-नरेन्द्र छंद-
त्रिभुवन तिलक जिनालय शाश्वत, आठ कोटि सुखराशी।
छप्पन लाख हजार सत्यानवे चार शतक इक्यासी।।
प्रति जिनगृह में मणिमय प्रतिमा इक सौ आठ विराजें।
आह्वानन कर जजूँ यहाँ मैं जन्म मरण दु:ख भाजें।।१।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव
वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-स्रग्विणी छंद-
शुद्ध गंगानदी नीर झारी भरूँ।
नाथ के पाद में तीन धारा करूँ।।
सर्व शाश्वत जिनालय जजूँ भाव से।
स्वात्म पीयूष पीऊं बड़े चाव से।।१।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध चंदन घिसाके कटोरी भरूँ।
नाथ पादाब्ज अर्चूं सभी दु:ख हरूँ।।
सर्व शाश्वत जिनालय जजूँ भाव से।
स्वात्म पीयूष पीऊं बड़े चाव से।।२।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धौत तंदुल शशी रश्मि सम श्वेत हैं।
नाथ के अग्र में पुंज सुख हेतु हैं।।
सर्व शाश्वत जिनालय जजूँ भाव से।
स्वात्म पीयूष पीऊं बड़े चाव से।।३।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद बेला सुगंधित कुसुम ले लिये।
नाथ पादाब्ज में आज अर्पण किये।।
सर्व शाश्वत जिनालय जजूँ भाव से।
स्वात्म पीयूष पीऊं बड़े चाव से।।४।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
खीर बरफी अंदरसा पुआ लायके।
नाथ के सामने चरु चढ़ाऊँ अबे।।
सर्व शाश्वत जिनालय जजूँ भाव से।
स्वात्म पीयूष पीऊं बड़े चाव से।।५।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप ज्योती लिये आरती मैं करूँ।
मोह हर ज्ञान की भारती मैं भरूँ।।
सर्व शाश्वत जिनालय जजूँ भाव से।
स्वात्म पीयूष पीऊं बड़े चाव से।।६।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेऊँ अबे धूपघट में जले।
कर्म निर्मूल हो देहकांती मिले।।
सर्व शाश्वत जिनालय जजूँ भाव से।
स्वात्म पीयूष पीऊं बड़े चाव से।।७।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम्र अंगूर केला चढ़ाऊँ भले।
मोक्ष की आश सह सर्व वांछित फले।।
सर्व शाश्वत जिनालय जजूँ भाव से।
स्वात्म पीयूष पीऊं बड़े चाव से।।८।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ में स्वर्ण चांदी कुसुम ले लिये।
नाथ को अर्पहूँ रत्नत्रय के लिए।।
सर्व शाश्वत जिनालय जजूँ भाव से।
स्वात्म पीयूष पीऊं बड़े चाव से।।९।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसंबंधि अष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:-
शतैकाशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
श्री जिनवर पादाब्ज, शांतीधारा मैं करूँ।
मिले स्वात्मसाम्राज, त्रिभुवन में सुख शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला हरसिंगार, कुसुमांजलि अर्पण करूँ।
मिले सर्वसुखसार, त्रिभुवन की सुखसंपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिभुवनतिलकजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
-दोहा-
त्रिभुवन तिलक जिनेन्द्र गृह, जिनप्रतिमा जिनसूर्य।
नमूँ अनंतों बार मैं, भव्य कमलिनी सूर्य।।१।।
-शंभु छंद-
जय अधोलोक के जिनगृह सात करोड़ बहत्तर लाख नमूँ।
जय मध्यलोक के चार शतक अट्ठावन जिनगृह नित्य नमूँ।।
जय व्यंतरसुर ज्योतिष सुर के जिनगेह असंख्याते प्रणमूँ।
जय ऊरध के चौरासि लाख सत्यानवे सहस तेईस नमूँ।।१।।
कोट्यष्ट सुछप्पन लाख सत्यानवे सहस चार सौ इक्यासी।
जिनधाम अकृत्रिम नमूँ नमूँ ये कल्पवृक्षसम सुख राशी।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन्न लाख सत्ताइस सहस तथा।
नव सौ अड़तालिस जिनप्रतिमा मैं नमूँ हरो भवव्याधि व्यथा।।२।।
जिनमंदिर लंबे सौ योजन पचहत्तर तुंग विस्तृत पचास।
उत्कृष्ट प्रमाण कहा श्रुत में मध्यम लंबे योजन पचास।।
चौड़े पचीस ऊँचे साढ़े सैंतिस जघन्य लंबे पचीस।
चौड़े साढ़े बारह योजन ऊँचे योजन पौने उनीस।।३।।
मेरू में भद्रसाल नंदनवन के वर द्वीप नंदीश्वर के।
उत्कृष्ट जिनालय मुनि कहते मैं नमूँ नमूँ अंजलि करके।।
सौमनस रुचकगिरि कुंडलगिरि वक्षार कुलाचल के मंदिर।
मनुजोत्तर इष्वाकार अचल मध्यम प्रमाण के जिनमंदिर।।४।।
पांडुकवन के जिनगृह जघन्य मैं नमूँ नमूँ शिर नत करके।
रजताचल जंबू शाल्मलि तरू इनके मंदिर सबसे छोटे।।
ये एक कोस लंबे आधे चौड़े पौने कोस ऊँचे हैं।
सर्वत्र लघू जिनमंदिर का परिमाण यही मुनि गाते हैं।।५।।
जिनगृह को बेढ़े तीन कोट चहुँदिश में गोपुर द्वार कहें।
प्रतिवीथी मानस्तंभ बने प्रतिवीथी नव नव स्तूप कहें।।
मणिकोट प्रथम के अंतराल वन भूमि लतायें मनहरतीं।
परकोट द्वितिय के अंतराल दशविधी ध्वजाएँ फरहरतीं।।६।।
परकोट तृतिय के बीच चैत्यभूमी अतिशायि शोभती है।
सिद्धार्थवृक्ष अरू चैत्यवृक्ष बिम्बों से चित्त मोहती है।।
प्रतिमंदिर मध्य गर्भगृह इक सौ आठ आठ अति सुंदर हैं।
इन गर्भगृह में सिंहासन पर जिनवरबिम्ब मनोहर हैं।।७।।
ये बिम्ब पाँच सौ धनुष तुंग पद्मासन राजें मणिमय हैं।
बत्तीस युगल यक्ष दोनों बाजू में चंवर ढुराते हैं।।
जिनप्रतिमा निकट श्रीदेवी श्रुतदेवी की मूर्ती शोभें।
सानत्कुमार सर्वाण्हयक्ष की मूर्ति भव्य जन मन लोभें।।८।।
प्रत्येक बिम्ब के पास सुमंगल द्रव्य एक सौ आठ-आठ।
भृंगार कलश दर्पण चामर ध्वज छत्र व्यजन अरू सुप्रतिष्ठ।।
श्रीमंडप आगे स्वर्ण कलश शोभें बहु धूप घड़े सोहें।
मणिमय सुवर्णमय मालाएँ चारण ऋषि का भी मन मोहें।।९।।
मुखमंडप प्रेक्षामंडप अरू वंदन अभिषेक मंडपादी।
क्रीड़ा नर्तन संगीत गुणनगृह चित्रभवन विस्तृत अनादि।।
बहुविध रचना इन मंदिर में गणधर भी नहिं कह सकते हैं।
माँ सरस्वती नित गुण गाये मुनिगण अतृप्त ही रहते हैं।।१०।।
मैं नित्य जिनालय को वंदूँ नित शीश झुकाऊँ गुण गाऊँ।
जिनप्रतिमा के पद कमलों में बहुबार नमूँ नित शिर नाऊँ।।
प्रत्यक्ष दर्श मिल जाय प्रभो! इसलिए परोक्ष करूँ वंदन।
निज ज्ञानमती ज्योति प्रगटे इस हेतु करूँ शत-शत वंदन।।११।।
दोहा- चिंतामणि जिनमूर्तियाँ, चिंतित फलदातार।
चिच्चैतन्य जिनेन्द्र को, नमूँ-नमूँ शत बार।।१२।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकसंबंधिअष्टकोटिषट्पंचाशत्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतु:शतैका-
शीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्यजन त्रिभुवन तिलक जिनधाम की अर्चा करें।
त्रिभुवन चतुर्गति भ्रमण से, निज की स्वयं रक्षा करें।।
अतिशीघ्र ही त्रिभुवनतिलक निज सिद्धपद को पायेंगे।
निज ज्ञानमति सुख पूर्ण कर, फिर वे यहाँ नहिं आएंगे।।१।।
।। इत्याशीर्वाद:।।