-स्थापना (अडिल्ल छंद)-
सोलहकारण में है पहली भावना।
करना है दर्शनविशुद्धि की कामना।।
आत्मा में सम्यक्त्व विशुद्धि बढ़ाइये।
आह्वानन कर पुष्पांजलि चढ़ाइये।।१।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावना! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावना! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (सोरठा)-
जल का कलश उठाय, जिनवर पद त्रय धार दूँ।
जन्म मृत्यु नश जांय, सम्यग्दर्शन शुद्ध हो।।१।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन केशर लाय, जिनवर पद चर्चन करूँ।
भव आतप नश जाय, सम्यग्दर्शन शुद्ध हो।।२।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल धवल मंगाय, प्रभु पद में अर्पण करूँ।
अक्षय पद मिल जाय, सम्यग्दर्शन शुद्ध हो।।३।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प सुगंधित लाय, जिनवर चरण चढ़ाय दूँ।
कामव्यथा नश जाय, सम्यग्दर्शन शुद्ध हो।।४।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
व्यंजन थाल सजाय, प्रभु चरणन अर्पण करूँ।
क्षुधा रोग नश जाय, सम्यग्दर्शन शुद्ध हो।।५।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योति जलाय, जिनवर की आरति करूँ।
मोहतिमिर नश जाय, सम्यग्दर्शन शुद्ध हो।।६।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ताजी धूप बनाय, प्रभु ढिग अग्नी में दहूँ।
कर्म सभी नश जांय, सम्यग्दर्शन शुद्ध हो।।७।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल का थाल सजाय, जिनवर की पूजन करूँ।
फल शिवपद मिल जाय, सम्यग्दर्शन शुद्ध हो।।८।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
थाल अर्घ्य का लाय, जजूँ ‘चन्दनामति’ प्रभो।
पद अनर्घ्य मिल जाय, सम्यग्दर्शन शुद्ध हो।।९।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रासुक नीर मंगाय, शांतीधारा मैं करूँ।
आत्मशांति मिल जाय, सम्यग्दर्शन शुद्ध हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चुन चुन पुष्प मंगाय, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
आतम गुण मिल जांय, सम्यग्दर्शन शुद्ध हो।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(प्रथम वलय में ४१ अर्घ्य, ६ पूर्णार्घ्य)
-दोहा-
दर्शविशुद्धी भावना, पूजन करो महान।
मण्डल पर पुष्पांजली, करके पाऊँ ज्ञान।।
इति मण्डलस्योपरि प्रथमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-कुसुमलता छंद-
सम्यग्दर्शन के आठों, गुण में नि:शंकित प्रथम कहा।
जिनवच में शंका न धरें जो, उनमें यह गुण प्रगट रहा।।
आठ अंग युत सम्यग्दर्शन, का परिपालन करना है।
दरस विशुद्धि भावना की, पूजन कर शिवपद वरना है।।१।।
ॐ ह्रीं नि:शंकितगुणसहित दर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यग्दर्शन के आठों गुण, में नि:कांक्षित दुतिय कहा।
भोगों की वांछा न करें जो, उनमें यह गुण प्रगट रहा।।
आठ अंग युत सम्यग्दर्शन, का परिपालन करना है।
दरस विशुद्धि भावना की, पूजन कर शिवपद वरना है।।२।।
ॐ ह्रीं नि:कांक्षितगुणसहित दर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यग्दर्शन के गुण में है, निर्विचिकित्सा तृतिय कहा।
मुनि तन में ग्लानी न करें जो, उनमें यह गुण प्रगट रहा।।
आठ अंग युत सम्यग्दर्शन, का परिपालन करना है।
दरस विशुद्धि भावना की, पूजन कर शिवपद वरना है।।३।।
ॐ ह्रीं निर्विचिकित्सागुणसहित दर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यग्दर्शन के गुण में है, अमूढदृष्टि चतुर्थ कहा।
नहीं मूढ़ता मानें जो, उनके मन में यह प्रगट हुआ।।
आठ अंग युत सम्यग्दर्शन, का परिपालन करना है।
दरस विशुद्धि भावना की, पूजन कर शिवपद वरना है।।४।।
ॐ ह्रीं अमूढ़दृष्टिगुणसहित दर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यग्दर्शन के गुण में, पंचम उपगूहन अंग कहा।
धार्मिक जन के दोष ढकें जो, उनमें यह प्रत्यक्ष रहा।।
आठ अंग युत सम्यग्दर्शन, का परिपालन करना है।
दरस विशुद्धि भावना की, पूजन कर शिवपद वरना है।।५।।
ॐ ह्रीं उपगूहनगुणसहित दर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यग्दर्शन के गुण में, छट्ठा है स्थितिकरण कहा।
धर्म से डिगते को जो स्थिर, करे उसी में प्रगट हुआ।।
आठ अंग युत सम्यग्दर्शन, का परिपालन करना है।
दरस विशुद्धि भावना की, पूजन कर शिवपद वरना है।।६।।
ॐ ह्रीं स्थितिकरणगुणसहित दर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यग्दर्शन के गुण में, सप्तम गुण है वात्सल्य कहा।
साधर्मी के प्रति वत्सलता, धरें जो उनमें प्रगट हुआ।।
आठ अंग युत सम्यग्दर्शन, का परिपालन करना है।
दरस विशुद्धि भावना की, पूजन कर शिवपद वरना है।।७।।
ॐ ह्रीं वात्सल्यगुणसहित दर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यग्दर्शन के गुण में, अष्टम प्रभावना अंग कहा।
जैनधर्म की जो प्रभावना, करें, उन्हीं में प्रगट हुआ।।
आठ अंग युत सम्यग्दर्शन, का परिपालन करना है।
दरस विशुद्धि भावना की, पूजन कर शिवपद वरना है।।८।।
ॐ ह्रीं प्रभावनागुणसहित दर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
नि:शंकित से प्रभावना तक, जो आठों गुण धरते हैं।
निरतिचार सम्यग्दर्शन का, वे ही पालन करते हैं।।
इन गुणयुत दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।
कर पूर्णार्घ्य समर्पण निज, आत्मा को शुद्ध बनाना है।।१।।
ॐ ह्रीं नि:शंकितादिअष्टगुणसमन्वितदर्शनविशुद्धिभावनायै पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
तर्ज-चन्दाप्रभु के दर्शन करने………
दर्शविशुद्धि भावना भाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।टेक.।।
अपने मातृपक्ष का मद करना जातिमद कहलाता।
उसको तज कर माता के गुण में अनुराग किया जाता।।
अष्टद्रव्य ले अर्घ्य चढ़ाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।९।।
ॐ ह्रीं जातिमदरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शविशुद्धि भावना भाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।टेक.।।
अपने पिता-पितामह का मद करना कुलमद कहलाता।
उसको तज कर अपने कुल का स्वाभिमान गुण बन जाता।।
अष्टद्रव्य ले अर्घ्य चढ़ाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।१०।।
ॐ ह्रीं कुलमदरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शविशुद्धि भावना भाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।टेक.।।
कुछ शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर अहंकार यदि आ जाता।
दोष लगे सम्यग्दर्शन में, यही ज्ञानमद कहलाता।।
अष्टद्रव्य ले अर्घ्य चढ़ाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।११।।
ॐ ह्रीं ज्ञानमदरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शविशुद्धि भावना भाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।टेक.।।
जग में पूजा योग्य बने तो अहंकार मन में जागा।
पूजामद से दूर हटे तो मिथ्यातम मन से भागा।।
अष्टद्रव्य ले अर्घ्य चढ़ाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।१२।।
ॐ ह्रीं पूजामदरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शविशुद्धि भावना भाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।टेक.।।
तन में बल आ गया कभी तो अहंकार मन में आया।
बल मद को कर दिया दूर तो सच्चा बल मैंने पाया।।
अष्टद्रव्य ले अर्घ्य चढ़ाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।१३।।
ॐ ह्रीं बलमदरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शविशुद्धि भावना भाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।टेक.।।
धनवैभव हो गया प्राप्त तो अहंकार मन जाग गया।
धनमद को कर दिया त्याग तो मिथ्यातम सब भाग गया।।
अष्टद्रव्य ले अर्घ्य चढ़ाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।१४।।
ॐ ह्रीं धनमदरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शविशुद्धि भावना भाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।टेक.।।
तप करके भी पतन हेतु तप मद मेरे मन में जागा।
उसका त्याग किया तो मेरे मन से मोहतिमिर भागा।।
अष्टद्रव्य ले अर्घ्य चढ़ाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।१५।।
ॐ ह्रीं तपमदरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शविशुद्धि भावना भाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।टेक.।।
सुन्दर तन पाकर के मेरे मन में अहंकार आया।
नश्वर समझके त्याग दिया तब मन को सुंदर कर पाया।।
अष्टद्रव्य ले अर्घ्य चढ़ाकर, सम्यग्दर्शन पाएंगे।
आठों मद को दूर भगाकर, विनयभाव प्रगटाएंगे।।१६।।
ॐ ह्रीं कायमदरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
आठों मद से रहित शुद्ध, सम्यग्दर्शन का यजन करूँ।
विनयवृत्ति से सहित शुद्ध, निज आत्मतत्त्व का भजन करूँ।।
मैं पूर्णार्घ्य चढ़ा करके, दर्शनविशुद्धि को भाता हूँ।
सोलहकारण भाने हेतू, प्रभु चरणों में आता हूँ।।२।।
ॐ अष्टमदरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
देवमूढ़ता त्याग कर, दर्शन करूँ विशुद्ध।
अर्घ्य चढ़ाकर जिनचरण, प्राप्त करूँ पद शुद्ध।।१७।।
ॐ ह्रीं देवमूढ़तादोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सच्चे गुरु पहचान कर, गुरूमूढ़ता त्याग।
प्रभु पद अर्घ्य चढ़ाय कर, पाऊँ निज साम्राज्य।।१८।।
ॐ ह्रीं गुरुमूढ़तादोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकमूढ़ता त्याग कर, करूँ आत्म अनुराग।
सम्यग्दर्शन पाय कर, करूँ अर्चना आज।।१९।।
ॐ ह्रीं लोकमूढतादोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चौबोल छंद-
हिंसा आदिक पापों को, जो धर्म बढ़ावा देता है।
उसको माना है कुधर्म, वह सबको धोखा देता है।।
इस अनायतन में श्रद्धा, करना ही दोष कहाता है।
दोषरहित दर्शनविशुद्धि को, अर्घ्य चढ़ाया जाता है।।२०।।
ॐ ह्रीं कुधर्मप्रशंसाअनायतनदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
स्त्री शस्त्र आदि रख भी, जो निज को देव बताते हैं।
सच्चे देव न हो सकते, वे तो कुदेव कहलाते हैं।।
इस अनायतन में श्रद्धा, करना ही दोष कहाता है।
दोषरहित दर्शनविशुद्धि को, अर्घ्य चढ़ाया जाता है।।२१।।
ॐ ह्रीं कुदेवप्रशंसाअनायतनदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोधी मानी विषयाशा से, सहित कुगुरू कहलाते हैं।
उनके उपदेशों से प्राणी, भव भव में दुख पाते हैं।।
इस अनायतन में श्रद्धा, करना ही दोष कहाता है।
दोषरहित दर्शनविशुद्धि को, अर्घ्य चढ़ाया जाता है।।२२।।
ॐ ह्रीं कुगुरुप्रशंसाअनायतनदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो कुधर्मसेवक हैं उनकी, भी न प्रशंसा करना है।
क्योंकि हमें संसार जलधि, से जल्दी पार उतरना है।।
इस अनायतन में श्रद्धा, करना ही दोष कहाता है।
दोषरहित दर्शनविशुद्धि को, अर्घ्य चढ़ाया जाता है।।२३।।
ॐ ह्रीं कुधर्मसेवकप्रशंसाअनायतनदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो कुदेव सेवक हैं उनकी, भी न प्रशंसा करना है।
क्योंकि हमें संसार जलधि, से जल्दी पार उतरना है।।
इस अनायतन में श्रद्धा, करना ही दोष कहाता है।
दोषरहित दर्शनविशुद्धि को, अर्घ्य चढ़ाया जाता है।।२४।।
ॐ ह्रीं कुदेवसेवकप्रशंसाअनायतनदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो कुगुरू सेवक हैं उनकी, भी न प्रशंसा करना है।
क्योंकि हमें संसार जलधि, से जल्दी पार उतरना है।।
इस अनायतन में श्रद्धा, करना ही दोष कहाता है।
दोषरहित दर्शनविशुद्धि को, अर्घ्य चढ़ाया जाता है।।२५।।
ॐ ह्रीं कुगुरुसेवकप्रशंसाअनायतनदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
तीन मूढ़ता छह अनायतन, का नहिं सेवन करना है।
क्योंकि हमें निजसम्यग्दर्शन, दोषयुक्त नहिं करना है।।
मैं पूर्णार्घ्य चढ़ा करके, दर्शनविशुद्धि का यजन करूँ।
भववारिधि से तिरने हेतू, देव शास्त्र गुरु भजन करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं त्रिमूढ़ताषडनायतनदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
आठों दोषों में प्रथम, शंका नामक दोष।
जिनवचशंका दोष तज, जजूँ धर्म निर्दोष।।२६।।
ॐ ह्रीं शंकादोष रहित दर्शन विशुद्धि भावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठों दोषों में दुतिय, कांक्षा नामक दोष।
भोगाकांक्षा दोष तज, जजूँ धर्म निर्दोष।।२७।।
ॐ ह्रीं कांक्षादोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठों दोषों में तृतिय, विचिकित्सा है दोष।
रत्नत्रय में ग्लानि तज, जजूँ धर्म निर्दोष।।२८।।
ॐ ह्रीं विचिकित्सादोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठों दोषों में चतुर्थ, मूढ़दृष्टि है दोष।
मूढ़बुद्धि का त्याग कर, जजूँ धर्म निर्दोष।।२९।।
ॐ ह्रीं मूढ़दृष्टिदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ दोष में पाँचवां, अनुपगूहन है दोष।
परनिंदा को त्याग कर, जजूँ धर्म निर्दोष।।३०।।
ॐ ह्रीं अनुपगूहनदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ दोष में अस्थिती-करण छठा है दोष।
अस्थिर भाव मिटाय कर, जजूँ धर्म निर्दोष।।३१।।
ॐ ह्रीं अस्थितिकरणदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ दोष में सातवाँ, अवात्सल्य है दोष।
धर्मी के प्रति द्वेष तज, जजूँ धर्म निर्दोष।।३२।।
ॐ ह्रीं अवात्सल्यदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अप्रभावना नाम का, कहा आठवां दोष।
दुर्भावों का त्याग कर, जजूँ धर्म निर्दोष।।३३।।
ॐ ह्रीं अप्रभावनादोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
शंकादिक सब दोष तज, हो सम्यक्त्व विशुद्ध।
मैं पूर्णार्घ्य चढ़ाय कर, करूँ निजातम शुद्ध।।४।।
ॐ ह्रीं शंकादिअष्टदोषरहितदर्शनविशुद्धिभावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
मद मूढत्व अनायतन, शंकादि को टार।
पच्चिस दोष निवारके, जजूँ दर्शनाचार।।५।।
ॐ ह्रीं अष्टमदत्रिमूढ़ताषट्अनायतन शंकादिअष्टदोषादिपंचविंशति-
मलदोषविरहित दर्शनविश्द्धि भावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
अष्टांग सहित सम्यग्दर्शन के, अन्य आठ गुण माने हैं।
उनमें संवेग प्रथम गुण को, धर्मानुराग से जाने हैं।।
इस गुण से युत दर्शन विशुद्धि, को अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।
सम्यक्त्व मेरा हो जाय शुद्ध, यह भाव हृदय में लाया हूँ।।३४।।
ॐ ह्रीं संवेगगुणसहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्वेग नाम के गुण में भोग, विषैले लगने लगते हैं।
संसार शरीर व भोगों को, ज्ञानी मानव ही तजते हैं।।
इस गुण से युत दर्शन विशुद्धि, को अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।
सम्यक्त्व मेरा हो जाय शुद्ध, यह भाव हृदय में लाया हूँ।।३५।।
ॐ ह्रीं निर्वेगगुणसहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अपने पापों की निंदा कर, जो जन प्रायश्चित्त करते हैं।
घर में रहकर भी घोर महा, जो पाप कभी नहिं करते हैं।।
इस गुण से युत दर्शन विशुद्धि, को अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।
सम्यक्त्व मेरा हो जाय शुद्ध, यह भाव हृदय में लाया हूँ।।३६।।
ॐ ह्रीं आत्मनिंदागुणसहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रागद्वेषादि विकारों से, जो पाप हुए हैं जीवन में।
गुरु सम्मुख उनका आलोचन, करना समझो गर्हा गुण है।।
इस गुण से युत दर्शन विशुद्धि, को अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।
सम्यक्त्व मेरा हो जाय शुद्ध, यह भाव हृदय में लाया हूँ।।३७।।
ॐ ह्रीं आत्मगर्हागुणसहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो क्रोध लोभ रागादि दोष, को मन में नहीं टिकाते हैं।
उपशम गुणयुत वे भव्य जीव, पापों को दूर भगाते हैं।।
इस गुण से युत दर्शन विशुद्धि, को अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।
सम्यक्त्व मेरा हो जाय शुद्ध, यह भाव हृदय में लाया हूँ।।३८।।
ॐ ह्रीं उपशमगुणसहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँचों परमेष्ठी नवदेवों की, सदा विनय जो करते हैं।
मानव में प्रगट इस गुण को ही, आचार्य भक्तिगुण कहते हैं।।
इस गुण से युत दर्शन विशुद्धि, को अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।
सम्यक्त्व मेरा हो जाय शुद्ध, यह भाव हृदय में लाया हूँ।।३९।।
ॐ ह्रीं भक्तिगुणसहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय संयुत संतों के, प्रति आदर ही वत्सलता है।
जिनधर्म और धर्मायतनों की, रक्षा यह गुण करता है।।
इस गुण से युत दर्शन विशुद्धि, को अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।
सम्यक्त्व् मेरा हो जाय शुद्ध, यह भाव हृदय में लाया हूँ।।४०।।
ॐ ह्रीं वात्सल्यगुणसहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवदधि में डूबे प्राणी के, प्रति दया भाव करुणा गुण है।
सम्यग्दृष्टि की अनुकम्पा से, तिर जाते प्राणी गण हैं।।
इस गुण से युत दर्शन विशुद्धि, को अर्घ्य चढ़ाने आया हूँ।
सम्यक्त्व मेरा हो जाय शुद्ध, यह भाव हृदय में लाया हूँ।।४१।।
ॐ ह्रीं अनुकम्पागुणसहितदर्शनविशुद्धिभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
संवेगादिक आठों गुण से, सम्यक्त्व विशुद्धी होती है।
जिनके मन में ये प्रगट हुए, लक्ष्मी उनके घर होती है।।
इन गुण युत सम्यग्दर्शन को, पूर्णार्घ्य चढ़ाने आये हैं।
आतम दर्शन हो जाए प्रगट, बस यही भावना लाये हैं।।६।।
ॐ ह्रीं संवेगादिअष्टगुणसमन्वितदर्शनविशुद्धि भावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावनायै नम:।
तर्ज-सपने में……….
सोलहकारण में, प्रथम भावना भाना है।
दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।।टेक.।।
निर्ग्रन्थ दिगम्बर पथ में, रुचि ही सम्यग्दर्शन है।
जिनवर ने जो उपदेशा, उस पर ही चलें हमेशा।।
उनको निश्चित ही, मोक्ष पंथ को पाना है।
दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।।१।।
आठों अंगों से संयुत, संवेगादिक गुण से युत।
सम्यक्त्व प्राप्त करते जो, सुख शांति प्राप्त करते वो।।
उन सम्यग्दृष्टि, को अणुव्रत अपनाना है।
दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।।२।।
जो नहीं मूढ़ता पालें, षट् अनायतन को टालें।
शंकादि दोष परिहरते, आठों मद कभी न करते।।
इन पच्चिस मल, दोषों को हमें हटाना है।
दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।।३।।
भय सात जगत में माने, इनसे न डरें जो प्राणी।
जिनसे भय भी भय खाते, वे सम्यग्दृष्टि ज्ञानी।।
भय रहित उसी, सम्यग्दर्शन को पाना है।
दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।।४।।
दर्शनविशुद्धि का अतिशय, श्रेणिक में हुआ प्रगट है।
प्रभु वीर के समवसरण में, किया पुण्य का बंध उन्होंने।।
आगे उनको, तीर्थंकर पदवी पाना है।
दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।।५।।
इतिहास विचित्र है इनका, सम्राट मगध श्रेणिक का।
पहले तो विधर्मी थे वे, उपसर्ग किया इक मुनि पे।।
उपसर्ग कथानक, जिन शास्त्रों में बखाना है।
दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।।६।।
उपसर्ग मुनी पर करना, उत्कृष्ट आयु का बंधना।
था सप्तम नरक में जाना, तेंतिस सागर दुख पाना।।
चेलना सती की, महिमा सबने जाना है।
दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।।७।।
गये राजा रानी इक संग, मुनिवर को नमन किया जब।
आशीर्वाद दिया इक सा, दोनों को धरम वृद्धी का।।
तब श्रेणिक नृप ने, सच्चा गुरु पहचाना है।
दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।।८।।
फिर जिनवर भक्ती करके, नरकायु को कम करके।
गये श्रेणिक प्रथम नरक में, क्षायिक सम्यक्त्व है उनमें।।
यह कर्म की महिमा, जिन शास्त्रों से जाना है।
दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।।९।।
हे नाथ! भावना भाऊँ, प्रभु भक्ती में रम जाऊँ।
पूर्णार्घ्य का थाल सजाऊँ, जिनवर चरणों में चढ़ाऊँ।।
‘‘चन्दनामती’’ अब, मनवांछित फल पाना है।
दर्शनविशुद्धि, भावना को अर्घ्य चढ़ाना है।।१०।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धिभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में, जो मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।