आचार्यश्री ने एक दिन आर्यिकाओं को आज्ञा दी कि- ‘‘चातुर्मास के पूर्व तक तुम सभी दो ग्रुप में होकर आस-पास के गाँवों में विहार करो।’’ गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त कर आर्यिका वीरमती माताजी ने संघस्थ आर्यिकाओं को साथ में लेकर पास के किसी गाँव में जाने का निर्णय लिया। मैंने इच्छा न होते हुए भी गुुरु आज्ञा शिरोधार्य कर जयपुर से बगरू जाने का विचार बनाया। कुछ दिन पूर्व क्षुल्लक सन्मतिसागर जी गुरु की आज्ञा के बिना ही बगरू चले गये थे अतः
आचार्य देव ने मुझसे कई बार यह शब्द कहे कि-‘‘ज्ञानमती! तुम क्षुल्लक सन्मतिसागर जी को समझा कर वापस उन्हें संघ में ले आना।’’ जब मैं विहार कर रही थी। आचार्यदेव के पास आशीर्वाद लेने गई तब उन्होंने कहा- ‘‘बाई! तुम्हें मैं और कुछ नहीं कहूँगा, बस एक ही बात कहता हूँ कि तुम हमेशा अपने नाम का ध्यान रखना।’ इतना सुनकर
ब्रह्मचारी श्रीलाल जी बोले-‘‘महाराज जी! आपने अभी वृद्धा आर्यिकाओं को विहार करते समय अनेक शिक्षायें दी थीं, आप इन्हें मात्र दो शब्द में ही कह रहे हैं कि ‘‘अपने नाम का ध्यान रखना।’’ बाकी कोई भी शिक्षा नहीं दे रहे हैं, ऐसा क्यों? जबकि ये तो सबसे छोटी हैं तथा नवदीक्षिता हैं। तब
आचार्यश्री ने कहा-‘भाई! मैंने दो शब्द में ही इन्हें शिक्षा दे दी है। बस इनके लिए मुझे इतना ही कहना है, और कुछ नहीं।’’ गुरुदेव के इतने छोटे से वाक्य की अमूल्य शिक्षा को मैंने अपने हृदय में धारण किया। पुनः-पुनः गुरुदेव की चरण रज अपने मस्तक पर चढ़ाई और उनका आशीर्वाद लेकर मैंने अपने साथ में क्षुल्लिका जिनमती और पद्मावती इन दोनों को लेकर बगरू की ओर विहार कर दिया। उस समय मेरे साथ दक्षिण की एक ब्रह्मचारिणी चतुरबाई थींं। उन्होंने आचार्यश्री की आज्ञा से अपने साथ में एक जिनेन्द्र देव की प्रतिमा का चैत्यालय भी ले लिया था, चूँकि
आचार्यश्री ने मुझसे कहा था-‘‘ज्ञानमती! आजकल तेरापंथ और बीसपंथ ये दो पंथ चल रहे हैं, अतःयदि तुम्हारे साथ में ब्रह्मचारिणी हों तो चैत्यालय अवश्य रखना जिससे उन्हें अभिषेक पूजन करने की सुविधा रहे क्योंकि किसी मंदिर जी में मान लीजिये श्रावक स्त्रियों को अभिषेक नहीं करने देते हैं तो वहाँ अपने निमित्त से विसंवाद नहीं होना चाहिए, यह बात हमेशा ध्यान में रखो।’’ बगरू गांव में मेरा अच्छा स्वागत हुआ।
क्षुल्लक सन्मतिसागर जी समाज के अनेक स्त्री-पुरुषों को साथ लेकर बाहर नशिया जी के प्रांगण में स्वागत के लिए आ गये थे। वहाँ से हम सभी गाँव के मंदिर में आ गये। मंदिर के सामने धर्मशाला में हम तीनों साध्वियाँ ठहर गई। वहाँ पर नियमित उपदेश चल रहा था। हमारे स्वाध्याय में क्षुल्लक जी भी बैठते थे। समय पाकर मैंने क्षुल्लक जी को अकेले न रहने की, संघ में ही रहने की बहुत कुछ शिक्षायें दी थीं, जिसे उन्होंने मान्य किया था।
मैंने आचार्यदेव का आदेश भी उन्हें सुना दिया था, तब वे बोले थे कि-‘‘अब मैं आपके साथ ही वापस आचार्यश्री के शरण में पहुँचकर वहीं पर रहूूँगा।’’ कई एक दिन बाद मुनिश्री शिवसागर जी महाराज भी क्षुल्लक चिदानन्दसागर को साथ लेकर यहीं बगरू में आ गये। इस निमित्त से यहाँ अच्छी धर्म प्रभावना हुई।
यहाँ से विहार कर मैं पास के ही गाँव झाग पहुँच गई। वहाँ पर कुछ दिन रह कर धर्म प्रभावना करके मोजमाबाद पहुँच गयी। श्री शिवसागर जी और दोनों क्षुल्लक जी भी यहाँ आ गये। गर्मी के दिनों में यहाँ के जिनमंदिर के तलघर बहुत ही ठंडे थे। उनमें बैठकर प्राचीन जिन प्रतिमाओं का ध्यान करने में बड़ा ही आनन्द आता था। यहाँ की भाक्तिक समाज ने भी अच्छा धर्मलाभ लिया। यहाँ महिलाओं में स्वाध्याय और धर्मप्रेम बहुत ही अच्छा था। इन दिनों नेनवां के एक ब्रह्मचारी जी मेरे निकट अध्ययन हेतु आये हुए थे।
इन्होंने अपनी छोटी उम्र में ही पत्नी की इच्छा न होते हुए भी ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया था और आचार्यश्री से दीक्षा लेना चाहते थे। इनकी गुरुभक्ति बहुत अच्छी थी किन्तु क्षयोपशम कुछ मन्द था, फिर भी वैराग्य था।१
यहाँ से विहार कर हम लोग चोरू गाँव में आ गये। यहीं पर श्री शिवसागर जी मुनिराज और दोनों क्षुल्लक भी आ गये। हम सभी साधु-साध्वीगण धर्मचर्चा में अपने समय का सदुपयोग कर रहे थे। अकस्मात् ब्रह्मचारी लाड़मल जी का पत्र मिला कि- ‘‘आचार्य देव को एक-दो दिनों से अतिसार हो जाने से दुर्बलता अधिक हो गई है।’’
इतना समाचार विदित होते ही हम सभी का मन विक्षिप्त हो उठा। चूँकि आचार्यदेव सल्लेखना की तैयारी में लगे हुए थे, अतः क्या पता किस दिन वे इस नश्वर शरीर से विदाई ले लें? शाम को यह समाचार मिला था तब मुनिश्री शिवसागर जी ने कहा था कि अब प्रातः विहार का विचार बनायेंगे। मुनिश्री ने दोनों क्षुल्लकों को साथ लेकर एक मार्ग से जयपुर की ओर प्रस्थान किया और मैंने अपने साथ दोनों क्षुल्लिकाओं को लेकर पृथक मार्ग से प्रस्थान कर दिया। दो-तीन दिनों में हम सभी साधु-साध्वियाँ आचार्यश्री के चरण सानिध्य में पहुँच गये। उनको सकुशल देखकर प्रसन्नता हुई।
आचार्यश्री ने कहा-‘‘तुम लोग इतनी जल्दी क्यों भागे चले आये?’’
हम लोगों ने कहा-‘‘महाराज जी! आपकी आज्ञा के अनुसार हम लोगों ने चार गाँव का विहार कर लिया। अब हम लोग आप के श्रीचरण सानिध्य में ही रहकर कुछ आपके जीवन के अनुभव का लाभ लेना चाहते हैं।’’ दो दिन में ही आर्यिका वीरमती माताजी भी संघ सहित यहाँ खजांची की नशिया में आ गर्इं पुनः हम सभी साधु-साध्वियाँ गुरुचरण के निकट एकत्रित हो गये। उस समय वहाँ पर मानों धर्म ही मूर्तिमान् होकर प्रगट हो गया था। एक दिन क्षुल्लक सन्मतिसागर जी ने कहा- ‘‘माताजी! मैं आपसे प्रतिक्रमण का अर्थ सीखना चाहता हूँ।’’
मैंने आचार्यदेव से आज्ञा माँगी, उन्होंने आज्ञा दे दी। तब क्षुल्लक सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक चिदानन्दसागर जी, क्षुल्लिका चन्द्रमती जी, क्षुल्लिका जिनमती और क्षुल्लिका पद्मावती जी आदि सभी के लिए मैंने प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी के आधार से प्रतिक्रमण का अर्थ पढ़ाना शुरू कर दिया। इसमें अनेक वयोवृद्धा आर्यिकायें भी रुचि ले रही थीं। इसी संदर्भ में मैंने इन सभी को देववंदना विधि बतलाई। इस समय तक साधु संतों में इस देववंदना (सामायिक विधि) का प्रचलन नहीं था। इसमें ईर्यापथ शुद्धि करके विधिवत् सामायिक स्वीकार करके कृतिकर्मपूर्वक चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति की जाती है। क्षुल्लक चिदानन्दसागर जी को तो यह विधि बहुत ही जँची,
वे कहने लगे-‘‘माताजी! श्वेताम्बर सम्प्रदाय में साधु-साध्वी इस प्रकार से कृतिकर्म आदि में अधिक रुचि रखते हैं। यद्यपि उनकी क्रियाओं में और अपनी क्रियाओं में अन्तर है फिर भी तीन बार उठकर नमस्कार करना आदि अनेक क्रियाओं में समानता पाई जाती है।’’ अतः इस विधि से देववंदना करने में साधुओं में एक अच्छा उत्साह बढ़ा। उन दिनों सायंकाल में करीब ५ बजे मुनिश्री शिवसागर जी महाराज सभी आर्यिकाओं, क्षुल्लिकाओं, क्षुल्लकों को बिठाकर चर्चा किया करते थे।
जिसमें मार्गणाओं के उत्तर-भेदों में, गुणस्थानों को और मार्गणाओं को घटित करने में बड़ा आनन्द आता था। उस समय गर्मी और लू की तपन में भी पता ही नहीं चल रहा था कि दिन कितना बड़ा है और गर्मी कितनी अधिक पड़ रही है। प्रत्युत् धर्मचर्चारूप अमृत के पान से सभी को एक विशेष तृप्ति का अनुभव हो रहा था। सबसे विशेष लाभ यह था कि आचार्यदेव के सानिध्य में नित्य ही एक घण्टा स्वाध्याय चलता था। उस समय आचार्यदेव स्वयं ही शास्त्र पढ़कर उसका अर्थ करके सुनाते थे। जिसे सुनकर मैं तो अपना बहुत बड़ा अहोभाग्य समझ रही थी।
अन्य समय में आचार्यश्री के मुखारविंद से अनुपम सूक्तिरत्नों के कणों का लाभ मिलता रहता था। मैं कभी-कभी आचार्यदेव के चरण सानिध्य में बैठकर अनेक शंकाओं के समाधान प्राप्त कर लिया करती थी। वे समाधान आज हमारे मोक्ष पथ में दीप स्तम्भ बने हुए हैं। एक बार एक आर्यिका सिद्धमती जी ने कहा-‘‘हम आर्यिकाओं के २६ ही मूलगुण हैं। चॅूंकि हमारे पास वस्त्र हैं और हम लोग बैठकर आहार लेती हैं।’’ तब मेरे मन में आशंका होने से मैंने आचार्यदेव के समक्ष समाधान चाहा। मैंने जाकर प्रश्न किया-‘‘गुरुदेव! हमारे कितने मूलगुण हैं?’’
आचार्यश्री ने कहा-‘‘तुम्हारे २८ मूलगुण हैं। देखो! दीक्षा के समय मुनिदीक्षा के ही सारे संस्कार हम आर्यिकाओं के मस्तक पर करते हैं, उन्हें २८ मूलगुणोें को देते हैं। जो उनके पास साड़ी हैं वह उनका मूलगुण ही है क्योंकि वे वस्त्र छोड़ नहीं सकती हैं। हाँ, यदि वे दो साड़ी के बजाए तीन साड़ी रख लें तो उनका मूलगुण अवश्य ही भंग हो जायेगा तथा बैठकर करपात्र में आहार करना भी उनका मूलगुण ही है, चूँकि वैसी ही आगम में उनके लिए आज्ञा है।
इसलिए तुम्हारे २८ मूलगुण ही हैं। दूसरी बात यह है कि प्रायश्चित्त ग्रन्थ में आर्यिकाओं के लिए मुनियों के बराबर प्रायश्चित्त देने का विधान है, जबकि क्षुल्लकों को उससे आधा प्रायश्चित्त देने की आज्ञा है। तीसरी बात शास्त्रोेंं में आर्यिकाओं को मुनियों के सदृश ही पूजा के लिए योग्य अर्थात् पूज्य माना है।’’ यह समाधान प्राप्त कर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई। एक समय उद्दिष्ट दोष को लेकर मैंने आचार्यदेव से जिज्ञासा व्यक्त की।
तब उन्होंने कहा-‘‘यदि साधु आहार के लिए कृत, कारित या अनुमोदना करता है तो वह दोष का भागी है अन्यथा नहीं। श्रावक यद्यपि उनको निमित्त करके आज शुद्ध आहार तैयार करता है फिर भी साधु को दोष नहीं है। देखो! क्या चतुर्थ काल में सारे श्रावक गरम जल पीते थे? क्या रोगी साधु के लिए औषधि और पथ्यरूप आहार तैयार नहीं करते थे? तथा पंचम काल के अन्त तक जब निर्दोष मुनि-आर्यिका रहेंगे तब आज ही उनकी चर्या निर्दोष नहीं बन सके यह कैसे मान लिया जाये? इसलिए अपने को आचार्य शांतिसागर जी को सच्चे महासाधु मानना ही चाहिए। उनकी चर्या को निर्दोष मानकर उसी के अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए।
स्वयं शंका नहीं करनी चाहिए और दूसरों को भी समाधान करने के लिए आगम प्रमाण दिखा देना चाहिए।’’ एक बार रात्रि में मुझे दीर्घ शंका का प्रसंग आया। तब मैंने प्रातःकाल आचार्यश्री से प्रायश्चित्त माँगा और भविष्य के लिए मार्गदर्शन चाहा,
तब आचार्यदेव ने कहा- ‘‘रात्रि में दीर्घशंका की बाधा होने पर पास में रहने वाली श्राविका या ब्रह्मचारिणी को साथ में लेकर उजाले में जाना चाहिए। यदि कदाचित् कोई न हो और पास में लालटेन जलती हुई हो तो हाथ से उठाकर रास्ते में साथ ले जाना चाहिए, जिससे अंधेरे मेेंं गिरने पड़ने का भय न रहे इसमें कोई दोष नहीं है। कफ या दाँतों से खून बार-बार आने पर पास में लकड़ी आदि के छोटे पात्र में (ग्लास में) राख डालकर रख लेना चाहिए।’’ इत्यादि अनेक समयोचित समस्याओं का समाधान प्राप्त किया था। आज उसी के अनुरूप अपनी चर्या में मैं सतत सावधान रहने का प्रयास करती रहती हूँ। उनके द्वारा कही गई सूक्तियों में से भी अनेक बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। यथा- १. सुई का काम करो, कैची का नहीं। २. गुरु जो कहें सो करो, वे जो करते हैं वह मत करो। मान लीजिये, गुरु ने अन्न छोड़ा है वह उनकी प्रकृति के अनुकूल है। तुम उनकी देखा-देखी अन्न छोड़ कर अस्वस्थ बन सकते हो अतः वे जो कहें सो ही करो। ३. गांठ बांध कर मत रखो अर्थात् यदि कदाचित् आपस में अनबन हो जाये तो उसे शीघ्र ही भुलाकर आपस में प्रेम से रहने लगो। कषाय को बाँधकर मत रखो चूँकि यह भव-भव में दुःखदायी है। इन्हीं शिक्षास्पद सूक्तियों के कारण उनका उस समय सबसे विशाल संघ था, जो कि एक सूत्र में बँधा हुआ था और यह भी उन्हीं की देन समझो कि जो उनके पट्टाधीश द्वितीय आचार्य शिवसागर जी का संघ भी सबसे बड़ा रहा है और आज उन्हीं के द्वितीय शिष्य आचार्य धर्मसागर जी१ का संघ भी सर्व संघों की अपेक्षा विशाल है। यहीं पर ग्रीष्मावकाश में सोलापुर आश्रम से कु. विद्युल्लता शाह आ गई थीं। उन्होंने मेरे से यह आग्रह किया कि- ‘‘मुझे कोई छोटी-सी पुस्तक एक माह में पढ़ा दो।’’
उनके आग्रह के अनुसार आलाप पद्धति और एकीभाव स्तोत्र का अर्थ पढ़ाने का निर्णय हुआ। कई एक मुनि, आर्यिकायें, क्षुल्लक चिदानन्दसागर जी, क्षुल्लक सन्मतिसागर जी आदि साधु-साध्वियों के समक्ष ही ये दोनों पाठ चलाये गये। उस समय आलाप पद्धति की नयों की चर्चा सभी को खूब अच्छी लगी और एकीभाव स्तोत्र में तो मानों भक्ति का झरना ही फूट पड़ा हो। क्षुल्लिका चन्द्रमती माताजी सतत विद्युल्लता को त्याग मार्ग में प्रेरित करती रहती थीं।
चूँकि यह उन्हीं की गृहस्थाश्रम की पुत्री थीं। इस तरह यहाँ आचार्य श्री की छत्रछाया में अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग चल रहा था। इसी मध्य सम्मेदशिखर जी से विहार करते हुए आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महाराज अपने चतुर्विध संघ सहित यहाँ आचार्यदेव के दर्शनार्थ आ गये। उन्होंने अपने गुरुदेव के दर्शन कर अपने को कृतार्थ किया और हम सभी मुनि, आर्यिका आदि ने उनके दर्शन कर अपने को धन्य माना। इन्होंने आचार्य वीरसागर जी से ही क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की थी अतः ये आचार्यदेव को अपना गुरु मानकर उनकी सल्लेखना के समय उनके सानिध्य में रहने का लाभ लेने आये हुए थे। उनमें गुरुभक्ति अपार थी, देखकर मन गद्गद हो जाता था।