(चतुर्थ_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. जयपुर से सांगानेर।
२. पिताजी के स्वर्गवासी होने का समाचार।
३. पितृ वियोग में समता धारण।
४. मोतीचंद्र को टिकैतनगर भेजा-माँ मोहिनी को संबोधन।
५. संघ का निवाई आगमन।
६. संघस्थ-साधु-साध्वियों को अध्यापन।
७. निवाई से टोंक में चातुर्मास स्थापना।
८. माताजी अस्वस्थ।
९. माताजी ने लेखन क्षेत्र में इतिहास की रचना की।
१०. टोंक से टोड़ारायसिंह आगमन।
११. माता मोहिनी का आगमन एवं सातवीं प्रतिमा के व्रत धारण।
चातुर्मास हुआ निष्ठापित, आचार्यश्री ने करी न देर।
नगर गुलाबी जयपुर से चल, संघ पधराया सांगानेर।।
यहाँ सुशोभित दस जिनमंदिर, दर्शक चित्त लुभाते हैं।
सुंदर-बृहत्-तुंग-आकर्षक-कलापूर्ण मन भाते हैंं।।५५०।।
सकल जिनालय, जिनवर वंदे, मन में अति उत्साह रहा।
किन्तु शरीर कष्ट फुड़िया का, नहिं वचनों से जाय कहा।।
फाँस तनक सी तन में सालें, रही कहावत यह खासी।
तभी तार ग्राम से आया, पिताजी हुए स्वर्गवासी।।५५१।।
सुना दिवंगत हुए पिताजी, आया तार टिकैतनगर।
सिहर उठा तन मैना देवी, मन में दौड़ी शोकलहर।।
लेकिन तत्क्षण ज्ञानमती ने, वस्तुतत्त्व पर किया विचार।
कोई नहीं किसी का साथी, झूठे रिश्तों का संसार।।५५२।।
यह जग मेला, जीव अकेला, कोई न संग आता-जाता।
माता-पिता-सुता-गुरु-चेला, सबका है झूठा नाता।।
अजर-अमर यह आत्मतत्व है, ध्रुव-अक्षय-अविनाशी है।
तन तो है पुद्गल परिवर्तन, अध्रुव-क्षयी-विनाशी है।।५५३।।
हो आत्मस्थ-स्वस्थ माताजी, मोतीचंद दिया आदेश।
टिकैतनगर जा कहो हमारा, मातृ मोहिनी से संदेश।।
गृह कारागृह छोड़ संघ में, आकर करो आत्म कल्याण।
तुमने दिया मोक्षपथ मुझको, मुझको भी है तुमरा ध्यान।।५५४।।
यहाँ से संघ गया निवाई, की प्रभावना अति खासी।
गोम्मटसार स्वाध्याय कराया, संघस्थ आर्यिका-संन्यासी।।
माताजी हैं शिल्पी जैसी, गढ़-गढ़ देती मूर्ति बना।
आचार्यप्रवर उन्हें दीक्षा देकर, उनको देते पूज्य बना।।५५५।।
माताजी के शिष्य एक ना, साध्वी-श्रावक-मुनि कई।
संघ गमन करके निवाई से, गया रियासत टोंक नई।।
एक माह करके प्रवास यहाँ, किया अध्यापन-लेखन कार्य।
तदनन्तर गये टोंक पुरानी, संघ सहित धर्म आचार्य।।५५६।।
सकल समाज ने किया निवेदन, सविनय, मधुर लिए भाषा।
आचार्यश्री! हम धर्म पिपासु, चाह रहे तव चौमासा।।
करुणाधन आचार्यश्री ने, सुना निवेदन भली प्रकार।
चातुर्मास किया स्थापित, यथाविधि आगम अनुसार।।५५७।।
संघ चतुर्विध के माध्यम से, हुए प्रभावना के बहुकाम।
लेकिन माता ज्ञानमती को, तभी दबोचा तीव्र जुखाम।।
खुले स्थान, शीत के कारण, जकड़ाए सब अंग-प्रत्यंग।
बहुत क्या कहें धर्म मार्ग में, इससे हुआ रंग में भंंग।।५५८।।
पद्मनंदिपंचविंशतिका, कहते हैं आचार्यश्री।
सुख ही सुख अथवा दुख ही दुख, रहते जीवन नहीं कभी।।
नीचे-ऊपर होते रहते, यथा चक्र के आरे हैं।
वैसे ही सुख-दुख के भागी, होते जीव बेचारे हैं।।५५९।।
अगर करें सुख-दुख की गणना, तदा दु:ख तो सिंधु प्रमाण।
किन्तु सुक्ख मिलता जीवन में, अल्प-न्यून बिन्दु के मान।।
उसमें भी दुख बीच में आकर, कर देता है तीव्र प्रहार।
अत: समझ लो लेश नहीं सुख, हर पल दुखमय है संसार।।५६०।।
मात मोहिनी अति वियोगिनी, किए सकल केश कर्तन।
श्वेत साटिका धारी, आयीं, आचार्यश्री करने दर्शन।।
श्रीफल भेंट किया गुरु चरणों, सप्तम प्रतिमाव्रत धारें।
आचार्यश्री को किया नमोऽस्तु, आप मुझे भवदधि तारें।।५६१।।
किन्तु श्री पूज्य माताजी, किंचित् नहीं विराम लिया।
अध्ययन-अध्यापन-टीका में, तन-मन शुभ उपयोग किया।।
हाथ लिया जो करके छोड़ा, नहीं अधूरा काम बचा।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती ने, एक नया इतिहास रचा।।५६२।।
चातुर्मास हुआ निष्ठापित, टोड़ारायसिंह हुआ विहार।
अष्टसहस्री की टीका पर, शुभ आशीष दिया आचार्य।।
श्रुतपंचमी पावन दिन पर, अष्टसहस्री पूजा की।
आचार्यश्री के जन्म दिवस पर, श्री जिनेन्द्र यात्रा निकली।।५६३।।
तदा पालकी हुई विराजित, अष्टसहस्री की टीका।
भव्य जुलूस ने मोह लिया मन, साधु-श्रावक सब ही का।।
अनुपमकार्य किया माताजी, अनुपम ही सम्मान मिला।
प्राप्त साधना की गरिमा को, साधक का मन कमल खिला।।५६४।।