चौबीस तीर्थंकर जगत में, सर्व का मंगल करें।
गुणरत्न गुरु गुण ऋद्धिधर, नित सर्व मंगल विस्तरें।।
गुणरत्न चौंसठ ऋद्धियाँ मंगल करें निज सुख भरें।
मैं पूजहूूँ आह्वान कर मेरे अमंगल दुख हरें।।१।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
रेवा नदी जल भराकर शुद्ध लाऊँ।
संपूर्ण कर्ममल दूर करो चढ़ाऊँ।।
बुद्ध्यादि चउसठ महागुण पूर्ण ऋद्धी।
पूजूँ मिले नवनिधी सब ऋद्धि सिद्धी।।१।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरि केशर घिसूँ भरके कटोरी।
चर्चूं मिटे हृदय ताप सुआश पूरी।।
बुद्ध्यादि चउसठ महागुण पूर्ण ऋद्धी।
पूजूँ मिले नवनिधी सब ऋद्धि सिद्धी।।२।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती समान धवलाक्षत थाल में हैं।
धारूँ सुपुंज जिन सौख्य अखंड हो हैं।।
बुद्ध्यादि चउसठ महागुण पूर्ण ऋद्धी।
पूजूँ मिले नवनिधी सब ऋद्धि सिद्धी।।३।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: अक्षयपदप्राप्यते अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला जुही कमल फूल खिले खिले हैं।
पूजूँ सदा सुयश सौख्य मिले भले हैं।।
बुद्ध्यादि चउसठ महागुण पूर्ण ऋद्धी।
पूजूँ मिले नवनिधी सब ऋद्धि सिद्धी।।४।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लड्डू पुआ घृत भरे पक्वान लाऊँ।
क्षुद्र व्याधि नष्ट करने हित मैं चढ़ाऊँ।।
बुद्ध्यादि चउसठ महागुण पूर्ण ऋद्धी।
पूजूँ मिले नवनिधी सब ऋद्धि सिद्धी।।५।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योति जलती करती उजाला।
ज्ञानैक ज्योति भरती भ्रमतम निकाला।।
बुद्ध्यादि चउसठ महागुण पूर्ण ऋद्धी।
पूजूँ मिले नवनिधी सब ऋद्धि सिद्धी।।६।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
खेऊँ सुगंध वर धूप सुअग्नि संगी।
दुष्टाष्ट कर्म जलते करते सुगंधी।।
बुद्ध्यादि चउसठ महागुण पूर्ण ऋद्धी।
पूजूँ मिले नवनिधी सब ऋद्धि सिद्धी।।७।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अनार फल आम्र भराय थाली।
अर्पूं तुम्हें नहिं मनोरथ जाय खाली।।
बुद्ध्यादि चउसठ महागुण पूर्ण ऋद्धी।
पूजूँ मिले नवनिधी सब ऋद्धि सिद्धी।।८।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अर्घ कर स्वर्णिम पुष्प लेऊँ।
अर्घावतार करके निज रत्न लेऊँ।।
बुद्ध्यादि चउसठ महागुण पूर्ण ऋद्धी।
पूजूँ मिले नवनिधी सब ऋद्धि सिद्धी।।९।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा— चौंसठ ऋद्धि समूह को, जलधारा से नित्य।
पूजत ही शांती मिले, चहुँसंघ में भी इत्य१।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल कमल बेला कुसुम, सुरभित हरसिंगार।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्यो नम:।
ऋद्धि उन्हीं के होय, यथाजात मुद्रा धरें।
नमॅूं नमूँ नत होय, जिनमुद्रा की शक्ति हो।।१।।
धन्य हैं धन्य हैं धन्य हैं ऋद्धियाँ।
वंदते ही फलें ये सभी सिद्धियाँ।।
मैं नमूँ मैं नमूँ सर्व ऋद्धीधरा।
ऋद्धियों को नमूँ मैं नमूँ गणधरा।।२।।
बुद्धि ऋद्धी कही हैं अठारा विधा।
विक्रिया ऋद्धियाँ हैं सुग्यारा विधा।।
है क्रियाचारणा ऋद्धि नौभेद में।
ऋद्धि तप सात विध दीप्त तप आदि में।।३।।
ऋद्धि बल तीन विध शक्ति वर्धन करे।
औषधी आठ विध स्वास्थ्य वर्धन करे।।
ऋद्धि रस षट्विधा क्षीर अमृत स्रवे।
ऋद्धि अक्षीण दो भेद अक्षय धरें।।४।।
आठ विध ये महा ऋद्धि चौंसठ विधा।
भेद संख्यात होते सु अंतर्गता।।
बुद्धि ऋद्धी जजें बुद्धि अतिशय धरें।
विक्रिया पूजते विक्रिया बहु करें।।५।।
चारणी ऋद्धि आकाशगामी करें।
पुष्प जल पर चलें जीव भी ना मरें।।
दीप्ततम आदि ऋद्धि धरें जो मुनी।
कांति आहार बिन भी रहे उन घनी।।६।।
तप्ततप से कभी भी न नीहार हो।
शक्ति ऐसी जगत् सौख्य करतार जो।।
क्षीरस्रावी मधुस्रावी अमृतस्रवी।
इन वचो भी बने क्षीर अमृतस्रवी।।७।।
औषधी ऋद्धि से रुग्ण नीरोग हों।
साधु तनवायु से विष रहित स्वस्थ हों।।
ऋद्धि अक्षीण से अन्न अक्षय करें।
पूजते साधू को पुण्य अक्षय भरें।।८।।
जय जय सब ऋद्धी, गुणमणिनिद्धी, पूजत ही सुखसिद्धि करें।
जय ‘‘ज्ञानमती’’ धर, नमें मुनीश्वर, निज शिवपद सुख शीघ्र भरें।।९।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन श्रद्धा भक्ति से, चौंसठ ऋद्धि विधान करें।
नवनिधि यश संपत्ति समृद्धी, अतुल सौख्य भंडार भरें।।
पुनरपि मुनि बन तपश्चरण कर, सर्वऋद्धियाँ पूर्ण करें।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ रवि किरणों, से अघतम निर्मूल करें।।१।
।।इत्याशीर्वाद:।।