(चतुर्थ_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. जयपुर में आचार्य श्री धर्मसागर का संघ सहित आगमन।
२. संघ का जयपुर में चातुर्मास स्थापित।
३. माताजी ने मुनिसंघ को अध्यापन कराया।
४. ज्ञानक्षेत्र में सब नारियों में माताजी का प्रमुख स्थान।
५. यहीं अष्टसहस्री की हिन्दी टीका रची।
६. माताजी ने शिष्य हितार्थ अष्टसहस्री का अनुवाद किया।
७. रुग्णकाल में भी माताजी ने विश्राम/विराम नहीं लिया।
८. शिक्षण शिविर का आयोजन। ९. ज्योतिर्लोक का ज्ञान दिया।
१०. जयपुर से निवाई, फिर रियासत टोंक आगमन।
जयपुर तो जैनों का गढ़ है, कहलाता है जैन नगर।
सज्जित हुए गली-चौराहे, हुई प्रपुल्लित डगर-डगर।।
श्री आचार्य धर्मसागर जी, संघ सहित पधराये हैं।
प्रकृति-पुरुष सबने ही मिलकर, गीत खुशी के गाये हैं।।५३५।।
श्री आचार्य धर्मसागर जी, हैं निर्मल चारित्र निधान।
आर्ष परम्परा के संपोषक, संघ चतुर्विध आप प्रधान।।
सकल देश के नयन सितारे, सकल समाज हृदय सम्राट्।
त्याग और निस्पृह जीवन के, उच्चादर्श रहे हैं आप।।५३६।।
इसी संघ शोभायमान हैं, पूज्य आर्यिका ज्ञानमती।
सरस्वती अवतार आप हैं, बालयोगिनी बीस सदी।।
ज्ञान-ध्यान-तपलीन सर्वदा, करतीं सबको ज्ञान प्रदान।
गुरूभक्त-अनुशासित-विनयी, वत्सलादि सर्वगुण खान।।५३७।।
ऐसे अनुपम संघ को पाने, कौन नहीं ललचायेगा।
पर जिसका होगा पुण्योदय, बस, वह ही पा-पायेगा।।
बिना पुण्य पुरुषार्थ अकेला, हो सकता है सफल नहीं।
चातुर्मास हुआ जयपुर में, संघ गया अजमेर नहीं।।५३८।।
आषाढ़ शुक्ला चौदस तिथि को, हुआ स्थापित चातुर्मास।
जयपुर ने अति हर्ष मनाया, लौट गया अजमेर निराश।।
हानि-लाभ में समता धारें, लेते हैं विवेक से काम।
सम्यक्दृष्टि महज्जनों की, यही रही बाह्य पहचान।।५३९।।
माताजी स्वाध्याय कराया, मुनिसंघ मन वत्सलधार।
कल्याणमंदिर-गोम्मटसारजी, दिन में एक बजे से चार।।
मुनिवर श्री दिया-अभिनंदन-संयम-बोधि-महेन्द्र निधि।
निर्मल-संभव-वर्धमान निधि, हुए अध्यापित यथाविधि।।५४०।।
कुछेक आर्यिका-मोतीचंद भी, इस शिक्षण में लेते भाग।
प्राकृत व्याकरण करें अध्यापित, माताजी आहार के बाद।।
प्रतिदिन प्रात: सात बजे से, भी रहता अध्यापन क्रम।
तत्त्वार्थ राजवार्तिक-अष्ट-सहस्री को पढ़ते थे मुनिगण।।५४१।।
नहीं विराम लेतीं माताजी, सदा-सदा चलता यह क्रम।
शास्त्री-न्यायतीर्थ विषयों को, पढ़ते शिष्य व साधूगण।।
अष्टसहस्री-राजवार्तिक, जैनेन्द्र प्रक्रिया ग्रंथ अनेक।
शब्दार्णव चन्द्रिका, गद्य चिन्तामणि, अध्यापित होते प्रत्येक।।५४२।।
बात यहीं पर पूर्ण न होती, अब चलती लेखन की बात।
माताजी ने जैन धर्म को, दी इक महत्वपूर्ण सौगात।।
अष्टसहस्री हिन्दी टीका, माताजी ने रची यहीं।
और किसी ने कष्ट किया हो, मिलता है उल्लेख नहीं।।५४३।।
नारी नर से दुगुनी भारी, यह तो उक्ति पुरानी है।
लेकिन माता ज्ञानमती की, यह प्रत्यक्ष कहानी है।।
ऐसा अब तक कोई उदाहरण, पढ़ने-सुनने में न आया।
ज्ञानक्षेत्र में भारी नारी, हो जिसने कर दिखलाया।।५४४।।
उमास्वामि आचार्यश्री से, शिष्य ने पूछा आतमहित।
आचार्यश्री ने उसे बताया, मोक्षमार्ग आशीष सहित।।
वही ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र की, रहे प्रवाहित गंगा आज।
जिसमें नित अवगाहन करके, है लाभान्वित सकल समाज।।५४५।।
तथा मात के शिष्य एक हैं, मोतीचंद ब्रह्मचारी।
शास्त्री – न्यायतीर्थ दोनों की, करें परीक्षा तैयारी।।
अष्टसहस्री ग्रंथ उभय में, था निर्धारित लगा कठिन।
शिष्य हितार्थ किया माताजी, पूर्व परीक्षा अनुवादन।।५४६।।
अष्टसहस्री सकल जनों को, लगती कष्ट-सहस्री है।
लेकिन वह तो माताजी को, लगी थी मिश्री जैसी है।।
अत: नहीं श्रीमाताजी ने, रुग्णकाल भी लिया विराम।
दृष्टि विशुद्धी, जिनवर भक्ती, का पीयूष पिया अविराम।।५४७।।
आचार्यश्री की आज्ञा पाकर, किया शिविर आयोजन है।
जैन ज्योतिर्लोक का परिचय, इसका मुख्य प्रयोजन है।।
पन्द्रह दिन तक दिया सभी को, सूर्य-चंद्र-नक्षत्री ज्ञान।
जैनागम से दिया मातुश्री, सूत्र-चित्र-रेखीय प्रमाण।।५४८।।
जैन नगर का चतुर्मास यह, रहा अतीव फलदायी है।
निष्ठापन पश्चात् संघ यह, पहुँचा नगर निवाई है।।
धर्म प्रभावना कर निवाई में, महावीर का करके ध्यान।
संघ संग माताजी पहुँचीं, टोंक रियासत राजस्थान।।५४९।।