वन्दे धर्मतीर्थेशं, श्रीपुरुदेवपरम् जिनम्।
दानतीर्थेशश्रेयासं चापि शुद्धिप्रदायकम्।।
जातिकुलशुद्धिमादाय, अशनपानपवित्रताम्।
परमस्थानसंप्राप्ता: विजयन्तु परमेष्ठिन:।।स्वोपक्ष।।
मैं धर्मतीर्थ, व्रत तीर्थकर्ता उत्कृष्ट प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान और शुद्धि प्रदायक दानतीर्थेश श्रेयांस को प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने जाति, कुल शुद्धि और भोजनपान की शुद्धि प्राप्त कर सप्त परमस्थानों सहित मोक्षपद को प्राप्त किया है, वे परमेष्ठी जयवन्त हों। मानव जीवन में खानदान और खानपान शुद्धि का अत्यधिक महत्व है । नि:श्रेयस और लौकिक अभ्युदय दोनों ही दृष्टियों से यह मान्य है । प्रत्यक्ष, आगम और अनुमान तीनों ही प्रमाणों से यह प्रमाणित होता है । यह सर्वत्र दृष्टिगत होता है कि प्राय: उच्च वर्ण, जाति, गोत्र-कुल वाले श्रेष्ठ कार्यों को सम्पादित करते हुए प्रतिष्ठा को प्राप्त होते हैं। ज्ञान, ध्यान, तप की योग्यता भी श्रेष्ठ खानदान की अपेक्षा रखती है । मोक्षमार्ग में इसकी अनिवार्यता है । कतिपय जन जिनवाणी के भक्त कहलाते हुए भी अज्ञानता से जाति, कुल, गोत्र की अनादिकालीन व्यवस्था में तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था का अवमूल्यन एवं अनावश्यकता तक प्रचारित कर धार्मिक समाज के ताने-बाने को ही नष्ट करने का दुष्प्रयत्न कर रहे हैं। यह समीचीन नहीं है । यह कथन कि खानदान (कुल-गोत्र) का उल्लेख मात्र आठवीं शताब्दी से ही शास्त्रों में है नितांत असत्य है एवं ब्राह्मणों से यह प्रथा हमने ग्रहण कर ली है, यह विचार भ्रामक है ।
देस-कुल-जाइ-सुद्धा, विसुद्ध मणवयणकाय संजुत्ता।
तुम्हं पायपयोरुहमिह मंगलमत्थु मे णिच्चं।।
यहाँ स्पष्ट कुलशुद्धि का उल्लेख है । इस गाथा को आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी से लेकर अद्यावधि श्रमणपरम्परा मान्य करती आई है । आचार्य जिनसेन स्वामी ने तो पूर्व परम्परा के अनुसार ही आदिपुराण में तथा अन्य आचार्यो ने भी अपने ग्रंथों में वर्णित किया है । पितृवंश रूप कुल और मातृवंश रूप जाति के प्रमाण बहुधा हैं। निषेध तो किन्हीं परम्पराचार्यों ने नहीं किया है । उच्च और नीच गोत्र दो भेद गोत्र कर्म के हैं, यह प्रमाण क्या स्वीकार करने योग्य नहीं है, अवश्य ही है ।
यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम्।
यदुदयाद् गर्हितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचैर्गोत्रम्।
(सर्वार्थसिद्धि अ. ८, सूत्र १२) भगवती आराधना, धवला आदि ग्रंथों में भी उच्च कुल को महत्व दिया गया है । समन्तभद्र स्वामी ने भी रत्नकरण्ड में ‘ज्ञानं पूजां कुलं जातिं…’ कहकर कुल इत्यादि के अभिमान का निषेध किया है । इस कथन से उन्होंने भी उच्च कुल की प्रतिष्ठा की है । अत: खानदान की शुद्धि के महत्व स्वीकार करते हुए इस शुद्धि को विकृत करने वाले, विधवा विवाह, जाति सांकर्य उत्पन्न करने वाले विवाह आदि से बचना चाहिए। समाज के शुद्ध, संस्कृति रूप के लिए प्रयत्न करना योग्य है । खानपान की शुद्धि की महत्ता भी प्रत्येक दृष्टि से आवश्यक है । धार्मिक दृष्टि से, वैज्ञानिक व स्वास्थ्य की दृष्टि से हमें द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की शुद्धिपूर्वक भोजन ग्रहण करना योग्य है । इन चार के नाम से ही ‘चौका’ शब्द परम्परा में प्रचलित चला आ रहा है । शुद्ध ज्ञात पदार्थ, काल मर्यादित पदार्थ, शुद्ध स्थान पर निर्मित भोजन, विशुद्ध भावनायुक्त निर्मित एवं प्रदत्त भोजन ही मन को शुद्ध रखने में कारण होता है । रात्रि भोजन त्याग को इसीलिए मूलगुण तक में, छने जल को भी मूलगुण तक में सम्मिलित किया गया है । मद्य-मांस-मधु तथा पाँच उदुम्बर का त्याग तो सर्वप्रथम ही श्रावक को कराया जाता है । यद्वा-तद्वा भोजन, बाजार का भोजन, अज्ञात भोजन त्याज्य है । वर्तमान में रेडीमेड फास्ट फूड आदि के नाम पर जो आकर्षण दिखाई देता है, वह चिन्तनीय है । साधुवर्ग की आहार व्यवस्था में मन-शुद्धि, वचन शुद्धि और कायशुद्धि की अनिवार्यता है, आहार-जल शुद्धि की भी अनिवार्यता है, इससे गृहस्थ एवं साधु दोनों का जीवन शुद्ध रहता है, अत: भोजन शुद्धि का सदैव ध्यान रखना योग्य है । अहिंसा परमधर्म है ।