आर्यिका इन्दुमती माताजी भी गुरुदेव की अंतिम समाधि देखने के लिए संघ में आ चुकी थीं। उनके साथ में ब्रह्मचारिणी भंवरीबाई थीं। ये कर्म प्रकृतियों की चर्चा में बहुत ही निष्णात थीं। इन्हें भी मैं सदा कहा करती थी- ‘भंवरीबाई! तुम आर्यिका दीक्षा क्यों नहीं लेती हो? तुम्हारे में तो सर्वाङ्गीण योग्यता है।’’
वे हँसकर टाल देती थीं और कहतीं- ‘‘जब इन्दुमती माताजी आज्ञा दे देंगी तब मैं दीक्षा लूूँगी।’’ उस समय आचार्यश्री के सान्निध्य में उन्हें इन्दुमती माताजी की आज्ञा मिल गई और वे दीक्षा के लिए तैयार हो गर्इं। आचार्यश्री के पादमूल में नारियल चढ़ाकर प्रार्थना की। तब आचार्यश्री ने उनकी आर्यिका दीक्षा के लिए मुहूर्त निकलवाया। भादों सुदी ६ का मुहूर्त था। ब्र. भंवरीबाई ने मण्डल विधान का आयोजन कर रखा था।
इसी मध्य एक दिन प्रातः प्रतिक्रमण के बाद सभी मुनि आर्यिकायें आचार्यश्री के चरणों में उपस्थित थे। क्षुल्लक चिदानंदसागर जी को मुनि दीक्षा के लिए प्रेरणा दी जा रही थी कि इसी बीच क्षुल्लक सन्मतिसागर जी महाराज उठकर खड़े हुए और आचार्यदेव के निकट में बैठकर विनय से बोले- ‘‘सब लोग क्षुल्लक चिदानंद जी को प्रेरणा दे रहे हैं, उनके भाव हों न हों, मेरे तो भाव हो गये हैं। हे गुरुदेव! अब आप मुझे जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कीजिये।’’
इतना सुनकर क्षुल्लक चिदानंद जी भी सामने आ गये और निवेदन किया-‘‘हे गुरुदेव! मुझे भी मुनि दीक्षा प्रदान कीजिये।’’ इतना सुनते ही साधुओं में हर्ष की लहर दौड़ गई। ब्र. सूरजमल से चिदानंद जी ने कहा-‘‘बाबाजी! ब्र. भंवरीबाई की दीक्षा होने के पहले ही हमारी दीक्षा हो जानी चाहिए, ऐसा मुहूर्त निकालना।’’ बाबाजी ने भी पंचांग निकालकर देखा तो बोले- ‘‘भादों सुदी ३ (रोटतीज) को आप दोनों की मुनि दीक्षा के लिए सबसे बढ़िया मुहूर्त है।’’
बहुत ही उल्लासमय, हर्षपूर्ण वातावरण में पहले इन दोनों क्षुल्लकों की मुनि दीक्षाएँ हुर्इं। क्षुल्लक चिदानंद जी का ‘‘मुनि श्रुतसागर जी’’ नाम रखा गया और क्षुल्लक सन्मतिसागर जी का वही नाम घोषित किया गया। अनंतर तीन दिन बाद ब्र. भंवरीबाई की आर्यिका दीक्षा हुई। उस समय उनका नाम ‘‘सुपार्श्वमती’’ रखा गया। इस प्रकार क्षुल्लिका पद्मावती की दीक्षा के अनन्तर मैंने आचार्यदेव के कर-कमलों से मुनि दीक्षा और आर्यिका दीक्षा को देखा। बस, आचार्यश्री के द्वारा ये अंतिम दीक्षाएँ थीं। इस धर्ममय वातावरण में दिन तो ध्यान-अध्ययन में व्यतीत हो रहा था और रात्रि में स्वप्न में भी मुझे अनेक व्याकरण के नये-नये सूत्र याद हो रहे थे।
मैं जब प्रातः आकर आचार्यश्री के सामने स्वप्न में याद हुए नये-नये सूत्र सुनाती तब वे जैनेन्द्र व्याकरण खोलकर उन सूत्रों को दिखा देते और प्रसन्न होकर कहते- ‘‘ज्ञानमती जी! तुमने पूर्वजन्म में इन व्याकरणों का अभ्यास किया है, इसलिए ये सूत्र तुम्हें स्वप्न में याद हो रहे हैं।’’ कुल मिलाकर यह बात थी कि नये सूत्रों के साथ दिनभर के पढ़े हुए विषय भी स्वप्न में आते रहते थे और उनका मनन अभ्यास चलता रहता था। भादोंं के बाद आचार्यश्री दिन पर दिन कमजोर होते जा रहे थे। इससे यह लगता था कि इस चातुर्मास में आचार्यश्री की समाधि हो जावेगी अतः गुरुावयोग की आशंका कभी-कभी हृदय को क्षुब्ध कर दिया करती थी। श्रावक लोग आचार्यश्री की सल्लेखना की घोषणा करना चाहते थे कि जिससे सभी गाँव के, शहरों के भाक्तिकगण उनके दर्शनों का लाभ ले लेवें, वंचित न रह जायें किंतु आचार्यश्री ने घोषणा करने से मना कर दिया था अतः उनकी आज्ञा के बिना लोग बाहर सूचना नहीं कर पाये थे।
आचार्यदेव ने क्रम-क्रम से सभी फल-रसों का भी त्याग कर दिया था। अब मात्र उनके आहार में जरा सा गेहूँ का चूरमा और मट्ठा ही रह गया था। आश्विन वदी चतुर्दशी के दिन मध्याह्न में पाक्षिक प्रतिक्रमण हो रहा था, आचार्यदेव स्वयं पुस्तक लेकर पढ़ रहे थे, प्रतिक्रमण पूरा होने के बाद सभी ने क्रम-क्रम से अपने दोषों का निवेदन कर प्रायश्चित्त माँगा और महाराज जी ने सबको प्रायश्चित दिया। यह उनके श्रीमुख से प्रायश्चित्त लेने का अंतिम दिन था। अगले दिन आश्विन कृष्णा अमावस्या को आहार के समय आचार्यदेव चर्या के लिए निकलना नहीं चाहते थे, उपवास करना चाहते थे किंतु संघ के प्रमुख ब्रह्मचारी सूरजमल जी ने और ब्र. चाँदमल जी-गुरुजी आदि ने आचार्यश्री से निवेदन किया-‘‘महाराज जी! संघ के अधिकांश साधु-साध्वी कल चतुर्दशी के उपवासी हैं। आप यदि चर्या को नहीं निकलेंगे तो कोई भी साधु नहीं उठेंगे।’’ इतना सुनकर आचार्यश्री को करुणा आ गई और वे चर्या के लिए निकले। आहार के लिए पास ही के चौके में पड़गाहन हो गया। श्रावकों ने नवधा भक्ति की और आचार्यदेव आहार के लिए खड़े हो गये।
उन्होंने एक अंजुलि जल लिया था कि वापस बैठ गये। प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन करके चतुराहार त्याग कर अपनी वसतिका में आ गये। उनको लिटा दिया गया, किंतु वे सहसा उठकर ध्यानमुद्रा में बैठ गये। उनके निकट ब्रह्मचारी सूरजमल जी थे और पंडित खूबचंद जी शास्त्री थे। जब इन दोनों ने देखा कि आचार्यदेव ने आँखें बंद कर ली हैं तब ये दोनों उच्च स्वर से णमोकार मंत्र बोलने लगे। सभी मुनि, आर्यिका आदि आहार को जा चुके थे। कोई-कोई जल्दी आहार कर आ रहे थे, कोई आहार कर रहे थे। मैंने वहाँ जल्दी से आकर देखा तो आचार्यदेव ध्यान में लीन हैं और धीमी-धीमी सांस चल रही है। क्रम से सभी साधु-साध्वी आ गये। एक बार तो आचार्यदेव को अपने बीच से स्वर्ग को गये देख सबका हृदय शोक से व्याकुल हो उठा। अंत में संसार की स्थिति का विचार करते हुए सभी ने धैर्य धारण किया।
आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी के निकट बैठकर रत्नत्रय से पवित्र शरीर का हम सभी साधु-साध्वियों ने समाधिमरण की क्रिया संपन्न किया। इधर जयपुर शहर में आचार्यश्री की समाधि का समाचार पहुँचते ही सारा जैन समाज उमड़ पड़ा। सामायिक उपरांत अपराह्न ३-४ बजे के करीब वहीं मंदिर जी के बाहर प्रांगण में आचार्यदेव के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार ब्रह्मचारी सूरजमल जी के द्वारा विधिवत् संपन्न किया गया पुनः उनके निषद्या स्थान की सभी साधुओं ने मिलकर वंदना की। आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महाराज प्रतिदिन प्रातः सभी साधु-साध्वियों को साथ बैठाकर आचार्यदेव की निषद्या वंदना करते थे और अनेक बार उठकर-बैठकर नमस्कार करते थे।
ये महावीरकीर्ति महाराज आचार्य वीरसागर जी महाराज से पहले आचार्य बन चुके थे, फिर भी इन्होंने सदा ही उन्हें पहले भक्तिपाठ पढ़कर नमोऽस्तु किया था। आजकल के आचार्यों के लिए उनका यह उदाहरण अनुकरणीय है। उनकी गुरुभक्ति देखकर हम लोगों का हृदय भी गुरुभक्ति से आप्लावित हो जाता था और मैं सोचा करती थी कि-
वास्तव में – गुरुभक्तिः सती मुत्त्यै, क्षुद्रं किं वा न साधयेत्। त्रिलोकीमूल्य रत्नेन, दुर्लभः किं तुषोत्करः।’’
आचार्यश्री की समाधि के पश्चात् उनके प्रथम शिष्य मुनिश्री शिवसागरजी को आचार्य पद देने का निर्णय किया गया। चतुर्विध संघ की प्रार्थना से मुनिश्री शिवसागर जी ने यह गुरुतर भार वहन करने की स्वीकृति दे दी। तब उत्तम मुहूर्त निकाल कर समाज में घोषणा कर दी गई। कार्तिक शुक्ला एकादशी के मंगल मुहूर्त में विशाल जनमेदिनी के बीच मुनिश्री शिवसागर जी को गुरुदेव वीरसागर जी का आचार्य पट्ट प्रदान करने के लिए आचार्य पद की सारी क्रियायें करते हुए उन्हें इस चतुर्विध संघ का नवीन आचार्य बना दिया गया।
हम सभी साधु-साध्वियों ने संघ को सनाथ पाकर संतोष का अनुभव किया और पुनः पुनः नवीन आचार्य के चरणों में सिद्ध, श्रुत, आचार्य भक्ति पढ़कर नमोऽस्तु किया। आचार्य शिवसागर जी ने भी हम सबको वात्सल्य भाव से आशीर्वाद प्रदान किया और बोले- ‘‘आप सभी लोगों ने मुुझे आचार्य तो बना दिया है किन्तु मुझमें इतनी योग्यता तो है नहीं। अनुभव ज्ञान भी नहीं है, चूंकि अभी तक मैं संघ में मात्र स्वाध्याय में ही संलग्न रहा हूँ अतः इस आचार्यपद की शोभा बढ़ाना, गुरुदेव के गुरुतर भार को संभालने की क्षमता मुझमें होना, यह सब आप साधुओं पर ही निर्भर है।’’
इस प्रकार से उनकी लघुतामयी वाणी सुनकर सभी साधु-साध्वी प्रसन्न हुये और बोले- ‘‘महाराज जी! पद आने के बाद उस पद के अनुरूप योग्यता आ ही जाती है।’’ पुनः हम सभी ने आपस में निर्णय किया कि यद्यपि इनका स्वभाव कुछ उग्र अवश्य है, फिर भी इनकी आज्ञा का पालन करते हुए इनके आचार्यपद को सुशोभित करना हम सभी के हाथ में है अतः अब सभी का यह कर्तव्य है कि इनकी आज्ञा का पालन करें, इन्हें महान् गिनें और गौरव देवें।’’