सिद्धार्थराजकुलमण्डनवीरनाथः।
जातः सुकुण्डलपुरे त्रिशलाजनन्यां।।
सिद्धिप्रियः सकलभव्यहितंकरो यः।
श्रीसन्मतिर्वितनुतात् किल सन्मतिं मे।।१।।
कैवल्यबोधरविदीधितिभिःसमन्तात् ।
दुष्कर्मपंकिलभुवं किल शोषयन् यः।।
भव्यस्य चित्तजलज-प्रविबोधकारी।
तं सन्मतिं सुरनुतं सततं स्तवीमि।।२।।
पावापुरे सरसि पद्मयुते मनोज्ञे।
योगं निरुध्य खलु कर्म वनं ह्यधाक्षीत् ।।
लेभे सुमुक्तिललना-मुपमाव्यतीताम्।
भेजे त्वनन्तसुखधाम नमोऽस्तु तस्मै।।३।।
शिखरिणीछंद-
महावीरो धीरस्त्रिदशपतिसंपूज्यचरणः।
त्रिलोकेशो व्याप्तो महितशुचिबोधो जिनपतिः।।
नमामि त्वां नित्यं निखिलजगदातापहरणं।
विधेया मे शक्तिः सकलकलुषस्यापहरणे।।४।।
पृथ्वीछंद-नमोऽस्तु परमात्मने सकललोकचूडामणे!
नमोऽस्तु जिनवीर! धीर! भगवन्! महावीर! ते।।
नमोऽस्तु जिनपुंगवाय जिनवर्धमानाय ते।
नमोऽस्तु जिनसन्मते! वितनु ज्ञानलक्ष्मीं मम।।५।।
(भाषानुवाद-चौबोल छंद)
श्रीसिद्धार्थ नृपति के नंदन, नाथवंश मण्डन महावीर।
कुण्डलपुर में श्रीत्रिशला, माता से जन्म लिया तुम वीर।।
सिद्धिवधूप्रिय! सकलभव्यजन, के हितकारी वीर प्रभू।
श्रीसन्मतिजिन! मुझको सन्मति, दीजे नितप्रति तुम्हें भजूँ।।१।।
दुरितपंक से पंकिल पृथ्वी, कीच सहित सर्वत्र अहो!
केवलज्ञान सूर्य किरणों से, सदा सुखाते रहते हो।।
भव्यजनों के चित्त कमल को, सदा खिलाते हो भगवन् ।
सुरगण पूजित सन्मतिजिन का, करूँ भक्ति से सदा स्तवन।।२।।
पावापुर के बीच कमलयुत, जल से पूर्ण सरोवर है।
वहीं योग का निरोध करके, कर्माटवी जलायी है।।
उपमा रहित मुक्तिललना को, प्राप्त किया शिवपुर जाके।
अनंत सुखमय धाम मुक्तिपति, है नमोऽस्तु तुमको रुचि से।।३।।
त्रिदशपती से पूज्य चरण, हे महावीर! तुम धीर महान् ।
त्रिभुवनपति हे जगत् व्याप्त, शुचिमहित ज्ञान जिनपति गुणखान।।
निखिल जगत् संतापहरण प्रभु, तुमको मेरा नित्य नमन।
सकल कलुष के नाश करन को, मुझे शक्ति दीजे भगवन् ।।४।।
नमोऽस्तु तुमको सकल लोक के, चूड़ामणि हे परमात्मन्!
नमोऽस्तु तुमको वीर! धीर! महावीरप्रभो! त्रिशलानंदन!
नमोऽस्तु तुमको जिनपुंगव! जिनवर्धमान! हे प्रभु अतिवीर!
नमोऽस्तु तुमको सन्मति! मुझको, ज्ञानसंपदा दो जिनवीर!।।५।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
स्थापना-नरेन्द्र छंद-
धनपति निर्मित समवसरण में, महावीर प्रभु राजें।
स्वर्णिम आभा देह छवी को, देख सूर्य भी लाजें।।
अतः आप के श्रीचरणों में, हुए समर्पित भविजन।
अन्तर अगणित गुणमणि प्रभु का, करूँ यहाँ आह्वानन।।१।।
ॐ ह्रीं अन्तरंगअनन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्वित श्री महावीरजिनेंद्र!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अन्तरंगअनन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्वित श्री महावीरजिनेंद्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं अन्तरंगअनन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्वित श्री महावीरजिनेंद्र!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक-गीताछंद-
हे नाथ! जग में जन्म व्याधी, बहुत ही दुःख दे रही।
अब मेट दीजे इसलिए, त्रयधार दे पूजूँ यहीं।।
महावीर प्रभु के समवसृति की, मैं करूँ आराधना।
अन्तर गुणों को भी जजूँ, हो पूर्ण मेरी कामना।।१।।
ॐ ह्रीं अन्तरंगानन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्विताय श्रीमहावीर-
जिनेंद्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! इस यमराज का, संताप अब नहिं सहन है।
इस हेतु तुम पादाब्ज में, चर्चूं सुगंधित गंध है।।
महावीर प्रभु के समवसृति की, मैं करूँ आराधना।
अन्तर गुणों को भी जजूँ, हो पूर्ण मेरी कामना।।२।।
ॐ ह्रीं अन्तरंगानन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्विताय श्रीमहावीर-
जिनेंद्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! मेरे ज्ञान के बहु, खंड खंड हुए यहाँ।
कर दो अखंडित ज्ञान तंदुल, पुँज से पूजूँ यहाँ।।
महावीर प्रभु के समवसृति की, मैं करूँ आराधना।
अन्तर गुणों को भी जजूँ, हो पूर्ण मेरी कामना।३।।
ॐ ह्रीं अन्तरंगानन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्विताय श्रीमहावीर-
जिनेंद्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! भवशर विश्वजेता, आप ही इसके जयी।
इस हेतु तुम पादाब्ज में, बहु पुष्प अर्पूं मैं यहीं।।
महावीर प्रभु के समवसृति की, मैं करूँ आराधना।
अन्तर गुणों को भी जजूँ, हो पूर्ण मेरी कामना।।४।।
ॐ ह्रीं अन्तरंगानन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्विताय श्रीमहावीर-
जिनेंद्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! सब जग अन्न खाया, भूख अब तक ना मिटी।
प्रभु भूख व्याधी मेट दो, इस हेतु चरु अर्पूं यहीं।।
महावीर प्रभु के समवसृति की, मैं करूँ आराधना।
अन्तर गुणों को भी जजूँ, हो पूर्ण मेरी कामना।।५।।
ॐ ह्रीं अन्तरंगानन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्विताय श्रीमहावीर-
जिनेंद्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिरत्न दीपक से कभी, मन का अंधेरा न भगा।
हे नाथ! तुम आरति करत ही, ज्ञान का सूरज उगा।।
महावीर प्रभु के समवसृति की, मैं करूँ आराधना।
अन्तर गुणों को भी जजूँ, हो पूर्ण मेरी कामना।।६।।
ॐ ह्रीं अन्तरंगानन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्विताय श्रीमहावीर-
जिनेंद्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! मेरे कर्म कैसे, नष्ट हों यह युक्ति दो।
मैं धूप खेवूँ अग्नि में, ये कर्मबैरी भस्म हों।।
महावीर प्रभु के समवसृति की, मैं करूँ आराधना।
अन्तर गुणों को भी जजूँ, हो पूर्ण मेरी कामना।।७।।
ॐ ह्रीं अन्तरंगानन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्विताय श्रीमहावीर-
जिनेंद्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! चाहा बहुत फल, बहुते चरण में नत हुआ।
नहिं तृप्ति पायी इसलिए, फल सरस तुम अर्पण किया।।
महावीर प्रभु के समवसृति की, मैं करूँ आराधना।
अन्तर गुणों को भी जजूँ, हो पूर्ण मेरी कामना।।८।।
ॐ ह्रीं अन्तरंगानन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्विताय श्रीमहावीर-
जिनेंद्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।
हे नाथ! निज के रत्नत्रय, अनमोल श्रेष्ठ अनर्घ्य हैं।
मुझको दिलावो शीघ्र ही, इस हेतु अर्घ्य समर्प्य है।।
महावीर प्रभु के समवसृति की, मैं करूँ आराधना।
अन्तर गुणों को भी जजूँ, हो पूर्ण मेरी कामना।।९।।
ॐ ह्रीं अन्तरंगानन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्विताय श्रीमहावीर-
जिनेंद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वीर प्रभू पादाब्ज, शांतीधारा मैं करूँ।
मिले निजातम स्वाद, तिहुँ जग में भी शांति हो।।१०।।
शान्तये शांतिधारा।
सुरभित हरसिंगार, जिनपद पुष्पांजलि करूँ।
भरे सौख्य भंडार, रोग शोक संकट टलें।।११।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
सोरठा- जिनवर चरण सरोज, पुष्पांजलि से पूजते।
मिटे सर्वदुख शोक, सुख संपति होवे सदा।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजल् क्षिपेत् ।
मानस्तंभ के ४ अर्घ्य-नरेन्द्र छंद-
पच्चिस सौ साठ सुवर्ष पूर्व ही, विपुलाचल पर्वत पर।
महावीर का समवसरण था, बना यहां अति सुंदर।।
भरत क्षेत्र में आज उन्हीं का, शासन इस धरती पर।
मानस्तंभ पूर्व दिशका मैं, पूजूं अतिशय रुचिधर।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिसमवसरणस्थितपूर्वदिङ्मानस्तंभचतुर्दिक्चतुर्जिनप्रतिमाभ्यः
अर्घ्यं……।
महावीर अतिवीर वीर प्रभु, वर्द्धमान जिन सन्मति।
पांच नाम से आप प्रथित हैं, दीजे मुझको सन्मति।।
समवसरण में आप विराजें, द्वादश गण के ईश्वर।
मानस्तंभ दक्षिणी दिश का, पूजूँ अतिशय रुचिधर।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिसमवसरणस्थितदक्षिणदिङ्मानस्तंभचतुर्दिक्चतुर्जिनप्रतिमाभ्यः
अर्घ्यं……।
छ्यासठ दिन तक खिरी नहीं ध्वनि, तब सौधर्म सुरेश्वर।
इन्द्रभूति गौतम को लाया, वे ही हुए गणेश्वर।।
समवसरण में सब जन तर्पित, किया धर्म वर्षा कर।
मानस्तंभ पश्चिमी दिश का, पूजूूँ अतिशय रुचिधर।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिसमवसरणस्थितपश्चिमदिङ्मानस्तंभचतुर्दिक्चतुर्जिनप्रतिमाभ्यः
अर्घ्यं……।
समवसरण की महिमा न्यारी, कह न सके शारद मां।
लोकोत्तर सम्पत्ति वहां पर, लोकोत्तर ही गरिमा।।
ऐसे समवसरण का दर्शन, शीघ्र मिले यह दो वर।
मानस्तंभ उत्तरी दिश का, पूजूँ अतिशय रुचिधर।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिसमवसरणस्थितउत्तरदिङ्मानस्तंभचतुर्दिक्चतुर्जिनप्रतिमाभ्यः
अर्घ्यं……।
-पूर्णार्घ्य-
महावीर तीर्थंकर जिनके, समवसरण में होते।
मानस्तंभ सु चार कहें जो, मान पंक को धोते।।
गणधर मुनिगण सुरपति नरपति, खगपति वंदन करते।
मैं पूजूँ पूर्णार्घ चढ़ाकर, पुण्य पूर्ण ये करते।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिसमवसरणस्थितचतुःमानस्तम्भसर्वजिनप्रतिमाभ्यः
पूर्णार्घ्यं…..।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
चैत्यप्रासाद भूमि अर्घ्य-दोहा-
महावीर सिद्धार्थ सुत, त्रिभुवन पिता जिनेश।
समवसरण के जिनभवन, जजूँ सु भक्ति हमेश।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिसमवसरणस्थितचैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिनमंदिरजिनप्रतिमाभ्य:
अर्घ्यं……।
खातिका भूमि अर्घ्य-मोतीदाम छंद-
महाकल्पद्रुम वीर जिनेश, सभी इच्छित पूरो परमेश।
जजूँ उन समवसरण अभिराम, द्वितिय खाई भूसहित ललाम।।१।।
ॐ ह्रीं खातिकाभूमिमंडितमहावीरजिनसमवसरणायअर्घ्यं……।
लता भूमि अर्घ्य-नंदीश्वर चाल-
श्री महति वीर महावीर, कर्म विनाशक हैं।
जो जजें हरें भवपीर, प्रभु सुखदायक हैं।।
बल्लीवन सुरभित पुष्प, वापी पर्वत युत।
इस विभव सहित जिन ईश, पूजूँ त्रिकरण युत।।१।।
ॐ ह्रीं लतावनभूमिमंडितमहावीरजिनसमवसरणाय अर्घ्यं……।
उपवन भूमि के ४ अर्घ्य-दोहा-
समवसरण जिन वीर का, अतिशय गुण भण्डार।
जजूँ अशोक तरु बिंब को, सर्व सौख्य भण्डार।।१।।
ॐह्रींश्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोकचैत्यवृक्षसंबंधिचतुर्मान-
स्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं……..।
जिन सन्मति दें सन्मती, कुमति विनाशनहार।
जजूँ सप्तछद बिंबको, सर्व सौख्य भण्डार।।२।।
ॐह्रींश्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छदचैत्यवृक्षसंबंधिचतु-
र्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं………।
वर्द्धमान भगवान का, समवसरण सुखकार।
चंपक तरु प्रतिमा जजूँ, सर्व सौख्य भण्डार।।३।।
ॐह्रींश्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपकचैत्यवृक्षसंबंधि
चतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं……।
वीर प्रभू का नाम है, स्वातम निधि दातार।
आम्र वृक्ष प्रतिमा जजूँ, सर्व सौख्य भण्डार।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्रचैत्यवृक्षसंबंधि-
चतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं……।
-पूर्णार्घ्य-शंभुछंद-
सन्मति जिनवर के समवसरण में, चौथी उपवन भू मानी है।
चारों दिश इक इक चैत्यवृक्ष, चहुंदिश जिन प्रतिमा मानी हैं।।
चारों दिश की जिनप्रतिमा के, सन्मुख में मानस्तंभ खड़े।
मैं पूूजूँ अर्घ्य चढ़ा करके, दिन पर दिन सुख सौभाग्य बढ़े।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितउपवनभूमिसंबंधिचतुःचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिन-
प्रतिमा-तावत्प्रमाणमानस्तंभसंबंधिसर्वप्रतिमाभ्यः पूर्णार्घ्यं……।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः।
ध्वजभूमि अर्घ्य-स्रग्विणी छंद-
वीर अतिवीर महावीर सन्मति प्रभो।
वो लहें सर्व सुख जो जजें आपको।।
पांचवी ध्वज धरा शोभती है वहाँ।
मैं जजूँ जिन समोसर्ण को नित यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं ध्वजभूमिमंडितमहावीरजिनसमवसरणाय अर्घ्यं…….।
कल्पवृक्षभूमि के ४ अर्घ्य -चौपाई छंद-
समवसरण जिनगुण मणिमाली, जजत बने नर महिमाशाली।
तरु नमेरु में सिद्धन मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थवृक्षमूल-
भागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतुःसिद्धप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं……।
समवसरण में राजें वीरा, महावीर सन्मति अतिवीरा।
तरु मंदार सिद्ध की मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदारसिद्धार्थवृक्षमूल
भागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतुःसिद्धप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं……।
वर्द्धमान जिनवर को वंदे, पाप अद्रि हों सौ सौ खंडे।
संतानक तरु सिद्धन मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानकसिद्धार्थवृक्षमूल
भागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतुःसिद्धप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं……।
सर्वोत्तम कल्पद्रुम वीरा, बिन मांगे फल पावें धीरा।
पारिजात तरु सिद्धन मूर्ती, पूजत हो मुझ वांछा पूर्ती।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजातसिद्धार्थवृक्षमूल-
भागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतुःसिद्धप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं……।
पूर्णार्घ्य-गीता छंद
इस कल्पतरु की भूमि में, सिद्धार्थ तरु चारों दिशी।
श्री सिद्धबिंब विराजते, प्रत्येक तरु के चहुँदिशी।।
एकेक मानस्तंभ हैं, प्रत्येक प्रतिमा के निकट।
उनमें चतुर्दिश बिंब जिनवर, पूजते ही शिव निकट।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितकल्पतरुभूमिसंबंधिचतुःसिद्धार्थवृक्षमूल-
भागविराजमानषोडशसिद्धप्रतिमातत्संबंधितावत्प्रमाणमानस्तंभस्थितसर्वसिद्ध-
प्रतिमाभ्यः पूर्णार्घ्यं……।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः।
भवनभूमि के ४ अर्घ्य-सोरठा-
महावीर भगवंत, कल्पवृक्ष दाता तुम्हीं।
नवस्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूपमध्य-
विराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं…….।
भविजन वहाँ असंख्य, समवसरण में बैठते।
नवस्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूपमध्य-
विराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं…….।
सिद्धारथ के नंद, त्रिभुवन जन के हो पिता।
नवस्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूपमध्य-
विराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं…….।
समवसरण जग वंद्य, भवन भूमि से शोभता।
नवस्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा पूजूँ सदा।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूपमध्य-
विराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्यः अर्घ्यं…….।
पूर्णार्घ्य-शंभु छंद
प्रत्येक गली के नव नव ये, चारों के सब छत्तीस हुये।
महावीर समवसृति के स्तूप, अर्हंत सिद्ध जिन बिंब लिये।।
शिर छत्र फिरें अरु चंवर ढुरें, वंदन वारों से शोभ रहें।
हम इनकी जिनप्रतिमाओं को, नित अर्घ्य चढ़ाकर कर्म दहें।।५।।
ॐह्रींश्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितभवनभूमिमध्यवीथीसंबंधिषट्त्रिंशत्स्तूप-
मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्यः पूर्णार्घ्यं……।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः।
श्रीमंडपभूमि अर्घ्य-शंभु छंद-
महावीर प्रभू का समवसरण, है चार कोश विस्तार धरे।
उसमें भी त्रिभुवन की संपत्, धनपति लाकर एकत्र करे।।
यह वीर प्रभू का ही प्रभाव, जो भव्य असंख्ये ध्वनि सुनते।
मैं पूजूँ अर्घ्य चढ़ाकर नित, मेरे भी मनवाञ्छित फलते।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीमहावीरजिनसमवसरणाय अर्घ्यं…..।
प्रथम कटनी स्थित धर्मचक्र के ४ अर्घ्य-अडिल्लछंद-
महावीर जिन समवसरण अतिशय भरा।
खाई लता बगीचे से चहुंदिश हरा।।
सप्त परम स्थान, हेतु पूजा करूं।
धर्मचक्र को जजूं, मुक्ति लक्ष्मी वरूं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं…..।
अन्धे लंगड़े लूले, बहिरे स्वस्थ हों।
बीस हजार सीढ़ियां, चढ़ जिन भक्त हों।।
सप्त परम स्थान, हेतु पूजा करूं।
धर्मचक्र को जजूं, मुक्ति लक्ष्मी वरूं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिदक्षिणदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं…..।
धर्म चक्र के हजार, आरे चमकते।
अंधकार जन मन का, हरते दमकते।।
सप्त परम स्थान, हेतु पूजा करूं।
धर्मचक्र को जजूं, मुक्ति लक्ष्मी वरूं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिपश्विमदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं…..।
जो परोक्ष में समवसरण को पूजते।
वे निश्चित प्रत्यक्ष, दर्श को पावते।।
सप्त परम स्थान, हेतु अर्चा करूं।
धर्मचक्र को जजूं, मुक्तिकांता वरूं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिउत्तरदिक्धर्मचक्राय अर्घ्यं…..।
पूर्णार्घ्य-दोहा
महावीर जिनराज के, चार कहे वृष चक्र।
धर्मचक्र को नित नमूँ, पूजत हो मम भद्र।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितप्रथमपीठोपरिविराजमानचतुर्धर्मचक्रेभ्यः
पूर्णार्घ्यं…….।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः।
द्वितीय कटनी का अर्घ्य-स्रग्विणी छंद-
श्री महावीर प्रभु में महावीरता।
मृत्यु को मारने की जगे वीरता।।
पूजहूं मैं ध्वजा आठ भक्ती भरे।
सिद्ध के आठ गुण सम धवल फरहरें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थितद्वितीयपीठोपरिअष्टमहाध्वजाभ्यः अर्घ्यं……।
गंधकुटी अर्घ्य-गीता छंद-
महावीर प्रभु का आज भी, शासन जगत में छा रहा।
जो हैं अहिंसा प्रिय उन्हों के, चित्त को अति भा रहा।।
वर ज्ञान आदिक क्षायिकी, मिल जाँय केवल लब्धियाँ।
जिन गंधकुटि को पूजहूँ, मिल जाँय आतम सिद्धियाँ।। १।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनसमवसरणस्थिततृतीयपीठोपरिगंधकुट्यै अर्घ्यं…….।
सोरठा- जिनवर गुणमणि तेज, सर्व लोक में व्यापता।
हो मुझ ज्ञान अशेष, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
-शंभु छन्द-
तीर्थंकर प्रभु के जन्म समय से, दश अतिशय सुखदायी हैं।
उनके तनु में नहिं हो पसेव, यह अतिशय गुण मन भायी है।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।१।।
ॐ ह्रीं निःस्वेदत्वसहजातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
माता की कुक्षी से जन्में, औदारिक तनु मानव का है।
फिर भी मल मूत्र नहीं तुममें, यह अतिशय पुण्य उदय का है।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।२।।
ॐ ह्रीं निर्मलतासहजातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
प्रभु तन में श्वेत रुधिर पय सम, यह अतिशय तीर्थंकर के हो।
अतएव मात सम त्रिभुवन जन, पोषण करते उदार मन हो।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।३।।
ॐ ह्रीं क्षीरसमधवलरुधिरत्वसहजातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं….।
उत्तम संहनन सुवज्रवृषभनाराच कहाता शक्ति धरे।
यह अन्य जनों को सुलभ तथापी, तुममें अतिशय नाम धरे।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।४।।
ॐ ह्रीं वज्रवृषभनाराचसंहननसहजातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…..।
प्रभु तन में एक एक अवयव, सब माप सहित अतिशय सुन्दर।
यह समचतुरस्र नाम का ही, संस्थान कहा त्रिभुवन मनहर।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।५।।
ॐ ह्रीं समचतुरस्रसंस्थानसहजातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
त्रिभुवन में उपमारहित रूप, अतिसुंदर अणुओं से निर्मित।
सुरपति निज नेत्र हजार बना, प्रभु को निरखे फिर भी अतृप्त।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।६।।
ॐ ह्रीं अनुपमरूपसहजातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
नव चंपक की उत्तम सुगंध, सम देह सुगंधित प्रभु का है।
यह अतिशय अन्य मनुज तन में, नहिं कभी प्राप्त हो सकता है।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।७।।
ॐ ह्रीं सौगंध्यसहजातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
शुभ एक हजार आठ लक्षण, प्रभु तन का अतिश्य कहते हैं।
यह तीन जगत् में भी उत्तम, अतएव इंद्र सब नमते हैं।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।८।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रशुभलक्षणसहजातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…..।
तन में अनंत१ बल वीर्य रहे, जन्मत ही यह अतिशय प्रगटे।
अतएव हजार हजार बड़े, कलशों से न्हवन भि झेल सकें।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।९।।
ॐ ह्रीं अनन्तबलवीर्यसहजातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…..।
हितमित सुमधुर वाणी प्रभु की, जनमन को अतिशय प्रिय लगती।
त्रिभुवन हितकारी भावों से, यह अद्भुत वचन शक्ति मिलती।।
मैं पूजूं नित इस अतिशय को, यह सब कलिमल को धोवेगा।
परमानंदामृत पान करा, निज के गुणमणि को देवेगा।।१०।।
ॐ ह्रीं प्रियहितमधुरवचनसहजातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…….।
-नरेंद्र छंद-
केवल ज्योति प्रगट होते ही, इक दश अतिशय होते हैं।
चारों दिश में सुभिक्ष होवे, चउ चउसौ कोसों में।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।११।।
ॐ ह्रीं गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षताकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…।
ज्ञान प्रगट होते ही जिनवर, गगन गमन करते हैं।
बीस हजार हाथ ऊपर जा, अधर सिंहासन पर हैं।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१२।।
ॐ ह्रीं गगनगमनत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं…..।
प्रभु के गमन शरीर आदिक से, प्राणी वध नहिं होवे।
करुणा सिंधु अभय दाता को, पूजत निर्भय होवें।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१३।।
ॐ ह्रीं प्राणिवधाभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंंद्राय अर्घ्यं……।
कोटी पूर्व वर्ष आयू में, कुछ कम ही वर्षों में।
केवलि का उत्कृष्ट काल यह, बिन भोजन है तन में।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१४।।
ॐ ह्रीं कवलाहाराभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
देव मनुज तिर्यंच आदि, उपसर्ग नहीं कर सकते।
केवलि प्रभु के कर्म असाता, साता में ही फलते।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१५।।
ॐ ह्रीं उपसर्गाभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…….।
समवसरण की गोल सभा में, चहुंदिश प्रभु मुख दीखे।
चतुर्मुखी ब्रह्मा यद्यपि ये, पूर्व उदङ् मुख तिष्ठे।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१६।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुखत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…..।
परमौदारिक पुद्गल तनु भी, छाया नहीं पड़े है।
केवलज्ञान सूर्य होकर भी, सबको छांव करे हैं।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१७।।
ॐ ह्रीं छायारहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…..।
नेत्रों की पलकें नहिं झपकें, निर्निमेष दृष्टी है।
जो पूजें वे भव्य लहें तुम, सदा कृपादृष्टी है।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१८।।
ॐ ह्रीं पक्ष्मस्पंदरहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…….।
त्रिभुवन में जितनी विद्या हैं, सबके ईश्वर प्रभु हैं।
जो भवि पूजें वे सब विद्या, अतिशय प्राप्त करे हैं।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।१९।।
ॐ ह्रीं सर्वविद्येश्वरताकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…..।
केश और नख बढ़े न प्रभु के, चिच्चैतन्य प्रभू हैं।
दिव्यदेह को धारण करते, त्रिभुवन एक विभू हैं।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।२०।।
ॐ ह्रीं समाननखकेशत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
अनुपम दिव्यध्वनि१ त्रय संध्या, मुहूर्त त्रय त्रय खिरती।
चारकोश तक सुनते भविजन, सब भाषामय बनती।।
घाति कर्म के क्षय से अतिशय, मन वच तन से पूजूं।
मुझ में केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दुख से छूटूं।।२१।।
ॐ ह्रीं अक्षरानक्षरात्मकसर्वभाषामयदिव्यध्वनिकेवलज्ञानातिशयगुणमंडित-
महावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
-शंभु छंद-
प्रभु के श्रीविहार में दशदिश, संख्यात कोस तक असमय में।
सब ऋतु के फल फलते व फूल, खिल जाते हैं वन उपवन में।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।। २२।।
ॐ ह्रीं सर्वर्तुफलादिशोभिततरुपरिणामदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय
अर्घ्यं…….।
कंटक धूली को दूर करे, जनमन हर सुखद पवन बहती।
प्रभु के विहार में बहुत दूर तक, स्वच्छ हुई भूमी दिखती।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।। २३।।
ॐ ह्रीं वायुकुमारोपशमितधूलिकंटकादिदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय
अर्घ्यं……।
सब जीव पूर्व के बैर छोड़, आपस में प्रीती से रहते।
इस अतिशय पूजत निंदा कलह, अशांति बैर निश्चित टलते।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है । । २४।।
ॐ ह्रीं सर्वजनमैत्रीभावदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
पृथिवी दर्पण तल सदृश स्वच्छ, अरु रत्नमयी हो जाती है।
जहं जहं प्रभु विहरण करते हैं, वह भूमि रम्य मन भाती है।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है ।।२५।।
ॐ ह्रीं आदर्शतलप्रतिमारत्नमयीमहीदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय
अर्घ्यं…..।
सुर मेघ कुमार सुगंध शीत, जल कण की वर्षा करते हैं।
इंद्राज्ञा से सब देववृंद, प्रभु का अतिशय विस्तरते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२६।।
ॐ ह्रीं मेघकुमारकृतगंधोदकवृष्टिदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय
अर्घ्यं…..।
शाली जौ आदिक धान्यभरित, खेती फल से झुक जाती है।
सब तरफ खेत हों हरे भरे, यह महिमा सुखद सुहाती है।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२७।।
ॐ ह्रीं फलभारनम्रशालिदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय
अर्घ्यं…..।
सब जन मन परमानंद भरें, जहं जहं प्रभु विचरण करते हैं।
मुनिजन भी आत्म सुधा पीकर, क्रम से शिवरमणी वरते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२८।।
ॐ ह्रीं सर्वजनपरमानन्दत्वदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय
अर्घ्यं…..
वायू कुमार जिन भक्तीरत, सुख शीतल पवन चलाते हैं।
जिन विहरण में अनुकूल पवन, उससे जन व्याधि नशाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।२९।।
ॐ ह्रीं सर्वजनपरमानन्दत्वदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय
अर्घ्यं…..
सब कुंए सरोवर बावड़ियाँ, निर्मल जल से भर जाते हैं।
इस चमत्कार को देख भव्य, निज पुण्य कोष भर लाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।३०।।
ॐ ह्रीं निर्मलजलपूर्णकूपसरोवरादिदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय
अर्घ्यं…।
आकाश धूम्र उल्कादि रहित, अतिस्वच्छ शरद्ऋतु सम होता।
जिनवर भक्ती वंदन करते, भविजन मन भी निर्मल होता।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।३१।।
ॐ ह्रीं शरत्कालवन्निर्मलाकाशदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय
अर्घ्यं….।
सब जन ही रोग शोक संकट, बाधाओं से छूट जाते हैं।
जहं जहं प्रभु विहरण करते हैं, सर्वोपद्रव टल जाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।३२।।
ॐ ह्रीं सर्वजनरोगशोकबाधारहितत्वदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय
अर्घ्यं…।
यक्षेंद्र चार दिश मस्तक पर, शुचि धर्मचक्र धारण करते।
उनमें हजार आरे अपनी, किरणों से अतिशय चमचमते।।
तीर्थंकर जिनका यह महात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूं रुचि से मुझको यह, परमानंदामृत दायी है।।३३।।
ॐ ह्रीं यक्षेंद्रमस्तकोपरिस्थितधर्मचक्रचतुष्टयदेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीर जिनेंद्राय
अर्घ्यं……।
दिश विदिशा में छप्पन सुवर्ण, पंकज खिलते सुरभी करते।
इक पाद पीठ मंगल सु द्रव्य, पूजन सु द्रव्य सुरगण धरते।।
प्रभु के विहार में चरण तले, सुर स्वर्ण कमल रखते जाते।
इन तेरह१ सुरकृत अतिशय को, हम पूजत ही सम सुख पाते।।३४।।
ॐ ह्रीं जिनचरणकमलतलस्वर्णकमलरचनादेवोपनीतातिशयगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय
अर्घ्यं……।
-गीता छंद-
वर प्रातिहार्य सु आठ में, तरुवर अशोक विराजता।
मरकत मणी के पत्र पुष्पों, से खिला अति भासता।।
निज तीर्थकर ऊँचाई से, बारह गुणे तुंग फरहरे।
इसकी करें हम अर्चना, यह शोक सब मन का हरे।।३५।।
ॐ ह्रीं अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…..।
प्रभु शीश पर त्रय छत्र शोभें, मोतियों की हैं लरें।
प्रभु तीन जग के ईश हैं, यह सूचना करती फिरें।।
क्या चंद्रमा नक्षत्रगण, को साथ ले भक्ती करें।
इस कल्पना युत छत्र त्रय की, हम सदा अर्चा करें।।३६।।
ॐ ह्रीं छत्रत्रयमहाप्रातिहार्यगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…..।
निर्मल फटिक मणि से बना, बहुरत्न से चित्रित हुआ।
जिननाथ सिंहासन दिपे, निजतेज से नभ को छुआ।।
इस पीठ पर तीर्थेश, चतुरंगुल अधर ही राजते।
यह प्रातिहार्य महान जो, जन पूजते निज भासते।।३७।।
ॐ ह्रीं सिंहासनमहाप्रातिहार्यगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
गणधर मुनीगण देव देवी, चक्रि नर पशु आदि सब।
निज निजी कोठे बैठ अंजलि, जोड़ते सुप्रसन्न मुख।।
इन बारहों गण से घिरे, तीर्थेश त्रिभुवन सूर्य हैं।
यह प्रातिहार्य महान इसको, जजत जन जग सूर्य हैं।।३८।।
ॐ ह्रीं द्वादशगणपरिवेष्टितमहाप्रातिहार्यगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
सब आइये जिन शरण में, मानों कहे यह दुंदुभी।
सब देव गण मिलकर बजाते, बहुत बाजे दुंदुभी।।
यह प्रातिहार्य महान इसको, वाद्य ध्वनि से पूजते।
सुरगण बजावें वाद्य उनके, सामने बहु भक्ति से।।३९।।
ॐ ह्रीं देवदुंदुभिमहाप्रातिहार्यगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
सुरग्ण गगन से कल्पतरु के, पुष्प बहु वर्षा रहें।
यह वर्ण वर्ण सुगंध खिलते, पुष्प जन मन भा रहे।।
यह प्रातिहार्य महान इसको, सुमन अर्घ लिये जजूँ।
अतिशय सुयश सुख प्राप्तकर, सब अशुभ अपयश से बचूँ।।४०।।
ॐ ह्रीं सुरपुष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…..।
यह कोटि भास्कर तेज हरता, प्रभा मंडल नाथ का।
जन दर्श से निज सात भव को, देखते उसमें सदा।।
यह प्रातिहार्य महान इसको, पूजहूँ अतिचाव से।
निज आत्म तेज अपूर्व पाकर, छूटहूँ भव दाव से।।४१।।
ॐ ह्रीं भामंडलमहाप्रातिहार्यगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…….।
सुर यक्षगण चौंसठ चंवर, जिनराज पर ढोरें सदा।
ये चंद्रसम उज्ज्वल चंवर, हरते सभी मन की व्यथा।।
यह प्रातिहार्य महान इसको, पूजहूँ श्रद्धा धरे।
जो जजें चामर ढोरकर, वे उच्च पद के सुख भरें।।४२।।
ॐ ह्रीं चतुःषष्टिचामरमहाप्रातिहार्यगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
-नाराच छंद-
तीन लोक तीनकाल की समस्त वस्तु को।
एक साथ जानता अनंत ज्ञान विश्व को।।
जो अनंतज्ञान युक्त इन्द्र अर्चते जिन्हें।
पूजहूँ सदा उन्हें अनंतज्ञान हेतु मैं।।४३।।
ॐ ह्रीं अनन्तज्ञानगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
लोक अरु अलोक के समस्त ही पदार्थ को।
एक साथ देखता अनंत दर्श सर्व को।।
जो अनंत दर्श युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा उन्हें अनंत दर्श हेतु मैं।।४४।।
ॐ ह्रीं अनंतदर्शनगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…..।
बाधहीन जो अनंत सौख्य भोगते सदा।
हो भले अनंतकाल आवते न ह्यां कदा।।
वे अनंत सौख्य युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा तिन्हें अनंत सौख्य हेतु मैं।।४५।।
ॐ ह्रीं अनंतसौख्यगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…….।
जो अनंतवीर्यवान अंतराय को हने।
तिष्ठते अनंत काल श्रम नहीं कभी उन्हें।।
वे अनंत शक्ति युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा तिन्हें अनंत वीर्य हेतु मैं।।४६।।
ॐ ह्रीं अनंतवीर्यगुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं…….।
पूर्णार्घ्य-शंभु छंद
दश अतिशय जन्म समय से ग्यारह, केवलज्ञान उदय से हों।
देवों कृत तेरह अतिशय हों, चौंतिस अतिशय सब मिलके हों।।
वर प्रातिहार्य हैं आठ कहें, सु अनंत चतुष्टय चार कहें।
ये छ्यालिस गुण तीर्थंकर के, हम पूजें वांछित सर्व लहें।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वारिंशद्गुणमंडितमहावीरजिनेंद्राय पूर्णार्घ्यं…..।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
-सोरठा-
दोष अनंतानंत, त्रिभुवन जन में व्याप्त हैं।
आप किया उन अंत, कुसुमांजलि से पूजहूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजल् क्षिपेत् ।
-भुजंगप्रयात छंद-
क्षुधा व्याधि पीड़ा करे सर्व जन को।
ये आहार संज्ञा हरें घातिहर जो।।
प्रभो केवली के असाता उदय भी।
फले सौख्य में मैं जजूँ नित उन्हें ही।।१।।
ॐ ह्रीं क्षुधामहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
तृषा वेदना से पिपासित सभी हैं।
प्रभो आपने स्वात्म अमृत पिया है।।
इसे नाशने हेतु प्रभु को जजूँ मैं।
सदा साम्य पीयूष रुचि से चखूँ मैं।।२।।
ॐ ह्रीं तृषामहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……।
महा दोष भीती सभी को सतावे।
प्रभू ने सभी भय डराकर भगाये।।
जजूँ सात भय नाश हेतू तुम्हीं को।
भजूँ सात उत्तम परं स्थान ही को।।३।।
ॐ ह्रीं भयमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
महा क्रोध अग्नी दहे सर्व जग को।
प्रभू ने महाशांति से नाशा उसको।।
इसी क्रोध आश्रित सभी दोष आते।
जजूँ आप को क्रोध को मूल नाशें।।४।।
ॐ ह्रीं क्रोधमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
चिता से अधिक दुःख चिंता करे है।
तनू स्वास्थ्य को हर महा दुख भरे है।।
इसे मूल से आपने नष्ट कीना।
जजूँ मैं न चिंता कभी हो हृदय मा।।५।।
ॐ ह्रीं चिंतामहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
जरा जर्जरी देह करके सुखावे।
इसे नाश कर मूल से सौख्य पावें।।
प्रभो केवली आपको ही जजूँ मैं।
इसे नाश के स्वात्म सुख को भजूँ मैं।।६।।
ॐ ह्रीं जरामहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
सदा राग संसार में ही भ्रमावे।
प्रभो आपमें राग मुक्ती दिलावे।।
तथापी तुम्हीं ने सभी राग नाशे।
जजूँ भक्ति से तो अशुभ राग भागे।।७।।
ॐ ह्रीं रागमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
महा मोह सम्राट् से सब दुखी हैं।
इसे मूल से प्रभु उखाड़ा सुखी हैं।।
इसी मोह को नाश हेतू जजूँ मैं।
महा ध्वांत हर ज्ञान ज्योती भजूं मैं।।८।।
ॐ ह्रीं मोहमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
करोड़ों भरे रोग इस देह में हैं।
प्रभू रोग को नाश करके सुखी हैं।।
विविध भांति के रोग नित कष्ट देते।
तुम्हें पूजते ये मुझे छोड़ देते।।९।।
ॐ ह्रीं रोगमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
महामल्ल मृत्यू ने त्रैलोक्य जीता।
इसे जीत तुम मुक्ति लक्ष्मी गृहीता।।
जजें आपको सर्व दुख के जयी हों।
वही लोक में शीघ्र मृत्युंजयी हों।।१०।।
ॐ ह्रीं मृत्युमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
पसीना न तन में प्रभू आप के हो।
प्रभो केवली आपके ये नहीं हों।।
इसे मूल से जो हरें वीतरागी।
उन्हीं को जजूँ मैं बनूं सौख्यभागी।।११।।
ॐ ह्रीं स्वेदमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
प्रभो! एक क्षण में त्रयी लोक लोका।
नहीं खेद श्रम रंच भी आपको था।।
विषादो महादोष जीता तुम्हीं ने।
नशे दोष मेरा जजूं अर्घ से मैं।।१२।।
ॐ ह्रीं विषादमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
महामद कहें आठ विध या असंख्ये।
उन्हीं से लहें नीचगति जीव सब ये।।
हरें मान उनको सभी इंद्र वंदें।
जजूँ आपको सर्व मद को विखंडे।।१३।।
ॐ ह्रीं मदमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
रती दोष से प्रीति हो इष्ट पर में।
इसे नाश निज में धरी प्रीति प्रभु ने।।
प्रभू केवली प्रीति नाहीं किसी में।
तथापी जगत् हित करो नित जजूँ मैं।।१४।।
ॐ ह्रीं रतिमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
कुतूहलमयी विश्व को देख करके।
करें जोऽतिविस्मय हरें पूर्ण सुख वे।।
सभी कर्मकृत फेर आश्चर्य कैसा।
जजूँ भक्ति से सौख्य हो आप जैसा।।१५।।
ॐ ह्रीं विस्मयमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
जो निद्रा के वश वो स्वयं को न देखें।
निजातम दरश पूर्ण को रोक ले ये।।
इसे नष्टकर सर्व जग को विलोका।
जजूँ मैं दरश प्राप्त होवे प्रभू का।।१६।।
ॐ ह्रीं निद्रामहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
अनंतों दफे जन्म धर-धर दुःखी मैं।
न हो जन्म फिर से करूँ यत्न वो मैं।।
तुम्हीं ने पुनर्जन्म नाशा जगत में।
अतः पूजहूँ तुम चरण नाथ अब मैं।।१७।।
ॐ ह्रीं जन्ममहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
अरतिदोष से आकुलित चित्त होवे।
इसे नाशकर आपने कर्म धोये।।
यही दोष मुझको सदा दुःख देता।
जजूं आपको ये भगे शीघ्र भीता।।१८।।
ॐ ह्रीं अरतिमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय अर्घ्यं……..।
पूर्णार्घ्य-शंभु छंद
इन दोष अठारह ने जग में, सबको दुख दे दे वश्य किया।
इनसे बच सका नहीं कोई, इन त्रिभुवन में अधिपत्य किया।।
जो इनको जीते वे ‘जिनेंद्र’, सौ इंद्रों से वंदित जग में।
मैं पूजूँ उनको अर्घ चढ़ा, हर दोष भरें गुण वे मुझमें।।१९।।
ॐ ह्रीं अष्टादशमहादोषरहितमहावीरजिनेंद्राय पूर्णार्घ्यं……..।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
भगवान महावीर शासनदेव अर्घ्य-
महावीर जिन पास में, सुर ‘मातंग’ वसंत।
जिन शासन रक्षक कहा, अर्घ चढ़ा पूजंत।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः शासनदेव मातंगयक्ष!अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं
जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
भगवान महावीर शासनदेवी अर्घ्य-
महावीर जिन भाक्तिका, ‘सिद्धायिनी’ प्रसिद्ध।
रुचि से अर्घ चढ़ावते, करो मनोरथ सिद्ध।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः शासनदेवि सिद्धायिनीयक्षि!अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं
जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
भगवान महावीर के ११ गणधर के अर्घ्य-
सोरठा- स्वानुभूति से आप, नित आतम अनुभव करें।
द्वादशगण के नाथ, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजल् क्षिपेत् ।
दोहा- ‘इन्द्रभूति’ गणधर प्रथम, गौतम नाम प्रसिद्ध।
जिनकी कृपा प्रसाद से, मोक्षमार्ग है सिद्ध।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः इन्द्रभूतिनामगौतमगणधरदेवाय अर्घ्यं…….।
‘वायुभूति’ गणधर दुतिय, सर्वऋद्धिपरिपूर्ण।
जो जन पूजें भक्ति से, करें मोह अरि चूर्ण।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः वायुभूतिगणधरदेवाय अर्घ्यं……।
‘अग्निभूति’ गणधर तृतिय, नमूं सर्वसुख कंद।
ध्यान अग्नि से कर्म दह, बने सिद्ध भगवंत।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः अग्निभूतिगणधरदेवाय अर्घ्यं…….।
गणी ‘सुधर्माचार्य’ गुरु, महावीर के नंद।
पूजूं अर्घ्य चढ़ायके, पाऊं परमानंद ।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः सुधर्माचार्यगणधरदेवाय अर्घ्यं……।
‘श्री मौर्य’ गणधर गुरु, भविजन के शिर ताज।
पूजूं अर्घ्य चढ़ायके, मिले सौख्य साम्राज्य।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः मौर्यगणधरदेवाय अर्घ्यं……।
गणी ‘मौन्द्र्य’ गुरु के चरण, जजूं सर्व सुखकार।
पाऊं निज सुखसंपदा, मिले भवोदधि पार।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः मौन्द्र्यगणधरदेवाय अर्घ्यं…..।
गणधर ‘पुत्र’ सुनाम है, सन्मति प्रभु के नंद।
जजूं अर्घ्य ले भक्ति से, पाऊं सौख्य अनिंद्य।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः पुत्रनामगणधरदेवाय अर्घ्यं…..।
‘श्रीमैत्रेय’ गणीन्द्र को, नमूं नमूं शतबार।
अर्घ्य चढ़ाकर पूजते, भरे सौख्य भंडार।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः श्रीमैत्रेयगणधरदेवाय अर्घ्यं……।
गणी ‘अकंपन’ को नमूं, सर्व ऋद्धि के ईश।
ऋद्धि सिद्धि को पाय के, वसूं भुवन के शीश।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः श्रीअकंपनगणधरदेवाय अर्घ्यं……।
‘अंधवेल’ गणधर गुरू, मोहध्वांत से दूर।
जजूं चरण अरविंद मैं, पाऊं सुख भरपूर।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः अंधवेलगणधरदेवाय अर्घ्यं…..।
गुरु ‘प्रभास’ गणधर चरण, पूजत हो आनंद।
पाऊं ज्ञान प्रकाश मैं, हरूं जगत के द्वंद्व।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः प्रभासगणधरदेवाय अर्घ्यं……..।
-नरेन्द्र छंद-
महावीर प्रभू के गणधर हैं, ग्यारह सब गुण पूरे।
इन्द्रभूति गौतम आदिक ये, यम की समरथ चूरें।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
नव निधि ऋद्धी यश संपत्ती, देकर भव से तारें।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः इन्द्रभूतिप्रमुखएकादशगणधरचरणेभ्यः पूर्णार्घ्यं…..।
महावीर स्वामी के १४ हजार मुनियों के पृथक्-पृथक् अर्घ्य-
चाल- हे दीनबंधु……..
श्री वर्धमान का समोशरण अपूर्व है।
मुनिराज तीन सौ वहां पे ज्ञानी पूर्व हैं।।
सर्वार्थ सिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूं।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः त्रयशतपूर्वधरऋषिभ्यः अर्घ्यं……।
शिक्षक मुनी निन्यानवे शतक वहाँ रहें।
जिनके वचन पियूष से ही तृप्ति को लहें।।
सर्वार्थ सिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूं।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः नवसहस्रनवशतशिक्षकऋषिभ्यः अर्घ्यं…..।
जो ज्ञान अवधि धारते तेरह शतक मुनी।
उन पूजते हि पाप कर्म निर्जरा घनी।।
सर्वार्थ सिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूं।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः त्रयोदशशतअवधिज्ञानिऋषिभ्यः अर्घ्यं…..।
कैवल्यज्ञान के धनी हैं सात सौ वहाँ।
घाती कर्म को घात अव्याबाध सुख लहा।।
सर्वार्थ सिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूं।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनःसप्तशतकेवलज्ञानिऋषिभ्यः अर्घ्यं……..।
विक्रिय धरें नव सौ मुनी तप तेज से वहाँ।
जो पूजते संपूर्णज्ञान पावते यहाँ।।
सर्वार्थ सिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूं।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः नवशतविक्रियाधारिऋषिभ्यः अर्घ्यं…….।
मुनिराज विपुलमति ज्ञान धारते वहाँ।
वे पाँच सौ प्रमाण उन्हें पूजहूँ यहाँ।।
सर्वार्थ सिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूं।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूं।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनःपंचशतविपुलमतिज्ञानिऋषिभ्यः अर्घ्यं…..।
वादी मुनीश चार सौ जिन धर्म प्रकाशें।
जो उनके पाद को नमें वे स्वात्म प्रकाशें।।
सर्वार्थ सिद्धि हेतु सर्व साधु को नमूं।
निज के अनंत गुण विकास दोष को वमूं।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः चतुःशतवादिऋषिभ्यः अर्घ्यं…….।
पूर्णार्घ्य-दोहा-
महावीर प्रभु के ऋषी, चौदह सहस प्रमाण।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, मिले सौख्य निर्वाण।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः चतुर्दशसहस्रसर्वऋषिभ्यः पूर्णार्घ्यं……।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः
गणिनी महासती चंदना को अर्घ्य- शंभु छंद-
महावीर प्रभू के समवसरण में, गणिनी श्री चंदनासती।
जिनशीलधर्म से प्रभु आहार, के समय सभी बेड़ियां कटीं।।
रत्नत्रय गुणमणि से भूषित, नित शुभ्रवस्त्र से शोभित थीं।
इनकी पूजा वंदन भक्ती से, मिल जाती शिवपथ युक्ती।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः समवसरणस्थितगणिनीमहासतीचंदनायै अर्घ्यं….।
३६ हजार आर्यिकाओं को अर्घ्य-
श्री वीर प्रभू के सभा बीच, छत्तीस हजार आर्यिका थीं।
मां सती चंदना गणिनी संघ, सब संयम रत्न साधिका थीं।।
इनको ‘वंदामि’ कर करके, मैं शिवपथ प्रशस्त कर लेऊं।
मेरा संयम निर्दोष पले, गुरु चरण हृदय में रख लेऊं।।२।।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलिः
अथ पंचकल्याणक अर्घ्य-गीताछंद-
सिद्धार्थनृप कुण्डलपुरी में, राज्य संचालन करें।
त्रिशला महारानी प्रिया सह, पुण्य संपादन करें।।
आषाढ़ शुक्ला छठ तिथी, प्रभु गर्भ मंगल सुर करें।
हम पूजते वसु द्रव्य ले, हर विघ्न सब मंगल भरें।।१।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लाषष्ठ्यां श्रीमहावीरजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं…..।
सित चैत्र तेरस के प्रभू, अवतीर्ण भूतल पर हुये।
घंटादि बाजे बज उठे, सुरपति मुकुट भी झुक गये।।
सुरशैल पर प्रभु जन्म उत्सव, हेतु सुरगण आ गये।
हम पूजते वसु द्रव्य ले, निज में परम आनंद लिये।।२।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लात्रयोदश्यां श्रीमहावीरजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं……।
मगसिर वदी दशमी तिथी, संसार से निस्पृह हुए।
लौकांतिकादी आन कर, संस्तुति करें प्रमुदित हुए।।
सुरपति प्रभू की निष्क्रमण, विधि से महा उत्सव करें।
हम पूजते वसु द्रव्य ले, संसार सागर से तिरें।।३।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णादशम्यां श्रीमहावीरजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं…..।
प्रभु ने प्रथम आहार राजा, कूल के घर में लिया।
वैशाख सुदि दशमी तिथी, केवलरमा परिणय किया।।
श्रावणवदी एकम तिथी, गौतम मुनी गणधर बने।
तब दिव्यध्वनि प्रभु की खिरी, हम पूजते हर्षित उन्हें।।४।।
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लादशम्यां श्रीमहावीरजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यंः….।
कार्तिक अमावस पुण्य तिथि, प्रत्यूष बेला में प्रभो।
पावापुरी उद्यान सरवर, बीच में तिष्ठे विभो।।
निर्वाणलक्ष्मी वरण कर, लोकाग्र में जाके बसे।
हम पूजते वसु द्रव्य ले, तुम पास में आके बसें।।५।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णामावस्यायां श्रीमहावीरजिननिर्वाणकल्याणकाय अर्घ्यं…..।
-शंभु छंद-
महावीर प्रभू की जन्मभूमि, कुंडलपुरि इंद्रों से वंदित।
चारण ऋषि संजय विजय मुनी ने, सन्मति नाम रखा गुणभृत।।
संगमसुर ने महावीर नाम से, जहां वीर के गुण गाये।
मुनिगणनुत ऐसी नगरी की, पूजा करते हम हरषायें।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरतीर्थंकर जन्मभूमिकुण्डलपुर्यै अर्घ्यं…….।
वर राजगृही में विपुलाचल पर्वत, त्रिभुवन जन से वंदित।
प्रभु समवसरण में छ्यासठ दिन के, बाद दिव्य ध्वनि हुई प्रगट।।
गौतम गणधर ने द्वादशांग, रचना कर जग उपकार किया।
जिस अंशरूप जिनवाणी ने, जन-जन का मार्ग प्रशस्त किया।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीर स्वामिनः प्रथमदेशनास्थलराजगृहीविपुलाचलपर्वताय अर्घ्यं….।
पावापुरि में जल सरवर में बहु, कमल खिलें अति सुरभि लिये।
उस मध्य शिलामणिमयी उपरि से, महावीर प्रभु मोक्ष गये।।
इन्द्रों ने चरण चिन्ह रचकर, पूजा की दीपावली किया।
निर्वाणभूमि को जजते ही, मैंने भी आतमशुद्ध किया।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः निर्वाणभूमिपावापुर्यै अर्घ्यं……।
-पूर्णार्घ्य-
जो पंचकल्याणक को जजते, वे सर्व कल्याणक पाते हैं।
प्रभु कल्याणकभूमी पूजत, अतिशायी पुण्य कमाते हैं।।
इन तीर्थों की पूजा भक्ती, स्वात्मा को तीर्थ बनाती है।
मैं भी पूजूँ अतिश्रद्धा से, मेरा मन कमल खिलाती है।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिनः पंचकल्याणकतत्पवित्रभूमिभ्यः पूर्णार्घ्यं…..।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः।
जाप्य मंत्र- ॐ ह्रीं समवसरणस्वामिने श्रीमहावीरजिनेन्द्राय नमः।
(पीले पुष्प, सुगंधित पुष्प या लवंग से १०८ बार)
दोहा- चिन्मय चिंतामणि प्रभो! गुण अनंत की खान।
समवसरण वैभव सकल, वह लवमात्र समान।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय तीर्थंकर महावीर, तुम धर्मचक्र के कर्ता हो।
जय जय अनंतदर्शन सुज्ञान, सुख वीर्य चतुष्टय भर्ता हो।।
जय जय अनंत गुण के धारी, प्रभु तुम उपदेश सभा न्यारी।
सुरपति की आज्ञा से धनपति, रचता है त्रिभुवन मनहारी।।२।।
प्रभु समवसरण गगनांगण में, बस अधर बना महिमाशाली।
यह इन्द्र नीलमणि रचित गोल, आकार बना गुणमणिमाली।।
सीढ़ी इक एक हाथ ऊँची, चौड़ी सब बीस हजार बनी।
नर बाल वृद्ध लूले लंगड़े, चढ़ जाते सब अतिशायि घनी।।३।।
पहला परकोटा धूलिसाल, बहुवर्ण रत्न निर्मित सुंदर।
कहिं पद्मराग कहिं मरकतमणि, कहिं इन्द्रनीलमणि से मनहर।।
इसके अभ्यंतर चारों दिश, हैं मानस्तंभ बने ऊँचे।
ये बारह योजन से दिखते, जिनवर से द्विदश गुणे ऊँचे।।४।।
इनमें चारों दिश जिनप्रतिमा, उनको सुरपति नरपति यजते।
ये सार्थक नाम धरें दर्शन से, मानो मान गलित करते।।
इस समवसरण में चार कोट, अरु पांच वेदिकायें ऊँची।
इनके अंतर में आठ भूमि, फिर प्रभु की गंधकुटी ऊँची।।५।।
इस धूलिसाल अभ्यंतर में है, भूमि चैत्य प्रासाद प्रथम।
एकेक जैन मंदिर अंतर से, पांच पांच प्रासाद सुगम।।
चारों गलियों में उभय तरफ, दो दोय नाट्यशालाएं हैं।
अभिनय करतीं जिनगुण गातीं, सुर भवनवासि कन्यायें हैं।।६।।
फिर वेदी वेढ़ रही ऊँची, गोपुर द्वारों से युक्त वहाँ।
द्वारों पर मंगलद्रव्य निधी, ध्वज तोरण घंटा ध्वनी महा।।
फिर आगे खाई स्वच्छ नीर, से भरी दूसरी भूमी है।
फूले कुवलय कमलों से युत, हंसों के कलरव की ध्वनि है।।७।।
फिर दूजी वेदी के आगे, तीजी है लताभूमि सुन्दर।
बहुरंग बिरंगे पुष्प खिले, जो पुष्पवृष्टि करते मनहर।।
फिर दूजा कोट बना स्वर्णिम, गोपुर द्वारों से मन हरता।
नवनिधि मंगल घट धूप घटों युत, में प्रवेश करती जनता।।८।।
आगे उद्यान भूमि चौथी, चारों दिश बने बगीचे हैं।
क्रम से अशोक वन सप्तपर्ण, चंपक अरु आम्र तरू के हैं।।
प्रत्येक दिशा में एक-एक, तरु चैत्य वृक्ष अतिशय ऊँचे।
इनमें जिन प्रतिमा प्रातिहार्ययुत, चार-चार मणिमय दीखें।।९।।
इसके आगे वेदी सुन्दर, फिर ध्वजाभूमि ध्वज से शोभे।
फिर रजतवर्णमय परकोटा, गोपुर द्वारों से युत शोभे।।
फिर कल्पवृक्ष भूमी छट्ठी, दशविध के कल्पवृक्ष इसमें।
प्रतिदिश सिद्धार्थ वृक्ष चारों हैं, सिद्धों की प्रतिमा उनमें।।१०।।
चौथी वेदी के बाद भवन, भूमी सप्तमि के उभय तरफ।
नव नव स्तूप रत्न निर्मित, उनमें जिनवर प्रतिमा सुखप्रद।।
परकोटा स्फटिकमयी चौथा, मरकत मणि गोपुर से सुन्दर।
उस आगे श्रीमंडप भूमी, बारह कोठों से जनमनहर।।११।।
फिर पंचम वेदी के आगे, त्रय कटनी सुन्दर दिखती हैं।
पहली कटनी पर यक्ष शीश पर, धर्मचक्र चारों दिश हैं।।
दूजी कटनी पर आठ महाध्वज, नवनिधि मंगल द्रव्य धरे।
तीजी कटनी पर गंधकुटी पर, जिनवर दर्शन पाप हरें।।१२।।
जय जय जिनवर सिंहासन पर, चतुरंगुल अधर विराज रहे।
जय जय जिनवर की दिव्यध्वनि, सुनकर सब भविजन तृप्त भये।।
सब जातविरोधी प्राणीगण, आपस में मैत्री भाव धरें।
जो पूजें ध्यावें गुण गावें,कैवल्य ज्ञानमति प्राप्त करें।।१३।।
दोहा- चतुर्मुखी ब्रह्मा तुम्हीं, ज्ञान व्याप्त जग विष्णु।
देवों के भी देव हो, महादेव अरि जिष्णु।।१४।।
ॐ ह्रीं अन्तरंगानन्तचतुष्टय-बहिरंगसमवसरणविभूतिसमन्वितायश्रीमहावीरजिनेंद्राय
जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शान्तये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
-गीता छंद-
जो महावीर समवसरण, विधान भक्ती से करें।
वे जगत् के बहिरंग वैभव, की सुखद संपति भरें।।
फिर पूर्ण दर्शन ज्ञान सुख, वीरज चतुष्टय को धरें।
निज ‘ज्ञानमति’ कैवल्य कर, निर्वाण लक्ष्मी को वरें।।१।।
इत्याशीर्वादः
इति श्रीमहावीर समवसरण विधान संपूर्णम् ।