-अथ स्थापना (शंभु छंद)-
हे सिद्ध प्रभो! तुम आठ कर्म, विरहित गुण आठ समन्वित हो।
अष्टमि पृथिवी पर तिष्ठ रहे, ज्ञानाम्बुधि सिद्धरमापति हो।।
समतारस आस्वादी मुनिगण, नित सिद्ध गुणों को ध्याते हैं।
हम पूजें तुम आह्वानन कर, जिससे सब कर्म नशाते हैं।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ:
ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह! अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-शंभु छंद-
श्री सिद्धसुयश सम उज्ज्वल जल, लेकर झारी भर लाये हैं।
निज समरस सुख पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचें।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों सम अति शीतल, चंदन घिसकर ले आये हैं।
निज की शीतलता पाने को, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचें।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध सौख्य सम खंडरहित, उज्ज्वल तंदुल ले आये हैं।
निज आत्म सौख्य पाने हेतू, प्रभु पुंज चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्धगुणों सम अति सुगंध, पुष्पों को चुनकर लाये हैं।
निज गुण सुगंध पाने हेतू, प्रभु चरणों पुष्प चढ़ाये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध पुष्टि सम नानाविध, पकवान बनाकर लाये हैं।
निज आत्म तृप्ति पाने हेतू, प्रभु चरण चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।५।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध ज्ञान सम ज्योतिर्मय, कर्पूर जलाकर लाये हैं।
निज ज्ञानज्योति पाने हेतूू, हम आरति करने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: मोहान्धकारविनाशनाय दीपं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों की सुरभि सदृश, वरधूप सुगंधित लाये हैं।
निज आत्म सुरभि पाने हेतू, अग्नी में धूप जलाये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध सुखामृत सदृश मधुर, रस भरे बहुत फल लाये हैं।
निज मोक्ष सुफल हेतू भगवन्! फल आज चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं
निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सिद्ध गुणों के सम अनर्घ्य, यह अर्घ्य सजाकर लाये हैं।
निज तीन रत्न पाने हेतू, प्रभू चरण चढ़ाने आये हैं।।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, त्रैलोक्य शिखर पर जा पहुँचे।
ऐसे सिद्धों की पूजा कर, हम भी श्रीसिद्ध निकट पहुँचें।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्त-श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
श्री सिद्ध चरणाब्ज, मन से जलधारा करूँ।
पूर्ण शांति साम्राज्य, मिले त्रिजग में शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्री सिद्ध चरणाब्ज, पुष्पांजलि मन से करूँ।
मिले सिद्धि साम्राज्य, त्रिभुवन की सुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
दुष्ट कर्म अरि नाश के, निज स्वतंत्र पद प्राप्त।
पुष्पांजलि कर पूजते, होवें निजगुण प्राप्त।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(ज्ञानावरण के नाशक सिद्धपरमेष्ठी के 5 अर्घ्य)
-शंभु छंद-
मतिज्ञान भेद हैं तीन शतक, छत्तीस व संख्यातीते भी।
सबका आवरण विनाश किया, पाया निज का पद तुमने ही।।
निज के मतिज्ञान विकास हेतु, सिद्धों की पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं अभिनिबोधकवारक-विनाशकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
पच्चीस भेद श्रुत ग्यारह अंग, अरु चौदह पूर्व कहाये हैं।
इन सबके भेद असंख्याते भी, श्रुत में मुनि ने गाये हैं।।
इनसे विरहित केवलज्ञानी, सिद्धों की पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं श्रुतज्ञानावरणकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
जगविश्रुत अवधिज्ञान छह विध, या असंख्यात भेदों युत हैं।
सबका आवरण विनाश किया, इसलिए ज्ञान तुम अनवधि है।।
क्षयोपशम ज्ञान शून्य क्षायिक, ज्ञानी की पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं असंख्यातलोकभेदभिन्न-अवधिज्ञानावरणकर्म-विमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनपर्यय ज्ञान द्विविध उसमें, भी भेद असंख्याते मानें।
उन सब आवरण रहित सिद्धों, का पूर्ण ज्ञान त्रिभुवन जाने।।
मनपर्ययज्ञान प्राप्त हेतू सिद्धों की पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं असंख्यप्रकारमन:पर्यय-ज्ञानावरणकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
छह द्रव्य अखिल पर्यायों को, यह केवलज्ञान जान लेता।
इसका आवरण विनाश किया, त्रिभुवन को एक साथ देखा।।
हम केवलज्ञान हेतु केवल, सिद्धों की पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं निखिलगुणपर्याय-अवबोधककेवलज्ञानावरणविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
जो केवलज्ञान प्राप्त करके, त्रिभुवन को युगपत् जान रहे।
उत्पाद नाश अरु ध्रौव्य सहित, सब सिद्ध परम आनंद लहें।।
भवकारण सब विध्वंस किया, हम उनकी पूजा करते हैं।
निज ज्ञानज्योति प्रगटित होवे, इस हेतू अर्चा करते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं चिरतरसंसारकारण-अज्ञाननिर्धूत-केवलज्ञानातिशयसम्पन्न- श्री सिद्धपरमेष्ठिने
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
नित्य निरंजन देव, अखिल अमंगल को हरें।
नित्य करूँ मैं सेव, मेरे कर्मांजन हरें।।१।।
(दर्शनावरण नाशक सिद्धपरमेष्ठी के ९ अर्घ्य)
-नरेन्द्र छंद-
चक्षूदर्शन वर्ण विषय की, सत्ता को अवलोके।
चक्षु इन्द्रियावरण क्षयोपशम से होता नीके।।
भेद असंख्यातों युत इनसे, रहित सिद्ध को ध्याउँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं चक्षुदर्शनावरणकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
संस्पर्शन रसना व घ्राण, अरु श्रोत्रेन्द्रिय से होता।
यह अचक्षुदर्शन संसारी, सब जीवों के होता।।
इसका सब आवरण विनाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं अचक्षुदर्शनावरणकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
अवधिज्ञान के पहले अवधीदर्शन सद्दृष्टी को।
होता उसके आवरणों को नाश किया नत उनको।।
क्षयोपशम दर्शन से विरहित, सब सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं अवधिदर्शनावरणकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
भूत भविष्यत् वर्तमान की, द्रव्य व पर्यायों को।
युगपत् देखे केवलदर्शन, नमूँ सदा मैं इसको।।
केवलदर्शन रज को नाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं केवलदर्शनावरणकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
चलते बैठे अथवा सोते, जन ले लेते निद्रा।
इसके वश में सब संसारी, महारोग यह निद्रा।।
जिनने नाशा स्वात्मध्यान से, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं निद्राकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐसा सोवे कोई जगावे, नेत्र खोल नहिं पावे।
निद्रा निद्रा कर्म उदय से, ऐसी नींद सतावे।।
इसको नाशा आत्मध्यान से, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।६।।
ॐ ह्रीं निद्रानिद्राकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किंचित् आंख खुली भी सोवे, कुछ कुछ जगता रहता।
प्रचला हल्की निद्रा फिर भी, ज्ञानशून्य ही रहता।।
निज आतम अनुभव से नाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं प्रचलाकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐसी निद्रा लार बहे अरु, अंग चलाचल होते।
प्रचलाप्रचला नींद सतावे, गाढ़ नींद में सोते।।
स्वात्मसुधारस पीकर नाशा, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं प्रचलाप्रचलाकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोते में बोले उठकर कुछ, कार्य करे फिर सोवे।
फिर भी भान रहे ना कुछ भी, ऐसी निद्रा होवे।।
नाश किया स्त्यानगृद्धि यह, उन सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं स्त्यानगृद्धिकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
केवलदर्शन सकल विमल है, युगपत् तिहुंजग देखे।
इस आवरण रहित सिद्धों को, जजत निजातम देखें।।
निज शुद्धातम अनुभव हेतू, सब सिद्धों को ध्याऊँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भव भव व्याधि नशाऊँ।।१०।।
ॐ ह्रीं सकलदर्शनावरणकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
राग द्वेष मद मोह को, जीत हुए जिन ‘ख्यात’।
पुष्पांजलि चरणों करूँ, जजूँ नमाकर माथ।।१।।
(वेदनीयनाशक सिद्धपरमेष्ठी के २ अर्घ्य)
-शेरछंद-
भोजन वसन स्त्री सुगंध द्रव्य सुख करें।
साता उदय से जीव इन्हें प्राप्त ही करें।।
इस कर्म को विनाश पूर्ण सौख्य जो धरें।
उन सिद्धों को जजें निजात्म सौख्य को भरें।।१।।
ॐ ह्रीं सातावेदनीयकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अरि शस्त्र विषादिक अनिष्ट वस्तुएं सभी।
होती असाता के उदय से दु:खदायि भी।।
इस कर्म को विनाश पूर्ण सौख्य जो धरें।
उन सिद्धों को जजें निजात्म सौख्य को भरें।।२।।
ॐ ह्रीं असातावेदनीयकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
संसार में साता व असाता से जीव ये।
सुख दु:ख भोगते हैं वेदनीय कर्म से।।
इस कर्म को विनाश पूर्ण सौख्य जो धरें।
उन सिद्धों को जजें निजात्म सौख्य को भरें।।३।।
ॐ ह्रीं वेदनीयकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
स्वात्म सौख्य पीयूष रस, निर्झरणी वच आप।
पुष्पांजलि से पूजते, मिटे सकल संताप।।१।।
अथ मंडलस्योपरि चतुर्थवलये (दले) पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(मोहनीय नाशक सिद्धपरमेष्ठी के २८ अर्घ्य)
-स्रग्विणी छंद-
कर्म मिथ्यात्व से आत्म श्रद्धा न हो।
नाश के आप ही सिद्ध आत्मा हुए।।
नाथ! सम्यक्त्व दीजे मुझे आज ही।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।१।।
ॐ ह्रीं मिथ्यात्वकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सत्य झूठे पदार्थादि में जो रूची।
मिश्र को नाश के सिद्ध आत्मा हुए।।
तीसरे भाव को नाश कीजे प्रभो!
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२।।
ॐ ह्रीं सम्यग्मिथ्यात्वकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शुद्ध सम्यक्त्व ना हो मलिन दोष हों।
आप सम्यक् प्रकृति नाश के सिद्ध हो।।
चल मलिन दोष से शून्य सम्यक्त्व दो।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।३।।
ॐ ह्रीं सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जो अनंतों भवों का कहा हेतु है।
ये अनंतानुबंधी महाक्रोध है।।
नाश के सिद्ध हो सिद्ध मैं भी बनूँ।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।४।।
ॐ ह्रीं अनंतानुबंधि-क्रोधकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
मान मिथ्यात्व सहचारि संसार में।
नाश के आप मुक्त्यंगना को वरी।।
स्वाभिमानी बनूँ स्वात्मसंपद् भरूँ।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।५।।
ॐ ह्रीं अनंतानुबंधि-मानकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
वंचना नाम माया से तिर्यग्गती।
ये अनंतानुबंधी भ्रमावें यहाँ।।
नाश के आप मुक्तीरमा वश किया।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।६।।
ॐ ह्रीं अनंतानुबंधि-मायाकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
लोभ मिथ्यात्व संगी रूलावे सदा।
आत्मघाती किया नाश इसका प्रभो।।
धार संतोष पाऊं निजानंद को।
मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।७।।
ॐ ह्रीं अनंतानुबंधि-लोभकर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
-चौपाई-
क्रोध अप्रत्याख्यानावरणी, इसे घात प्रभु ने शिव परणी।
मैं भी स्वात्म क्षमा गुण पाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणक्रोधकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
अस्थिसमान मान जो माना, नाश किया तुमने भवहाना।
मैं भी स्वाभिमान प्रगटाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणमानकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
मेष सींग सम दूजी माया, नष्ट किया शिवपद को पाया।
मन वच तन को सरल बनाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१०।।
ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणमायाकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
लोभ कषाय अप्रत्याख्यानी, अणुव्रत की भी करती हानी।
मैं भी स्वात्मसुधारस पाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।११।।
ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणलोभकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रत्याख्यानावरण क्रोध के, उदय हुए संयम नहिं प्रगटे।
अणुव्रत की शक्ती प्रगटाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।१२।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणक्रोधकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
मान कषाय तीसरी मानी, महाव्रतों की करती हानी।।
देशव्रती बन कर्म नशाऊं, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१३।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणमानकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
माया प्रत्याख्यानावरणी, इसको नाशा प्रभु शिवपरणी।
इसके रहे देशव्रत पाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१४।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणमायाकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
लोभ कषाय तीसरी मानी, मुनि के नहीं कहे जिनवानी।
इसको नाश स्वात्मनिधि पाऊं, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१५।।
ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणलोभकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
है संज्वलन क्रोध इस जग में, जलरेखा सम रहता मुनि में।
इसे नाश संयम निधि पाऊं, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१६।।
ॐ ह्रीं संज्वलनक्रोधकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौथी मानकषाय बखानी, महाव्रती बन सकते प्राणी।
इसको नष्ट किया गुण गाऊँ, सिद्ध प्रभू को मन में ध्याऊँ।।१७।।
ॐ ह्रीं संज्वलनमानकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया संज्वलनी मुनि में भी, यथाख्यात नहिं होने देती।
तुमने नाश किया गुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।१८।।
ॐ ह्रीं संज्वलनमायाकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ कषाय चतुर्थी मुनि के, तीव्र रहे विकथादिक प्रगटें।
इससे रहित आप गुण गाऊं, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।१९।।
ॐ ह्रीं संज्वलनलोभकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नो कषाय है हास्य नाम की, इसके उदय हंसी है आती।
इससे रहित सिद्धगुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२०।।
ॐ ह्रीं हास्यकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनक कामिनी गेहादी में, रती उदय से प्रीती इनमें।
धर्म प्रीति हेतू गुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२१।।
ॐ ह्रीं रतिकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वस्तु अनिष्ट देख अरती हो, दूर करें मुनि निज में रत हो।।
इससे रहित सिद्धगुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२२।।
ॐ ह्रीं अरतिकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग से, शोक प्रगट होता सब जन के।
इसके नाश हेतु गुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२३।।
ॐ ह्रीं शोकशंकानिवारकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन में हो अनिष्ट से भीती, भय के उदय दु:ख यह रीती।
इससे रहित आप गुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२४।।
ॐ ह्रीं भयभंजकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निंद्य वस्तु से होती ग्लानी, उदय जुगुप्सा से यह मानी।
इसके नाश हेतु गुण गाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२५।।
ॐ ह्रीं जुगुप्साचिकित्सकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्त्रीवेद उदय होने से, नारी नर से प्रीती वर्ते।
इसे नाश निज समरस पाऊँ, सिद्धप्रभू को शीश नमाऊँ।।२६।।
ॐ ह्रीं स्त्रीवेदविध्वंसकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुंवेदी स्त्री की इच्छा, करता वेद उदय से स्वेच्छा।
परमब्रह्म पदवी को पाऊँ, सिद्धप्रभू को मन में ध्याऊँ।।२७।।
ॐ ह्रीं पुंवेदनिवारकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नर नारी दोनों की इच्छा, वेद नपुंसक उदय अपेक्षा।
वेदनाश निज में रम जाऊँ। सिद्धप्रभू को अर्घ्य चढ़ाऊँ।।२८।।
ॐ ह्रीं नपुंसकवेदनिर्नाशकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-स्रग्विणी छंद-
मोहनीकर्म को नाश के सिद्ध हो, दोष से शून्य हो वीतरागी तुम्हीं।
नाथ! मेरे सभी दोष को नाशिये, मैं जजूँ भक्ति से एक ही स्वार्थ है।।२९।।
ॐ ह्रीं प्रबलमहामोहकर्म विमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
लोकशिखर पर राजते, शुद्ध सिद्ध भगवान।
सुमन चढ़ाकर पूजते, मिले निजातम धाम।।१।।
(आयुकर्मनाशक सिद्धपरमेष्ठी के ४ अर्घ्य)
-रोला छंद-
नरकों में जा जीव, तेंतिस सागर तक भी।
भोगे दु:ख अतीव, गणधर कह न सकें भी।।
नरकायू को नाश, सिद्ध बने शिव स्वामी।
इसका करूँ विनाश, नमूँ सिद्ध अनुगामी।।१।।
ॐ ह्रीं नरकायु:कर्मनिवारकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन पल्य उत्कृष्ट, तिर्यंचायु कही है।
श्वांस के अठरह भाग, आयु जघन्य रही है।।
दु:ख असंख्य प्रकार, तिर्यग्गति में पाये।
लीजे नाथ! उबार, नमूँ सिद्ध शिर नाये।।२।।
ॐ ह्रीं तिर्यगायु:कर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन पल्य उत्कृष्ट, भोगभूमि में मानी।
मनुष आयु नर इष्ट, मध्यम बहुविध मानी।।
श्वांस के अठरह भाग, आयु जघन्य मनुज की।
नाश किया प्रभु आप, नमूँ सिद्ध पद नित ही।।३।।
ॐ ह्रीं मनुष्यायु:कर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव आयु उत्कृष्ट, तेंतिस सागर मानी।
जघन आयु दस सहस, वर्ष कहे जिनवानी।।
इसको नाश जिनेन्द्र, आप सिद्धपद पाया।
नमते इन्द्र नरेन्द्र, मैं भी शरणे आया।।४।।
ॐ ह्रीं देवायु:कर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
अवगाहन गुण पाय, निरुपम सुख के भोगी।
निरवधिसुस्थित मान, सिद्धिवधूपति योगी।।
ऐसे सिद्ध महान, नितप्रति भक्ति बढ़ाऊँ।
मिले निजातम ज्ञान, वसुविध अर्घ्य चढ़ाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं आयु:कर्मविमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
नामकर्म से दूर, अशरीरी सिद्धात्मा।
पुष्पांजलि से पूज, ज्ञानशरीरी मैं बनूँ।।१।।
(नामकर्म नाशक सिद्धपरमेष्ठी के ९३ अर्घ्य)
-चामर छंद-
घोर दु:ख दायिनी नरक गती प्रसिद्ध है।
पाप से मिले इसे विनाश आप सिद्ध हैं।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिए भवाब्धि से उबारिये।।१।।
ॐ ह्रीं नरकगतिनिवारकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भूख प्यास छेदनादि भेदनादि कष्ट हैं।
एक इन्द्रि से पंचेन्द्रि प्राणि सर्व भीत हैं।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिए भवाब्धि से उबारिये।।२।।
ॐ ह्रीं तिर्यग्गतिछेदकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ग मोक्ष का उपाय नरगती में शक्य है।
तीन रत्न पाय के मनुष्यगती धन्य है।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिए भवाब्धि से उबारिये।।३।।
ॐ ह्रीं मनुष्यगतिनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ ऋद्धियों समेत देवयोनि श्रेष्ठ है।
किंतु एक इन्द्रि हो सकें अत: अनिष्ट है।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिए भवाब्धि से उबारिये।।४।।
ॐ ह्रीं देवगतिनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एक इन्द्रि भूमि अग्नि, वायु जल वनस्पती।
जन्म धार धार के अनंत जीव हैं दुखी।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्ध धाम में बसें।
कर्मशून्य धाम दो हमें इसीलिए जजें।।५।।
ॐ ह्रीं एकेन्द्रियजातिरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शंख जोंक केंचुआ द्विइन्द्रियों को धारते।
कष्ट भोगते अनंत सुख कभी न पावते।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्ध धाम में बसें।
कर्मशून्य धाम दो हमें इसीलिए जजें।।६।।
ॐ ह्रीं द्वीन्द्रियजातिकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चींटि मत्कुणादि तीन इंद्रियों को पायके।
जन्म मृत्यु धारते कुयोनि पाय पायके।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्ध धाम में बसें।
कर्मशून्य धाम दो हमें इसीलिए जजें।।७।।
ॐ ह्रीं त्रीन्द्रियजातिकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मक्खि मच्छरादि चार इन्द्रि जीव जन्मते।
बार बार जन्म मृत्यु दुख असंख्य भोगते।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्ध धाम में बसें।
कर्मशून्य धाम दो हमें इसीलिए जजें।।८।।
ॐ ह्रीं चतुरिन्द्रियजातिकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच इन्द्रियों समेत नारकी तिर्यंच भी।
देव मनुज हों उन्हीं में क्रूर हिंस्र जंतु भी।।
जाति कर्म शून्य आप सिद्ध धाम में बसें।
कर्मशून्य धाम दो हमें इसीलिए जजें।।९।।
ॐ ह्रीं पंचेन्द्रियजातिकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
औदारिक तनु धारते, नर तिर्यंच सदैव।
इसे नाश शिवपद लिया, जजूँ भक्तिवश एव।।१०।।
ॐ ह्रीं औदारिकनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव नारकी वैक्रियक, देह धरें जग मध्य।
इसे नाश अशरीर हो, नमत मिले सुख सद्य।।११।।
ॐ ह्रीं वैक्रियकनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि आहारक ऋद्धि युत, संशय दूर करंत।
इसे नाश सिद्धातमा, नमत करूँ भव अंत।।१२।।
ॐ ह्रीं आहारकनामकर्मविनाशनाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तैजस कर्मोदय सहित, सब संसारी जीव।
इसे नाश अशरीर हो, नमते सौख्य अतीव।।१३।।
ॐ ह्रीं तैजसकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्मणकर्म उदय सहित, जग में जीव भ्रमंत।
कर्मपिंड को नाश कर, भये सिद्ध भगवंत।।१४।।
ॐ ह्रीं कार्मणशरीरकर्मछेदकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
औदारिक परमाणु से, तनु का बंधन मान्य।
इसे नाश शिव पद बसे, नमत मिले सुख साम्य।।१५।।
ॐ ह्रीं औदारिकबंधनकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विक्रियतनुबंधन निमित, सुघटित तनु बन जाय।
कर्मनाश सिद्धातमा, जजूँ चरण सुखदाय।।१६।।
ॐ ह्रीं वैक्रियकबंधनकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आहारकबंधन निमित, छिद्ररहित तनु होय।
इसे नाश शिव पद लिया, नमत तुम्हें सुख होय।।१७।।
ॐ ह्रीं आहारकबंधनकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तैजसबंधन के निमित, तनु में दीप्ति लसंत।
देह शून्य प्रभु सिद्ध हो, नमूँ नित्य पदकंज।।१८।।
ॐ ह्रीं तैजसबंधनकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्माण बंधन उदय, पुद्गल आत्म प्रदेश।
एकमेक होकर रहें, इनसे रहित जिनेश।।१९।।
ॐ ह्रीं कार्मणबंधनशातकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
औदारिक अणु साथ में आत्मा एकीरूप।
नाश किया तुमने अत:, नमूँ नमूँ चिद्रूप।।२०।।
ॐ ह्रीं औदारिकसंघातकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैक्रिय परमाणू मिले, आत्म प्रदेशहिं संग।
नाश किया संघात यह, नमते बनूँ असंग।।२१।।
ॐ ह्रीं वैक्रियकसंघातकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आहारक संघात से, रहित सिद्ध भगवान्।
नमूँ नमूँ सब सिद्ध को, मिले भेद विज्ञान।।२२।।
ॐ ह्रीं आहारकसंघातकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तैजस जो वर्गणा मिलीं, आत्मप्रदेशहिं संग।
इन्हें नाश मुक्ती लिया, जजते बनूँ निसंग।।२३।।
ॐ ह्रीं तैजससंघातकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्माण संघात से, रहित निरंजन देव।
नमूँ सिद्ध परमातमा, करूँ अमंगल छेव।।२४।।
ॐ ह्रीं कार्मणसंघातकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पद्धड़ी छंद-
संस्थान प्रथम दशताल मान, समचतूरस्र सुंदर महान।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।२५।।
ॐ ह्रीं समचतुरस्रसंस्थानरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय आकार जान, वट वृक्ष सदृश ऊपर महान्।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।२६।।
ॐ ह्रीं न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थानरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वामी सम तन आकार जान, ऊपर कृश नीचे वृहत् मान।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।२७।।
ॐ ह्रीं बाल्मीक१संस्थानरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय कुब्जक शरीर, इससे विरूप जन हों अधीर।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।२८।।
ॐ ह्रीं कुब्जकसंस्थानरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे बामन आकार होय, यह देह अपावन अथिर होय।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।२९।।
ॐ ह्रीं वामनसंस्थानरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस उदय देह बेडौल मान, विषमाकृति हुंडक नाम जान।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।३०।।
ॐ ह्रीं हुंडकसंस्थानरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे सब अंग उपांग होत, औदारिक अंगोपांग स्रोत।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।३१।।
ॐ ह्रीं औदारिकशरीरांगोपांगविनाशकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैक्रियक सु आंगोपांग नाम, इससे सुर तनु नयनाभिराम।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।३२।।
ॐ ह्रीं वैक्रियकशरीरांगोपांगरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आहारकआंगोपांग कर्म, पुतला बनता सुंदर सुशर्म।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।३३।।
ॐ ह्रीं आहारकशरीरांगोपांगरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे नस बंधन कील अस्थि, हो वङ्कासदृश अतिशायि शक्ति।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।३४।।
ॐ ह्रीं वङ्कावृषभनाराचसंहननिंहसकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे हों वङ्का समान अस्थि, हों कील वङ्का की अतुल शक्ति।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।३५।।
ॐ ह्रीं वङ्कानाराचसंहननरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे कीलें सामान्य जान, हों अस्थि वङ्कासम शक्तिमान।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।३६।।
ॐ ह्रीं नाराचसंहननशातकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अस्थी में कीलें तरफ एक, संहनन अर्धनाराच देख।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।३७।।
ॐ ह्रीं अर्धनाराचसंहननशातकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय से सर्व अस्थि, आपस में कीलित हों स्वशक्ति।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।३८।।
ॐ ह्रीं कीलसंहननरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नस से बंधी हों अस्थि संधि, नहिं आपस में कीलित विसंधि।
इस हान हुये प्रभु सिद्ध शुद्ध, पूजत होवे आत्मा विशुद्ध।।३९।।
ॐ ह्रीं असंप्राप्तसृपाटिकासंहननरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय तनु धरे वर्ण, यह श्वेत शस्त या अशुभ वर्ण।।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४०।।
ॐ ह्रीं श्वेतनामकर्मकृंतकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय से पीत गात्र, शुभ अशुभ धरें सब जीव मात्र।
इस पुद्गल गुण से मुक्त सिद्ध, मैं जजत बनूं निजगुण समृद्ध।।४१।।
ॐ ह्रीं पीतनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगजीव देह में हरित वर्ण, शुभ अशुभ कर्म से विविध वर्ण।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४२।।
ॐ ह्रीं हरितनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मोदय वश तनु धरे कृष्ण, शुभ अशुभ विविध देहादि वर्ण।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४३।।
ॐ ह्रीं कृष्णनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मोदय वश से लाल देह, सब जीव धरें शुभ में सनेह।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४४।।
ॐ ह्रीं रक्तनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब प्राणी को प्रिय है सुगंध, ये कर्म करें सब जगत अंध।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४५।।
ॐ ह्रीं सुगंधनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस कर्म उदय दुर्गंध गात्र, प्राणी हो जाते दु:खपात्र।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४६।।
ॐ ह्रीं दुर्गंधनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो धरें तिक्तरससहित देह, कर्मोदयवश से विविध एह।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४७।।
ॐ ह्रीं तिक्तरसनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो कटुक वनस्पति आदि गात्र, कर्मोदय से भी हों सुगात्र।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४८।।
ॐ ह्रीं कटुकरसनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाते कषायला रस समेत, कर्मोदय से हों विविध भेद।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।४९।।
ॐ ह्रीं कषायरसकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु अम्ल मिले कर्मन वशात्, एकेन्द्रिय आदिक विविध जात।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५०।।
ॐ ह्रीं आम्लरसकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मधुर देह को पाय जीव, तनु धर धर मरते दुख अतीव।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५१।।
ॐ ह्रीं मधुररसकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु मृदु स्पर्श यह कर्म कार्य, निज तत्त्व ज्ञान बिन कष्ट धार्य।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५२।।
ॐ ह्रीं मृदुत्वस्पर्शकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्कश स्पर्श तनु धरत जीव, संसार भ्रमण दुष्कर अतीव।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५३।।
ॐ ह्रीं कर्कश स्पर्शकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु तनु भी कर्मोदय निमित्त, त्रस थावर योनी धरत नित्त।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५४।।
ॐ ह्रीं गुरुस्पर्शकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लघु तनु धर धर प्राणी भ्रमंत, निज आत्म ज्ञान बिन नाहिं अंत।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५५।।
ॐ ह्रीं लघुस्पर्शकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जल आदि जीव के शीत देह, नहिं कर्म नाश बिन हों विदेह।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५६।।
ॐ ह्रीं शीतस्पर्शकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नी आदिक के देह उष्ण, निश्चयनय से मैं शुद्ध जिष्णु।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५७।।
ॐ ह्रीं उष्णस्पर्शकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिकना तनु कर्मोदय निमित्त, आत्मा स्वभाव से शुद्ध नित्त।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५८।।
ॐ ह्रीं स्निग्धस्पर्शनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रूखा तनु धर धर मरें जीव, स्पर्श रहित आत्मा शुचीव।
इस पुद्गल गुण से हीन सिद्ध, मैं जजत बनूँ निजगुण समृद्ध।।५९।।
ॐ ह्रीं रूक्षस्पर्शकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-गीता छंद-
पर्याप्त पंचेन्द्रिय मनुज या पशू पाप क्रिया करें।
नरकायु बांधें यहाँ से मरकर नरक में भव धरें।।
विग्रहगती में पूर्व का आकार यह अनुपूर्वी।
उनको नमूँ जिनसे हना यह नरकगति अनुपूर्वी।।६०।।
ॐ ह्रीं नरकगत्यानुपूर्वि दाहकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारों गती के जीव यदि तिर्यग्गती जाने लगें।
तनु पूर्व का आकार तिर्यग् आनुपूर्वी का उदै।।
गति आयु विरहित शुद्ध परमानंदमय शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६१।।
ॐ ह्रीं तिर्यग्गत्यानुपूर्वि दाहकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चारों गती के जीव भी नर जन्म धर सकते यहाँ।
विग्रहगती में आनुपूर्वी का उदय श्रुत में कहा।।
गति आनुपूर्वी रहित परमानंदमय शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६२।।
ॐ ह्रीं मनुष्यगत्यानुपूर्वि दाहकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देवत्व पाने हेतु नर पशु आनुपूर्वी उदय से।
जो पूर्व तनु आकार धरते आपने नाशा उसे।।
देवानुपूर्वी रहित चिन्मय ज्योति मुझ शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६३।।
ॐ ह्रीं देवगत्यानुपूर्वि दाहकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नहिं अति गुरु नहिं अति लघू तनु धरें संसारी सभी।
इस अगुरुलघु को नष्ट कर के पा लिया पंचम गती।।
मैं नित्य परमानंद चिन्मय ज्योति धर शुद्धात्मा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६४।।
ॐ ह्रीं अगुरुलघुत्वकर्मध्वंसकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज के हि अंगोपांग निज का घात कर देते जभी।
उपघात कर्मोदय निमित इस घात शिव पहँुचे तभी।।
मैं शुद्धनय से ज्ञानदर्शन पूर्ण हूँ शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६५।।
ॐ ह्रीं उपघातनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सींग दाढ़ादिक धरें गौ व्याघ्र सर्पादिक यहाँ।
परघात कर्मोदय निमित इस घात शिवपद ले यहाँ।।
मैं शुद्धनय से कर्म अंजन से रहित शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६६।।
ॐ ह्रीं परघातनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रवि के विमानहिं चमकते वे भूमिकायिक से बनें।
भूजीव आतपकर्मधारी जन्मते इनमें घने।।
सब शुद्धनय से शुद्ध भी निजकर्म हन शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६७।।
ॐ ह्रीं आतपनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शशि तारकादि विमान में तनुधार पृथ्वी चमकते।
खद्योत भी उद्योत कर्मोदय धरें मिथ्यात्व से।।
प्रभु कर्म नाशा मुक्ति लक्ष्मी पति बने शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६८।।
ॐ ह्रीं उद्योतनामकर्मदाहकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब प्राणधारी जी रहे उच्छ्वास अरु निश्वास से।
यह नामकर्म विनाश कर लोकाग्र पे जो जा बसे।।
उन सिद्धसम मेरी सदा है शुद्ध बुद्ध चिदातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।६९।।
ॐ ह्रीं उच्छ्वासनि:श्वासनिर्वासकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुंदर गमन हो जीव का शुभ कर विहायोगति उदय।
इस कर्म विरहित सिद्ध प्रभु हैं नित करूँ उनकी विनय।।
समरस सुधास्वादी मुनी ध्याते सदा निज आत्मा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७०।।
ॐ ह्रीं प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे असुंदर हो गमन वह अप्रशस्त विहायगति ।
इन कर्ममल विरहित विशुद्धात्मा लहें हैं सिद्धगति।।
मैं नित्य परमाल्हाद ज्ञायक चित् चिदानंदात्मा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७१।।
ॐ ह्रीं अप्रशस्तविहायोगतिनिर्वासकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दो इन्द्रि से पंचेन्द्रि तक त्रस नाम कर्मोदय धरें।
दुर्लभ इसे भी प्राप्त कर ही भव्य रत्नत्रय धरें।।
त्रस रहित सिद्धों को नमूँ मैं बनूँ अंतर आतमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७२।।
ॐ ह्रीं त्रसकायरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भू जल अगनि वायू वनस्पति पाँच स्थावर कहे।
इनके दयालू मुनी ही इस कर्म के घातक रहें।।
निज पर दया कर मैं स्वयं बन जाऊँ शुद्ध चिदात्मा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७३।।
ॐ ह्रीं स्थावरनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बादर उदय से जीव पर से मरें पर को घातते।
त्रस थावरों में जन्मते मरते सदा दुख पावते।।
इस कर्म घातन हेतु महव्रत धर बनूं शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७४।।
ॐ ह्रीं बादरनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सूक्ष्म कर्मोदय धरें नहिं पर निमित्त से मर सकें।
नहिं हो किसी का घात इनसे नहिं किसी को ये दिखें।।
इन थावरों से शून्य मैं ध्याऊँ सदा शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७५।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मकर्मशोषकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पर्याप्ति अपनी पूर्ण कर प्राणी तनू धरते यहाँ।
इस कर्म विरहित ज्ञानघन चैतन्य चिंतामणि कहा।।
मैं शुद्धनय से चिंतवन कर ध्याऊँ निज शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७६।।
ॐ ह्रीं पर्याप्तिकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउपंच छह पर्याप्तियाँ भी पूर्ण जिनकी हों नहीं।
इस अपर्याप्ती के उदय से क्षुद्र भव धरते सही।।
इस कर्म विरहित ज्ञानज्योती पुंज मुझ शुद्धातमा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७७।।
ॐ ह्रीं अपर्याप्तिनामकर्मनिषूदकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस वनस्पति का एक जीवहि स्वामि हो प्रत्येक वो।
यह वनस्पति का भेद है इस नाश कर शिव गये जो।।
एकत्व जिनका प्राप्त हो इस हेतु ध्याऊं स्वात्मा।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७८।।
ॐ ह्रीं प्रत्येकशरीरहिंसकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो तनु अनंतानंत जीवों का बने बस एक हो।
शैवाल आदि अनंतकायिक नाम साधारण रहो।।
प्रभु नित्य इतर निगोद पर्यय ना लहूं यह प्रार्थना।
उन सिद्ध को पूजूँ सदा हो जाऊँ मैं सिद्धातमा।।७९।।
ॐ ह्रीं साधारणशरीरनिर्वासकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
रस आदि सात धातुयें स्थिर बनी रहें।
उपवास आदि से भी देह क्षीण ना बने।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८०।।
ॐ ह्रीं स्थिरनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रस आदि धातुएं सदा अस्थिर बनी रहें।
उपवास आदि से सदा आकुल तनू रहे।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८१।।
ॐ ह्रीं अस्थिरनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिर मुख व नासिकादि श्रेष्ठ आकृती कहीं।
शुभनाम कर्म के उदय से पावते सही।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८२।।
ॐ ह्रीं शुभनामकर्मनाशकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिर मुख व पैर आदि भी आकार अशुभ हों।
इस नाम के उदय से हीन देह प्राणि हों।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८३।।
ॐ ह्रीं अशुभनामकर्मनिर्वासकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे सभी जन अपने में प्रीति को करें।
इसको कहें सुभग तनु शुभ कर्म से धरें।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८४।।
ॐ ह्रीं सुभगनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे करें अप्रीती दुर्भग उसे कहें।
इसके उदय से प्राणी अति दीन ही रहें।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८५।।
ॐ ह्रीं दुर्भगनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुस्वर हो कोकिला सम सबको मधुर लगे।
सुनते न तृप्ति होवे इस कर्म का उदै।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८६।।
ॐ ह्रीं सुस्वरनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दु:स्वर हो सबको अप्रिय भाषा कठोर हो।
सुनना न कोई चाहे नीरस वचन अहो।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८७।।
ॐ ह्रीं दु:स्वरनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिसके उदय से तनु में कांती अपूर्व हो।
आदेय उसको कहिये मन नेत्र प्रेय हो।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८८।।
ॐ ह्रीं आदेयप्रकृतिविध्वंसकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे शरीर रूखा नहिं कांति को धरे।
ये कर्म अशोभन व अनादेय दुख करे।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।८९।।
ॐ ह्रीं अनादेयप्रकृतिविध्वंसकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे सुयश हो जग में गुण हों भी या न हों।
वह कर्म यशस्कीर्ती अतिशायि कीर्ति हो।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।९०।।
ॐ ह्रीं यशस्कीर्तिनामकर्मघातकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ कार्य करें गुण हों फिर भी अकीर्ति हो।
यह नाम अयशकीर्ती मन में अशांति हो।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।९१।।
ॐ ह्रीं अयशस्कीर्तिनामकर्मघातकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुंदर व असुंदर शरीर की करे रचना।
निर्माण कर्म ही तो विधाता यहाँ बना।।
इस नाम कर्म से विहीन सिद्धपती हो।
मैं पूजहूँ तुम्हें अपूर्व विभामणी हो।।९२।।
ॐ ह्रीं निर्माणनामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थेश प्रकृति पुण्यराशि सर्वश्रेष्ठ है।
इसके उदय से धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति है।।
फिर भी ये कर्म बंधन जग में ही रोकता।
प्रभु सिद्ध को जजूँ मैं मेटो जगत व्यथा।।९३।।
ॐ ह्रीं पंचकल्याणकचतुस्त्रिंशदतिशय-अष्टप्रातिहार्य-समवसरणादि-
विभूतियुक्त-आर्हंत्य-लक्ष्मीहेतु तीर्थंकरनामकर्मोज्जासकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-चामर छंद-
नाम कर्मनाश सूक्ष्म गुण समेत सिद्ध हो।
मैं नमूँ त्रिकाल नाथ, नामकर्म नष्ट हो।।
आधि व्याधि नाशिये चतुर्गती निवारिये।
मोक्षधाम दीजिये भवाब्धि से उबारिये।।९४।।
ॐ ह्रीं नामकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा- तुमपद आश्रय जो लिया, सो पहुँचे निजधाम।
अत: सुमन अर्पण करूँ, शत शत करूँ प्रणाम।।१।।
(गोत्रकर्म नाशक सिद्धपरमेष्ठी के २ अर्घ्य)
-रोला छंद-
उच्च गोत्र से जीव, श्रेष्ठ कुलों में जन्में।
शिवसुख हेतु अतीव, मिलें सहज ही उनमें।।
इसे नाश कर आप, लोक शिखर पर राजें।
नमत नशे भवताप, कर्मअरी दल भाजें।।१।।
ॐ ह्रीं उच्चगोत्रकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नीच गोत्र से जंतु, हीनवंश में आते।
शिवकारण की पूर्ण, सामग्री नहिं पाते।।
इसे नाश कर आप, लोक शिखर पर राजें।
नमत नशे भवताप, कर्मअरी दल भाजें।।२।।
ॐ ह्रीं नीचगोत्रकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
जग में ऊंच व नीच, कुल में जन्म धरावे।
गोत्र कर्म भव बीच, सब जन को हि भ्रमावे।।
इसे नाश कर आप, लोक शिखर पर राजें।
नमत नशे भवताप, कर्मअरी दल भाजें।।३।।
ॐ ह्रीं गोत्रकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा- ज्ञान चेतनारूप, सिद्धप्रभू चिद्रूप हैं।
पुष्पांजलि से पूज, सकल दु:ख दारिद हरूँ।।१।।
(अन्तरायकर्म नाशक सिद्धपरमेष्ठी के ५ अर्घ्य)
-चौबोल छंद-
इच्छा होती दान करें हम, अंतराय ही विघ्न करे।
धन होवे पर दान नहीं कर, सकें यही हो दु:ख अरे।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं दानान्तरायदाहकाय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध लाभ चाहने पर, लाभांतराय ही विघ्न करे।
लाभ न हो इच्छानुसार तब, मन में होता खेद अरे।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं लाभान्तरायरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अशनपानमालादिक सब, भोगान्तराय से नहिं मिलते।
भविजन हृदय कमल मुकुलित हैं, ज्ञानसूर्य बिन नहिं खिलते।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं भोगान्तरायकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्त्री वस्त्र आदि सब उप-भोगांतराय से नहीं मिलें।
आत्मसुधारस आस्वादी मुनि, उनको ही निज सौख्य मिले।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं उपभोगान्तरायरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज की शक्ती प्रकट न होवे, वीर्य विघ्न का उदय कहा।
निज अनंत शक्ती मिल जावे, इसीलिए तुम शरण लिया।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं वीर्यांतरायकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
अंतराय का उदय हुए से, विघ्न पड़े सब कार्यों में।
अतुलशक्ति युत आत्मा भी तो, हीन बना है भव-भव में।।
इनसे रहित सिद्ध प्रभु का हम, नित प्रति वंदन करते हैं।
शिवपथ के सब विघ्न दूर हों, यही प्रार्थना करते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं अंतरायकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-स्रग्विणी छंद-
एक सौ आठ चालीस प्रकृती कहीं।
आपने नाशके मोक्ष लक्ष्मी लिया।।
कर्म से शून्य परमात्म सुख के लिए।
मैं जजूँ आपको लब्धियाँ नौ मिलें।।१।।
ॐ ह्रीं शताष्टचत्त्वािंरशत्कर्मप्रकृतिमुक्ताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
कर्म नाशे अनंते अनंते सभी।
आप ही ज्ञान आनन्त्य सिंधू कहे।।
मैं अनंतों गुणों को स्वयं ही वरूँ।
शक्ति ऐसी मिले आपकी भक्ति से।।२।।
ॐ ह्रीं अनंतानंतकर्मरहिताय श्री सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य – ॐ ह्रीं अर्हं श्री अनंतानंतप्रमसिद्धेभ्यो नमो नम:।
-शंभुछंद-
तर्ज – यह नंदनवन………..
जय जय जिनमणि, जग चूड़ामणि, तुम कर्मरहित सिद्धीपति हो।
मन वच तन से, सब सिद्धों के, चरणों में मेरी प्रणती हो।।जय.।। टेक.।।
प्रभु चार अनंतानूबंधी, त्रय दर्शन मोह विनाश किया।
क्षायिक सम्यक्त्वी मुनी बने, फिर क्षपक श्रेणि को मांड लिया।।
गुणस्थान नवम में छत्तिस प्रकृती, नाश आप मुनिगणपति हो।।जय.।।१।।
दशवें में सूक्ष्म लोभ नाशा, नर आयु बिना त्रय आयु नहीं।
बारहवें में सोलह प्रकृती, कर नाश केवली हुये यहीं।।
इन त्रेसठ प्रकृती के क्षय से, परमात्मा नव लब्धीपति हो।।जय.।।२।।
ज्ञानावरणी दर्शनावरण मोहनीय व अंतराय घाती।
पण नव अट्ठाइस पाँच कहीं, त्रय आयु नाम की तेरह ही।।
इन कर्म रहित धनपति विरचित, प्रभु समवसरण लक्ष्मीपति हो।।जय.।।३।।
गुणथान चौदवें में द्विचरम, के समय बहत्तर प्रकृति हनी।
फिर अंत समय तेरह प्रकृती, नाशा शिवतिय से प्रीति घनी।।
प्रभु गुणस्थान से रहित हुये, शिवधाम गये त्रिभुवनपति हो।।जय.।।४।।
इन इक सौ अड़तालिस प्रकृती, के भेद असंख्य अनंत कहे।
प्रभु द्रव्य भाव नोकर्म नाश, यमराज शत्रु का अंत किये।।
सुख ज्ञान दर्श वीरज आदिक, निज के अनंत गुण निधिपति हो।।जय.।।५।।
प्रभु मोह नाश क्षायिक समकित, ज्ञानावरणी हन पूर्णज्ञान।
दर्शनरज नाश पूर्ण दर्शन, हन अंतराय वीरज अमान१।।
हन नामकर्म सूक्ष्मत्व लिया, हन गोत्र अगुरुलघु गुणयुत हो।।जय.।।६।।
हन आयू अवगाहन गुणधृत, हन वेदनीय अव्याबाधी।
सुख लिया अनंत अतीन्द्रिय प्रभु, नाशी सब जन्म मरण व्याधी।।
प्रभु आठकर्म से रहित आठगुण सहित मोक्षनगराधिप हो।।जय.।।७।।
जो भव्य आपकी भक्ति करें, द्वयविध रत्नत्रय युक्ति धरें।
निज शक्ति प्रगट कर मुक्ति वरें, गुणरत्नों का भंडार भरें।।
तुम भक्तों को निज सम करते, इससे अद्भुत पारसमणि हो।।जय.।।८।।
इस ढ़ाईद्वीप में कर्मभूमि, इक सौ सत्तर बतलाई हैं।
उनसे तीर्थंकर आदि नरों, ने मुक्तिवल्लभा पाई हैं।।
तीर्थंकर होकर शिव पाते, उन सबको मेरी शिरनति हो।।जय.।।९।।
बिन तीर्थंकर भी चक्रवर्ति, बलभद्र कामदेवादि पुरुष।
बिन पदवी के सामान्य मनुष, शिवपद पा लेते कर्मवियुत।।
उपसर्ग बिना उपसर्ग सहित, अगणित नरपुंगव शिवपति हों।।जय.।।१०।।
जल से थल से नभ से भी तो, शिव गये अनंतानंत मनुज।
सुर या खेचर उपसर्ग किया, जल या नभ में छोड़ा दुखप्रद।।
धर शुक्लध्यान तत्क्षण कर्मों, को नाश अंतकृत केवलि हों।।जय.।।११।।
जो द्रव्यपुरुष वेदी भावों, से हुये नपुंसक वेदी भी।
या भावों से स्त्रीवेदी, मुक्ती पा जाते हैं ये भी।।
ये भाव भेद त्रयविध मुनिगण, शिव गये उन्हें नित शिरनति हो।।जय.।।१२।।
जो सिद्ध हुये हैं, होते हैंं, होवेंगे ये त्रय कालों के।
इनको शत शत वंदन मेरा, ये मेरे अघ को नाशेंगे।।
वैवल्य ‘ज्ञानमति’ हेतु आज, सिद्धों को नमते शिवगति हो।।जय.।।१३।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मविनिर्मुक्तअनंतानंतसिद्धपरमेष्ठिभ्य: जयमाला अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेरछंद-
जो भव्य कर्मदहन का विधान करेंगे।
वे भाव कर्म द्रव्यकर्म दहन करेंगे।।
निज का परम अतीन्द्रिय सुख प्राप्त करेंगे।
रवि ‘ज्ञानमती’ से यहाँ प्रकाश भरेंगे।।१।।
।। इत्याशीर्वाद:।।