कांपिल्यपुरी पितु कृतवर्मा, माता जयश्यामा विख्याता।
शुभ ज्येष्ठ वदी दशमी प्रभु का, माता के गर्भ निवासा था।
निर्मल त्रय ज्ञान सहित स्वामी, मल रहित गर्भ में तिष्ठे थे।
सितमाघ चतुर्थी१ के दिन में, इन्द्रों से पूजित जन्मे थे।।१।।
सित माघ चतुर्थी दीक्षा ली, सित माघ छट्ठ को ज्ञान हुआ।
आषाढ़ वदी अष्टमि तिथि में, पंचम गति को प्रस्थान हुआ।।
दो सौ चालीस कर तुंग तनु, प्रभु साठ लाख वर्षायु थी।
कनकच्छवि घृष्टी२ लांछन तव, हे विमल! करो मम विमलमती।।२।।
मैं भाव कर्म और द्रव्यकर्म, नोकर्म मलों से भिन्न कहा।
मैं अमल अरूपी अविकारी, निश्चय नय से चििंत्पड कहा।।
चिच्चमत्कारमय ज्योतिपुंज, सहजानंदैक स्वभावी हूँ।
मैं केवलज्ञान अखंड पडमय, सुख चिद्रूप स्वभावी हूँ।।३।।
भगवन् ! ऐसी शक्ति दीजे, मैं मुझमें स्थिर हो जाऊँ।
अणुमात्र नहीं कचित् मेरा, मैं पर से ममता बिसराऊँ।।
मैं तुमको प्रणमूं बार—बार, बस मम पूरी इक इच्छा हो।
एकाकी ‘ज्ञानमती’ प्रगटे, जहाँ पर की पूर्ण उपेक्षा हो।।४।।
अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजिंल क्षिपेत् ।