कि- ‘‘मैं आचार्यश्री से पूछकर ही कुछ निर्णय करूँगी।’’ मैंने आचार्यश्री की वंदना करके पूछा-‘‘महाराज जी! पं. लालारामजी मुझे कुछ अध्ययन कराना चाहते हैं। आपकी जैसी आज्ञा हो वैसा उन्हें कहा जाये! तब आचार्यश्री ने कहा-‘‘ठीक है, अभी तुम्हारी अध्ययन की ही उम्र है, जो भी पढ़ाना चाहते हैं, पढ़ो।’’
पंडित जी ने कहा-‘‘इन्होंने व्याकरण पढ़ी हुई है। उसके साथ एक काव्य ग्रंथ का पढ़ना अति आवश्यक है, अतः मैं चाहता हूँ कि ये चन्द्रप्रभ चरित पढ़ लें।’’ आचार्य महाराज ने आज्ञा दे दी। पंडित जी ने मुझे अध्ययन शुरू कराया। उसमें उन्होंने खण्डान्वय और दण्डान्वय की प्रक्रिया बतलाई।
इस प्रकार से दो-तीन दिन ही पढ़ाया था कि उनका स्वास्थ्य अस्वस्थ हो गया, वे नहीं आ सके। वे उस समय बहुत ही वृद्ध थे। उन्होंने मुझसे प्रारंभ में ही पूछा था कि- ‘‘माताजी! यह कानजी मत सांख्यमत के सदृश एकान्त है। इस विषय में आपका क्या अभिमत है?’’ तब मैंने यही कहा था कि- ‘‘हाँ, ये लोग निश्चय एकान्त का दुराग्रह पकड़ रहे हैं।
वास्तव में आत्मा को कर्मों का कर्ता नहीं मानने वाला सिद्धान्त, साँख्य मत के ही अनुरूप है।’’ तब उन्होंने यह भी कहा कि-‘‘इसका आपको खण्डन करना चाहिए।’’ मैंने कहा-‘‘ठीक ही है, आगम के प्रतिकूल सिद्धान्त का खण्डन करना उचित ही है।’’ मेरी रुचि न्याय ग्रन्थों के पढ़ने में भी बहुत ही थी अतः मैंने जिनमती को परीक्षामुख और न्यायदीपिका पढ़ाना शुरू कर दिया।
पं. खूबचन्द्र जी शास्त्री प्रायः प्रति वर्ष संघ में अपनी पत्नी सहित आते थे और चौका करके आहार दान का लाभ लेते रहते थे। वे प्रातः एक घण्टा कोई विशेष ग्रन्थ साधुओं की सभा में पढ़ते थे। उस वर्ष भी आये हुए थे। वे प्रवचनसार का स्वाध्याय करा रहे थे।
उनका मेरे प्रति भी बहुत ही वात्सल्य भाव था अतः उन्होंने यह निर्णय किया कि इनको भी मैं कुछ अध्ययन कराऊँ। आर्यिका वीरमती माताजी ने प्रमेयकमल मार्तण्ड पढ़ने का निर्णय किया। मैं भी उसी में सम्मिलित हो गई।
वे पंडितजी दो-चार दिन ही कुछ पढ़ा पाये थे कि उनको भी खांसी की तकलीफ होने से वह न्याय ग्रन्थ का अध्ययन चल नहीं पाया। फिर भी उनका धर्मप्रेम, गुरुभक्ति और आगमनिष्ठा जैसी थी वह सब आज के विद्वानों के लिए अनुकरणीय है। बाद में मैंने बिना पढ़े ही अपनी शिष्या जिनमती को प्रमेयकमलमार्तंड पढ़ाया है।
एक बार उनके चौके से एक माताजी नवधा भक्ति की कुछ कमी होने से वापस आ गर्इं। आहार के अनन्तर आकर उन्होंने आचार्यश्री से कहा कि- ‘‘पंडित खूबचन्द जी ने पड़गाहन करके प्रदक्षिणा नहीं लगाई इसलिए मैं वापस आ गई।’’ आचार्यश्री ने कहा-‘‘तुमने ठीक किया।’’ अनन्तर खूबचन्द जी भी आकर बैठ गये और इसी विषय में आचार्यश्री से शंका- समाधान करने लगे।
आचार्यश्री ने कहा- ‘‘पंडित जी! जब आर्यिकाओं की आप नवधाभक्ति करते हैं, अष्टद्रव्य से पूजा करते हैं, पुनः उनकी प्रदक्षिणा लगाने में ही आपने क्या दोष समझा?’’ पंडित जी की समझ में आ गया कि-‘‘सचमुच में नवधाभक्ति के लिए आर्यिकायेें पात्र हैं-योग्य हैं तो पुनः उनकी प्रदक्षिणा भी देनी चाहिए।’’
एक दिन उन्होंने किसी साधु को पड़गाहन कर नवधा भक्ति करते समय गंधोदक मस्तक पर नहीं लगाया प्रत्युत् उसका वंदन कर लिया। इस पर भी आचार्यश्री के पास चर्चा चली। पंडित जी ने कहा-‘‘महाराज जी! गंधोदक लेने का श्लोक तो यही है कि-
निर्मलं निर्मलीकरणं, पवित्रं पापनाशनं।
जिनगंधोदकं वंदे, अष्टकर्मविनाशनंं।।
इसमें जिनगंधोदक को वंदन करने के लिए कहा है न कि मस्तक पर लगाने के लिए। इसी बीच मैं भी आहार करके आ गई थी। उस समय वहीं बैठी थी। मैंने पद्मनंदिपंचविंशतिका१ में जो प्रकरण पढ़ा था सो उन्हें दिखा दिया।
वे प्रभावित हुए और बाद में सभी मुनि आर्यिकाओं के चरण प्रक्षालन के बाद गंधोदक लेकर बड़े आदर से नेत्रों में और मस्तक पर लगाने लगे। ऐसे ही उनके कई एक उदाहरण बहुत अच्छे लगे थे। उन दिनों मैं ज्ञानार्णव ग्रन्थ का स्वाध्याय कर रही थी। उसमें जो बारह भावनाओं का वर्णन है वह मुझे बहुत ही अच्छा लगा।
मैंने उसकी संस्कृत टीका लिखना शुरू किया। चार-पाँच भावनाओं की टीका लिखी थी। एक दिन सहसा पंडित जी को दिखाया और पूछा- ‘‘पंडित जी! देखिए, मेरी संस्कृत व्याकरण शुद्ध है क्या? यह टीका की लेखन-शैली कैसी है?’’ पंडित जी ने पढ़ा, बहुत प्रसन्न हुए और मेरी कापी लेकर आचार्यश्री के पास पहुँचे।
महाराज जी को दिखाते हुए कुछ एक पंक्तियाँ सुनाते हुए बोले- ‘‘महाराज जी! इन ज्ञानमती आर्यिका का संस्कृत ज्ञान कितना सुन्दर है! इनकी टीका शैली बिल्कुल सही है और बहुत ही ललित है, मधुर है। ये एक दिन अच्छी विदुषी प्रख्यात होंगी। इनकी वाक्य पद्धति और बुद्धि, आगम और परम्परा के अनुकूल है।’’
सुनकर आचार्यश्री प्रसन्न हुए। अनन्तर पता नहीं क्या कारण बना कि मैंने उसके आगे लेखनी चलाई ही नहीं। आज वह पाँच भावनाओं की टीका की कापी भी कहाँ गई? मुझे पता तक नहीं है। यह सन् १९५६ की बात है। इसके बाद सन् १९५९ में अजमेर के चातुर्मास में मैंने आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज की एक छोटी सी स्तुति संस्कृत में उपजाति छंद में बनाई थी।
अनन्तर श्रवणबेलगोला में भगवान् बाहुबली की स्तुति वसंततिलका छंद में रची है। बाद में तो मैं अनेक स्तुति रचना करती ही रही हूँ। कोई टीका ग्रन्थ नहीं लिख पाई हूँ। सन् १९७८ में नियमसार ग्रन्थ की संस्कृत टीका प्रारंभ की थी। मात्र ७३ गाथाओं की टीका उसी वर्ष में कर ली थी।
अनन्तर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के बाद अनेक छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के लेखन का कार्य शुरू हो जाने से वह टीका सन् १९८४ में पूर्ण हुई है। इस नियमसार टीका को सन् १९७८ के प्रशिक्षण शिविर के अवसर पर आये हुए पंडित तिलक श्री मक्खनलाल जी ने देखा था, तब उन्होंने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और मुझे श्रुतकेवलीकल्प कहा था तथा उसे जल्दी ही पूर्ण कर प्रकाशित कराने की प्रेरणा दी थी। सन् १९५६ में जयपुर के चातुर्मास के समय सोलापुर श्राविका आश्रम की संचालिका ब्रह्मचारिणी सुमतिबाई जी आई हुई थीं।
वे आचार्यश्री के पास बैठकर षट्खण्डागम सूत्रों की खूब चर्चा किया करती थीं। उनके साथ में कु. विद्युल्लता शाह थीं और कु. स्नेहलता दोशी थीं। ये स्नेहलता मेरे पास मेंं स्थित ब्र. सोनूबाई की पुत्री थीं। ब्र. सोनूबाई ने मुझसे कई बार कहा कि- ‘‘अम्मा! यह स्नेहलता विवाह नहीं करना चाहती है, अतः इसे संघ में रहने की प्रेरणा दो। आप क्षुल्लिका जिनमती जैसा इसे भी अध्ययन कराओ।
आश्रम में तो बहुत लड़कियाँ रहती हैं। कोई कैसे विचार रखती हैं कोई कैसा ही आचरण करती हैं? किन्तु यहाँ संघ में और आपके पास तो सदा ज्ञानाराधना का ही वातावरण रहता है। मेरी इच्छा यही है कि इसका भविष्य उज्ज्वल बने इसलिए इसका आपके पास रहना ही अच्छा रहेगा।’’
मैंने भी स्नेहलता को समझाया और संघ में रहने की प्रेरणा दी, वह राजी हो गई किन्तु सुमतिबाई जी से पूछने पर उन्होंने इंकार कर दिया, कहा कि- ‘‘तुम आश्रम में पढ़ी हो, वहीं रहकर पढ़ाओ, किन्तु मैं यहाँ कतई नहीं रहने दूँगी।’’ इधर उसकी भावना बन जाने से वह लड़की संघ में मेरे पास रहना चाहती थी।
वह भी सुमतिबाई की बात सुनकर पशोपेश में पड़ गई। उधर सुमतिबाई ने आचार्यश्री से भी कह दिया कि- ‘‘महाराज जी! मैं स्नेहलता को साथ ही ले जाऊँगी, यहाँ नहीं छोड़ूँगी। आर्यिका ज्ञानमती माताजी उसे रखना चाहती हैं। आप उन्हें मना कर दीजिये। तब आचार्यश्री ने सरल भाव से दूसरे दिन मुझसे कहा- ‘‘ब्र. सुमतिबाई स्नेहलता को नहीं छोड़ना चाहती हैं, अतः उसे जाने देना।’’
इसके अनन्तर भी ब्र. सोनूबाई के आग्रह विशेष से मैंने उसे रोक तो लिया किन्तु ‘आचार्यश्री ने मना किया था फिर भी रोका है’ इस बात का मुझे मन में बहुत खेद रहा। स्नेहलता की बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण थी। उसे गोम्मटसार जीवकांड पढ़ाना शुरू किया। २०० से ऊपर गाथायें पढ़ चुकी थी, ढाई महीने व्यतीत हो गये थे।
तभी उसके पिता लालचन्द्र दोशी आ गये। उन्होंने यह भी बताया कि ब्र. सुमतिबाई ने पत्र लिखकर विशेष आग्रह किया है कि खानिया-जयपुर से स्नेहलता को लिवा लाना। उसे आश्रम में ही रहना है, न कि संघ में। उस लड़की की स्वयं इच्छा न होते हुए भी उस समय उसे पिता के साथ ही भेजने का निर्णय हो गया।
ब्र. सोनूबाई ने अपने पति से निवेदन किया कि- ‘‘आप मुझे दीक्षा लेने के लिए स्वीकृति देते जाइये।’’ उस समय उन्होंने सरल भाव से आचार्यश्री के सन्मुख कह दिया कि-‘‘महाराज जी! इनकी दीक्षा लेने की इच्छा है तो मुझे कुछ एतराज नहीं है। आप इनकी योग्यता देखकर इन्हें दीक्षा दे दीजिये।’’
सोनूबाई व्रत-उपवास करने में बहुत ही पक्की थीं, ज्ञान अल्प था तो भी श्रद्धा बहुत ही अच्छी थी। साथ ही वैराग्य भी अच्छा था, अतः आचार्यश्री ने उनकी दीक्षा के लिए मुहूर्त निकलवाया किन्तु कुछ कारणवश उनकी दीक्षा उस मुहूर्त पर नहीं हो सकी। वह चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हुआ।
अनन्तर आचार्यश्री जयपुर शहर में आ गये। ‘लूण्यापाण्या’ के मंदिर में सभी मुनिराज विराजमान थे और गोधा के मंदिर में सभी आर्यिकायें ठहरी थीं। कुछ दिनों बाद संघ खजांची की नशिया में आ गया।
वहीं पर ब्र. सोनूबाई की दीक्षा हुई। आचार्यश्री ने उन्हें क्षुल्लिका दीक्षा देकर उनका नाम ‘‘पद्मावती’’ रखा। यहाँ पर आष्टाह्निक पर्व में सिद्धचक्र विधान का आयोजन बहुत ही विशाल रूप में किया गया, जिसमें अनेक नर-नारियों ने पूजन करके अपने जीवन को धन्य किया था।