अथ स्थापना
तर्ज—ऐ माँ तेरी सूरत से अलग…
जिनवर की शरण में आये हैं, तन मन धन अर्पण कर देंगे।
भगवान-भगवान तेरी भक्ती के लिये, जीवन भी समर्पण कर देंगे।।टेक.।।
इस नगरि अयोध्या की, धनपति ने रचना की।
माता के आंगन में, रत्नों की वर्षा की।।
आदीश्वर तीर्थंकर प्रभु का, शिर नत कर वंदन कर लेंगे।।भग.।।
श्री ऋषभदेव का हम, आह्वानन करते हैं।
निज हृदय कमल में प्रभु, स्थापन करते हैं।।
हम सन्निधीकरण विधी करके, प्रभुपद का अर्चन कर लेंगे।।भग.।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रद! श्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रद! श्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रद! श्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
पुरुदेव सुयश सम उज्ज्वल जल, लेकर झारी भर लाये हैं।
निज समरस सुख पाने हेतु, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव गुणों सम अतिशीतल, चंदन घिस कर ले आये हैं।
निज की शीतलता पाने को, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव सौख्य सम खण्ड रहित, उज्ज्वल तंदुल ले आये हैं।
निज सुख अखण्ड पाने हेतू, प्रभु पुंज चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव गुणों सम अति सुगंध, पुष्पों को चुनकर लाये हैं।
निज गुण सुगंधि पाने हेतू, प्रभु चरणों पुष्प चढ़ाये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव पुष्टि सम नानाविध, पकवान बनाकर लाये हैं।
निज आत्म तृप्ति पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।५।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव ज्ञान सम ज्योतिर्मय, कर्पूर जलाकर लाये हैं।
निज ज्ञान ज्योति पाने हेतू, हम आरति करने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव गुणों की सुरभि सदृश, वर धूप सुगंधित लाये हैं।
निज आत्मसुरभि पाने हेतू, अग्नी में धूप जलाये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव सुखामृत सदृश मधुर, रसभरे बहुत फल लाये हैं।
निज मोक्ष सुफल हेतू, भगवन्! फल आज चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरुदेव गुणों के सम अनर्घ्य, यह अर्घ्य सजाकर लाये हैं।
निज तीन रत्न पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
श्री ऋषभदेव के चरण कमल, हम मन वच तन से नित ध्यावें।
निज आत्मसिद्धि को पा करके, परमानंदामृत सुख पावें।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सरयू नदी का जल भरें, हम स्वर्ण भृंग में।
त्रयधार दे धारा करें, प्रभु पादकमल में।।
तिहुंलोक में सुख शांति हो, यह भावना करें।
हो मन पवित्र मेरा यही याचना करें।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला वकुल गुलाब सुरभि पुष्प चुन लिये।
प्रभु पाद पंकरूह में कुसुम अंजली किये।।
धन धान्य सौख्य संपदा स्वयमेव आ मिले।
भक्ती से शक्ति हो प्रगट शिवयुक्ति भी मिले।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
छ्यालीस गुणों के 46 अर्घ्य—
जिनवर गुणमणि तेज, सर्वलोक में व्यापता।
हो मुझ ज्ञान अशेष, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
श्री आदिनाथ के जन्म समय से, दश अतिशय सुखदाता हैं।
उनके तनु में निंह हो पसेव, यह अतिशय गुण मन भाता है।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।१।।
ॐ ह्रीं नि:स्वेदत्वसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
माता की कुक्षी से जन्मे, औदारिक तनु मानव का है।
फिर भी मलमूत्र नहीं तुममें, यह अतिशय पुण्य उदय का है।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।२।।
ॐ ह्रीं मलरहितसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
प्रभु तन में श्वेत रुधिर पयसम, यह अतिशय तीर्थंकर के हो।
अतएव मात सम त्रिभुवन जन, पोषण करते उदारमन हो।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।३।।
ॐ ह्रीं क्षीरसमरुधिरत्वसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शन-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
उत्तम संहनन सुवज्रवृषभ-नाराच कहाता शक्ति धरे।
यह अन्य जनों को सुलभ तथापी, तुममें अतिशय नाम धरे।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।४।।
ॐ ह्रीं वङ्काऋषभनाराचसंहननसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा;।
प्रभु तनु में एक एक अवयव, सब माप सहित अतिशय सुन्दर।
यह समचतुरस्र नाम का ही, संस्थान कहा त्रिभुवन मनहर।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।५।।
ॐ ह्रीं समचतुरस्रसंस्थानसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शन-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
त्रिभुवन में उपमारहित रूप, अतिसुन्दर अणुओं से निर्मित।
सुरपति निज नेत्र हजार बना, प्रभु को निरखे फिर भी अतृप्त।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।६।।
ॐ ह्रीं अनुपमरूपसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
नव चंपक की उत्तम सुगंधि, सम देह सुगंधित प्रभु का है।
यह अतिशय अन्य मनुज तनु में, निंह कभी प्राप्त हो सकता है।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।७।।
ॐ ह्रीं सौगन्ध्यसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
शुभ एक हजार आठ लक्षण, प्रभु तनु का अतिशय कहते हैं।
यह तीन जगत में भी उत्तम, अतएव इन्द्र सब नमते हैं।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।८।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रशुभलक्षणसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
तनु में अनंत१ बल वीर्य रहे, जन्मत ही यह अतिशय प्रगटे।
अतएव हजार हजार बड़े, कलशों से न्हवन भि झेल सकें।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।९।।
ॐ ह्रीं अनंतबलवीर्यसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शन-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
हित मित सुमधुर वाणी प्रभु की, जन मन को अतिशय प्रिय लगती।
त्रिभुवन हितकारी भावों से, यह अद्भुत वचन शक्ति मिलती।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।१०।।
ॐ ह्रीं प्रियहितमधुरवचनसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
केवलज्योति प्रगट होते इक२, दश अतिशय होते हैं।
चारों दिश में सुभिक्ष होवे, चउ चउ सौ कोसों में।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।११।।
ॐ ह्रीं गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षताकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यग्ज्ञानफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
ज्ञान प्रगट होते ही जिनवर, गगन गमन करते हैं।
बीस हजार हाथ ऊपर जा, अधर सिंहासन पर हैं।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं गगनगमनत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
प्रभु के गमन शरीर आदि से, प्राणी वध निंह होवे।
करुणासिंधू अभय दाता को, पूजत निर्भय होवें।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।१३।।
ॐ ह्रीं प्राणिवधाभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
कोटीपूर्व वर्ष आयू में, कुछ कम ही वर्षों में।
केवलि का उत्कृष्ट काल यह, बिन भोजन है तन में।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं कवलाहाराभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
देव मनुज तिर्यंच आदि उपसर्ग नहीं कर सकते।
केवलि प्रभु के कर्म असाता, साता में ही फलते।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।१५।।
ॐ ह्रीं उपसर्गाभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
समवसरण की गोल सभा में, चहुंदिश प्रभु मुख दीखे।
चतुर्मुखी ब्रह्म्ाा यद्यपि ये, पूर्व उदङ् मुख तिष्ठे।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।१६।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुखत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
परमौदारिक पुद्गल तनु भी, छाया नहीं पड़े हैं।
केवलज्ञान सूर्य होकर भी, सबको छाँव करे हैं।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।१७।।
ॐ ह्रीं छायारहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
नेत्रों की पलकें निंह झपकें, निर्निमेष दृष्टि है।
जो पूजें वे भव्य लहें तुम, सदा कृपादृष्टि हैं।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।१८।।
ॐ ह्रीं पक्ष्मस्पंदरहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
त्रिभुवन में जितनी विद्या हैं, सबके ईश्वर प्रभु हैं।
जो भवि पूजें वे सब विद्या, अतिशय प्राप्त करे हैं।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।१९।।
ॐ ह्रीं सर्वविद्येश्वरताकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
केश और नख बढ़ें न प्रभु के, चिच्चैतन्य प्रभू हैं।
दिव्यदेह को धारण करते, त्रिभुवन एक विभू हैं।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।२०।।
ॐ ह्रीं नखकेशवृद्धिरहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यग्ज्ञान फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
अनुपम दिव्यध्वनी१ त्रय संध्या, मुहूर्त त्रय त्रय खिरती।
चारकोश तक सुनते भविजन, सब भाषामय बनती।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।२१।।
ॐ ह्रीं अक्षरानक्षरात्मकसर्वभाषामयदिव्यध्वनिकेवलज्ञानातिशय गुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
प्रभु के श्रीविहार में दश दिश, संख्यात कोश तक असमय में।
सब ऋतु के फल फलते व फूल, खिल जाते हैं वन उपवन में।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२२।।
ॐ ह्रीं सर्वर्तुफलादिशोभिततरूपरिणाम-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
कंटक धूली को दूर करे, जनमन हर सुखद पवन बहती।
प्रभु के विहार में बहुत दूर तक, स्वच्छ हुई भूमि दिखती।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२३।।
ॐ ह्रीं वायुकुमारोपशमितधूलकंटकादि-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
सब जीव पूर्व के बैर छोड़, आपस में प्रीति से रहते।
इस अतिशय पूजत कलह, वैर ईर्ष्यादि दोष निश्चित टलते।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२४।।
ॐ ह्रीं सर्वजनमैत्रीभाव-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्-चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
पृथिवी दर्पण तल सदृश स्वच्छ, अरु रत्नमयी हो जाती है।
जहं जहं प्रभु विहरण करते हैं, वह भूमि रम्य मन भाती है।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२५।।
ॐ ह्रीं आदर्शतलप्रतिमारत्नमयीमही-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
सुर मेघ कुमर सुरभित शीतल, जल कण की वर्षा करते हैं।
इंद्राज्ञा से सब देववृंद, प्रभु का अतिशय विस्तरते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२६।।
ॐ ह्रीं मेघकुमारकृतगंधोदकवृष्टि-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
शाली जौ आदिक धान्य भरित, खेती फल से झुक जाती है।
सब तरफ खेत हों हरे-भरे, यह महिमा सुखद सुहाती है।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२७।।
ॐ ह्रीं फलभारनम्रशालि-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्-चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
सब जन मन परमानन्द भरें, जहं जहं प्रभु विचरण करते हैं।
मुनिजन भी आत्म सुधा पीकर, क्रम से शिवरमणी वरते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२८।।
ॐ ह्रीं सर्वजनपरमानन्दत्व-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
वायुकुमार जिन भक्तीरत, सुख शीतल पवन चलाते हैं।
जिन विहरण में अनुकूल पवन, उससे जन व्याधि नशाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२९।।
ॐ ह्रीं अनुकूलविहरणवायुत्व-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
सब कुये सरोवर बावड़ियाँ, निर्मल जल से भर जाते हैं।
इस चमत्कार को देख भव्य, निज पुण्य कोष भर लाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।३०।।
ॐ ह्रीं निर्मलजलपूर्णकूपसरोवरादि-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
आकाश धूम्र उल्कादि रहित, अतिस्वच्छ शरदऋतु सम होता।
जिनवर भक्ती वन्दन करते, भविजन मन भी निर्मल होता।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।३१।।
ॐ ह्रीं शरत्कालवन्निर्मलाकाश-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
सब जन ही रोग शोक संकट, बाधाओं से छुट जाते हैं।
जहं जहं प्रभु विहरण करते हैं, सर्वोपद्रव टल जाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।३२।।
ॐ ह्रीं सर्वजनरोगशोकबाधारहितत्व-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
यक्षेन्द्र चार दिश मस्तक पर, शुचि धर्मचक्र धारण करते।
उनमें हजार आरे अपनी, किरणों से अतिशय चमचमते।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।३३।।
ॐ ह्रीं यक्षेन्द्रमस्तकोपरिस्थितधर्मचक्रचतुष्टय-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
दिश विदिशा में छप्पन सुवर्ण, पंकज खिलते सुरभी करते।
इक पाद पीठ मंगल सुद्रव्य, पूजन सुद्रव्य सुरगण धरते।।
प्रभु के विहार में चरण तले, सुर स्वर्ण कमल रखते जाते।
इन तेरह सुरकृत अतिशय को, हम पूजत ही सम सुख पाते।।३४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरदेवचरणकमलतलस्वर्णकमलरचना-देवोपनीतातिशय-गुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर प्रातिहार्य सु आठ में, तरुवर अशोक विराजता।
मरकत मणी के पत्र पुष्पों, से खिला अतिभासता।।
वृषभेश की ऊँचाई से, बारह गुणे तुंग फरहरे।
इस युत प्रभु की अर्चना, कर शोक सब मन का हरें।।३५।।
ॐ ह्रीं अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
प्रभु शीश पर त्रय छत्र शोभें, मोतियों की हैं लरें।
प्रभु तीन जग के ईश हैं, यह सूचना करती फिरें।।
क्या चन्द्रमा नक्षत्रगण, को साथ ले भक्ती करें।
इस कल्पनायुत छत्रत्रययुत, की सदा अर्चा करें।।३६।।
ॐ ह्रीं छत्रत्रयमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
निर्मल फटिक मणि से बना, बहुरत्न से चित्रित हुआ।
जिननाथ सिंहासन दिपे, निज तेज से नभ को छुआ।।
इस पीठ पर तीर्थेश, चतुरंगुल अधर ही राजते।
इस प्रातिहार्य समेत जिन को, जन पूजते निज भासते।।३७।।
ॐ ह्रीं सिंहासनमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
गणधर मुनीगण देव देवी, चक्रि नर पशु आदि सब।
निज निजी कोठे बैठ अंजलि, जोड़ते सुप्रसन्न मुख।।
इन बारहों गण से घिरे, वृषभेश त्रिभुवन सूर्य हैं।
इस प्रातिहार्य समेत जिन को, जजत जन जग सूर्य हैं।।३८।।
ॐ ह्रीं द्वादशगणपरिवेष्टितमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभन-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
सब आइये जिन शरण में, मानों कहे यह दुंदुभी।
सब देवगण मिलकर बजाते, बहुत बाजे दुंदुभी।।
इस प्रातिहार्य समेत जिन को, वाद्य ध्वनि से पूजते।
सुरगण बजावें वाद्य उनके, सामने बहु भक्ति से।।३९।।
ॐ ह्रीं देवदुंदुभिमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
सुरगण गगन से कल्पतरु के, पुष्प बहु वर्षा करें।
यह वर्ण वर्ण सुगंध खिलते, पुष्प जन मन भा रहें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिन को, सुमन अर्घ्य लिये जजूँ।
अतिशय सुयश सुख प्राप्तकर, सब अशुभ अपयश से बचूँ।।४०।।
ॐ ह्रीं सुरपुष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
यह कोटि भास्कर तेज हरता, ‘प्रभामण्डल’ नाथ का।
जन दर्श से निज सात भव को, देखते उसमें सदा।।
इस प्रातिहार्य समेत जिन को पूजहूँ अतिचाव से।
निज आत्मतेज अपूर्व पाकर, छूटहूँ भव दाव से।।४१।।
ॐ ह्रीं भामण्डलमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
सुर यक्षगण चौसठ चंवर, जिनराज पर ढोरें सदा।
ये चन्द्रसम उज्ज्वल चंवर, हरते सभी मन की व्यथा।।
इस प्रातिहार्य समेत जिन को, पूजहूँ श्रद्धा धरे।
जो जजें चामर ढोरकर, वे उच्च पद के सुख भरें।।४२।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिचामरमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
तीनलोक तीनकाल की समस्त वस्तु को।
एक साथ जानता अनंत ज्ञान विश्व को।।
जो अनन्तज्ञान युक्त इन्द्र अर्चते जिन्हें।
पूजहूँ सदा उन्हें अनन्तज्ञान हेतु मैं।।४३।।
ॐ ह्रीं अनंतज्ञानगुणसमन्विताय तथैवफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
लोक औ अलोक के समस्त ही पदार्थ को।
एक साथ देखता अनन्त दर्श सर्व को।।
जो अनन्त दर्श युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा उन्हें अनन्त दर्श हेतु मैं।।४४।।
ॐ ह्रीं अनंतदर्शनगुणसमन्विताय तथैवफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
बाधहीन जो अनन्त सौख्य भोगते सदा।
हो भले अनन्तकाल आवते न ह्यां कदा।।
जो अनन्त सौख्य युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा तिन्हें अनन्त सौख्य हेतु मैं।।४५।।
ॐ ह्रीं अनंतसौख्यगुणसमन्विताय तथैवफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जो अनन्त वीर्यवान अंतराय को हने।
तिष्ठते अनन्तकाल श्रम नहीं कभी उन्हें।।
जो अनन्त शक्ति युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
पूजहूँ सदा तिन्हें अनन्तवीर्य हेतु मैं।।४६।।
ॐ ह्रीं अनंतवीर्यगुणसमन्विताय तथैवफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
दश अतिशय जन्म समय से ग्यारह, केवलज्ञान उदय से हों।
देवों कृत तेरह अतिशय हों, चौंतिस अतिशय सब मिल के हों।।
वर प्रातिहार्य हैं आठ कहें, आनंत्य चतुष्टय चार कहें।
ये छ्यालिस गुण वृषभेश्वर के, हम पूजें वांछित सर्व लहें।।१।।
ॐ ह्रीं षट्चत्वािंरशत्गुणसमन्विताय सर्वातिशायिफलप्रदाय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
दोष अनंतानंत, त्रिभुवन जन में व्याप्त हैं।
आप किया उन अंत, कुसुमांजलि से पूजहूँ।।१।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
भुजंगप्रयात छंद
क्षुधा व्याधि पीड़ा करे सर्व जन को।
ये आहार संज्ञा हरें घातिहर जो।।
प्रभो केवली के असाता उदय भी।
फलें सौख्य में मैं जजूँ नित उन्हें ही।।१।।
ॐ ह्रीं क्षुधामहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
तृषा वेदना से पिपासित सभी हैं।
प्रभो आपने स्वात्म अमृत पिया है।।
इसे नाशने हेतु प्रभु को जजूँ मैं।
सदा साम्य पीयूष रुचि से चखूँ मैं।।२।।
ॐ ह्रीं तृषामहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
महा दोष भीती सभी को सतावे।
प्रभू ने सभी भय डराकर भगाये।।
जजूँ सात भय नाश हेतू तुम्हीं को।
भजूँ सात उत्तम पर स्थान ही को।।३।।
ॐ ह्रीं भयमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
महाक्रोध अग्नी दहे सर्व जग को।
प्रभू ने महाशांति से नाशा उसको।।
इसी क्रोध आश्रित सभी दोष आते।
जजूँ आपको क्रोध को मूल नाशें।।४।।
ॐ ह्रीं क्रोधमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
चिता से अधिक दु:ख चिन्ता करे है।
तनू स्वास्थ्य को हर महा दुख भरे है।।
इसे मूल से आपने नष्ट कीना।
जजूँ मैं न चिन्ता कभी हो हृदय मा।।५।।
ॐ ह्रीं चितामहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जरा जर्जरी देह करके सुखावे।
इसे नाशकर मूल से सौख्य पावें।।
प्रभो केवली आपको ही जजूँ मैं।
इसे नाश के स्वात्म सुख को भजूँ मैं।।६।।
ॐ ह्रीं जरामहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
सदा राग संसार में ही भ्रमावे।
प्रभो आपमें राग मुक्ती दिलावे।।
तथापी तुम्हीं ने सभी राग नाशे।
जजूँ भक्ति से तो अशुभ राग भागे।।७।।
ॐ ह्रीं रागमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
महा मोह सम्राट् से सब दु:खी हैं।
इसे मूल से प्रभु उखाड़ा सुखी हैं।।
इसी मोह को नाश हेतू जजूँ मैंं।
महा ध्वांत हर ज्ञान ज्योती भजूँ मैं।।८।।
ॐ ह्रीं मोहमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
करोड़ों भरे रोग इस देह में हैं।
प्रभू रोग को नाश करके सुखी हैं।।
विविध भांति के रोग नित कष्ट देते।
तुम्हें पूजते ये मुझे छोड़ देते।।९।।
ॐ ह्रीं रोगमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
महामल्ल मृत्यू ने त्रैलोक्य जीता।
इसे जीत तुम मुक्ति लक्ष्मी गृहीता।।
जजें आपको सर्व दुख के जयी हों।
वही लोक में शीघ्र मृत्युंजयी हो।।१०।।
ॐ ह्रीं मृत्युमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
पसीना न तन में प्रभू आपके हो।
प्रभो केवली आपके ये नहीं हो।।
इसे मूल से जो हरें वीतरागी।
उन्हीं को जजूँ मैं बनूँ सौख्यभागी।।११।।
ॐ ह्रीं स्वेदमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
प्रभो! एक क्षण में त्रयी लोक लोका।
नहीं खेद श्रम रंच भी आपको था।।
विषादो महादोष जीता तुम्हीं ने।
नशे दोष मेरा जजूँ अर्घ से मैं।।१२।।
ॐ ह्रीं विषादमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
महामद कहें आठविध या असंख्ये।
उन्हीं से लहें नीचगति जीव सब ये।।
हरें मान उनको सभी इन्द्र वंदे।
जजूँ आपको सर्व मद को विखंडे।।१३।।
ॐ ह्रीं मदमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
रती दोष से प्रीति हो इष्ट पर में।
इसे नाश निज में धरी प्रीति प्रभु ने।।
प्रभू केवली प्रीति नाहीं किसी में।
तथापी जगत् हित करो नित जजूँ मैं।।१४।।
ॐ ह्रीं रतिमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा;।
कुतूहलमयी विश्व को देख करके।
करें जो भि विस्मय हरें पूर्ण सुख वे।।
सभी कर्मकृत फेर आश्चर्य कैसे।।
जजूँ भक्ति से सौख्य हो आप जैसा।।१५।।
ॐ ह्रीं विस्मयमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जो निद्रा के वश वो स्वयं को न देखें।
निजातम दरश पूर्ण को रोक ले ये।।
इसे नष्टकर सर्व जग को विलोका।
जजूँ मैं दरश प्राप्त होवे प्रभू का।।१६।।
ॐ ह्रीं निद्रामहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
अनंतों दफे जन्म धर-धर दु:खी मैं।
न हो जन्म फिर से करूँ यत्न वो मैं।।
तुम्हीं ने पुनर्जन्म नाशा जगत में।
अत: पूजहूँ तुम चरण नाथ अब मैं।।१७।।
ॐ ह्रीं जन्ममहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
अरति दोष से आकुलित चित्त होवे।
इसे नाशकर आपने कर्म धोए।।
यही दोष मुझको सदा दु:ख देता।
जजूँ आपको ये भगे शीघ्र भीता।।१८।।
ॐ ह्रीं अरतिमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
इन दोष अठारह ने जग में, सबको दु:ख देकर वश्य किया।
इनसे बच सका नहीं कोई, इन त्रिभुवन में अधिपत्य किया।।
जो इनको जीते वे ‘जिनेन्द्र’, सौ इन्द्रों से वंदित जग में।
मैं पूजूँ उनको अर्घ्य चढ़ा, हर दोष भरें गुण वे मुझमें।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टादशमहादोषरहिताय तथैवदोषनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जलादी लिये स्वर्ण पुष्पों सहित मैं।
करूँ अर्घ अर्पण सरस्वति चरण में।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।१।।
ॐ ह्रीं ऋषभदेवतीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतसर्वभाषामयदिव्यध्वनि-स्वरूपासरस्वतीमात्रे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
केवलज्ञान महालक्ष्मी का अर्घ्य
जल चंदन अक्षत माला चरु, दीप धूप फल लाऊँ।
जिनगुण लक्ष्मी की पूजा कर, रत्नत्रय निधि पाऊँ।।
केवलज्ञान महालक्ष्मी को, नित पूजूँ हरषाऊँ।
सुख संपति सौभाग्य प्राप्त कर, शिवलक्ष्मी को पाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं ऋषभदेवसमवसरणस्थितकेवलज्ञानमहालक्ष्म्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
गोमुख यक्ष का अर्घ्य
दोहा-समवसरण में भक्तियुत, तीर्थंकर के पास।
यक्ष यक्षिणी नित रहे, उन्हें बुलाऊँ आज।।
श्री आदिनाथ के निकट जो भक्ति से रहें।
‘गोवदन’ यक्ष नाम जिनका सूरिवर कहें।।
जिननाथ के शासन के देव आइये यहाँ।
निज यज्ञ भाग लीजिये सुख कीजिये यहाँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवस्य शासनदेव गोमुखयक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् पुष्पांजलि:।
इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
वृषभदेव के समवसरण में, ‘चक्रेश्वरी’ सुयक्षी।
सम्यग्दर्शन गुण से मंडित, खंडे सर्व विपक्षी।।
महायज्ञ पूजा विधान में, आवो आवो माता।
यज्ञभाग मैं अर्पण करता, करो सर्व सुख साता।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य शासनदेवि चक्रेश्वरी यक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ, अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठ: ठ: स्थापनं अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् पुष्पांजलि:।
इदं जलादि अर्घ्यं गृहाण गृहाण स्वाहा:।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:
अड़तालिसविध संकट निवारक ४८ अर्घ्य
वर्तमान के बहुत विध, कष्ट स्वयं हो दूर।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सौख्य भरपूर।।१।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्
जब मेघ अतीवृष्टि से भूजलमयी करें।
नदियों की बाढ़ में बहें जन डूबकर मरें।।
जो भक्त आप पूजतें वे पुण्य योग से।
अतिवृष्टि अपने देश से वे दूर कर सकें।।१।।
ॐ ह्रीं अतिवृष्टि-उपद्रवनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:
निंह मेघ बरसते सभी जल के लिये तरसें।
पशु पक्षी मनुज प्यास से निज प्राण को तजें।।
ऐसे समय में आप की पूजा ही मेघ सम।
अमृतमयी जलवृष्टि से तर्पित करें जन मन।।२।।
ॐ ह्रीं अनावृष्टि-उपद्रवनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
दुर्भिक्ष हो अकाल हो असमय में जन मरें।
भगवन्! तुम्हारी भक्ति से जन पाप परिहरें।।
होवे सुभिक्ष सब तरफ जब पुण्य घट भरें।
तब मेघ भी समय समय वर्षा सुखद करें।।३।।
ॐ ह्रीं दुर्भिक्षोपद्रवनाशनकराय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
धन से भरी तिजोरियाँ ताले लगा दिये।
डाकू लुटेरे चोर आये लूट ले गये।।
बहु श्रम से कमाया गया धन हानि जो होती।
प्रभु भक्ति से हानी न हो धन रक्षणा होती।।४।।
ॐ ह्रीं चोरलुंटकादि-उपद्रवनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जो राज्यकर के हेतु ही अधिकारी राज्य के।
छापा या टैक्स आदि से धन लूट ले जाते।।
इस विध से राज्य भय से घिरें निर्धनी बनें।
प्रभु के चरणकमल भजें फिर से धनी बनें।।५।।
ॐ ह्रीं आयकरादिराज्यभयोपद्रवनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
नाना प्रकार श्रम करें फिर भी न धन बढ़े।
दारिद्र से उन सामने संकट बड़े बड़े।।
परिवार के पोषण में भी असमर्थ हो रहें।
वृषभेश की पूजा करें धन सम्पदा लहें।।६।।
ॐ ह्रीं दारिद्रदु:खविनाशकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
तनु में ज्वरादि रोग् हो पीड़ाएँ हों घनी।
बहु औषधि लेते भी व्याधियाँ हो चौगुनी।।
भगवान ऋषभदेव की जो अर्चना करें।
ज्वर शूल आदि रोग को वे क्षण में परिहरें।।७।।
ॐ ह्रीं ज्वरशूलरोगादिनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जब पीलिया कुष्ठादि जलोदर भगंदरा।
नाना प्रकार रोग शोक हों भयंकरा।।
तुम नाम के जपे समस्त रोग नष्ट हों।
हे नाथ! आप भक्ति से जन पूर्ण स्वस्थ हों।।८।।
ॐ ह्रीं कामलाकुष्ठजलोदरभगंदरादिव्याधिनाशकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
बहुविध के नेत्र रोग हों अंधा करें यदि।
औषधि व शल्य चिकित्सा से हो न लाभ भी।
ऐसे समय में जो मनुष्य प्रभु शरण गहें।
हो नेत्र ज्योति स्वच्छ मन प्रसन्नता लहें।।९।।
ॐ ह्रीं नानाविधनेत्ररोगविनाशकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जो प्राण को भी घातती कैसर महाव्याधी।
अति कष्टदायि वेदना से हो न समाधी।।
तब भक्त आप मंत्र को जपते जो भाव से।
सब वेदना व व्याधि भी भगती हैं देह से।।१०।।
ॐ ह्रीं प्राणघातिवैंâसरमहाव्याधिविनाशकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
हृद् रोग से पीड़ित मनुज न पावते साता।
बहुधन करें खर्चा परन्तु बढ़ती असाता।।
जिनराज पादकमल की लेते यदी शरण।
हों पूर्ण स्वस्थ नहीं हो अकाल में मरण।।११।।
ॐ ह्रीं हृदयरोगपीड़ानिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
मुनियों की जो निन्दा करें घृणा करें कभी।
वे हों कुरूप नद्यरूप पावते तभी।।
मन में सदा दु:खी रहें यदि आप को यजें।
होवें सुरूप कामदेव सर्वसुख भजें।।१२।।
ॐ ह्रीं कुरूपादिकष्टनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
स्त्री पुत्रादि स्वजन परिजन, जो अपने को अतिप्रिय होवें।
वे दूर बसें या मर जावें, तब इष्ट वियोग दु:खद होवे।।
उस समय चित्त संतप्त किये रोते विलाप करते प्राणी।
होते प्रसन्न क्षण भर में ही यदि मिल जावे प्रभु की वाणी।।१३।।
ॐ ह्रीं प्राणघातक-इष्टवियोगजदु:खनाशकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
शत्रु हों या प्रतिकूल स्वजन भार्या आदिक शत्रू सम हों।
इनका वियोग कैसे होवे ऐसी चिन्ता प्रतिक्षण मन हो।।
ऐसे अनिष्ट संयोगों से संतप्त हृदय प्रतिदिन रोवे।
जिनवर की पूजा करने से निश्चिन्त प्रसन्नमना होवें।।१४।।
ॐ ह्रीं अनिष्टसंयोगमहादु:खशातनाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
घर में या व्यापारों में भी मन के प्रतिकूल क्रियायें हों।
मानस पीड़ा होवे प्रतिदिन आकुलता हो व्याकुलता हो।।
प्रतिक्षण मनपीड़ा से तनु में, नानाविध रोग प्रगटता हो।
प्रभु की पूजा से आधि नशे, मन में अतिशय प्रफुल्लता हो।।१५।।
ॐ ह्रीं सर्वमानसिकतापविनाशकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
वचनों से प्रिय भी वचन कहें फिर भी जन-जन अति क्रोध करें।
या जिह्वा में हो रोग विविध या गूँगे हों बहु दु:ख भरें।।
इस विध वाचनिक कष्ट जो भी नश जाते प्रभुवर भक्ती से।
वचसिद्धि मिले सब जन वश हों, पूजा का फल मिलता विधि से।।१६।।
ॐ ह्रीं सर्ववाचनिककष्टनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
यह पुद्गल के परमाणु से निर्मित है काया अस्थिर है।
फिर भी इसमें कुछ पीड़ा हो आत्मा भी होता अस्थिर है।।
नानाविध कायिक कष्टों से छुटकारा पाते भाक्तिक जन।
हे नाथ! आपकी पूजा से सब मिट जाते जग के क्रन्दन।।१७।।
ॐ ह्रीं नानाविधकायिककष्टशातनाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जो वायुयान से गगन गमन करते ऊपर में उड़ जाते।
यदि अकस्मात् दुर्घटना हो ऊपर से नीचे गिर जाते।।
प्रभु नाम जपें तत्क्षण ही तब तनु में किंचित् नहीं चोट लगे।
मरणान्तक पीड़ा से बचते, दीर्घायु हों दु:ख दूर भगें।।१८।।
ॐ ह्रीं सर्ववायुयानदुर्घटनाकष्टनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जो रेल में बैठे अतिशीघ्र बहुतेक कोश यात्रा करते।
यदि एक्सीडेंट आदि होवे तो आकस्मिक मृत्यु लभते।।
जिनराज भक्ति का ही प्रभाव ऐसी बहुविध दुर्घटनाओं में।
परिपूर्ण सुरक्षित बच जाते, या एक्सीडेंट टलें क्षण में।।१९।।
ॐ ह्रीं सर्वलोहपथगामिनीदुर्घटनादिभयनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
बस कार आदि यात्रा साधन सुख देते आज सभी को भी।
संघट्टन आदि बहुत विध की दुर्घटनाएँ होती हैं फिर भी।।
यदि नाम मंत्र जपते उस क्षण दुर्घटना से बच जाते हैं।
यदि मरें कदाचित् फिर भी वे शुभ स्वर्ग सौख्य पा जाते हैं।।२०।।
ॐ ह्रीं सर्वचतुष्चक्रिकादुर्घटनादिसंकटमोचनाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जो चलें तिपहिए, वाहनादि, उनके संघट्टन आदि विविध।
गिरने पड़ने से एक्सीडेंट, आदिक दुर्घटनाओं से नित।।
नाना आतंक दिखें जग में, प्रभु भक्ती से टल जाते हैं।
सब विध अकालमृत्यु टलती, भाक्तिक दु:ख से बच जाते हैं।।।२१।।
ॐ ह्रीं सर्वत्रिचक्रिकादुर्घटनादिकष्टनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
दो पहिये के साइकिल आदिक, वाहन से चलते अकस्मात्।
बस ट्रक आदिक के टक्कर से, गिर जाते बहुविध कष्ट प्राप्त।।
प्रभु नाम मंत्र के जपते ही,किचित् निंह चोट लगे तन में।
अपमृत्यु आदि भय टल जाते, मानव दीर्घायु हों जग में।।२२।।
ॐ ह्रीं सर्वद्विचक्रिकादुर्घटनातंकनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
भूमि पर कंप कभी होता, बहुतेक मनुज मर जाते हैं।
घार ग्राम आदि भी नश जाते, बहुते पशु भी मर जाते हैं।।
प्राकृतिक कोप भूकम्प आदि दुर्घटनाएँ भी टल जाती हैं।
जो भक्त आपको जजते हैं, उनकी रक्षा हो जाती है।।२३।।
ॐ ह्रीं भूकम्पदुर्घटनादिनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
नदियों में बाढ़ यदि आवे, कितने ही ग्राम डूब जाते।
कितने नर नारी पशु पक्षी, जल में डूबे तब मर जाते।।
इन आकस्मिक जल संकट से, भाक्तिक जन ही बच सकते हैं।
जिनदेवदेव का ही प्रभाव, ये संकट भी टल सकते हैं।।२४।।
ॐ ह्रीं नदीपूरप्रवाहसंकटमोचनाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जो नदी, समुद्र, नहर आदिक, में अकस्मात् गिर जाते हैं।
तुम नाम मंत्र जपते तत्क्षण, वे सहसा ही तिर जाते हैं।।
जिनदेव भक्ति की महिमा ही, भवसागर भी तिर सकते हैं।
प्रभु आदीश्वर की भक्ति से, हम भी सब संकट हरते हैं।।२५।।
ॐ ह्रीं नदीसमुद्रादिपतनकष्टनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
बिच्छू आदिक विषधर जंतु, सर्पादिक काले नाग यदी।
हालाहल विष उगले डस लें, निंह बचा सकें कोई वैद्य यदी।।
ऐसे भय यदी भयंकर भी, जीवन नाशक आ जाते हैं।
आदीश्वर जिनकी भक्ती से, निर्विष हो जीवन पाते हैं।।२६।।
ॐ ह्रीं वृश्चिकसर्पादिविषधरविषनिर्णाशनाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
अष्टापद व्याघ्र सिंह आदिक, हिंसक पशुओं ने घेरा हो।
जीवन बचने की आश न हो, संकट का घोर अंधेरा हो।।
भय से भयभीत हुए प्राणी, यदि नाममंत्र प्रभु का जप लें।
तत्क्षण ही क्रूर जन्तुगण भी, शांती भावों से मिलें जुलें।।२७।।
ॐ ह्रीं अष्टापदव्याघ्रसिंहादिक्रूरहिंसकजंतुभयनिवारकाय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
हाथी, घोड़े, गौ, बैल आदि पशुगण यदि हमला करते हैं।
सींगों वाले भयभीत करें, दौड़ें मारें वध करते हैं।।
ऐसे प्राणीगण से भी नर, निंह बाधा किंचित् पाते हैं।
जो मन में चिंते नाममंत्र, वे निर्भय हो बच जाते हैं।।२८।।
ॐ ह्रीं गजाश्वगोवृषभादिप्राणिगणभयविनाशकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जो विषाक्त गैस फैलती शरीर नाशती।
मानवों पशुगणों के प्राण को संहारती।।
श्री जिनेन्द्रदेव के पदाब्ज की समर्चना।
सर्वगैस आदि कष्ट दूर होयं रंच मा।।२९।।
ॐ ह्रीं विषाक्तवाष्पक्षरणादिसंकटवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
आज जो रसोईघर में गैसपात्र जल रहे।
जो कभी फटें व अग्नि से अनेक को दहें।।
प्राण कष्टदायि चुल्लिकादि दु:ख वारते।
जो जिनेन्द्र को जजें समस्त पाप टारते।।३०।।
ॐ ह्रीं वाष्पचुल्लिकादिदुर्घटनाकष्टनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
आज बम फटें कहीं अनेक प्राणी मारते।
उग्रवादि लोग भी अनेक को संहारते।।
ग्राम सद्म भी बड़े बड़े हि बम गिरे नशें।
आप पाद पूजते समस्त आपदा नशें।।३१।।
ॐ ह्रीं बमविस्फोटकादि-आकस्मिकसंकटनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
उग्रवादि लोग आज मानवों को मारते।
बेकसूर प्राणियों के प्राण को संहारते।।
मानसीक वेदना धरें अनेक नित्य ही।
नाम मंत्र आप का हरे अनेक भीति ही।।३२।।
ॐ ह्रीं आतंकवादिजनकृत-आकस्मिकमरणादिभय-विनाशकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जो कुपुत्र या कुपुत्रियाँ सदैव दुख दें।
मात पिता उनसे दुखी जन्म भार मानते।।
आप भक्ति से वही सपूत बन के सौख्य दें।
मात पिता धन्य हों जिनेन्द्र भक्ति पुण्य से।।३३।।
ॐ ह्रीं कुसंतानकष्टनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
मानसीक कष्ट देह व्याधि आदि दु:ख से।
कूप में गिरें विषादि खाय के मरा चहें।।
तुच्छयोनि हेतु आत्मघात है सुबुद्धि हो।
आप नाम के जपे हि पूर्ण आयु लाभ हो।।३४।।
ॐ ह्रीं कूपनदीपतनविषादिभक्षणनिमित्तापघातभावनिवारणाय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
मृत्यु हो अकाल में न पूर्ण आयु पा सकें।
कर्म की उदीरणा से बहुविधे निमित्त बनें।।
नाथ पाद को जजें अपूर्व पुण्य को भरें।
दीर्घ आयु हो यहाँ समस्त कष्ट को हरें।।३५।।
ॐ ह्रीं नानाविधदुर्घटनादि-अकालमृत्युनिवारणाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
भूत औ पिशाच व्यंतरादि कष्ट दें घने।
डाकिनी व शाकिनी ग्रहादि भी निमित बनें।।
दु:ख हो पिशाचग्रस्त आप वश्य ना रहें।
नाथ पाद पूजते समस्त कष्ट को दहें।।३६।।
ॐ ह्रीं भूतपिशाचव्यंतरादिबाधानिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किन्चित् श्रम से धन ही धन हो, सब व्यापार सफल होते।
पुण्य उदय से हों उद्योगपती, सब जन के प्रिय होते।।
जिनपूजा का ही माहात्म्य, जो धन से घर भण्डार भरें।
भाक्तिक जन प्रभु पूजा कर, शीघ्र स्वात्मनिधि प्राप्त करें।।३७।।
ॐ ह्रीं बहुविधव्यापारसफलताकारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
गृहलक्ष्मी अनुकूल रहे, पतिव्रत से घर को मोहे।
पति की अनुगामी बन करके, दान धर्म से नित सोहे।।
ऐसी पत्नी मिलती जिसको, वे पुण्यात्मा कहलाते।
ऋषभदेव की पूजा का फल, इस भव परभव में पाते।।३८।।
ॐ ह्रीं उभयकुलकमलविकासिनी धर्मपत्नीप्रापकपुण्यप्रदायकाय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
पुत्र पौत्र संतति मिलती नित, कुलदीपक संतान मिले।
मात पिता की कीर्ति बढ़ाकर, धर्मनिष्ठ हों स्वस्थ भले।।
भरत, बाहुबलि, राम सदृश सुत, ब्राह्मी सीत्ाा सम कन्या।
ऋषभदेव तीर्थंकर को नित, पूजत पाते जगवंद्या।।३९।।
ॐ ह्रीं पुत्रपौत्रादिकुलदीपकसंततिप्रापकपुण्यदायकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
दीर्घ आयु पाते वे भविजन, जो प्रभु चरण कमल जजते।
अशुभ भाव से दूर रहें नित, जिनवर के गुण में रमते।।
मनुज देव योनी को पाते, सम्यग्दर्शन महिमा से।
अत: जजूँ मैं भक्तिभाव से, उत्तम आयु मिले जिससे।।४०।।
ॐ ह्रीं दीर्घायु:प्रापकपुण्यप्रदायकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
चारों ओर फैलती कीर्ती, सद्गुण से निज को भरते।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित से, आत्मा को शोभित करते।।
कई जन्म के पुण्य योग से, ऐसा योग सुलभ होवे।
ऋषभदेव की पूजा करते, यश सौरभ प्रसरित होवे।।४१।।
ॐ ह्रीं चतुर्दिव्âकीर्तिसौरभव्यापकपुण्यप्रापकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
राज्यमान्यता प्राप्त करें सब, जन जन के अति प्रिय होते।
सब जन उनके गुण गाते ऐसी महिमा से खुश होते।।
जिनवर भक्ती का प्रभाव यह, सब जन संतर्पित करते।
और अधिक क्या जिनभक्ती से तीर्थंकर भी बन सकते।।४२।।
ॐ ह्रीं राज्यमान्यतादिप्रशंसनगुणप्रापकपुण्यदायकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
जन जन भी आज्ञा पालें, ऐसी गरिमा को पाते हैं।
इस भव में इन्द्रादि सदृश, अतिशायी वैभव पाते हैं।।
ये सब ऋषभदेव पूजन का, उत्तम फल जग में माना।
भक्त बने भगवान स्वयं, ऐसा आश्चर्य जगत् जाना।।४३।।
ॐ ह्रीं आज्ञापालनविभवप्रदायकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
अंत समय में रोग वेदना, आर्तरौद्र दुर्ध्यान न हों।
क्रोध मान माया लोभादिक, राग द्वेष दुर्भाव न हों।।
देव शास्त्र गुरु पंचपरम गुरु, इनका ही बस ध्यान प्रभो।
महामंत्र का मनन श्रवण हो, अंत समाधी मरण प्रभो।।४४।।
ॐ ह्रीं अन्त्यसमाधीमरणफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण ये, रत्नत्रय शिवदाता हैं।
निश्चय औ व्यवहार मार्ग ये, परमानन्द विधाता हैं।।
ऋषभदेव तीर्थंकर प्रभु की, भक्ति करें जो भव्य सदा।
वे ही तीन रत्न पा लेते, त्रिभुवन लक्ष्मी लें सुखदा।।४५।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनिश्चयरत्नत्रयप्रदायकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
उत्तम क्षमा सुमार्दव आर्जव, शौच सत्य संयम तप भी।
त्याग अकिंचन ब्रह्मचर्य ये, दशवर धर्मधरें यति ही।।
इन धर्मों को पाते वे ही, जो जिनपूजा नित करते।
ऋषभदेव के चरणकमल की, भक्ति से शिवपद लभते।।४६।।
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशधर्मप्रदायकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
दर्शविशुद्धी विनय आदि, सोलह सुभावना मानी हैं।
तीर्थंकर पद की जननी ये, सर्वश्रेष्ठ जिनवाणी हैं।।
तीर्थंकर पदकमल चर्चते, सदा भावना भाते हैं।
तीर्थंकर प्रकृती को बांधे, त्रिभुवनपति बन जाते हैं।।४७।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिसोलहकारणभावनाफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
बहिरात्मा अन्तरआत्मा परमात्मा जीव त्रिविध मानें।
स्वपर भेदविज्ञानी मुनिवर, शुद्धात्मा को पहचानें।।
सतत ध्यान कर शुद्ध बनें वे, जो जिनचरणकमल षट्पद।
निजशुद्धात्मतत्त्वप्राप्ती हितु, मैं भी नित्य जजूँ जिनपद।।४८।।
ॐ ह्रीं अन्तरात्मस्वरूपनिजशुद्धात्मध्यानकारिपदप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
पूर्णार्घ्य-शंभु छंद
अतिवृष्टि अनावृष्ट्यादि कष्ट, जो मानव को दु:ख देते हैं।
श्रीऋषभदेव की पूजा से, भविजन सब दु:ख को मेटे हैं।।
नीरोग बनें दीर्घायु हों, सब सुख सम्पति भर लेते हैं।
यह जिनपूजन का ही प्रभाव, बहुयश सौरभ को देते हैं।१।।
ॐ ह्रीं अतिवृष्टि-अनावृष्ट्यादि-विविधसंकटनिवारकाय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—१. ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवाय सर्वसिद्धिकराय सर्वसौख्यं कुरु कुरु ह्रीं नम:।
२. ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवाय नम:। (दोनों में से कोई एक मंत्र जपें)
(सुगंधित पुष्पों से या लवंग से १०८ या ९ बार जाप्य करें।)
-शंभु छन्द-
हे नाथ! आपके गुणमणि की, जयमाल गूंथ कर लाये हैं।
भक्ती से प्रभु के चरणों में, गुणमाल चढ़ाने आये हैं।।
है धन्य अयोध्यापुरी जहाँ, श्री आदिनाथ ने जन्म लिया।
जिन अजितनाथ अभिनंदन सुमती, प्रभु अनंत ने धन्य किया।।
कैलाशगिरी से वृषभदेव जिन, मोक्षधाम को पाये हैं।।हे०।।१।।
सम्राट् भरतचक्री ने दीक्षा ले, शिवपद को प्राप्त किया।
इक्ष्वाकुवंशि नृप चौदह लाख हि, लगातार शिवधाम लिया।।
ये पुरी विनीता के जन्में, परमात्मधाम को पाये हैं।।हे०।।२।।
बाहुबलि कामदेव ने जीत, भरत को फिर दीक्षा धरके।
प्रभु एक वर्ष थे ध्यान लीन, तन बेल चढ़ी अहि भी लिपटे।।
फिर केवलज्ञानी बनें नाथ, हम गुण गाके हर्षाये हैं।।हे०।।३।।
श्री अजितनाथ आदिक चारों, तीर्थंकर सम्मेदाचल से।
शिवधाम गये इन्द्रादिवंद्य, हम नित वंदें, मन वच तन से।।
धनि धन्य अयोध्या जन्मस्थल, शिवथल वंदत हर्षाये हैं।।हे०।।४।।
चक्रीश सगर आदिक यहाँ के, कर्मारि नाश शिव लिया अहो।
श्री रामचन्द्र ने इसी अयोध्या, को पावन कर दिया अहो।।
मांगीतुंगी से मोक्ष गये, इन वंदत पुण्य बढ़ाये हैं।।हे०।।५।।
युग की आदी में आदिनाथ, पुत्री ब्राह्मी सुंदरी हुई।
पितु से ब्राह्मी औ अंकलिपी, पाकर विद्या में धुरी हुई।।
पितु से दीक्षा ले गणिनी थीं, इनके गुण सुर नर गाये हैं।।हे०।।६।।
इनके पथ पर अगणित नारी, ने चलकर स्त्रीलिंग छेदा।
आर्यिका सुलाेचना ने ग्यारह, अंगों को पढ़ जग संबोधा।।
दशरथ माँ पृथिवीमती आर्यिका, को हम शीश नमाये हैं।।हे०।।७।।
सीता ने अग्निपरीक्षा में, सरवर जल कमल खिलाया था।
पृथ्वीमति गणिनी से दीक्षित, आर्यिका बनी यश पाया था।।
श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण लवकुश, सब दुःखी हृदय गुण गाये हैं।।हे०।।८।।
सीता ने बासठ वर्षों तक, बहु उग्र उग्र तप तप करके।
तैंतिस दिन सल्लेखना ग्रहण, करके सुसमाधि मरण करके।।
अच्युत दिव में होकर प्रतीन्द्र, रावण को बोध कराये हैं।।हे०।।९।।
जय जय रत्नों की खान रत्न-गर्भा रत्नों की प्रसवित्री।
जय जय साकेतापुरी अयोध्या-पुरी विनीता सुखदात्री।।
जय जयतु अनादिनिधन नगरी, हम वंदन कर हर्षाये हैं।।हे०।।१०।।
बस काल दोष से इस युग में, यहाँ पांच तीर्थंकर जन्म लिये।
सब भूत भविष्यत् कालों में, चौबिस जिन जन्मभूमि हैं ये।।
हम इसका शत शत वंदन कर, अतिशायी पुण्य कमाये हैं।।हे०।।११।।
जय जय तीर्थंकर भरत सगर, जय रामचन्द्र लव कुश गुणमणि।
जय जयतु आर्यिका ब्राह्मी माँ, सुंदरी व सीता साध्वीमणि।।
हम केवल ‘ज्ञानमती’ हेतू, तुम चरणों शीश झुकाये हैं।।हे ०।।१२।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जो भव्य ऋषभदेव का विधान यह करें।
सम्पूर्ण अमंगल व रोग शोक दुख हरें।।
अतिशायि पुण्य प्राप्त कर ईप्सित सफल करें।
कैवल्य ‘‘ज्ञानमती’’ से जिनगुण सकल भरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।