करूँ भक्ति तेरी हरो दुख माता भ्रमण का।।टेर।।
अकेला ही हूँ मैं कर्म सब आये सिमटि के।
लिया है मैं तेरा शरण अब माता सटकि के।।
भ्रमावत है मोकों करम दु:ख देता जनम का।
करूँ भक्ति तेरी हरो दुख माता भ्रमण का।।१।।
दुखी हुआ भारी, भ्रमत फिरता हूँ जगत में।
सहा जाता नाहीं, अकल घबराई भ्रमण में।।
करूँ क्या माँ मोरी चलत वश नाहीं मिटन का।।करूँ।।२।।
सुनो माता मोरी अरज करता हूँ दरद में।
दुखी जानो मोकों डरप कर आया शरण में।।
कृपा ऐसी कीजे, दरद मिट जाये मरण का।।करूँ।।३।।
पिलावे जो मोकू सुबुद्धि कर प्याला अमृत का।
मिटावे जो मेरा, सरव दुख सारे फिरन का।।
पडूँ पाँवाँ तेरे हरो दुख सारा फिकर का।।करूँ।।४।।
मिथ्यातम नासवे को, ज्ञान के प्रकाशवे को।
आपा परकासवे को भानु—सी बखानी है।।
छहों द्रव्य जानवे को, वसु विधि भानवे को।
स्व—पर पिछानवे को, परम प्रमानी है।।
अनुभव बतायवे को, जीव के जतायवे को।
काहू न सतायवे को, भव्य उर आनी है।।
जहाँ तहाँ तारवे को, पार के उतारवे को।
सुख विस्तारवे को, ऐसी जिन वाणी है।।
जिनवाणी की स्तुति करे, अल्प बुद्धि परमान।
‘पन्नालाल’ विनती करै, दे माता मोहि ज्ञान।।६।।
हे जिनवाणी भारती! तोिह जपूँ दिन रैन।
जो तेरा शरणा गहे, सुख पावै दिन रैन।।७।।
जा वानी के ज्ञान ते, सुझै लोकालोक।
सो वाणी मस्तक चढ़ो, सदा देत हों धोक।।८।।
इति जिनवाणी स्तुति जिनवाणी मोक्ष नसैनी है, जिनवाणी।।टेक।।
जीव कर्म के जुदा करने को।।
ये ही पैनी छेनी है।।जिनवाणी।।१।।
जो जिनवाणी नित अभ्यासे।
वो ही सच्चा जैनी है।।जिनवाणी।।२।।
जो जिनवाणी उर न धरत है।
सैनी होके असैनी है।।जिनवाणी।।३।।
पढ़ो सुनो ध्यावो जिनवाणी।
जो सुख शांति लेनी है।।जिनवाणी।।४।।