अथ स्थापना-गीता छंद
हे शांतिजिन! तुम शांति के, दाता जगत विख्यात हो।
इस हेतु मुनिगण आपके, पद में नमाते माथ को।।
निज आत्मसुखपीयूष को, आस्वादते वे आप में।
इस हेतु प्रभु आह्वान विधि से, पूजहूँ नत माथ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक-गीता छंद
चिरकाल से बहुप्यास लागी, नाथ! अब तक ना बुझी।
इस हेतु जल से तुम चरण युग, जजन की मनसा जगी।।
श्री शांतिनाथ जिनेश शाश्वत, शांति के दाता तुम्हीं।
प्रभु शांति ऐसी दीजिए, हो फिर कभी याञ्चा नहीं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भवताप शीतल हेतु भगवन्! बहुत का शरणा लिया।
फिर भी न शीतलता मिली, अब गंध से पद पूजिया।।
श्री शांतिनाथ जिनेश शाश्वत, शांति के दाता तुम्हीं।
प्रभु शांति ऐसी दीजिए, हो फिर कभी याञ्चा नहीं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुबार मैं जन्मा मरा, अब तक न पाया पार है।
अक्षय सुपद के हेतु अक्षत, से जजूँ तुम सार है।।
श्री शांतिनाथ जिनेश शाश्वत, शांति के दाता तुम्हीं।
प्रभु शांति ऐसी दीजिए, हो फिर कभी याञ्चा नहीं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपा चमेली बकुल आदिक, पुष्प ले पूजा करूँ।
मनसिजविजेता तुम जजत, निज आत्मगुणपरिचय करूँ।।
श्री शांतिनाथ जिनेश शाश्वत, शांति के दाता तुम्हीं।
प्रभु शांति ऐसी दीजिए, हो फिर कभी याञ्चा नहीं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
यह भूख व्याधी पिंड लागी, किस विधी मैं छूटहूँ।
पकवान नानाविध लिये, इस हेतु ही तुम पूजहूँ।।
श्री शांतिनाथ जिनेश शाश्वत, शांति के दाता तुम्हीं।
प्रभु शांति ऐसी दीजिए, हो फिर कभी याञ्चा नहीं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अज्ञानतम दृष्टी हरे, निज ज्ञान होने दे नहीं।
इस हेतु दीपक से जजूँ, मन में उजेला हो सही।।
श्री शांतिनाथ जिनेश शाश्वत, शांति के दाता तुम्हीं।
प्रभु शांति ऐसी दीजिए, हो फिर कभी याञ्चा नहीं।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ये कर्मबैरी संग लागे, एक क्षण ना छोड़ते।
वर धूप अग्नी संग खेते, दूर से मुख मोड़ते।।
श्री शांतिनाथ जिनेश शाश्वत, शांति के दाता तुम्हीं।
प्रभु शांति ऐसी दीजिए, हो फिर कभी याञ्चा नहीं।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल मोक्ष की अभिलाष लागी, किस तरह अब पूर्ण हो।
इस हेतु फल से तुम जजूँ, सब विघ्न बैरी चूर्ण हों।।
श्री शांतिनाथ जिनेश शाश्वत, शांति के दाता तुम्हीं।
प्रभु शांति ऐसी दीजिए, हो फिर कभी याञ्चा नहीं।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अनमोल रत्नत्रय निधी की, मैं करूँ अब याचना।
जजुँ अर्घ्य ले मुझ ‘ज्ञानमति’, कैवल्य हो यह कामना।।
श्री शांतिनाथ जिनेश शाश्वत, शांति के दाता तुम्हीं।
प्रभु शांति ऐसी दीजिए, हो फिर कभी याञ्चा नहीं।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
शांतिनाथ पदकंज में, चउसंघ शांती हेत।
शांतीधारा मैं करूँ, मिटे सकल भव खेद।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
लाल कमल नीले कमल, पुष्प सुगंधित सार।
जिनपद पुष्पांजलि करूँ, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-रोला छंद-
भादों कृष्णा पाख, सप्तमि तिथि शुभ आई।
गर्भ बसे प्रभु आप, सब जन मन हरषाई।।
इन्द्र सुरासुर संघ, उत्सव करते भारी।
हम पूजें धर प्रीति, जिनवर पद सुखकारी।।१।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदकृष्णासप्तम्यां श्रीशांतिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपमाीति स्वाहा।
जन्म लिया प्रभु आप, ज्येष्ठवदी चौदस में।
सुरगिरि पर अभिषेक, किया सभी सुरपति ने।।
शांतिनाथ यह नाम, रखा शांतिकर जग में।
हम नावें निज माथ, जिनवर चरणकमल में।।२।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं
र्वपामीति स्वाहा।
दीक्षा ली प्रभु आप, ज्येष्ठ वदी चौदस के।
लौकांतिक सुर आय, बहु स्तवन उचरते।।
इंद्र सपरिकर आय, तप कल्याणक करते।
हम पूजें नत माथ, सब दुख संकट हरते।।३।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान विकास, पौष सुदी दशमी के।
समवसरण में नाथ, राजें अधर कमल पे।।
इंद्र करें बहु भक्ति, बारह सभा बनी हैं।
सभी भव्य जन आय, सुनते दिव्य धुनी हैं।।४।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लादशम्यां श्रीशांतिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
प्राप्त किया निर्वाण, ज्येष्ठ वदी चौदश में।
आत्यंतिक सुखशांति, प्राप्त किया उस क्षण में।।
महामहोत्सव इंद्र, करते बहुवैभव से।
हम पूजें तुम पाद, छुटें सभी भवदु:ख से।।५।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीशांतिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
विश्वशांतिकर्ता प्रभो! शांतिनाथ भगवान।
पूर्ण अर्घ्य अर्पण करत, पाऊँ सौख्य निधान।।६।।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
शांतिनाथ भगवान, सर्व शांतिकर जगत में।
पुष्पांजलि से पूज, पाऊँ निजसुख संपदा।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शार्दूलविक्रीडित छंद-
न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन् ! पादद्वयं ते प्रजा:।
हेतुस्तत्र विचित्रदुःखनिचय:, संसारघोरार्णव:।।
अत्यन्तस्फुरदुग्ररश्मिनिकर-व्याकीर्णभूमण्डलो।
ग्रैैष्म: कारयतीन्दुपादसलिल-च्छायानुरागं रवि:।।१।।
भगवन्! सब जन तव पद युग की, शरण प्रेम से नहिं आते।
उसमें हेतु विविध दुःखों से, भरित घोर भववारिधि है।।
अति स्फुरित उग्र किरणों से, व्याप्त किया भूमंडल है।
ग्रीषम ऋतु रवि राग कराता, इन्दुकिरण छाया जल में।।१।।
ॐ ह्रीं संसारदु:खभीतभव्यगणशरण्याय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
क्रुद्धाशीर्विषदष्टदुर्जयविष-ज्वालावलीविक्रमो।
विद्याभेषजमन्त्रतोयहवने-र्याति प्रशांतिं यथा।।
तद्वत्ते चरणारुणांबुजयुग-स्तोत्रोन्मुखानां नृणाम्।
विघ्ना: कायविनायकाश्च सहसा, शाम्यन्त्यहो! विस्मय:।।२।।
कुद्धसर्प आशीविष डसने, से विषाग्नि युत मानव जो।
विद्या औषध मंत्रित जल, हवनादिक से विष शांति हो।।
वैसे तव चरणाम्बुज युग, स्तोत्र पढ़े जो मनुज अहो।
तनु नाशक सब विघ्न शीघ्र, अति शान्त हुए आश्चर्य अहो।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वविघ्नशांतिकराय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संतप्तोत्तमकांचन क्षितिधर – श्रीस्पर्द्धिगौरद्युते।
पुंसां त्वच्चरणप्रणामकरणात्, पीडा: प्रयान्ति क्षयं।।
उद्यद्भास्करविस्फुरत्करशत – व्याघातनिष्कासिता।
नानादेहिविलोचनद्युतिहरा शीघ्रं यथा शर्वरी।।३।।
तपे श्रेष्ठ कनकाचल की, शोभा से अधिक कान्तियुत देव!
तव पद प्रणमन करते जो, पीड़ा उनकी क्षय हो स्वयमेव।।
उदित रवी की स्फुट किरणों से, ताड़ित हो झट निकल भगे।।
जैसे नाना प्राणी लोचन, द्युतिहर रात्री शीघ्र भगे।।३।।
ॐ ह्रीं प्रणतजनकष्टनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्येश्वरभंगलब्धविजया – दत्यन्तरौद्रात्मकान्।
नानाजन्मशतान्तरेषु पुरतो, जीवस्य संसारिण:।।
को वा प्रस्खलतीह केन विधिना, कालोग्रदावानला-
न्नस्याच्चेत्तव पादपद्मयुगलस्तुत्यापगावारणम्।।४।।
त्रिभुवन जन सब जीत विजयि बन, अति रौद्रात्मक मृत्यूराज!
भव – भव में संसारी जन के, सन्मुख धावे अति विकराल।।
किस विध कौन बचे जन इससे, काल उग्र दावानल से।
यदि तव पाद कमल की स्तुति, नदी बुझावे नहीं उसे।।४।।
ॐ ह्रीं स्तोत¸णां मृत्युंजयपदप्रदायकाय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकालोकनिरन्तरप्रवितत – ज्ञानैकमूर्ते! विभो!
नानारत्नपिनद्धदंडरुचिर – श्वेतातपत्रत्रय!।।
त्वत्पादद्वयपूतगीतरवत:, शीघ्रं द्रवन्त्यामया:।
दर्पाध्मातमृगेन्द्रभीमनिनदा-द्वन्या यथा कुञ्जरा:।।५।।
लोकालोक निरन्तर व्यापी, ज्ञानमूर्तिमय शान्ति विभो।
नाना रत्न जटित दण्डे युत, रुचिर श्वेत छत्रत्रय है।।
तव चरणाम्बुज पूतगीत रव, से झट रोग पलायित हैं।
जैसे सिंह भयंकर गर्जन, सुन वन हस्ती भगते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं चरणाम्बुजस्तुतिकर्तृणां सर्वरोगविनाशकाय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
दिव्यस्त्रीनयनाभिराम! विपुल – श्रीमेरुचूडामणे!
भास्वद् बालदिवाकरद्युतिहर – प्राणीष्टभामंडल!।।
अव्याबाधमचिन्त्यसारमतुलं, त्यक्तोपमं शाश्वतं।
सौख्यं त्वच्चरणारविंदयुगल-स्तुत्यैव संप्राप्यते।।६।।
दिव्यस्त्रीदृगसुन्दर विपुला, श्रीमेरू के चूड़ामणि।
तव भामंडल बाल दिवाकर, द्युतिहर सबको इष्ट अति।।
अव्याबाध अचिंत्य अतुल, अनुपम शाश्वत जो सौख्य महान्।
तव चरणारविंदयुगलस्तुति, से ही हो वह प्राप्त निधान।।६।।
ॐ ह्रीं स्तवनप्रसादात् स्तोत¸णां अचिन्त्यसारसौख्यप्रदायकाय श्रीशांतिनाथाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यावन्नोदयते प्रभापरिकर:, श्रीभास्करो भासयं-
स्तावद् – धारयतीह पंकजवनं, निद्रातिभारश्रमम् ।।
यावत्त्वच्चरणद्वयस्य भगवन्-न स्यात्प्रसादोदय-
स्तावज्जीवनिकाय एष वहति, प्रायेण पापं महत्।।७।।
किरण प्रभायुत भास्कर भासित, करता उदित न हो जब तक।
पंकज वन नहिं खिलते निद्रा, भार धारते हैं तब तक।।
भगवन् ! तव चरणद्वय का हो, नहीं प्रसादोदय जब तक।
सभी जीवगण प्रायः करके, महत् पाप धारें तब तक।।७।।
ॐ ह्रीं चरणकमलाश्रितजनसर्वपापप्रणाशकाय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शान्ति शान्तिजिनेन्द्र! शांतमनस-स्त्वत्पादपद्माश्रयात्।
संप्राप्ता: पृथिवीतलेषु बहव:, शांत्यर्थिन: प्राणिन:।।
कारुण्यान्मम भाक्तिकस्य च विभो! दृष्टिं प्रसन्नां कुरु।
त्वत्पादद्वयदैवतस्य गदत:, शांत्यष्टकं भक्तित:।।८।।
शान्ति जिनेश्वर! शान्तचित्त से, शान्त्यर्थी बहु प्राणीगण।
तव पादाम्बुज का आश्रय ले, शान्त हुए हैं पृथिवी पर।।
तव पदयुग की शान्त्यष्टकयुत, स्तुति करते भक्ती से।
मुझ भाक्तिक पर दृष्टि प्रसन्न, करो भगवन्! करुणा करके।।८।।
ॐ ह्रीं स्वपादपद्माश्रयिशान्त्यर्थिभाक्तिकानां दृष्टिप्रसन्न-विधायकाय
श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिजिनं शशिनिर्मलवक्त्रं, शीलगुणव्रतसंयमपात्रम्।
अष्टशतार्चितलक्षणगात्रं, नौमि जिनोत्तममम्बुजनेत्रम्।।९।।
शशि सम निर्मल वक्त्र शांतिजिन, शीलगुण व्रत संयम पात्र।
नमूँ जिनोत्तम अंबुजदृग को, अष्टशतार्चित लक्षणगात्र।।९।।
ॐ ह्रीं शीलगुणव्रतसंयमपात्राय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचममीप्सितचक्रधराणां, पूजितमिंद्र-नरेन्द्रगणैश्च।
शांतिकरं गणशांतिमभीप्सु:, षोडशतीर्थकरं प्रणमामि।।१०।।
चक्रधरों में पंचमचक्री, इन्द्र नरेन्द्र वृंद पूजित।
गण की शांति चहूँ षोडश, तीर्थंकर नमूँ शांतिकर नित।।१०।।
ॐ ह्रीं पंचमचक्रिषोडशतीर्थंकराय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिव्यतरु: सुरपुष्पसुवृष्टि-र्दुन्दुभिरासनयोजनघोषौ।
आतपवारणचामरयुग्मे, यस्य विभाति च मंडलतेज:।।११।।
तरु अशोक सुरपुष्पवृष्टि, दुंदुभि दिव्यध्वनि सिंहासन।
चमर छत्र भामंडल ये अठ, प्रातिहार्य प्रभु के मनहर।।११।।
ॐ ह्रीं अशोकवृक्षाद्यष्टप्रातिहार्यसमन्विताय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
तं जगदर्चितशांतिजिनेन्द्रं, शांतिकरं शिरसा प्रणमामि।
सर्वगणाय तु यच्छतु शांतिं, मह्यमरं पठते परमां च।।१२।।
उन भुवनार्चित शांतिकरं, शिर से प्रणमूँ शांति प्रभु को।
शांति करो सब गण को मुझको, पढ़ने वालों को भी हो।।१२।।
ॐ ह्रीं सर्वगणाय स्तुतिपाठकाय मह्यं च परमशांतिकराय श्रीशांतिनाथाय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
येऽ भ्यर्चिता मुकुटकुंडलहाररत्नै:।
शक्रादिभि: सुरगणै: स्तुतपादपद्मा:।।
ते मे जिना: प्रवरवंशजगत्प्रदीपा:।
तीर्थंकरा: सततशांतिकरा भवंतु।।१३।।
मुकुटहारकुंडल रत्नों युत, इन्द्रगणों से जो अर्चित।
इन्द्रादिक से सुरगण से भी, पादपद्म जिनके संस्तुत।।
प्रवरवंश में जन्में जग के, दीपक वे जिन तीर्थंकर।
मुझको सतत शांतिकर होवें, वे तीर्थेश्वर शांतीकर।।१३।।
ॐ ह्रीं शक्रादिभि: स्तुतपादपद्माय सततशान्तिकराय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
संपूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्रसामान्यतपोधनानां।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ:, करोतु शांिंत भगवान् जिनेन्द्र:।।१४।।
संपूजक प्रतिपालक जन, यतिवर सामान्य तपोधन को।
देशराष्ट्र पुर नृप के हेतू, हे भगवन्! तुम शांति करो।।१४।।
ॐ ह्रीं संपूजक-प्रतिपालक-यतीन्द्रगण-देश-राष्ट्र-पुर-नृपतिगणशांतिकराय
श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षेमं सर्वप्रजानां, प्रभवतु बलवान्धार्मिको भूमिपाल:।
काले काले च सम्यग्वर्षतु, मघवा व्याधयो यांतु नाशं।।
दुर्भिक्षं चौरिमारी, क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके।
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं, प्रभवतु सततं, सर्वसौख्यप्रदायि।।१५।।
सभी प्रजा में क्षेम नृपति, धार्मिक बलवान जगत् में हो।
समय-समय पर मेघवृष्टि हो, आधि व्याधि का भी क्षय हो।।
चौर मारि दुर्भिक्ष न क्षण भी, जग में जन पीड़ा कर हो।
नित ही सर्व सौख्यप्रद जिनवर, धर्मचक्र जयशील रहो।।१५।।
ॐ ह्रीं क्षेम-धार्मिकनृपति-समयसमयवृष्टिकारकाय व्याधि-दुर्भिक्षचौरिमारि-
कष्टनिवारकाय सर्वसौख्यकरधर्मचक्रप्रवर्तकाय श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञानभास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।१६।।
घातिकर्म विध्वंसक जिनवर, केवलज्ञानमयी भास्कर।
करें जगत में शांति सदा, वृषभादि जिनेश्वर तीर्थंकर।।१६।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानभास्कर-जगत्-शांतिकारकवृषभादि-तीर्थंकर-समन्विताय
श्रीशांतिनाथाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छामि भंते! संतिभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं पंचमहा-
कल्लाणसंपण्णाणं, अट्ठमहापाडिहेरसहियाणं, चउतीसातिसयविसेससंजुत्ताणं,
बत्तीसदेवेंदमणिमयमउडमत्थय-महियाणं,बलदेववासुदेवचक्कहर-रिसिमुणिजइ-
अणगारोव – गूढाणं, थुइसयसहस्सणिलयाणं उसहाइवीरपच्छिम – मंगलमहा-
पुरिसाणं, णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ
कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिनगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
हे भगवन्! श्री शांतिभक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसके।
आलोचन करने की इच्छा, करना चाहूँ मैं रुचि से।।
अष्टमहा प्रातिहार्य सहित जो, पंचमहाकल्याणक युत।
चौतिस अतिशय विशेष युत बत्तिस देवेन्द्र मुकुट चर्चित।।
हलधर वासुदेव प्रतिचक्री, ऋषि मुनि यति अनगार सहित।
लाखों स्तुति के निलय वृषभ से, वीर प्रभू तक महापुरुष।।
मंगल महापुरुष तीर्थंकर, उन सबको शुभ भक्ती से।
नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ महामुद से।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं,मम जिनगुण सम्पत्ति होवे।।
पूर्ण अर्घ्य मैं करूँ समर्पण, मेरे कार्य पूर्ण होवें।
शांतिनाथ की पूजा करते, सब जग में मंगल होवे।।
ॐ ह्रीं अर्हं पंचमहाकल्याण – अष्टमहाप्रातिहार्य – चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वित-
द्वािंत्रशदिन्द्रगण-चक्रवर्तिबलदेववासुदेवादिपूजित-गणधरमुनिगणादिवंदितवृषभादि-
महावीरपर्यंत-चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-(1) ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथाय जगत्-शांतिकराय सर्वोपद्रवशांतिं
कुरु कुरु ह्रीं नम:।
(2) ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशांतिनाथतीर्थंकराय नम:।
(इनमें से कोई भी 1जाप्य पुष्पों से या लवंग से या पीले चावल से
108 करें या 9 बार जपें)
-दोहा-
हस्तिनागपुर में हुये, गर्भ जन्म तप ज्ञान।
सम्मेदाचल मोक्ष थल, गाऊँ प्रभु गुणगान।।१।।
-स्रग्विणी छंद-
मैं नमूँ मैं नमूँ शांति तीर्थेश को। नाथ मेरे हरो सर्व भवक्लेश को।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना। फेर होवे न संसार में आवना।।२।।
विश्वसेन प्रिया मात ऐरावती। वर्ष इक लाख आयू कनक वर्ण ही।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना। फेर होवे न संसार में आवना।।३।।
देह चालीस धनु चिन्ह मृग ख्यात है। जन्म भू हस्तिनापूरि विख्यात है।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना। फेर होवे न संसार में आवना।।४।।
नाथ के समवसृति में सभा मध्य ये। साधु बासठ सहस मूलगुणधारि थे।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना। फेर होवे न संसार में आवना।।५।।
चक्र आयुध प्रमुख गणपत् श्रेष्ठ थे। ऋद्धि संयुक्त छत्तीस मुनिज्येष्ठ थे।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना। फेर होवे न संसार में आवना।।६।।
आर्यिका हरीषेणा प्रधाना तथा। साठ हज्जार त्रय सौ सभी आर्यिका।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना। फेर होवे न संसार में आवना।।७।।
दोय लक्षा सुश्रावक प्रभू भाक्तिका। चार लक्षा कहीं श्राविका सद्व्रता।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना। फेर होवे न संसार में आवना।।८।।
सौख्य हेतू भटकता फिरा विश्व में। किंतु पाई न साता कहीं रंच मैं।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना। फेर होवे न संसार में आवना।।९।।
नाथ ऐसी कृपा कीजिए भक्त पे। शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति होवे अबे।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना। फेर होवे न संसार में आवना।।१०।।
स्वात्म पर का मुझे भेद विज्ञान हो। पूर्ण चारित्र धारूँ जो निष्काम हो।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना। फेर होवे न संसार में आवना।।११।।
पूर्ण शांती जहाँ पे वहीं वास हो। भक्त ये आपका आपके पास हो।।
पूरिये नाथ मेरी मनोकामना। फेर होवे न संसार में आवना।।१२।।
-दोहा-
तीर्थंकर चक्री मदन, तीनों प द के ईश।
पूर्ण ‘‘ज्ञानमति’’ हेतु मैं, नमूँ नमूँ नतशीश।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
शांतिनाथ की अर्चना, हरे सकल दु:ख दोष।
सर्व अमंगल दूर कर, भरे स्वात्मसुखतोष।।१।।
-शेर छंद-
जो भव्य शांतिभक्ति का, विधान यह करें।
वे आधि व्याधि, शोक, दु:ख का शमन करें।।
संसार के सम्पूर्ण सौख्य, संपदा धरें।
कैवल्य ‘‘ज्ञानमती’’ से, निजात्मसुख भरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।