अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद
जंबुदीप लवणोदधि से ले, असंख्यात द्वीपोदधि।
अंतिम जलधि स्वयंभूरमणं, तक पैले ये ज्योतिषि।।
चंद्र इंद्र हैं ये भी संख्यातीत कहाये जग में।
इनके बिंबों के जिनगृह को, पूजूँ रुचिधर मन में।।१।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके चंद्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं मध्यलोके चंद्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं मध्यलोके चंद्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टक-नरेन्द्र छंद
जल धारा से जिनपद जजते, जन्म जरा मृति नाशें।
आतम अनुभव सम रस पीकर, सुख स्वातंत्र्य प्रकाशें।
चंद्र विमानों के जिनमंदिर, पूजूँ मन वच तन से।
सम्यग्ज्ञान कली विकसित हो, पैले सुरभि सुयश से।।१।।
ॐ ह्रीं चन्द्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध सुगंधित चंदन लेकर, जिनवर चरण चढ़ाऊँ।
नाना सुख सौभाग्य प्राप्त हों, भव भव तपन बुझाऊँ।।चंद्र.।।२।।
ॐ ह्रीं चन्द्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्र किरण सम उज्ज्वल अक्षत, सन्मुख पुंज चढ़ाऊँ।
नव निधि चौदह रत्न प्राप्तकर, अक्षय सुख पा जाऊँ।।चंद्र.।।३।।
ॐ ह्रीं चन्द्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
वकुल कमल नीलोत्पल सुरभित, सुमन चढ़ाऊँ प्रभु को।
रोग शोक दुख दारिद विघटें, काम देव सम तनु हो।।चंद्र.।।४।।
ॐ ह्रीं चन्द्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पंं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर फेनी मोदक हलुआ, चरु चढ़ाऊँ रुचि से।
तनु की शक्ति कांति बढ़ जावे, शिव सुख हो निज बल से।।चंद्र.।।५।।
ॐ ह्रीं चन्द्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक की लौ जगमगती, करूँ आरती रुचि से।
हृदय मोह अज्ञान हटाकर, भरूँ भारती सुख से।।चंद्र.।।६।।
ॐ ह्रीं चन्द्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुगंधित खेय अग्नि में, धूम्र उड़ाऊँ नभ में।
अशुभकर्म को भस्म करूँ यश सुरभी पैले जग में।।चंद्र.।।७।।
ॐ ह्रीं चन्द्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव आम अंगूर व कमरख, अर्पूं सरस मधुर फल।
सर्व मनोरथ पूरण होवें, मिले शीघ्र ही शिव फल।।चंद्र.।।८।।
ॐ ह्रीं चन्द्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत कुसुमादिक, अर्घ चढ़ाऊँ प्रभु को।
रत्नत्रय पदवी अनर्घ जो, अब मिल जावे मुझको।।चंद्र.।।९।।
ॐ ह्रीं चन्द्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
श्री जिनवर पदपद्म, शांतीधारा मैं करूँ।
मिले शांतिसुखसद्म, त्रिभुवन में सुख शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला कमल गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
परमामृत सुख लाभ, मिले सर्वसुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा
शशिविमान के मध्य में, दिव्य कूट दीपंत।
उस पर शाश्वत जिनभवन, जजूँ पुष्प विकिरंत।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
गीता छंद
चित्रा धरा से आठ सौ अस्सी सुयोजन गगन में।
शशि के विमान सुशोभते ये अर्ध गोलक सम बने।।
इस प्रथम जम्बूद्वीप में दो चंद्रमा गतिमान हैं।
इनके अकृत्रिम जिनभवन मैं जजूँ सौख्य निधान हैं।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपस्थद्वयचन्द्रविमानस्थितद्विजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लवणोदधी में चार माने चंद्रमा गतिशील हैं।
इनके विमान अधर गगन में दें परिक्रम नित्य हैं।।
प्रत्येक में जिनधाम हैं जो मुनिगणों से वंद्य हैं।
प्रत्येक में जिनबिंब इकसौ आठ-आठ अनिंद्य हैं।।२।।
ॐ ह्रीं लवणसमुद्रस्थचतुश्चन्द्रविमानस्थितचतुर्जिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर द्वीप धातकि खंड में बारह शशी विख्यात हैं।
ये चंद्र ज्योतिषदेव में हैं इंद्र निशि के कांत हैं।।
इन अर्ध गोलक बीच में वर दिव्य कूट उतुंग है।
उसपे जिनेश्वरधाम अनुपम शिखरबंद उतुंग हैं।।३।।
ॐ ह्रीं धातकीखण्डद्वीपस्थद्वादशचन्द्रविमानस्थितद्वादशजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कालोदधी में चंद्र ब्यालिस रात्रि में अति चमकते।
देते सुमेरू की प्रदिक्षण दिव्य सुख से दमकते।।
प्रत्येक चंद्र विमान में जिनधाम शाश्वत शोभते।
उन पूजते सब व्याधि संकट दूर से मुख मोड़ते।।४।।
ॐ ह्रीं कालोदधिसमुद्रसंबंधिद्विचत्वािंरशत्चन्द्रविमानस्थितद्विचत्वािंरशत्-
जिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर द्वीप पुष्कर अर्ध में शशि हैं बहत्तर घूमते।
इनके जिनालय में सुराधिप भक्ति से नत झूमते।।
इन मंदिरों की अर्चना सब पाप ताप निवारती।
जो वंदना भक्ती करें उनको भवोदधि तारती।।५।।
ॐ ह्रीं पुष्करार्धद्वीपस्थद्वासप्ततिचन्द्रविमानस्थितद्वासप्ततिजिनालय जिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नग मानुषोत्तर से परे शशि बिंब स्थिर राजते।
बारह शतक चौंसठ शशी वसु वलय में प्रतिभासते।।
इनके जिनालय को जजूँ जिनबिंब की अर्चा करूँ।
सब पाप पंकिल धोय कर नित आत्म की चर्चा करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं अपरपुष्पकरार्धद्वीपस्थद्वादशशतचतु:षष्टिचन्द्रविमानस्थितद्वादश-
शतचतु:षष्टिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्कर समुद्र में वलय बत्तिस प्रथम वलये संख्यिये।
पच्चीससौ अट्ठाइसे प्रतिवलय चउ-चउ वर्धिये।।
ब्यासी हजार व आठ सौ अस्सी सभा शशि जानिये।
प्रत्येक के जिनधाम को पूजत अतुल सुख ठाानिये।।७।।
ॐ ह्रीं पुष्करवरसमुद्रस्थद्वयशीतिसहस्रअष्टशताशीतिचन्द्रविमानस्थितएतावत्
जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है वारुणी वर द्वीप चौथा वहां चौंसठ वलय हैं।
पुष्कर समुद्र से द्विगुण शशि पहले वलय में कथित हैं।।
प्रतिवलय चउ-चउ बढ़ रहें यह क्रम सभी द्वीपोदधी।
सब चंद्र संख्यातीत के जिनधाम पूजूँ धर रुची।।८।।
ॐ ह्रीं वारुणीवरद्वीपप्रभृतिस्वयंभूरमणसमुद्रपर्यंतसंख्यातीतचन्द्रविमानस्थित
संख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य
इस प्रथम जंबूद्वीप से लेकर अढ़ाई द्वीप तक।
शशि एकसौ बत्तीस हैं मेरू प्रदिक्षण देंय सब।।
नग मानुषोत्तर से परे ये वृद्धिं गत होते हुये।
संख्यारहित हैं चंद्रमा इनके जिनालय पूजिये।।१।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपात् स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यंतसंख्यातीतचन्द्रविमानस्थितसंख्यातीत
जिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्येक जिनगृह में जिनेश्वर बिंब इक सौ आठ हैं।
चौदह सहस दो शतक छप्पन ढाईद्वीप के ख्यात हैं।।
संपूर्ण चंद्र विमान के जिनबिंब संख्यातीत हैं।
मैं पूजहूँ नित अर्घ ले ये मुक्तिरमणी मीत हैं।।२।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपात् स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यंतसंख्यातीतचन्द्रविमानस्थितसंख्यातीत
जिनालयमध्यविराजमानसंख्यातीतजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं ज्योतिर्वासिदेवविमानस्थित—असंख्यातजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
शंभु छंद
जय जय जय चंद्रविमानों के, जिनमंदिर मुनिगण नित वंदें।
जय जय जिन प्रतिमायें मणिमय, वंदत ही पापतिमिर खंडें।।
जय जय मंदिर के मानस्तंभ, जय जय तोरण की जिनप्रतिमा।
जय वनभूमी के चैत्य वृक्ष, जय पद्मासन सोहें प्रतिमा।।१।।
यह शशिविमान है अर्धगोल, चमकीलि धातु से बना हुआ।
पृथ्वीकायिक उद्योत कर्म, वाले जीवों से सना हुआ।।
यह लगभग तीन सहस छह सौ, बाहत्तर मील व्यास धारे।
इसकी बारह हजार किरणें, जो शीत चांदनी विस्तारें।।२।।
सोलह हजार अभियोग्य देव, विक्रिय से वाहन बनते हैं।
दिशक्रम से केशरि गज व वृषभ, हय रूप धार के जुतते हैं।।
ये सतत खींचते हैं विमान, ये मेरु परिक्रमा करते हैं।
इनसे दिन रात विभाग बने, ये बिंब घूमते रहते हैं।।३।।
शशि के नीचे राहु विमान नित, अपनी गति से चलता है।
एकेक कला ढकता क्रम से, फिर एकहि एक छोड़ता है।।
इससे ही कृष्ण पक्ष अरु शुक्ल पक्ष हो जाते महिने में।
छह छह महिने में ग्रहण पड़े, राहु से शशि के ढकने में।।।४।।
इस चंद्र इंद्र के चार महादेवी सुंदरता से सोहें।
चंद्राभा और सुसीमा प्रभंकरा व अर्चिमालिनी हैं।।
सोलह हजार देवियां हैं बहुतेरे परिकर देव कहें।
शशि देह सात धनु तुंग आयु इक पल्य एक लख वर्ष रहे।।५।।
इस शशिविमान के मध्य कूट पर, शाश्वत जिनमंदिर सोहें।
चउदिश में शशि के भवन बनें, जिसमें शशि इंद्र राजते हैं।।
सामानिक तनुरक्षक प्रकीर्ण, किल्विषक देव वहं रहते हैं।
ये देव विक्रिया के तनु से, सर्वत्र विचरते रहते हैं।।६।।
जिनवर के पंच कल्याणक में, नंदीश्वर मेरु जिनालय में।
जाते बहु पुण्य करें अर्जन, क्रीड़ा से विचरें बहुथल में।।
जातिस्मृति धर्मश्रवण करके, जिनमहिमा या देवर्द्धि लखें।
सम्यग्दर्शन निधि पा जाते निज आतमसुख पीयूष चखें।।७।।
जिनमंदिर रत्न चंदोवों से, अठ मंगल द्रव्यों से शोभें।
घंटा किंकिणि वंदनमाला, चामर छत्रादिक से शोभें।।
मंगलघट धूप घड़े वहां पे, मुक्ता सुवरण की मालायें।
जिन प्रतिमा इक सौ आठ वहां, भव्यों को शिवपथ दिखलायें।।८।।
दोहा
मणिमय शाश्वत जिनभवन, जिनवर बिंब अनूप।
नमूँ नमूँ मुझको मिले, ‘ज्ञानमती’ निजरूप।।९।।
ॐ ह्रीं मध्यलोके चन्द्रविमानस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जयमाला
महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
शंभु छंद
जो भव्य जैन ज्योतिर्विमान की, जिनप्रतिमा को यजते हैं।
वे सर्व अमंगल दोष दूर कर नित नव मंगल भजते हैं।।
गुणमणि यश से इस भूतल पर, निज को आलोकित करते हैं।
कैवल्य ‘ज्ञानमति’ किरणों से, तिहुंलोक प्रकाशित करते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:।।