उज्जयिनी नगरी के बाहरी पवित्र उद्यान में नग्न दिगम्बर मुद्रा के धारी अवधिज्ञानी महामुनि विराजमान हैं। सेठानी यशोभद्रा बहुत ही विनय से हाथ जोड़कर पूछती है—
‘‘हे भगवन्! क्या मेरी आशा इस जन्म में सफल होगी?’’
मुनिराज यशोभद्रा का अभिप्राय समझ कर कहते हैं—
‘‘हाँ, पुत्रि! तेरी अभिलाषा अवश्य ही पूर्ण होगी। तेरे होने वाला पुत्र भव्य-बुद्धिमान और गुणों का खजाना होगा। किन्तु उसके साथ चिंता की बात यह होगी कि तेरे स्वामी सेठ सुरेन्द्रदत्त पुत्र का मुखावलोकन करते ही घर कुटुम्ब छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा ले लेंगे तथा तेरा होनहार पुत्र भी जिस दिन नग्न दिगम्बर मुनि का दर्शन कर लेगा उसी दिन दीक्षित हो जावेगा।’’
मुनिराज के मुखकमल से भविष्यवार्ता सुनकर सेठानी को इतना हर्ष होता है कि मानों आज ही उसे पुत्ररत्न प्राप्त हो गया है। साथ ही ‘‘पति के वियोग का होना’’ ऐसा सोचते ही वह सिहर उठती है, उसके चेहरे पर विषाद की रेखा खिंच जाती है। सेठानी यशोभद्रा बार-बार मुनिनाथ को नमस्कार करके हर्ष और विषाद के भावों को हृदय में दबाते हुए घर आ जाती है। सेठ सुरेन्द्रदत्त और सेठानी यशोभद्रा दोनोें ही दम्पति धर्मध्यान पूर्वक अपना कालयापन कर रहे हैं। कुछ दिनों बाद यशोभद्रा गर्भ धारण करती है। घर में प्रसन्नता का वातावरण बन जाता है। नव मास पूर्व होने पर सेठानी पुत्ररत्न को जन्म देती है। परिवार के लोग और सेठ जी सभी मिलकर, पुत्र जन्म का बहुत बड़ा उत्सव मनाते हैं। पुत्र का ‘‘सुकुमाल’’ ऐसा नामकरण करके सेठ सुरेन्द्रदत्त पुत्र का मुखावलोकन कर विरक्तमना होते हुए वन में जाकर गुरु के पास दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं।
सती यशोभद्रा पति के वियोग से बहुत ही दु:खी होती है फिर भी पुत्र के लालन-पालन में मन को व्यस्त करते हुए धीरे-धीरे संतोष को धारण कर लेती है। पुण्यशाली बालक सुकुमाल हँसता मुस्कराता हुआ परिवार-जनों के हाथों-हाथों में खेला करता है। माता यशोभद्रा ने गुरु के मुख से सुना था कि ‘बालक जब भी निर्ग्रन्थ मुनि का दर्शन कर लेगा तब मुनि हो जावेगा।’’ यही कारण था कि माता अपने महल में ही सारे सुख साधन उपलब्ध कराकर सुकुमाल को घर से बाहर जाने का अवकाश ही नहीं देती है। धन सम्पन्न सेठ के घर का परकोटा बहुत ही बड़ा है। उसके अंदर ही बाग, बगीचे, बावड़ियाँ आदि बने हुये हैं। सुकुमाल बाल-वय को बिताकर युवा हो जाते हैं। तो यशोभद्रा बड़े-बड़े घराने की सुंदर-सुंदर बत्तीस कन्याओं से उनका विवाह करा देती हैं। सुकुमाल का महल बहुत ही बड़ा है जहाँ पर उनकी बत्तीस स्त्रियों के रहने के पृथक्-पृथक् स्थान हैं। क्रीड़ा के लिए उद्यान, सरोवर आदि हैं। माता यशोभद्रा पुत्र के मोह में विवेकशून्य हो अपने महल में दिगम्बर मुनियों के आने का पूर्णतया निषेध कर देती है। सुकुमाल को इस बात का और बाहर के वातावरण का कुछ भी पता नहीं है। वे नाना प्रकार के पंचेन्द्रिय संबंधी भोगों को भोगते हुए सभी भार्याओं के साथ सांसारिक सुखों का अनुभव कर रहे हैं। माता यशोभद्रा भी बहुत ही प्रसन्न रहती हैं।
एक दिन किसी अन्य देश का व्यापारी उज्जयिनी नगरी में आता है और वह एक रत्नकंबल राजा प्रद्योतन को दिखाता है किन्तु उसका मूल्य अधिक होने से राजा उसकी उपेक्षा कर देते हैं। वह व्यापारी निराश हो जाने को उद्यत होता है कि इसी बीच यशोभद्रा को पता लगते ही वह उस व्यापारी को बुलाकर उसका वह बहुमूल्य रत्नकंबल खरीद लेती है। उस कंबल में बहुत से अमूल्य रत्न जड़े हुए हैं अत: रत्नों की कठोरता से सुकुमाल उसे पसंद नहीं करते हैं तब माता यशोभद्रा उसके टुकड़े-टुकड़े करवा कर अपनी बत्तीसों बहुओं के लिए उनके पैरों की जूतियाँ बनवा देती हैं।
एक बार एक पुत्रवधू अपनी जूती छत पर उतार कर अपने पैर धोने में लग जाती है कि इसी बीच एक चील आकर उसे माँस का टुकड़ा समझकर उठा ले जाती है और उसे किसी वेश्या की छत पर डाल देती है। वेश्या उस रत्नजटित जूती को देखकर आश्चर्यचकित हो उसे राज दरबार में दिखाती है। राजा देखकर बड़ा आश्चर्यचकित होता है। मन ही मन सोचने लगता है—
‘‘भला, मेरे शहर में इतना बड़ा कौन-सा सेठ है कि जिसकी पत्नी ऐसे रत्नों से जड़ी हुई जूती पहनती है।
राजा की आज्ञा से मंत्री पता लगाकर कहते हैं—
‘‘राजन्! आपके नगर में सेठ सुकुमाल जी रहते हैं उनके धन का कोई ठिकाना ही नहीं है। यह जूती उनकी स्त्री की है।’’
यह बात ज्ञातकर राज सुकुमाल को देखने के लिए उत्कंठित हो मंत्रियों को साथ लेकर उनके घर आ जाते हैं। सेठानी यशोभद्रा राजा को आया हुआ सुनकर उनका बहुत ही आदर-सत्कार करती हैं और श्रेष्ठ सिंहासन पर उन्हें बिठाती हैं। राजा प्रेमवश सुकुमाल को अपने आसन पर ही बिठा लेते हैं। यशोभद्रा दीपक को जलाकर राजा की आरती उतारती हैं पुन: मंगल हेतु कुछ सरसों क्षेपण कर देती है जिसके कुछ दाने सुकुमाल के आसन पर गिर जाते हैं। उस समय रत्नों की जगमगाहट और दीपक की ज्योति दोनों के बढ़े हुए तेज को सुकुमाल की आँखें नहीं सहन कर पाती हैं अत: उनके आँखों में पानी आ जाता है। और उन्हें सरसों के दाने चुभते हैं तो वे बार-बार आसन बदलते हैं। राजा सेठानी से इसका कारण पूछते हैं। तब वह कहती है—
‘‘राजन्! आज तक इसने रत्नों के प्रकाश के सिवाय दीपक का प्रकाश देखा ही नहीं है अत: इसकी आँखों से पानी आ गया है और इसको सरसों के दाने चुभ रहे हैं। अत: यह स्थिर नहीं बैठ रहा है।’’ कुछ क्षण बाद यशोभद्रा राजा के साथ ही सुकुमाल को बिठाकर दोनों को एक साथ भोजन कराती है। उस समय सुकुमाल थाली में परोसे हुए चावलों में से एक-एक चावल को बीन-बीन कर खाते हैं। भोजन के अनंतर राजा पुन: यशोभद्रा से इसका कारण पूछते हैं, वह कहती है—
‘‘राजन्! प्रतिदिन इसे जो चावल खाने को दिये जाते हैं वे खिले हुए कमलों में रखकर सुगंधित किये हुए होते हैं। पर आज वे चावल थोड़े होने से मैंने उन्हें दूसरे चावलों के साथ मिलाकर बना लिया है। यही कारण है कि यह एक-एक चावल चुन-चुनकर खा रहा है’’
राजा इस उत्तर को सुनकर बहुत ही खुश होते हैं और कहते हैं-
‘‘भद्रे! अब तक तो ये आपके ही घर के सुकुमाल थे, पर अब मैं इन्हें ‘‘अवन्ति सुकुमाल’’ के नाम से सारे देश का सुकुमाल बनाता हूँ। मेरा विश्वास है कि मेरे देश भर में इस सुंदरता और इस सुकुमारता के यही एक आदर्श हैं। अन्य कोई ऐसा नहीं है।
तत्पश्चात् राजा प्रद्योतन सुकुमाल के साथ ही महल के उद्यान में बनी हुई बावड़ी में जलक्रीड़ा करने के लिए पहुँचते हैं। वहीं बावड़ी में उतरकर बहुत देर तक जलक्रीड़ा करते हुए राजा की अंगुली की बहुमूल्य अंगूठी गिर जाती है, राजा उसे देखने की भावना से बावड़ी के तलभाग में दृष्टि डालते हैं तो उन्हें उस जल के भीतर हजारों बड़े-बड़े सुंदर बहुमूल्य भूषण पड़े हुये दिखाई देते हैं। उन्हें देखकर राजा को बहुत ही आश्चर्य होता है। वे सुकुमाल के अनंत वैभव को देखकर चकित रह जाते हैं और मन ही मन सोचने लगते हैं—
‘‘अहो! पुण्य की महिमा अपार है। धन, धान्य आदि संपदाओं का मिलना, पुत्र और सुंदर स्त्री का प्राप्त होना, बंधु-बांधवों का सुखी होना, अच्छे-अच्छे वस्त्र आभूषण का होना, तिमंजिले, सतमंजिले आदि महलों में रहना, खाने पीने की अच्छी से अच्छी वस्तु प्राप्त होना, विद्वान होना, नीरोग होना आदि जितने भी सुख सामग्री हैं, वह सभी जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलने से ही मिल सकते हैं इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। वास्तव में जो धर्म स्वर्ग के इंद्र-अहमिंद्र आदि का वैभव प्राप्त करा देता है, मध्यलोक के चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण तो क्या तीर्थंकर के भी विपुल अनुपम वैभव को प्राप्त करा देता है। भला वह धर्म क्या जो इस तरह से सुकुमाल जैसे सुंदर रूप, सौकुमार्य और अतुल वैभव को प्राप्त नहीं करा सके अपितु अवश्य ही करा देता है।
इसीलिये तो जैनाचार्यों का उपदेश है कि भाई! दु:ख देने वाले पापमार्ग को, मिथ्यात्व को छोड़ों और सच्चे जिनधर्म की शरण ग्रहण करो। दान, पूजा, उपवास आदि के द्वारा सातिशय पुण्य संचित करके संसार के नाना अभ्युदयों को प्राप्त करो, तदनंतर क्रम से सर्वकर्मों को नष्ट कर मोक्ष को भी प्राप्त करो। यही तो जिनागम का बार-बार उपदेश है।
इत्यादि प्रकार से सोचते हुए राजा प्रद्योतन बार-बार सुकुमाल के गुणों की व पुण्य की प्रशंसा करते हुए अपने राजमहल में चले जाते हैं। इसके बाद उस अवंतीदेश में सर्वत्र ही सुकुमाल के रूप, गुण, वैभव की तथा सुकुमारता की चर्चा चलने लगती है।
एक दिन जैनतत्व के परम विद्वान् दिगम्बर मुनि श्री गुणधराचार्य सुकुमाल की आयु बहुत ही अल्प जानकर वहाँ आकर सुकुमाल के महल के पीछे उद्यान में ठहर जाते हैं और चातुर्मास लग जाने से वहीं वर्षायोग धारण कर लेते हैं। ये गृहस्थावस्था के सुकुमाल के मामा थे। सेठानी यशोभद्रा को यह समाचार विदित होते ही वह बहुत ही दु:खी होती है। वह शीघ्र ही वहाँ आकर मुनि से निवेदन करती है—
‘‘प्रभो! आप चातुर्मास में कभी भी ऊँचे स्वर से स्वाध्याय या पाठ न कीजिए। ऐसी मेरी विनम्र प्रार्थना है।’’
मुनिराज यशोभद्रा की प्रार्थना स्वीकार कर लेते हैं और उसे आश्वस्त करने के लिए ‘‘तथास्तु’’ ऐसा उच्चारण कर देते हैं।
चातुर्मास योग पूर्ण हो जाता है। श्री गुणधराचार्य जिनागम के अनुसार कार्तिक अमावस्या की पिछली रात्रि में वर्षायोग समापन की क्रिया करके चातुर्मास योग समाप्त कर देते हैं। वे शेष रही रात्रि में उच्च स्वर में लोकप्रज्ञप्ति का पाठ करना शुरु कर देते हैं। उसमें वे अच्युत स्वर्ग के देवों की आयु, उनके शरीर की ऊँचाई, वहाँ के वैभव आदि का विस्तार से वर्णन करने लगते हैं। सुकुमाल की नींद खुल जाती है। वे एकाग्रचित हो उस अच्युत स्वर्ग के वैभव का वर्णन सुन रहे हैं कि तत्क्षण ही जातिस्मरण हो जाता है। मन ही मन सोचने लगते हैं—
‘‘अहो! मैं पूर्वजन्म में इसी अच्युत स्वर्ग में महर्द्धिक देव था, वहाँ के विपुल और अतुल वैभव को प्राप्त कर भी, जब मैं तृप्त नहीं हो सका तो क्या इस तुच्छ वैभव से तृप्त हो सकता हूूँ। जब वहाँ की हजारों देवांगनाओं से साथ मधुर भोग भोगकर भी तृप्त नहीं हुुआ तो क्या इन बत्तीस भार्याओं के मध्य रहते हुए तृप्त हो सकता हूँ। अहो! वहाँ की आयु तो सागरों के हिसाब से थी जब कि यहाँ की यह मनुष्य पर्याय की आयु तो उसके आगे राई रत्ती भी नहीं है।’’
इतना सोचते-सोचते उन्हें अपने और भी कई भवोें का स्मरण हो जाता है, और वे तिर्यंचयोनि के नाना दु:खों का स्मरण कर कांप उठते हैं। वे उसी समय चुपके से महल से उतर कर मुनिराज के पास आ जाते हैं और उनके चरणों में भक्ति से नमस्कार कर उन्हीं के पास बैठ जाते हैं। तब महामुनि श्री गुणधर आचार्य कहते हैं—
‘‘हे वत्स! अब तुम्हारी आयु सिर्फ तीन दिन की रह गई है, इसलिये अब तुम्हें इन विषयभोगों का त्याग कर अपना आत्महित कर लेना उचित है। देखो, ये विषयभोग आरंभ में बहुत मधुर लगते हैं किन्तु इनका अंत बहुत ही दु:खदायी है। जो पंचेन्द्रियों के विषय में ही सब सुख समझकर उन्हीं में फसे रहते हैं, उन्हें कुगतियों के अनंत दु:ख उठाने पड़ते हैं। इसीलिए ऋषियों के इन भोगों को ‘‘भोगा भुजंग भोगाभा:’’ कहकर इन्हें सर्प से भी भयंकर जहरीला बतलाया है। इसलिए हे भव्योत्तम! तुम अब इनका शीघ्र ही त्याग करो।’’
मुनिराज के उपदेश से सुकुमाल को वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और वे उसी समय जिनदीक्षा की याचना करने लगते हैं। इधर सूर्य भी मानों सुकुमाल की दीक्षा के लिए ही पूर्व दिशा में उदित हो जाता है तभी आचार्य देव सुकुमाल को नग्न दिगम्बर अर्हंत मुद्रा प्रदान कर दीक्षित कर देते हैं। अब सुकुमाल के हाथ में मयूर पंखों की पिच्छी और काठ के कमंडलु के सिवाय किंचित् मात्र भी परिग्रह नहीं है।
श्री गणधर आचार्य वर्षायोग समाप्ति के अनंतर अपना कार्य पूर्ण कर अन्यत्र विहार कर जाते हैं और सुकुमाल मुनि गुरु की आज्ञा से उसी समय वन की ओर विहार कर जाते हैं।
सुकुमाल महामुनि वन की ओर चले जा रहे हैं। मार्ग की कंकरीली जमीन पर नंगे पैर चल रहे हैं। जिन्होंने भू पर नंगे पैर कभी नहीं रक्खे थे, मंगल आरती के समय दीपक की लौ के निमित्त से जिनकी आँखों में आँसू आ गये थे, मंगल के लिए क्षेपण किये गये सरसों के कतिपय दाने भी जिन्हें चुभने लगे थे, जिन्हें रत्नों का कंबल कठोर लगा था तब उस कंबल की जूतियां बनवाई गई थीं। ऐसे सुुकुमारगात्र सुकुमाल नग्न दिगम्बर मुनि बनकर नंगे पैरों पैदल चल रहे हैं।
अहो! परिणामों का मोड़ क्या नहीं कर सकता? कहां तो एक क्षण पूर्व महल की कोमल शय्या, कोमल आसन और कोमल से भी कोमल शरीर सुख? और कहां यह असहाय निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्रा और उसकी कठोर से कठोर चर्या?
कंकरीरली-पथरीली जमीन पर चलने से उनके फूलों से कोमल पाँवों में घाव हो जाते हैं, उनसे खून की धारा बहने लगती है। परन्तु शरीर से भी निस्पृह हुए सुकुमाल को उसकी तरफ कुछ भी लक्ष्य नहीं है चूँकि अब उनका लक्ष्य बदल चुका है। वे अब इस नश्वर शरीर से अविनश्वर सुख प्राप्त करने के मार्ग में चल चुके हैं। इस अशुचि, अपिवत्र सात धातुओं और उपधातुओं से मलिन शरीर से शुचि, पवित्र चैतन्यधातु से निर्मित ज्ञानधन आत्मा को परम पवित्र बनाने का मार्ग पकड़ चुके हैं। वे उस समय संसार, शरीर, कुटुम्ब और पंचेन्द्रियों के भोगों से पराङ्मुख हुए उनके नि:सार स्वरूप का चिंतवन करते हुये और अपने चर्मचक्षुओं से चार हाथ आगे जमीन देखते हुए चल रहे हैं। पिच्छी, कमंडलु मात्र उपकरणरूप परिग्रह से सहित होते हुए भी अंतरंग-बहिरंग में सर्वथा परिग्रह से रहित होने से पूर्ण निष्परिग्रही हो चुके हैं।
इधर पांवों से खून बहता जा रहा है, उधर वे महामुनि आगे बढ़ते जा रहे हैं। वे पैरों से ही आगे नहीं बढ़ रहे हैं प्रत्युत् परिणामों की विशुद्धि से भी आगे बढ़ते जा रहे हैं। निर्जन वन में पहुँचते हैं वहाँ पहुँचकर वे एक पहाड़ पर चढ़कर वहीं पर बनी हुई एक गुफा में प्रवेश करते हैं। वहाँ वे विधिवत् प्रायोपगमन संन्यास ग्रहण कर ध्यानमुद्रा में खड़े हो जाते हैं। जिस संन्यास विधि में अपने से और पर से, सभी से भी सेवा-शुश्रूषा करने कराने का त्याग कर दिया जाता है उसको ‘प्रायोपगमन’ सल्लेखना मरण कहते हैं। सुकुमाल मुनि ध्यान मुद्रा में खड़े होकर बारह भावनाओं के चिंतवन के साथ-साथ अपने आत्म तत्व का चिंतवन कर रहे हैं।
उसी समय एक सियारनी अपने पिल्लों को साथ लिये हुए वन में घूम रही है। वह सहसा खून की धार को देखती है और चाटने लगती है। उसी खून की धार को चाटते-चाटते वह पहाड़ की गुफा में आ जाती है जहाँ कि सुकुमाल मुनि ध्यानस्थ हैं, वह उन्हें गौर से देखती है और उसी क्षण उसके हृदय में क्रोध की ज्वाला भड़क उठती है, वह उनको घूरते हुए नजदीक आ जाती है और दहाड़ मारकर धावा बोल देती है। वह तत्क्षण ही उन महामुनि के पैर को धर दबोचती है और अपने पैने तीक्ष्ण दंतों से उसे खाने लगती है। उसे खाते देखकर उसके पिल्ले भी मुनिराज के पैर का माँस खाना शुरू कर देते हैं।
ओह! यह है सुकुमाल की परीक्षा का अवसर! कहाँ उनका कोमल शरीर? और कहां यह दारूण घोर उपसर्ग? तथा कहाँ यह उनकी सहनशीलता? जो कभी एक तिंनके का चुभ जाना भी नहीं जानते थे वे आज ऐसे घोर कष्ट को कैसे सह रहे हैं? वे महामुनि पशुकृत् उपसर्ग आया हुआ देखकर सुमेरु के समान निश्चल हो जाते हैं। इधर चार हिंसक पशु अनके पैर के मांस को नोंच-नोंच कर खा रहे हैंं। उधर सुकुमाल मुनि सोच रहे हैं—
‘‘अहो! आत्मन्! तूने नरकों में इससे भी अधिक घोर वेदना का अनुभव किया है। अरे! वहां करोंत से चीरा जाता, कढ़ाई, में तले जाना, भाड़ में भूना जाना, तलवार से छिन्न-भिन्न टुकड़े किए जाना आदि पता नहीं कितने-कितने कष्ट झेले हैं? उसके आगे यह दु:ख क्या है? पशु योनि में भी हत्यारे व्याधों द्वारा बाण से बेधे जाना, काटे जाना, मारे जाना और भून-भून कर या पका-पका कर खाए जाना आदि घोर दु:खों का अनुभव किया है। अत: हे आत्मन्! तू अब बड़ी ही शांति से इस दारूण वेदना को सहन कर! देख तूने पूर्वभवों में ऐसे ही किसी को सतया होगा या इस सियारनी को ही कष्ट दिया होगा जिसका कि बदला यह चुका रही है। भला लिए हुये कर्ज को चुकाने में घबराहट क्यों?
फिर दूसरी बात यह है कि यह शरीर तो जड़ है, पुद्गल से बना हुआ है अत: पड़ोसी के समान है, पर है, अपना नहीं है। न मैं शरीर हूँ, न मैं मनुष्य हूँ और न मैं संसारी ही हूँ। मुझे न जन्म है, न मरण है, न पीड़ा है और न उपसर्ग ही है। मैं तो चिच्चैतन्यस्वरूप ज्ञान से निर्मित दिव्य शरीर वाला हूँ। मैं अखंड हूँ, एक हूँ, चिन्मयधातु से निर्मित हूँ, शुद्ध हूँ, सिद्ध हूँ और परमानंद स्वरूप हूूँ।
इत्यादि प्रकार से चिंतवन करते हुए सुकुमाल मुनिराज अपने आप में पूर्णतया स्थिर हैं, सावधान हैं। क्रोध, कषाय और द्वेष की बात को बहुत दूर, उनके चित्त में जरा भी चंचलता नहीं है। एक दिन व्यतीत हो चुका है, रात्रि भी पूर्ण हो रही है। दूसरा दिन आता है चला जाता है पुन: रात्रि आकर अपने बारह घंटे पूर्ण कर निकल जाती है। वह सियारनी अपने तीन बच्चों के साथ वैसे ही खा रही है अभी तक उसकी तृप्ति नहीं हुई है, क्षुधा शांत नहीं हो रही है और न ही कषाय शमित हुई है। वह जोर-जोर से माँस को नोंचती है पुन: धीरे-धीरे खाती है। बार-बार गहरे घावों पर दाँतों का और अपने नुकीले पंजों का प्रहार करती है। तीसरे दिन सुकुमाल मुनि के शरीर से प्राणपखेरू निकल जाते हैं और शरीर निर्जीव हो जाता है।
समताभाव पूर्वक प्राण छोड़ने से सुकुमाल मुनि की आत्मा अच्युत नाम के सोलहवें स्वर्ग में महर्द्धिक देव हो जाती है। अंतर्मुहूर्त (४८ मिटिन के अंदर) ही उनका नवयौवन संपन्न, दिव्य वैक्रियिक, अत्यंत सुंदर शरीर बनकर पूर्ण हो जाता है। वे अपने दिव्य अवधिज्ञान से जान लेते है कि ‘मैं सुकुमाल नाम का श्रेष्ठी था, पंचेन्द्रियों के विषय भोगों में पैसे हुआ था। अपने मामा महामुनि के उपदेश से प्रबोध को प्राप्त होकर मात्र तीन दिन में जिनमुद्रा के प्रसाद से आज इस दिव्य देवलोक में उत्पन्न हो गया हूँ। अहो! धर्म की महिमा अपार है। ऐसा सोचकर वे देव पहले तो भगवान् जिनेन्द्र के मंदिर में पहुँचकर जिन प्रतिमाओं की पूजा, अर्चा, भक्ति करते हैं पुन: अपने आश्रय में आये हुए देव-देवी आदि परिकरों को देखकर प्रसन्न होते हुए उन्हें अपने-अपने कार्यों में नियोजित कर देते हैं।
इधर सुकुमाल मुनि के धीरतापूर्वक वीरमरण करने पर तत्क्षण ही देवों के आसन कम्पित हो जाते हैं। बहुत से देवगण वहाँ आकर ‘जय-जय’ शब्दोच्चारण करते हुए महामहोत्सव मनाते हैं। तब सियारनी डरकर वहाँ से भाग जाती है। देवगण वहाँ उस उज्जयिनी नगरी के बाहर वन मे सुगंधित जल की वर्षा करते हैं। और पुन:-पुन: सुकुमाल महामुनि की सहनशीलता की प्रशंसा करते हुए महा उपसर्गजयी महासाधु की जय बोलते हुये अपने-अपने स्थान पर वापस चले जाते हैं।
यह सियारनी पूर्व जन्म के संस्कार से अपने वैर का प्रतिशोध (बदला) लेकर संतुष्ट हो जाती है। परन्तु आगे के लिए पाप का कितना बड़ा पर्वत उठा लेती है, उसे कब तक ढोना पड़ेगा, इस प्रतिशोध में महामुनि के ऊपर इतना भंयकर उपसर्ग करने से मुझे कितने भवों तक नरक तिर्यंच योनियोंं के कितने कष्ठ उठाने पड़ेंगे, यह उसे पूर्व के भवों के दु:खों की ही कुछ याद नहीं रह गई।
कौशाम्बी के राजा अतिबल के यहाँ सोमशर्मा नाम के पुरोहित हैं। उनके अग्निभूति और वायुभूति नाम के दो पुत्र हैं। ये दोनों लाड़-प्यार में विद्याध्ययन नहीं कर पाते हैं, फलस्वरूप पिता की मृत्यु के बाद दोनों पुत्रों को पिता का पद न मिलने से वे बहुत ही दु:खी होते हैं। तब माता की आज्ञा से दोनों राजगृह नगर में आकर अपने काका सूर्यमित्र के पास आ जाते हैं। सूर्यमित्र इन्हें विद्याध्ययन कराना शुरू कर देते हैं कुछ ही वर्षों में ये पूर्ण विद्वान बनकर वापस अपने देश में आ जाते हैं और राजा को प्रसन्न कर पुरोहित पद प्राप्त कर लेते हैं। कुछ दिन बाद सूर्यमित्र ब्राह्मण महामुनि सुधर्म के पास दिगम्बर मुनि हो जाते हैं।
गुरुप्रसाद से सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर परम तपस्वी होते हुए गुरु की आज्ञा से एकाकी विचरण करते हुए कौशाम्बी में आ जाते हैं। आहार के समय अग्निभूति ब्रह्मण गुरु का पड़गाहन कर आहार दान देता है। पुन: वह मुनिराज सूर्यमित्र को नमस्कार करने के लिए बार-बार अपने छोटे भाई वायुभूति को आग्रह करता है किन्तु उसका परिणाम उल्टा ही निकलता है चूँकि वह वायुभूति जैनधर्म का विरोधी था अत: वह चिढ़कर मुनिराज की और अधिक निंदा करने लगता है तथा उन जगतपूज्य महामुनि को बहुत कुछ यद्वा-तद्वा कह डालता है। अग्निभूति अपने भाई की दुर्बुद्धि पर अत्यंत दु:खी हो जाता है मुनिराज के साथ वन की ओर चला जाता है और वहाँ पहुँचकर अपने गृहस्थाश्रम के काका तथा विद्यागुरु और वर्तमान के महामुनि सूर्यमित्र के चरण सानिध्य में बैठकर प्रार्थना करता है—
‘‘हे भगवन्! मुझे संसार समुद्र से पार होने वाली जैनश्वरी दीक्षा प्रदान कीजिये।’’
गुरुदेव भी अग्निभूति को मुनि बनाकर अपने साथ लेकर अन्यत्र विहार कर जाते हैं। इधर अग्निभूति की भार्या सोमदत्ता को जब पतिदेव की दीक्षा का समाचार मिलता है तब वह वायुभूति देवर से कहती है—
‘‘हे देवर! देखो, तुमने मुनि की वंदना न कर जो उनकी निंदा की है इसीलिए तुम्हारे भाई दीक्षा लेकर चले गये हैं। अत: चलो, जैसे बने वैसे उन्हें समझा-बुझाकर वापस घर लिवा लायें।’’
वायुभूति कुपित हो कहता है—
‘‘अरी मूर्खे! मुझे तो कुछ आवश्यकता है नहीं। हाँ, तुझे यदि गर्ज है तो जा, तू भी उस नंगे के पास चली जा।’’
इस प्रकार वह वायुभूति अपनी भावज को यद्वा-तद्वा सुनाकर उसकी कमर पर लात लगाकर चला जाता है। सती सोमदत्ता पति के विरह से दु:खी तो थी ही, साथ ही देवर के ऐसे मर्मछेदी वचन सुनकर और पैर से ठुकराई जाने पर अत्यंत कुपित हो उठती है और कहती है—
‘‘अरे पापी! आज तो मैं अबला हूँ तेरे से कुछ बदला नहीं ले सकी हूँ, परन्तु याद रख! तूने इस समय जो मेरा मर्म भेदा है और मुझे लातों से ठुकराया है उसका बदला इस जन्म में न सही अगले जन्म में अवश्य लूँगी और तेरे इस पाँव को, जिससे कि तूने मुझे लात मारी है उसी पैर को खाऊँगी तभी मुझे संतोष होगा।’’
ऐसा निदान करके यह सोमदत्ता स्त्रीपर्याय होने से अपना मन मारकर जैसे-तैसे संक्लेश परिणमों से अपना समय व्यतीत कर रही है। इधर वायुभूति को मुनि निंद्रा के घोर पाप से सात दिन के अंदर ही महाकुष्ठ रोग हो जाता है। महावेदना से मरणकर वह कौशाम्बी में ही नट के यहाँ गधा हो जाता है। वह गधा दु:ख से मरकर सुअर हो जाता है। पुन: इस पर्याय से निकलकर चम्पापुर में एक चाण्डाल के यहाँ कुत्ती हो जाता है। वह कुत्ती मरकर कुछ पाप के हल्के हो जाने से वहीं पर एक चांडाल के यहाँ कन्या हो जाती है। यहाँ वह कन्या जन्म से ही अंधी है, इसके शरीर से महादुर्गंध निकल रही है। इसलिये इसके माता-पिता इसे छोड़ देते हैं। यह बेचारी अंधी कन्या जैसे-तैसे प्राणों की रक्षा करते हुए एक समय जंगल में जामुन फल खा रही है।
सूर्यमित्र मुनि अग्निभूति मुनि के साथ ही उधर से निकलते हैं। उस दु:खी कन्या को देखकर अग्निभूति मुनि के अंतर में कुछ मोहभाव सा जाग्रत होता है और करुणा से हृदय भर जाता है तब वे गुरु से कहते हैं—
‘‘भगवन्! यह कन्या कितनी दु:खी है? ओह यहकैसे जी रही है?’’
गुरुदेव कहते हैं—
‘‘हे मुनि! यह तुम्हारे भाई वायुभूति का जीव है। इसने कुछ वर्ष पूर्व धर्म से पराङ्मुख होकर जो मेरी निन्दा की थी उसी के फलस्वरूप तिर्यंच योनियों में दु:ख उठाते हुए यह स्त्री-पर्याय में जन्म से अंधी हुई है। अब इसकी आयु बहुत ही थोड़ी है अत: जाकर इसे संबोधित कर धर्म ग्रहण करा दो जिससे इसका अगला भव सुधर जाये।’’
गुरु की आज्ञा से अग्निभूति मुनि उस कन्या के निकट जाकर उसे संबोधित कर पाँच अणुव्रत देते हैं पुन: उसे सल्लेखना ग्रहण कराकर अपने गुरु के साथ चले जाते हैं। वह कन्या महामंत्र का स्मरण करते हुए संन्यास विधि से प्राण छोड़करय चम्पापुर में नागशर्मा बा्रह्मण के यहाँ नागश्री नाम की कन्या हो जाती है। एक बार किशोरावस्था को प्राप्त नागश्री नागपूजा करने के लिए अपनी सहेलियों के साथ वन में आती है। पुण्य योग से सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनि वहाँ आ जाते हैं। कन्या उन्हें देखकर अत्याधिक भक्ति ओर प्रीति से उनके निकट आकर नमस्कार करके बैठ जाती है उसी समय अग्निभूति मुनि के हृदय में स्नेह भाव उमड़ने से वह उसका कारण अपने गुरु के पूछते हैं। आचार्य सूर्यमित्र ‘‘यह तुम्हारे भाई वायुभूति का जीव है।’’ ऐसा संकेत कर देते हैं। पुन: उस कन्या को धर्मोपदेश देकर सम्यक्त्व और पाँच अणुव्रत ग्रहण करा देते हैंं। जब वह कन्या गुरु को नमस्कार कर घर जाने लगती है तब आचार्य देव कहते हैं—
‘हे पुत्री! यदि तेरे पिता तेरे इन व्रतों के लेने में नाराजगी व्यक्त करें तो तू यहीं आकर मुझे इन व्रतों को वापस कर जाना।’
कन्या गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके घर आ जाती है। उसकी सहेलियाँ नागशर्मा से सारी घटना सुना देती हैं। तब नागशर्मा क्रोध में आपे से ही बाहर हो कन्या से कहता है
‘बेटी! तूने क्या किया? अपने घराने में नंगे गुरुओं को नहीं पूजा जाता और फिर तूने उनके दिए हुए व्रत क्योें ले लिए?’
नागश्री कहती है—
‘पिताजी! गुरुजी ने कहा है कि यदि तुम्हारे पिताजी को ये व्रत अच्छे नहीं लगें तो हमें ये व्रत वापस दे जाना।’
तब नागशर्मा कन्या को साथ लेकर वन की ओर चल पड़ता है। मार्ग में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के पाप से दण्डित होते हुए लोगों को क्रम-क्रम से देखकर कन्या अपने पिता से यह कहलवा लेती है कि ‘ये व्रत बहुत ही अच्छे हैं उन्हें वापस नहीं करना है फिर भी चलो, चलकर मुनि को फटकारेंगे अवश्य, कि उन्होंने बिना पूछे किसी की कन्या को व्रत क्यों दिये?’
निकट में पहुँचकर नागशर्मा जोर से चिल्लाकर कहता है—
‘अरे नंगो! तुमने मेरे से बिना पूछे मेरी कन्या को ये व्रत क्यों दिये हैं?’
आचार्यदेव बहुत ही शांति से कहते है—
‘हे ब्राह्मण! इस कन्या को मैंने मेरी समझकर ही व्रत दिये हैं, यह कन्या मेरी है।’
तब ब्राह्मण और भी चिढ़कर बोलता है—
‘वाह! यह कन्या आपकी कैसे है?’
तब मुनिराज कहते हैं—
‘हे पुत्री! आ तू मेरे पास बैठ जा,’ पुन: ब्राह्मण से कहते हैं—
‘यह कन्या मेरी ही है।’
बेचारा नागशर्मा घबड़ा कर राजा के पास दौड़ता जाता है और राजा से कहता है—
‘हे महाराज! मेरा न्याय कीजिए, मेरा न्याय कीजिए, इन नंगे साधुओं ने मेरे साथ घोर अन्याय किया है। अरे-अरे! यह मेरी कन्या को लेकर जा रहे हैं।’
इस हल्ल्-गुल्ला को सुनकर राजा बहुत ही कुतूहल के साथ अपने सामंत-मंत्री को लेकर वहाँ आ जाते हैं और मुनिराज को नमस्कार कर पूछते हैं—
‘भगवन्! आप दिगम्बर साधु हैं, पुन: यह कन्या आपकी कैसे? कृपा करके आप हम लोगों की जिज्ञासा को शांत कीजिए।’
आचार्य सूर्यमित्र नागश्री कन्या के मस्तक पर अपनी पिच्छिका रखकर कहते हैं—
‘हे वायुभूते! मैंने तुम्हें जो कुछ भी विद्याध्ययन कराया था, वह सब आप इन लोगों को सन्मुख सुनाओ।’
उसी क्षण कन्या को अपने वायुभूति के भव का पूर्णतया जातिस्मरण हो जाता है वह तत्क्षण ही संस्कृत व्याकरण, वेद, वेदांग आदि पढ़ाये गये सूत्रों का उच्चारण करने लगती हैं राजा तथा प्रजा के लोग सभी आश्चर्य चकित हो जाते हैं। पुन:गुरु से पूछते हैं—
‘भगवन्! आपने यह सब ग्रंथ इसे कब पढ़ाये हैं?
तब सूर्यमित्र महामुनि सभी के समक्ष उस कन्या का वायुभूति से लेकर अब तक का सारा इतिहास सुना देते हैं। सुनकर सभी लोगों को बहुत ही वैराग्य और धर्मप्रेम हो जाता है। राजा स्वयं पूर्णतया विरक्त हो जैनेश्वरी दीक्षा ले लेते हैं। नागशर्मा भी मुनि हो जाता है। पुन: वह नागश्री कन्या आर्यिका की दीक्षा ग्रहण कर घोरातिघोर तपस्या करके अंत में समाधिमरण कर अच्युत स्वर्ग में महर्द्धिक देव हो जाता है। वहाँ के दिव्य भोगोें को भोगकर, धर्मप्रीति के प्रसाद से वही देव यहाँ उज्जयिनी में सुकुमाल सेठ हो जाता है। वायुभूति की पर्याय में जो उनकी भावज थी, जिसने पति की दीक्षा के बाद देवर की फटकार व लात खाई थी पुन: जिसने उसका बदला चुकाने का निदान किया था, वही बेचारी सोमदत्ता निदान के दुष्परिणाम से कई भवों तक दुर्गति के दु:ख उठाती हुई अब इस पर्याय में सियारनी हो गई थी। उसी ने पूर्व भव में बाँधे गए बैर से सुकुमाल मुनि के ऊपर घोर उपसर्ग किया है और उनके पैर को ही खाया है। तथा पुनरपि अपने संसार की परंपरा को बढ़ाया है।
महामुनि सुकुमाल ने पूर्णतया क्षमा का अवलंबन ले समता भाव से उपसर्ग को सहन किया है। उसके फलस्वरूप वे अच्युत स्वर्ग में महान ऋद्धि संपन्न देव हो चुके हैं।
इस कथा को पढ़कर प्रत्येक मनुष्य को यही शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि कभी भी किसी के प्रति बैर बाँधना या बदला लेने की भावना करना बहुत ही बुरा है। तथा सुकुमाल जैसे भी महासुकुमार देहधारी मनुष्य यदि अपने मन को मोड़ दे देते हैं तो कठिन से कठिन तपश्चर्या उनके लिए कुछ भी कठिन नहीं है।