चौबोल छंद-
वृषभदेव से वीर प्रभू तक, चौबीस तीर्थंकर वं दूँ।
गणयुत सब गणधर देवों को, सिद्धों को शिर से प्रणमूँ।।१।।
जो इस जग में सहस आठ, लक्षणधर ज्ञेयसिंधु के पार।
जो सम्यक् भवजाल हेतु,नाशक रवि शशिप्रभ अधिक अपार।।
जो मुनि इन्द्र देवियों शत से, गीत नमित अर्चित कीर्तित।
उन वृषभादि वीर तक प्रभु को, भक्ती से मैं नमूँ सतत।।२।।
देवपूज्य वृषभेश अजित, जिनवर त्रैलोक्य प्रदीप महान।
संभव जिन सर्वज्ञ मुनीगण, पुंगव अभिनंदन भगवान।।
कर्मशत्रु हन सुमतिनाथ, वर कमल सदृश सुरभित पद्मेश।
श्री सुपार्श्व शमदमयुत शशिवत्, पूर्णचंद्र जिन नमूं हमेश।।३।।
भव भयनाशक पुष्पदंतजिन, प्रथित सु शीतल त्रिभुवन ईश।
शीलकोश श्रेयांस सुपूजित, वासुपूज्य गणधर के ईश।।
इंद्रिय अश्व दमनकृत ऋषिपति, विमल अनंत मुनीश नमूं।
सद्धर्मध्वज धर्म शरणपटु, शमदमगृह शांतीश नमूं ।।४।।
सिद्धगृहस्थित कुंथु अरहप्रभु, श्रमणपती साम्राज्य त्यजित।
प्रथितगोत्र मल्लिप्रभ खेचरनुत, सुखराशि सु मुनिसुव्रत।।
सुरपति अर्चित नमिजिन हरिकुल, तिलक नेमि भव अंत किया।
फणिपति वंद्य पार्श्व, भक्तीवश वर्द्धमान तव शरण लिया ।।५।।
अंचलिका-
हे भगवन् ! चौबीस भक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से।
उसके आ लोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।
अष्ट महा प्रातिहार्य सहित जो, पंच महाकल्याणक युत।
चौंतिस अतिशय विशेषयुत, बत्तिस देवेन्द्र मुकुट चर्चित।।
हलधर वासुदेव प्रतिचक्री, ऋषि मुनि यति अनगार सहित।
लाखों स्तुति के निलय वृषभ से, वीरप्रभु तक महापुरुष।।
मंगल महापुरुष तीर्थंकर, उन सबको शुभ भक्ती से।
नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूं, वंदूं नमूं महारुचि से।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपति होवे।।
अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजिंल क्षिपेत्।
अथ सर्वसाधुवन्दनाक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं
भावपूजावन्दना स्तवसमेतं योगिभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहम्।
सामायिक दंडक
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
चत्तारि मंगलं – अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं,
केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा,
सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।चत्तारि
सरणं पव्वज्जामि – अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि,
साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि। जाव
अरहंताणं भयवंताणं पज्जुवासं करेमि, ताव कालं पाव कम्मं दुच्चरियं
वोस्सरामि।
(तीन आवर्त एक शिरोनति करके २७ उच्छ्वास में नव बार णमोकार मंत्र पढ़ें पुनः
तीन आवर्त एक शिरोनति करके थोस्सामिस्तव पढ़ें।)
-थोस्सामिस्तव-
थोस्सामि हं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंतजिणे।
णरपवर लोयमहिए विहुयरयमले महप्पण्णे।।
लोयस्सुज्जोययरे धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे।
अरहंते कित्तिस्से चउवीसं चेव केवलिणो।।
गुणधर अनगारों की तात्त्विक, गुण से स्तुति मैं करता हूँ।
करमुकुलित अंजलि जोड़ विभव, निजयुत अभिवंदन करता हूँ।।३।।
सम्यक्त्वभाव मिथ्यात्वभाव, दो में स्थित दो विध मुनि हैं।
मिथ्यात्व छोड़ इक समकित में, स्थित उन मुनि को वंदन है।।४।।
जो राग द्वेष दो दोष रहित, त्रयदण्ड रहित त्रय शल्य रहित।
त्रय गारवमुक्त साधु उनको, त्रिकरणशुद्धी से वंदन नित।।५।।
चउविध कषाय का मथन करें, चउगति संसार गमन भययुत।
पांचों आस्रव से विरत पांच, इंद्रियविजयी को वंदन नित।।६।।
षट्काय जीव की दयायुक्त, छह अनायतन वर्जित प्रशांत।
सातों भय मुक्त सत्त्व को नित, दें अभयदान मैं नमूं शांत।।७।।
आठों मद शून्य आठ कर्मों, को नाश नष्ट संसार किया।
परमार्थ सर्वकृतकार्य अष्ट-गुण ऋद्धीश्वर को नमन किया।।८।।
नव ब्रह्मचर्य से गुप्त नवों, नय के ज्ञाता को वंदूं मैं।
दशविध धर्मों में रत दशविध, संयमयुत संयत वंदूं मैं।।९।।
श्रुत ग्यारह अंग अब्धि पारग, श्रुत द्वादशांग में निपुण रहें।
द्वादश विध तप में निरत क्रिया, तेरह में आदर नमूं उन्हें।।१०।।
चौदह भूतों में दयायुक्त, चौदह अंतर परिग्रह विमुक्त।
चौदह पूर्वों के ज्ञानी को, वंदूं जो चौदह मल विमुक्त।।११।।
उपवास एक से लेकर छह, महिने तक करते उन्हें नमूं।
दिन आदि अंत रवि के सन्मुख, स्थित तप करते उन्हें नमूं।।१२।।
जो बहुविध प्रतिमायोग तथा, पर्यंक वीरासन आदि धरें।
नहिं थूकें नहिं खुजलावें जो, तन निर्मम उनको नमन करें।।१३।।
स्थित ध्यानी मौनी करते, अभ्रावकाश तरुमूूल ध्यान।
शिर दाढ़ी केशलोंच कर तनु, निष्प्रतिकारी उनको प्रणाम।।१४।।
जो जल्लमल्ल से लिप्त गात्र, फिर भी स्वकर्ममलकलुष शुद्ध।
नख दाढ़ी केश बढ़े जिनके, तप लक्ष्मीभृत उन नमूं नित्य।।१५।।
जो ज्ञान नीर अभिषिक्त शीलगुण, भूषित तप से सुरभित हैं।
रागादिरहित श्रुतपूर्ण मोक्षगति, पथनेता को मम नति है।।१६।।
जो उग्र तपस्या दीप्तीतप, तपतप्त महातप घोरतपी।
तप में महंत तप संयम की, ऋद्धीयुत उनको नमूं अभी।।१७।।
आमौषधि क्ष्वेलौषधि जल्लौषधि, विप्रुष औषधि सर्वौषधि।
तपसिद्धि पांच औषधी ऋद्धि, इन युत मुनि को वंदूं त्रयविध।।१८।।
अमृत मधु दुग्ध व घी स्रावी, अक्षीण महानस को वंदूं।
मनबली वचनबलि कायबली, मैं त्रिविध सभी मुनि को वंदूं।।१९।।
वर कोष्ठ बीज बुद्धी, पद अनुसारी संभिन्न श्रोतृ ऋद्धी।
अवग्रह ईहा में समर्थ मुनि, सूत्रार्थ विशारद नमूं सभी।।२०।।
मति श्रुतज्ञानी अवधीज्ञानी, मनपर्ययज्ञानि सर्वज्ञानी।
मैं वंदूं जग प्रद्योतक मुनि, प्रत्यक्ष परोक्ष सभी ज्ञानी।।२१।।
आकाश तंतु जल श्रेणी के, चारण जंघाचरण वंदूं।
विक्रिया ऋद्धियुत विद्याधर, मुनि प्रज्ञाश्रमण उन्हें वंदूं।।२२।।
भू से चतुरंगुल अधर चलें, फल फूलों पर चलते जो यति।
अनुपम तप से महनीय देव, असुरों से वंदित उन्हें नती।।२३।।
भयजित् उपसर्गजयी इंद्रिय, परिषहविजयी मुनि कषायजित्।
जितरागद्वेष जितमोह दुःखसुखजयी उन्हें प्रणमूँ नितप्रति।।२४।।
दोहा
रागद्वेषगत साधु सब, मुझसे स्तुति प्राप्त।
संघ को मुझे समाधि दें, करें दुःख का नाश।।२५।।
अंचलिका (चौबोल छंद)
हे भगवन् ! इस योग भक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से।
उसकी आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।
ढाई द्वीप अरु दो समुद्र की, पन्द्रह कर्मभूमियों में।
आतापन तरुमूलयोग, अभ्रावकाश से ध्यान धरें।।
मौन करें वीरासन, कुक्कुट, आसन एक पार्श्व सोते।
बेला तेला पक्ष मास उपवास, आदि बहु तप तपते।।
ऐसे सर्व साधुगण की मैं, सदा काल अर्चना करूं।
पूंजूं वंदूं नमस्कार भी, करूं सतत वंदना करूं।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।
।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलि क्षिपेत्।।