स्थापना-अडिल्ल छन्द
समयसार के दश अधिकारों में प्रथम।
और दुतिय अधिकार का इसमें है कथन।।
इसका अर्चन भेदज्ञान प्रगटाएगा।
पूजक तो श्रुतपूजन का फल पाएगा।।१।।
-दोहा-
समयसार की अर्चना, करे शुद्ध नित भाव।
आह्वानन स्थापना, दे शुद्धातम भाव।।२।।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसार ग्रंथराज!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसार ग्रंथराज!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसार ग्रंथराज!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
-अष्टक-
तर्ज – देखो तेरहद्वीप के अन्दर…….
कर लो समयसार की पूजन, अद्भुत आनंद आएगा। कर लो….
जीव-अजीव नाम के दो, अधिकार का इसमें सार कहा-२।
कर लो इसका अध्यन अर्चन, अद्भुत आनन्द आएगा।।कर लो…।। १।।
कंचनझारी में प्रासुक जल, ले जलधारा करना है-२।
जनम मरण हो जाय विनाशन, अद्भुत आनंद आएगा।। कर लो…।। २।।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसाराय जन्मजरामृत्यु-
विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
कर लो समयसार की पूजन, अद्भुत आनंद आएगा।…. कर लो….
जीव-अजीव नाम के दो, अधिकार का इसमें सार कहा-२।
कर लो इसका अध्यन अर्चन, अद्भुत आनन्द आएगा।।कर लो…।। १।।
काश्मीरी केशर घिस करके, श्रुत का अर्चन करना है-२।
भव आतप हो जाय विनाशन, अद्भुत आनंद आएगा।।कर लो…।। २।।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसाराय संसारताप-
विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
कर लो समयसार की पूजन, अद्भुत आनंद आएगा।…. कर लो….
जीव-अजीव नाम के दो, अधिकार का इसमें सार कहा-२।
कर लो इसका अध्यन अर्चन, अद्भुत आनन्द आएगा।।कर लो…।। १।।
शुभ्र धवल अक्षत लेकर के, चार पुंज को धरना है-२।
अक्षय पद मिल जावे मुझको, अद्भुत आनंद आएगा।।कर लो…।। २।।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसाराय अक्षयपदप्राप्तये
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
कर लो समयसार की पूजन, अद्भुत आनंद आएगा।…. कर लो….
जीव-अजीव नाम के दो, अधिकार का इसमें सार कहा-२।
कर लो इसका अध्यन अर्चन, अद्भुत आनन्द आएगा।।कर लो…।। १।।
चंप चमेली आदि पुष्प ले, श्रुत का अर्चन करना है-२।
कामबाण का करूँ विनाशन, अद्भुत आनंद आएगा।।कर लो…।। २।।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसाराय कामबाण-
विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
कर लो समयसार की पूजन, अद्भुत आनंद आएगा।…. कर लो….
जीव-अजीव नाम के दो, अधिकार का इसमें सार कहा-२।
कर लो इसका अध्यन अर्चन, अद्भुत आनन्द आएगा।।कर लो…।। १।।
पकवान्नों का थाल सजाकर, श्रुत का पूजन करना है-२।
मेरा हो क्षुधरोग विनाशन, अद्भुत आनंद आएगा।।कर लो…।। २।।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसाराय क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
कर लो समयसार की पूजन, अद्भुत आनंद आएगा।…. कर लो….
जीव-अजीव नाम के दो, अधिकार का इसमें सार कहा-२।
कर लो इसका अध्यन अर्चन, अद्भुत आनन्द आएगा।।कर लो…।। १।।
कंचनथाल में घृत दीपक ले, श्रुत की आरति करना है-२।
मोहकर्म हो जाय विनाशन, अद्भुत आनंद आएगा।।कर लो…।। २।।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसाराय मोहांधकार-
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
कर लो समयसार की पूजन, अद्भुत आनंद आएगा।…. कर लो….
जीव-अजीव नाम के दो, अधिकार का इसमें सार कहा-२।
कर लो इसका अध्यन अर्चन, अद्भुत आनन्द आएगा।।कर लो…।। १।।
धूप अग्नि में प्रज्वलित कर, श्रुत सुगंध को पाना है-२।
अष्टकर्म हो जायें विनाशन, अद्भुत आनंद आएगा।।कर लो…।। २।।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसाराय अष्टकर्मदहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
कर लो समयसार की पूजन, अद्भुत आनंद आएगा।कर लो….
जीव-अजीव नाम के दो, अधिकार का इसमें सार कहा-२।
कर लो इसका अध्यन अर्चन, अद्भुत आनन्द आएगा।।कर लो…।। १।।
सेव आम्र अंगूर फलों से, श्रुत का अर्चन करना है-२।
मोक्ष महाफल की प्राप्ति कर, अद्भुत आनंद आएगा।।कर लो…।। २।।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसाराय मोक्षफलप्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
कर लो समयसार की पूजन, अद्भुत आनंद आएगा।…. कर लो….
जीव-अजीव नाम के दो, अधिकार का इसमें सार कहा-२।
कर लो इसका अध्यन अर्चन, अद्भुत आनन्द आएगा।।कर लो…।। १।।
अर्घ्य थाल ‘चन्दनामती’, श्रुत सम्मुख अर्पित करना है-२।
पद अनर्घ्य की प्राप्ती करके, अद्भुत आनंद आएगा।।कर लो…।। २।।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वित श्रीसमयसाराय अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
कर लो समयसार की पूजन, अद्भुत आनंद आएगा।…. कर लो….
जीव-अजीव नाम के दो, अधिकार का इसमें सार कहा-२।
कर लो इसका अध्यन अर्चन, अद्भुत आनन्द आएगा।।कर लो…।। १।।
स्वर्ण कलश में प्रासुक जल ले, शांतीधारा करना है-२।
आत्मशांति अरु विश्वशांति हो, अद्भुत आनंद आएगा।।कर लो…।। २।।
शांतये शांतिधारा
कर लो समयसार की पूजन, अद्भुत आनंद आएगा।…. कर लो….
जीव-अजीव नाम व् दो, अधिकार का इसमें सार कहा-२।
कर लो इसका अध्यन अर्चन, अद्भुत आनन्द आएगा।।कर लो…।। १।।
विविध पुष्प अंजुलि में भरकर, पुष्पांजलि अब करना है-२।
गुणपुष्पों की सुरभी पाकर, अद्भुत आनंद आएगा।।कर लो…।। २।।
दिव्य पुष्पांजलि:
-चौबोल छन्द-
समयसार मण्डल विधान में, प्रथम वलय के निकट चलो।
इसमें हैं तिहत्तर गाथाएँ, उनको मन में संस्मरण करो।।
प्रथम मंगलाचरण के संग जीवरु-अजीव अधिकार कथन।
इनको अर्घ्य चढ़ाने हेतु, पुष्पांजलि कर करो नमन।।१।।
इति श्री समयसारमण्डलविधानस्य प्रथमवलये पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्।
वंदित्तु सव्वसिद्धे, धुवमचलमणोवमं गइं पत्ते।
वोच्छामि समयपाहुड-मिणमो सुयकेवलीभणियं।।१।।
-शेर-छंद-
सिद्धों की करूँ वंदना जो शुद्ध हुए हैं,
अनुपम अचल व ध्रुव गती को प्राप्त हुए हैं।
श्रुतकेवली प्रणीत समयसार कहूँगा,
हे भव्य! सुनो आत्मा का सार कहूँगा।।१।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं धु्रवाचलानुपमगतिप्राप्तसिद्धपरमेष्ठिने नम: श्रुतकेवलीप्रणीत-
क्रमानुसारेण श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
जीवो चरित्तदंसण-णाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण।
पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं।।२।।
दर्शन सुज्ञान चरित में सुस्थिर जो हो रहे।
वे ही स्वसमय जीव शुद्ध नय से हैं कहे।।
पुद्गलमयी कर्मों के साथ जो चिपक रहे।
वे जीव परसमय में सदा लीन ही रहे।।२।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं स्वसमयपरसमयज्ञानप्रदायकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
एयत्तणिच्छयगओ, समओ सव्वत्थ सुन्दरो लोए।
बंधकहा एयत्ते, तेण विसंवादिणी होई।।३।।
एकत्व के निश्चय को प्राप्त समय शब्द है।
सब लोक में सुन्दर तथा चिन्मात्र शुद्ध है।।
एकत्व में बंधन की कथा विसंवादिनी।
होती है अवस्था यही संसारकारिणी।।३।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं एकत्वनिश्चयपदप्राप्तचिन्मात्रशुद्धतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुदपरिचिदाणुभूया, सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा।
एयत्तस्सुवलंभो, णवरि ण सुलहो विहत्तस्स।।४।।
त्रैलोक में जो काम भोगबंध की कथा।
श्रुतपरिचितानुभूत प्राणिमात्र की व्यथा।।
इनसे रहित एकत्व प्राप्ति सुलभ नहीं है।
यदि पा लिया एकत्व जन्म सफल वही है।।४।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं कामभोगबन्धकथाप्रतिबंधकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
तं एयत्तविहत्तं, दाएहं अप्पणो सविहवेण।
जदि दाएज्ज पमाणं, चुक्किज्ज छलं ण घेत्तव्वं।।५।।
आत्मीक विभव द्वारा दिखलाऊँ मैं जो कुछ।
एकत्व पर से भिन्न आत्म और नहीं कुछ।।
यदि प्राप्त हो जावे तो स्वीकार करो तुम।
यदि चूक जाऊँ तो नहीं छल ग्रहण करो तुम।।५।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं एकत्वविभक्तचैतन्यतत्त्वदिग्दर्शकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
णवि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव।।६।।
ज्ञायक जो भाव जीव का नहिं अप्रमत्त है।
नहिं है प्रमत्त वह तो सदा स्वयंशुद्ध है।।
चैतन्यभाव शुद्ध नय से एक कहाता।
वह सर्वगुणस्थान से अतीत है भाता।।६।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं प्रमत्ताप्रमत्तभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ववहारेणु वदिस्सइ, णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं।
णवि णाणं ण चरित्तं, ण दंसणं जाणगो सुद्धो।।७।।
चारित्र ज्ञान दर्शन ज्ञानी सुजीव में।
व्यवहारनय से कहते गणधर मुनी इन्हें।।
पर शुद्धनय से दर्शज्ञान चरण नहीं हैं।
ज्ञानी है मात्र ज्ञायक ये भेद नहीं है।।७।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनिश्चयरत्नत्रयप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
जह णवि सक्कमणज्जो, अणज्जभासं विणा उ गाहेउं।
तह ववहारेण विणा, परमत्थुवएसणमसक्कं।।८।।
जैसे अनार्य को अनार्य भाषा के बिना।
समझाना शक्य है नहीं व्यवहार के बिना।।
वैसे बिना व्यवहार के परमार्थ का कथन।
प्राणी नहीं समझें अत: व्यवहार ही प्रथम।।८।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयाश्रितपरमार्थतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
जो हि सुएणहिगच्छइ, अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं।
तं सुयकेवलिमिसिणो, भणंति लोयप्पईवयरा।।९।।
निज शुद्ध आतमा को जो श्रुतज्ञान से जानें।
उनको ही ऋषी निश्चय श्रुतकेवली मानें।।
नहिं निश्चय श्रुतकेवली व्यवहार श्रुत बिना।
इस युग में श्रुत केवली नहिं हो सकें सुना।।९।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं शुद्धात्मतत्त्वज्ञायकनिश्चयश्रुतकेवलीकथनसंयुक्तसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो सुयणाणं सव्वं, जाणइ सुयकेवलिं तमाहु जिणा।
णाणं अप्पा स्ववं, जह्मा सुयकेवली तह्मा।।१०।।
सब द्वादशांग श्रुत को जो जान रहे हैं।
जिनवर कथित श्रुतकेवली व्यवहार वो ही हैं।।
क्योंकि सकल श्रुतज्ञान आतमा में ही कहा।
अतएव वही आतमा श्रुतकेवली कहा।।१०।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं द्वादशांगश्रुतज्ञायकव्यवहारश्रुतकेवलीकथनसंयुक्तसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
णाणह्मि भावणा खलु, कादव्वा दंसणे चरित्ते य।
ते पुण तिण्णिवि आदा, तह्मा कुण भावणं आदे।।११।।
सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन चारित्र भावना।
करते रहो रत्नत्रय की अडिग साधना।।
निश्चय से ये तीनों ही आत्मस्वरूप हैं।
अतएव आत्मभावना निश्चय का रूप है।।११।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं रत्नत्रयस्वरूपआत्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
जो आदभावणमिणं, णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि।
सो सव्व-दुक्ख-मोक्खं, पावदि अचिरेण कालेण।।१२।।
इस विधि जो मुनी आत्मभावना को भा रहे।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय को ध्या रहे।।
वे सब दु:खों से छूट शीघ्र मुक्ति वरेंगे।
इस काल में लौकान्तिकादि पद को लहेंगे।।१२।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं नित्योद्यतात्मभावनासमन्वितमुनिधर्मप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
ववहारोऽभूयत्थो, भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो।।१३।।
व्यवहार नय भूतार्थ अभूतार्थरूप है।
निश्चय के भी भूतार्थ अभूतार्थ भेद हैं।।
भूतार्थ के आश्रय से जो सम्यक्त्व प्राप्ति है।
वह जीव कहा सम्यग्दृष्टि वीतराग है।।१३।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं भूतार्थ-अभूतार्थनिश्चयव्यवहारनयप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सुद्धो सुद्धादेसो, णायव्वो परमभावदरिसीहिं।
ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे।।१४।।
जो परमशुद्ध भावना को प्राप्त हुए हैं।
उनके लिए ही उपादेय शुद्धनय कहें।।
श्रावक व मुनी जो सराग भाव में स्थित।
इन सबके अपरमभाव में व्यवहारनय कथित।।१४।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं शुद्धाशुद्धभावसमन्वितनिश्चयव्यवहारनयप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
भूयत्थेणाभिगदा, जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जर, बंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।१५।।
भूतार्थ से जाने गए जो जीवाजीव हैं।
जो पुण्यपाप आस्रव संवर भी तत्त्व हैं।।
निर्जर व बंध मोक्ष ये सम्यक्त्व कहे हैं।
व्यवहार से ये मुक्ति के साधक भी हुए हैं।।१५।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं भूतार्थनयज्ञातव्यजीवाजीवपुण्यपापाश्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षनवतत्त्व-
क्रमप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं।
अविसेसमसंजुत्तं, तं सुद्धणयं वियाणाहि।।१६।।
जो जीव निजात्मा को सदा देख रहे हैं।
स्पर्श बंध अन्यत्व रहित जान रहे हैं।।
अविशेष असंयोगि को वह शुद्धनय ही है।
इन सबसे सहित जीव स्वयं शुद्धनय ही है।।१६।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं शुद्धनयप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं।
अपदेससुत्तमज्झं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं।।१७।।
जो जीव निजात्मा को सदा देख रहे हैं।
स्पर्श बंध अन्य औ विशेष रहित से।।
वे द्रव्यभाव श्रुत से वाच्य द्वादशांग को।
हैं देख रहे जान रहे भी निजात्म को।।१७।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं द्रव्यभावश्रुतवाच्यद्वादशांगज्ञायकआत्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आदा खु मज्झ णाणे, आदा मे दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे, आदा मे संवरे जोगे।।१८।।
मेरे चरित्र ज्ञान औ दर्शन में सर्वदा।
आत्मा ही मुझे दिखता प्रत्याख्यान में सदा।।
संवर तथा ध्यानस्थ योग में भी आतमा।
निश्चय से मैं विचारता हूँ शुद्ध आतमा।।१८।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं ज्ञानदर्शनचारित्रत्यागसंवरयोगसमन्वितशुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दंसणणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।
ताणि पुण जाण तिण्णिवि, अप्पाणं चेव णिच्छयदो।।१९।।
साधू मुनी के लिये ज्ञान चरण औ दर्शन।
है नित्य सेवितव्य नय व्यवहार का कथन।।
निश्चय से ये तीनों ही आत्म के स्वरूप हैं।
दोनों नयों से आत्मतत्त्व प्राप्यरूप है।।१९।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं महामुनिसेवितव्य-व्यवहारनिश्चयरत्नत्रयरूपआत्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जह णाम को वि पुरिसो, रायाणं जाणिऊण सद्दहदि।
तो तं अणुचरदि पुणो, अत्थत्थीओ पयत्तेण।।२०।।
ज्यों कोई धनार्थी पुरुष राजा को जानकर।
विश्वास से सेवा करे उस योग्य मानकर।।
अनुकूल आचरण उसे करना ही पड़ेगा।
राजा की कृपादृष्टि से धनवान बनेगा।।२०।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं प्रयत्नपूर्वकगृहीतात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
एवं हि जीवराया, णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो।
अणुचरिदव्वो य पुणो, सो चेव दु मोक्खकामेण।।२१।।
उस ही प्रकार मोक्ष के इच्छुक पुरुष को भी।
चैतन्य चिदानन्द जीव राजा के प्रती।।
श्रद्धान ज्ञान आचरण करना ही पड़ेगा।
तब ही अभेद शुद्ध आत्मतत्त्व मिलेगा।।२१।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं मोक्षकामेन पुरुषेण अनुचरितात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
कम्मे णोकम्मह्मि य, अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं।
जा एसा खलु बुद्धी, अप्पडिबुद्धो हवदि ताव।।२२।।
ये कर्म औ नोकर्मरूप ‘‘मैं’’ की मान्यता।
मेरे ही हैं ये भाव सदा इनका मैं कर्त्ता।।
निश्चय से ऐसी बुद्धी बहिरातमा की हो।
इससे न कभी प्राप्ति शुद्धआतमा की हो।।२२।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं कर्मनोकर्मप्रति अहंभावग्राहकबहिरात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जीवेव अजीवे वा, संपदि समयम्हि जत्थ उवजुत्तो।
तत्थेव बंधमोक्खो, हवदि समासेण ण्द्दििट्ठो।।२३।।
जो जीव शुद्ध आत्मतत्त्व प्राप्त कर रहे।
वे मोक्षतत्त्व में सदा अनुराग कर रहे।।
जो देह आदि पुद्गल में उपादेयता।
माने वे बंध ही करें सर्वज्ञ ने कहा।।२३।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं जीवाजीवयो: उपयोगरतआत्मनि मोक्षबंधतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जं कुणदि भावमादा, कत्ता सो होदि तस्स भावस्स।
णिच्छयदो ववहारा, पोग्गलकम्माण कत्तारं।।२४।।
जो जीव जब जिस राग भाव का बना कर्ता।
निश्चय अशुद्ध से उसी ही भाव का कर्ता।।
व्यवहारनय से पुद्गल कर्मादि का कर्त्ता।
शुद्धनय से शुद्धभाव का ही वो कर्त्ता।।२४।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं निश्चयव्यवहारनयानुसारेण कर्त्तृत्वभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अहमेदं एदमहं, अहमेदस्सेव होमि मम एदं।
अण्णं जं परदव्वं, सचित्ताचित्तमिस्सं वा।।२५।।
संसार में जो भी सचित्त स्त्रियादि हैं।
धनधान्य है अचित्त मिश्र ग्राम आदि हैं।।
मैं हूूँ सदा उस रूप वे मेरे ही हुए हैं।
मेरे को छोड़कर न अन्यरूप हुए हैं।।२५।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं परद्रव्यादिप्रति अहंभावयुक्तअज्ञानीजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आसि मम पुव्वमेदं, एदस्स अहंपि आसि पुव्वंहि।
होहिदि पुणोवि मज्झं, एयस्स अहंपि होस्सामि।।२६।।
मेरे ही थे ये पूर्व में मैं इनके साथ था।
आगे भी होंगे मेरे इनका मैं होऊँगा।।
ये सब सचित्ताचित्त मिश्र भाव मैं करता।
त्रैकाल में भी इनको नहिं छोड़ मैं सकता।।२६।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं भूतभाविकालानुसारेण परद्रव्यं प्रति ममत्वभावग्राहकअज्ञानीजीव-
सम्बोधनप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एयं तु असंभूदं, आदवियप्पं करेदि संमूढो।
भूदत्थं जाणंतो, ण करेदि दु तं असंमूढो।।२७।।
ऐसा जो असद्भूत राग का विकल्प है।
वह मूढ़ पुरुष आत्म में करता विकल्प है।।
परमार्थ से वस्तू स्वरूप जानता हुआ।
मिथ्या विकल्प नहिं करे ज्ञानी वही कहा।।२७।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं परद्रव्यं प्रति ममत्वभावमोचकज्ञानीजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अण्णाणमोहिदमदी, मज्झमिणं भणदि पुग्गलं दव्वं।
बद्धमबद्धं च तहा, जीवो बहुभावसंजुत्तो।।२८।।
अज्ञान से मोहित मती जिस जीव की हुई।
पुद्गल अजीव आदि को आत्मा कहें वह ही।।
देहादिरूप बद्ध अबद्ध पौद्गलिक ग्रहण।
मिथ्यात्व भाव सहित जीव इनमें ही गमन।।२८।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं पुद्गलादिपरद्रव्यं प्रति अज्ञानमोहितमतिसमन्वितअज्ञानीजीव-
सम्बोधनप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सव्वण्हुणाणदिट्ठो, जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं।
कह सो पुग्गलदव्वी-भूदो जं भणसि मज्झमिणं।।२९।।
सर्वज्ञज्ञान दृष्टि में जो जीवद्रव्य है।
वह नित्य ज्ञानदर्शन उपयोग युक्त है।।
तब तो भला वह जीव वैसे पुद्गलात्म है ?
मेरे हैं ये पुद्गल तेरा कथन अनात्म है।।२९।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं नित्यज्ञानदर्शनोपयोगयुक्तसर्वज्ञज्ञानप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जदि सो पुग्गलदव्वी-भूदो जीवत्तमागदं इदरं।
तो सत्तो वुत्तुं जे, मज्झमिणं पुग्गलं दव्वं।।३०।।
यदि जीव वह पुद्गलमयी हो जाय कभी भी।
पुद्गल भी जीवरूप करे परिणमन कभी।।
तब तो मेरे पुद्गल हैं तेरा कथन सत्य है।
पर तीन काल में भी यह होना अशक्य है।।३०।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं पुद्गलजीवयो: परस्परसंबंधभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जदि जीवो ण सरीरं, तित्थयरायरियसंथुदी चेव।
सव्वावि हवदि मिच्छा, तेण दु आदा हवदि देहो।।३१।।
प्रभु! यदि ये जीव औ शरीर एक नहीं है।
तो तीर्थकर व मुनियों की स्तुती व्यर्थ है।।
इनके शरीर वर्ण आदि कथन व्यर्थ हों।
अतएव देह आत्म एक कथन सत्य हो।।३१।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयाश्रिततीर्थंकराचार्यस्तुतिप्रातपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
ववहारणयो भासदि, जीवो देहो य हवदि खलु इक्को।
ण दु णिच्छयस्स जीवो, देहो य कदावि एकट्ठो।।३२।।
व्यवहार नय कहता है जीव देह एक है।
हे शिष्य! वह संयोग को स्वीकार करे है।।
लेकिन नहीं निश्चय से जीव देह एक है।
व्यवहार से देहादि की स्तुति भी सत्य है।।३२।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनिश्चयनयापेक्षया जीवपुद्गलद्रव्यप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इणमण्णं जीवादो, देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी।
मण्णदि हु संथुदो, वंदिदो मए केवली भयवं।।३३।।
जीवात्म भिन्न पुद्गल की स्तुति करके।
प्रभु केवली की वंदना मुनिगण भी मानते।।
व्यवहार से इस मान्यता में दोष नहीं है।
निश्चय की प्राप्ति में बने साधन भी यही है।।३३।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयापेक्षया केवलीशरीरस्तुतिप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
तं णिच्छये ण जुज्जदि, ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो।
केवलिगुणे थुणदि जो सो, तच्चं केवलिं थुणदि।।३४।।
निश्चय में नहीं घटता व्यवहार संस्तवन।
क्योंकि शरीर गुण से नहीं केवली कथन।।
जो केवली के ज्ञान आदि गुण का चिंतवन।
परमार्थ से है केवली का वही संस्तवन।।३४।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया केवलिनां क्षायिकगुणस्तुतिप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
णयरम्मि वण्णिदे जह, ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि।
देहगुणे थुव्वंते, ण केवलिगुणा थुदा होंति।।३५।।
जैसे कोई राजा के सुन्दर नगर का वर्णन।
करने से नहीं होता कभी राजा का कथन।।
वैसे ही केवली के देह गुण का संस्तवन।
निश्चय से नहीं केवली गुणों को है नमन।।३५।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया केवलिशरीररस्तुतिनिषेधप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो इन्दिये जिणित्ता, णाणसहावाधियं मुणदि आदं।
तं खलु जिदिंदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू।।३६।।
जो द्रव्यभाव इंद्रियों के विषय जीत के।
ज्ञानादि गुणों से सहित आत्मा को जानते।।
उनको हि परमसाधुगण निश्चयस्वरूप से।
कहते हैं जितेन्द्रिय वही मुनि जिनस्वरूप हैं।।३६।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं मुनीनां जितेन्द्रियगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मोहं तु जिणित्ता, णाणसहावाधियं मुणइ आदं।
तं जिदमोहं साहुँ, परमट्ठवियाणया विंति।।३७।।
जो मोह को उपशांत कर श्रेणी में चढ़ रहे।
निजज्ञानयुक्त आतमा में लीन हो रहे।।
परमार्थ के ज्ञाता उन्हें जितमोह कह रहे।
उपशांतमोह ग्यारवें गुणस्थान को कहें।।३७।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं मुनीनां जितमोहगुणसमन्वितमुनिधर्मप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जिदमोहस्स दु जइया, खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स।
तइया हु खीणमोहो, भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं।।३८।।
जिसने समस्त मोह कर्म नाश कर दिया।
उसने ही क्षीणमोह पद को प्राप्त कर लिया।।
उनको हि गणधरादि क्षीणमोह कह रहे।
ये बारवें गुणस्थान के निर्ग्रन्थ मुनी हैं।।३८।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं मुनीनां क्षीणमोहगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सव्वे भावे जम्हा, पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं।
तह्मा पच्चक्खाणं, णाणं णियमा मुणेयव्वं।।३९।।
जो ज्ञान सभी बाह्य पर भावों को छोड़ता।
बस मात्र आत्मतत्त्व में हि नेह जोड़ता।।
चारित्रयुक्त मुनि का ज्ञान प्रत्याख्यान है।
शुद्धातमानुभव हि असली प्रत्याख्यान है।।३९।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं मुनीनां प्रत्याख्यानगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिणंति जाणिदुं चयदि।
तह सव्वे परभावे णाऊण विमुंचदे णाणी।।४०।।
जैसे कोई पुरुष पराई वस्तु जानकर।
निश्चित ही छोड़ देता है परद्रव्य मानकर।।
वैसे हि परवस्तू को छोड़ मुनी जो बने।
वे पर विभाव भाव छोड़ निज में ही रमें।।४०।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं परद्रव्यत्यागप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
णत्थि मम को वि मोहो, बुज्झदि उवओग एव अहमिक्को।
तं मोहणिम्ममत्तं, समयस्स वियाणया विंति।।४१।।
निश्चय से मेरा कोई नहीं मैं न किसी का।
मैं एक ज्ञायक रूप हूँ पर में नहीं रमता।।
उस महासाधु को ही निर्ममत्व कहा है।
शुद्धात्मज्ञानियों ने उन्हें शुद्ध कहा है।।४१।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं मोहनिर्ममत्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
णत्थि मम धम्म आदी, बुज्झदि उवओग एव अहमिक्को।
तं धम्मणिम्ममत्तं, समयस्स वियाणया विंति।।४२।।
धर्मादि छहों द्रव्य मेरे कुछ भी नहीं हैं।
उपयोगमयी आत्मा निश्चय से कही है।।
उनको हि धर्म निर्ममत्व ज्ञानिजन कहें।
मुनि शुद्धज्ञानी ही इसे प्राप्त कर सकें।।४२।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं धर्मद्रव्यनिर्ममत्वगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइओ सदारूवी।
णवि अत्थि मज्झ कचिवि, अण्णं परमाणुमित्तंपि।।४३।।
मैं शुद्धनय से एक हूँ शुद्धात्मरूप हूँ।
दर्शनसुज्ञानमय सदा रहता अरूपि हूँ।।
परद्रव्य भी परमाणुमात्र मेरे नहीं हैं।
व्यवहार से हैं यद्यपी निश्चय से नहीं हैं।।४३।।
दोहा- अष्टद्रव्य का थाल ले, जजूँ जीव अधिकार।
अर्घ्य चढ़ा नत भाल मैं, लहूँ आत्म सुखसार।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिश्चयेन ‘‘अहमिक्को खलु सुद्धो’’ गुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
द्वितीय अजीवाधिकार की गाथाओं के अर्घ्य
अप्पाणमयाणंता, मूढा दु परप्पवादिणो केई।
जीवं अज्झवसाणं, कम्मं च तहा परूविंति।।४४।।
-बसंततिलका छंद-
कोई परात्मवादी हैं मूढ़ आत्मा।
हैं आत्मज्ञान से शून्य कहें अनात्मा।।
रागादिरूप जो अध्यवसान मानें।
जीवात्म को तथा कर्म को भि जीव मानें।।४४।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं मूढात्मना परद्रव्यं प्रति आत्मपरिणामप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अवरे अज्झवसाणे-सु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं।
मण्णंति तहा अवरे, णोकम्मं चावि जीवोत्ति।।४५।।
कोई कहें उसी अध्यवसान में जो।
है तीव्र मन्द अनुभागहि जीव है वो।।
नोकर्म रूप तन को भी जीव मानें।
चार्वाक आदि कर्मों की गति न जानें।।४५।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं एकान्तवादिना अनुभागगतं जीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
कम्मस्सुदयं जीवं, अवरे कम्माणुभागमिच्छंति।
तिव्वत्तणमंदत्तण-गुणेहिं जो सो हवदि जीवो।।४६।।
जो कर्म का उदय हो वह जीव ही है।
कुछ मानते करमफल परिणमन ही है।।
अनुभाग तीव्र अरु मन्द स्वभाव वाला।
उसको हि जीव कहता कोई निराला।।४६।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं मिथ्यात्विना कर्मोदयं प्रतिजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जीवो कम्मं उहयं, दोण्णिवि खलु केवि जीवमिच्छंति।
अवरे संजोगेण दु, कम्माणं जीवमिच्छंति।।४७।।
जो कर्म जीव की मिश्रित है अवस्था।
उसको हि जीव माने कोई व्यवस्था।।
कोई कहें करम के संयोग से जो।
उत्पन्न स्थिति कही है जीव ही वो।।४७।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं कर्मसंयोगादुत्पन्नस्थितिर्जीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
एवंविहा बहुविहा, परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा।
ते ण परमट्ठवाई, णिच्छयवाईहिं णिद्दिट्ठा।।४८।।
इन आठ भेद युत कोई जीव माने।
परमात्म को बहुविधा मूढात्म जानें।।
इस हेतु वीतरागी सर्वज्ञ कहते।
परद्रव्य को हि आत्मा परवादि कहते।।४८।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं बहुविधमिथ्यावादिभि: परात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
एए सव्वे भावा, पुग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा।
केवलिजिणेहिं भणिया, कह ते जीवो त्ति वुच्चंति।।४९।।
ये पूर्व में कथित अध्यवसान आदी।
सब भाव का परिणमन है पुद्गलादी।।
ऐसा जिनेन्द्रकेवलि का कथन आया।
वे भाव जीव हैं यह बनती न माया।।४९।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयापेक्षया पुद्गलद्रव्यपरिणामजनितसर्वभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अट्ठविहं पि य कम्मं, सव्वं पुग्गलमयं जिणा विंति।
जस्स फलं तं वुच्चइ, दुक्खं ति विपच्चमाणस्स।।५०।।
आठों हि कर्म पुद्गलमय हैं बताया।
जिनदेव के कथन में नहिं भेद आया।।
क्योंकि सभी करम का फल दु:ख ही है।
परमार्थ सुख रहित सुख भी दु:ख ही है।।५०।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं अष्टविधपुद्गलकर्मप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ववहारस्स दरीसण-मुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं।
जीवा एदे सव्वे, अज्झवसाणादओ भावा।।५१।।
जो पूर्व में कथित अध्यवसान आदी।
जो भाव जिनवर कथित वो हैं अनादी।।
व्यवहारनय से कहना मिथ्या नहीं है।
क्योंकि दया व हिंसा व्यवहार ही है।।५१।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयानुसारेण अध्यवसानादिभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
राया हु णिग्गदो त्तिय, एसो बलसमुदयस्स आदेसो।
ववहारेण दु उच्चदि, तत्थेको णिग्गदो राया।।५२।।
सेना समूह युत राजा जब निकलता।
उस पूर्ण सैन्य को राजा शब्द मिलता।।
व्यवहार नय इस कथन को मानता है।
निश्चय तो एक ही राजा जानता है।।५२।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं सैन्यसमूहसमन्वितनृपवत्निश्चयनयप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
एमेव य ववहारो, अज्झवसाणादिअण्णभावाणं।
जीवो त्ति कदो सुत्ते, तत्थेको णिच्छिदो जीवो।।५३।।
वैसे हि रागद्वेषादिक भाव को भी।
आत्मा से भिन्न हैं फिर भी जीव के ही।।
व्यवहार से परम आगम में बखाना।
निश्चय से जीव बस एक व शुद्ध माना।।५३।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयेन आत्मनो रागद्वेषादिभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं।
जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।।५४।।
निश्चय से जीव रस गंध रहित कहा है।
अव्यक्त, मूर्ति इंद्रिय विरहित कहा है।।
नि:शब्द है नहिं ग्रहण चिन्हादि से हो।
संस्थान आदि नहिं निश्चय जीव में हों।।५४।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं रूपरसगंधादिरहितशुद्धचैतन्यतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जीवस्स णत्थि वण्णो, णवि गंधो णवि रसो णवि य फासो।
णवि रूवं ण सरीरं, ण वि संठाणं ण संहणणं।।५५।।
स्पर्श गंध रस वर्ण न जीव के हैं।
मूर्ती नहीं नहिं शरीर भि जीव में है।।
संस्थान संहनन से विरहित जो आत्मा।
वह ही कहाता सदा निज शुद्ध आत्मा।।५५।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं वर्णगंधरसस्पर्शशरीरादिमूर्तिविरहितशुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जीवस्स णत्थि रागो, णवि दोसो णेव विज्जदे मोहो।
णो पच्चया ण कम्मं, णोकम्मं चावि से णत्थि।।५६।।
नहिं राग द्वेष अरु मोह का सत्त्व जिनके।
आश्रव नहीं हो रहा नहि कर्म उनके।।
नोकर्मरूप देहादिक भी नहीं है।
निश्चय स्वभाव मुनि की आत्मा वही है।।५६।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्मरहितपरमात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जीवस्स णत्थि वग्गो, ण वग्गणा णेव फड्ढया केई।
णो अज्झप्पट्ठाणा, णेव य अणुभायठाणाणि।।५७।।
नहिं वर्गयुक्त यह जीव न वर्गणा है।
स्पर्धकों रहित शुद्धात्मा भणा है।।
नहिं रागद्वेष युत अध्यवसान माने।
अनुभाग से रहित जीवात्मा बखाने।।५७।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं वर्गवर्गणास्पर्धकअध्यवसा्नाानुभागस्थानविरहितशुद्धचिद्रूपप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जीवस्स णत्थि केई, जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा।
णेव य उदयट्ठाणा, ण मग्गणट्ठाणया केई।।५८।।
नहिं शुद्ध जीव के कोई योग रहता।
नहिं बंध भी हो रहा नहिं उदय रहता।।
निश्चयनयाश्रित नहीं हैं मार्गणा भी।
व्यवहारनय से कही सब जीव में ही।।५८।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं योगबंधमार्गणास्थानादिवर्जितशुद्धजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
णो ठिदिबंधट्ठाणा, जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा।
णेव विसोहिट्ठाणा, णो संजमलद्धिठाणा वा।।५९।।
स्थितीबन्धस्थान न जीव में हैं।
संक्लेशभाव शुद्धात्मा में नहीं हैं।।
नहिं है विशुद्धि और संयम भी नहीं है।
ऐसी विचित्र शुद्धात्मस्थिति कही है।।५९।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं स्थितिबंधसंक्लेशस्थानविशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानादिन्यूनपरंपद-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
णेव य जीवट्ठाणा, ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स।
जेण दु एदे सव्वे, पुग्गलदव्वस्स परिणामा।।६०।।
जीवात्म के नहिं हैं जीवस्थान कोई।
शुद्धात्म के नहिं बने गुणथान कोई।।
क्योंकि ये भाव सब पुद्गल परिणमन हैं।
निश्चय से जीव में नहिं हो यह कथन है।।६०।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं जीवस्थानगुणस्थानादिपुद्गलपरिणामप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ववहारेण दु एदे, जीवस्स हंवति वण्णमादीया।
गुणठाणंता भावा, ण दु केई णिच्छयणयस्स।।६१।।
ये वर्ण आदि से गुणस्थान तक जो।
हैं भाव माने कहे सब जीव के वो।।
व्यवहार से हि ये औपाधिक कहे हैं।
निश्चय से जीव में ये न कभी रहे हैं।।६१।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयानुसारेण सर्ववर्णादिभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
एएहिं य संबंधो, जहेव खीरादयं मुणेदव्वो।
ण य हुँति तस्स ताणि दु, उवओगगुणाधिगो जम्हा।।६२।।
है क्षीरनीरवत् यह संबंध सारा।
वह एकमेक होकर भी है निराला।।
व्यवहार से मिल रहे फिर भी अलग हैं।
जीवात्म तो सदा ही उपयोगमय है।।६२।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं क्षीरनीरवत्जीवपुद्गलसंबंधप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
पंथे मुस्संतं, पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी।
मुस्सदि एसो पंथो, ण य पंथो मुस्सदे कोई।।६३।।
ज्यों मार्ग में लुट रहे को देखकर भी।
व्यवहारि का कथन लुटता मार्ग है ही।।
परमार्थ से कहीं मारग भी लुटा है।
पर मार्ग का पथिक ही पथ में लुटा है।।६३।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं व्यवहारेण पथिमुष्यमाणमिव-जीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
तह जीवे कम्माणं, णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं।
जीवस्स एस वण्णो, जिणेहिं ववहारदो उत्तो।।६४।।
त्यों जीव में करम औ नोकर्म के भी।
वर्णादि देख कहते ये जीव के ही।।
व्यवहारनय से जिनेन्द्र वचन यही हैं।
शुद्धात्म जीव में निश्चय से नहीं हैं।।६४।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयेन कर्मनोकर्मसहितजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध रसफासरूवा, देहो संठाणमाइया जे य।
सव्वे ववहारस्स य, णिज्छयदण्हू ववदिसंति।।६५।।
स्पर्श रूप रस गंध शरीर आदी।
संस्थान संहनन ये सब हैं अनादी।।
निश्चय के ज्ञाता इन्हें व्यवहार कहते।
इनका विकल्प तजकर निश्चय को लहते।।६५।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयेन गंधरसस्पर्शादिगुणसमन्वितजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तत्थभवे जीवाणं, संसारत्थाण होंति वण्णादी।
संसारपमुक्काणं, णत्थि हु वण्णादओ केई।।६६।।
संसार में भ्रमण जो करते उन्हीं के।
उस भव में वर्ण आदिक होते उन्हीं के।।
पर मुक्त जीव के वर्णादिक नहीं हैं।
तादात्म्यरूप इनका संबंध नहिं है।।६६।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं संसारीमुक्तजीवानां वर्णादिपर्यायप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जीवो चेव हि एदे, सव्वे भावात्ति मण्णसे जदि हि।
जीवस्साजीवस्स य, णत्थि विसेसो दु दे कोई।।६७।।
यदि तुम कहो कि वर्णादिक जीव ही हैं।
तब तो अजीव अरु जीव में भेद नहिं है।।
इस शुद्ध जीव की परिणति है निराली।
क्योंकी कही है काया ही वर्णवाली।।६७।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं एकान्तेन वर्णादिभावं जीवस्य मन्यमाने दोषप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अह संसारत्थाणं, जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी।
तम्हा संसारत्था, जीवा रूवित्तमावण्णा।।६८।।
होते भवस्थ जीवों के वर्ण आदी।
एकांत से मानते यदि जीव ये ही।।
तब जीवद्रव्य भी रूपी ही बनेगा।
पुद्गल की संज्ञा उसे देना पड़ेगा।।६८।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं एकान्तेन संसारिजीवस्य रूपित्वगुणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एवं पुग्गलदव्वं, जीवो तहलक्खणेण मूढमदी।
णिव्वाणमुवगदो वि य, जीवत्तं पुग्गलो पत्तो।।६९।।
ऐसा हुआ तो पुद्गल ही जीव होगा।
पुद्गल ही मुक्त हो जीवस्वरूप होगा।।
हे मूढ़ बुद्धि! क्यों ऐसा मानता है।
दोनों में अन्तर नहीं तू जानता है।।६९।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं पुद्गलद्रव्यनिमित्तेन स्वलक्षणरहितसदोषजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक्कं च दोण्णि तिण्णि य, चत्तारि य पंच इंदिया जीवा।
वादरपज्जत्तिदरा, पयडीओ णामकम्मस्स।।७०।।
एकेन्द्रि द्वीन्द्रि त्रयइंद्रिय चारइन्द्री।
पंचेन्द्रि सूक्ष्म बादर पर्याप्ति आदी।।
जो है कही अपर्याप्तादिक कहानी।
ये नामकर्म की प्रकृति हैं पुरानी।।७०।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयेन एकेन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तनामकर्मयुक्तजीवतत्त्व-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एदाहि य णिव्वत्ता, जीवट्ठाणाउ करणभूदाहिं।
पयडीहिं पुग्गलमईहिं, ताहिं कहं भप्णदे जीवो।।७१।।
इन कर्म की प्रकृतियों से ही रचित जो।
हैं जीवथान आदिक पुद्गलमयी जो।।
उन पुद्गलीक भावों को जीव वैसे?।
कह सकते वे तो पुद्गलमय ही रहेंगे।।७१।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयानुसारेण पौद्गलिकनामकर्मरहितजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पज्जत्तापज्जत्ता, जे सुहुमा वादरा य जे चेव।
देहस्स जीवसण्णा, सुत्ते ववहारदो उत्ता।।७२।।
पर्याप्त और अपर्याप्तक सूक्ष्म बादर।
ये सब शरीर की संज्ञायें बता कर।।
व्यवहार से इन्हें जीव की कह दिया है।
ऐसा हि सूत्र आगम में वर्णिया है।।७२।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं व्यवहारेण पर्याप्तापर्याप्तादिभेदसहितजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहणकम्मस्सुदया, दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा।
ते कह हवंति जीवा, जे णिच्चमचेदणा उत्ता।।७३।।
गुणथान आदि जो आगम में बखाने।
वे मोहकर्म के उदयादिक से माने।।
ये नित्य ही अचेतन माने गये हैं।
फिर जीव वैसे भला वे ही हुए हैं।।७३।।
सोरठा- यह अजीव अधिकार, जीवद्रव्य से भिन्न है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, रम जाऊँ चैतन्य में।।
ॐ ह्रीं निश्चयेन मोहनीयकर्मजनितगुणस्थानादिअचेतनतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (शंभु छंद)-
जीव अजीव नामके द्वय, अधिकार को अर्घ्य समर्पित है।
दोनों के संयोग से ही, संसार सदा वृद्धिंगत है।।
कुन्दकुन्द आचार्य प्रवर ने, भेदज्ञान बतलाया है।
उसको पढ़ पूर्णार्घ्य चढ़ाने, भक्त पुजारी आया है।।१।।
ॐ ह्रीं समयसारग्रंथस्य जीवाधिकार-अजीवाधिकारनामप्रथम-द्वितीयाधिकारयो:
वर्णित सर्वगाथासूत्रेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं शुद्धात्मतत्त्वप्राप्तये श्रीसमयसारग्रंथाय नम:।
-शेर छन्द-
श्री समयसार में प्रथम जीवाधिकार को।
वंदन करूँ द्वितीय अजीवाधिकार को।।
दो तत्त्व में शुद्धातमा के सार को नमूँ।
श्री कुन्दकुन्ददेव गुणभंडार को नमूँ।।१।।
इस जीव के संग कर्म का है बंध अनादी।
है इसके संग लगी सदा मिथ्यात्व की व्याधी।।
इसमें स्वसमय परसमय की बात कही है।
आत्मा व अनात्मा में भेदज्ञान यही है।।२।।
त्रयरत्न सहित शुद्ध आतमा है स्वसमय।
पुद्गल करम प्रदेश सहित जीव परसमय।।
एकत्वरूप आतमा सुन्दर है लोक में।
उस संग बंध कथा विसंवादि लोक में।।३।।
व्यवहार व निश्चय का समन्वय है ग्रंथ में।
भूतार्थ अभूतार्थ है व्यवहार नय इसमें।।
जीवादि नवों तत्त्व को सम्यक्त्व कहा है।
क्योंकि विषय-विषयी में नहीं भेद कहा है।।४।।
जो पर पदार्थ में कदापि प्रीति न करता।
प्रतिबुद्ध ज्ञानी आतमा उसको जगत कहता।।
अज्ञान से मोहितमती जिस आतमा की है।
उसको ही अप्रतिबुद्ध की संज्ञा दी गई है।।५।।
माता सरस्वती मुझे वरदान दीजिए।
इस ग्रंथ का मैं सार गहूँ ज्ञान दीजिए।।
जीवरु शरीर एक है व्यवहार नय कहे।
जीवरु शरीर एक नहिं परमार्थ नय कहे।।६।।
‘‘अहमिक्को खलु सुद्धो’’ इक गाथा है इसमें।
श्रीकुन्दकुन्द आत्मसात हो गये इसमें।।
मैं शुद्ध बुद्ध एक हूँ चैतन्य आतमा।
मुझमें छिपा है एक ही भगवान् आतमा।।७।।
शुद्धातमा के वर्ण रस गन्धादि नहीं हैं।
पुद्गल के ये गुण आतमा में सार्थ नहीं हैं।।
संसार अवस्था में जीव कर्म संग रहें।
जल दूध के समान परस्पर का संग है।।८।।
मोहादि कर्म उदय से जो गुणस्थान हैं।
व्यवहार नय से वे भी जीव के स्थान हैं।।
इन सबको दूर कर सकूं यह शक्ति दीजिए।
अब ‘‘चन्दनामती’’ मुझे श्रुतभक्ति दीजिए।।९।।
-दोहा-
जीवा-अजीव अधिकार के जयमाला का अर्घ्य।
अर्पण कर श्रुत के निकट, पाऊँ सौख्य समग्र।।१०।।
ॐ ह्रीं जीवाधिकार-अजीवाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारमहाग्रंथाय जयमाला
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
-दोहा-
समयसार का सार ही, है जीवन का सार।
शेष द्रव्य का भार है, जीवन में निस्सार।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।