नमिनाथ के गुणगान से, भविजन भवोदधि से तिरें।
मुनिगण तपोनिधि भी हृदय में, आपकी भक्ती धरें।।
हम भी करें आह्वान प्रभु का, भक्ति श्रद्धा से यहाँ।
सम्यक्त्व निधि मिल जाय स्वामिन्! एक ही वांछा यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-स्रग्विणी छंद-
स्वात्म का साम्यरस नाथ! दीजे मुझे।
नीर से पाद में तीन धारा करूँ।।
मैं नमीनाथ के पाद को पूजहूँ।
स्वात्म सिद्धी मिले एक ही याचना।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वात्म सौरभ मिले चित्त उसमें रमे।
गंध से आपके चर्ण चर्चन करूँ।।मै.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान अक्षय बने नाथ! कीजे कृपा।
शालि के पुंज से पूजहूँ भक्ति से।।मै.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सौख्य पीयूष पीऊँ सुतृप्ती मिले।
पुष्प मंदारमाला चढ़ाऊँ तुम्हें।।मै.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
भूख व्याधी मिटा दो प्रभो! मूल से।
मैं चढ़ाऊँ तुम्हें खीर लाडू अबे।।
मैं नमीनाथ के पाद को पूजहूँ।
स्वात्म सिद्धी मिले एक ही याचना।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोह अंधेर में आत्मनिधि ना मिले।
आरती मैं करूँ ज्ञान ज्योती भरो।।मै.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेऊँ सुगंधी उड़े लोक में।
स्वात्म गुण गंध फैले प्रभो! शक्ति दो।।मै.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वात्म की संपदा दीजिए हे प्रभो!
आम अंगूर फल को चढ़ाऊँ तुम्हें।।मै.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य अर्पण करूँ स्वात्म पद के लिए।
‘‘ज्ञानमति’’ पूर्ण हो बस यही कामना।।मै.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमि जिनवर पादाब्ज, शांतीधारा मैं करूँ।
मिले स्वात्म साम्राज्य, त्रिभुवन में भी शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला हरसिंगार, जिनपद कुसुमांजलि करूँ।
मिले स्वात्म सुखसार, त्रिभुवन की सुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-चौपाई छंद-
मिथिलापुरी में विजय पिता थे। मात वप्पिला गर्भ बसे थे।।
वदि आसोज दुतिय हम पूजें। गर्भ कल्याण जजत अघ छूटें।।१।।
ॐ ह्रीं आश्विनकृष्णाद्वितीयायां श्रीनमिनाथतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वदि आषाढ़ दशमि नमि जन्में। न्हवन किया सुरगण इन्द्रों ने।।
जन्म कल्याणक मैं नित वंदूँ। जन्म मरण के दु:ख को खंडूँ।।२।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णादशम्यां श्रीनमिनाथतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जाति स्मृति से हुई विरक्ती। तिथि आषाढ़ वदी दशमी थी।।
उत्तरकुरु पालकि से जाके। दीक्षा ली थी चैत्रवनी में।।३।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णादशम्यां श्रीनमिनाथतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदि ग्यारस सायं के। वकुल वृक्ष के नीचे तिष्ठे।।
घट में केवलज्ञान प्रकाशा। जजूँ प्रभो! भविकमल विकासा।।४।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाएकादश्यां श्रीनमिनाथतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपमीति स्वाहा।
वदि चौदस वैशाख निशांते। गिरि सम्मेद ध्यान में तिष्ठे।।
मुक्तिरमा को वरण किया था। इन्द्रों ने बहु भक्ति किया था।।५।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णाचतुर्दश्यां श्रीनमिनाथतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
श्री नमिनाथ जिनेश हैं, सर्वसौख्य दातार।
अर्घ्य चढ़ाकर जजत ही, भरें रत्न भंडार।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकरपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
सब कर्मों में एक ही, मोह कर्म बलवान।
उसके नाशन हेतु मैं, पूजूँ भक्ति प्रधान।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
‘महामुनि’ प्रभु आप, मुनियों में उत्तम कहे।
श्री नमिजिन तुम पाद, पूजत ही सुखसंपदा।।१।।
ॐ ह्रीं महामुनये श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि हो मौन धरंत प्रभु ‘महामौनी’ तुम्हीं।
श्री नमिजिन पूजंत, रोग शोक संकट टले।।२।।
ॐ ह्रीं महामौनिने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म शुक्लद्वय ध्यान, धार ‘महाध्यानी’ हुये।
श्री नमिजिन का ध्यान, करते ही सब सुख मिले।।३।।
ॐ ह्रीं महाध्यानिने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण जितेंद्रिय आप, नाम ‘महादम’ धारते।
श्री नमिजिन तुम पाद, पूजत आतम निधि मिले।।४।।
ॐ ह्रीं महादमाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ क्षमा के ईश, नाम ‘महाक्षम’ सुर कहें।
श्री नमिजिन नत शीश, पूजूँ मैं अतिभाव से।।५।।
ॐ ह्रीं महाक्षमाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अठरह सहस सुशील, ‘महाशील’ तुम नाम है।
पूरण हो गुण शील, नमिनाथ को पूजहूँ।।६।।
ॐ ह्रीं महाशीलाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप अग्नी में आप, कर्मेंधन को होमिया।
‘महायज्ञ’ तुम नाथ, पूजूँ भक्ति बढ़ायके।।७।।
ॐ ह्रीं महायज्ञाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय पूज्य जिनेश! नाम ‘महामख’ धारते।
पूजूँ भक्ति समेत, नमिनाथ प्रभु सुख मिले।।८।।
ॐ ह्रीं महामखाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच महाव्रत ईश, नाम ‘महाव्रतपति’ धरा।
जजूँ नमाकर शीश, नमिनाथ प्रभु आपके।।९।।
ॐ ह्रीं महाव्रतपतये श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मह्य’ आप जगपूज्य, गणधर साधूगण नमें।
मिलें स्वात्मपद पूज्य, नमिनाथ को पूजते।।१०।।
ॐ ह्रीं मह्याय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकान्तिधर’ आप अतिशय कांतिनिधान हो।
श्री नमिजिन तुम जाप, करे अतुल सुखसंपदा।।११।।
ॐ ह्रीं महाकांतिधराय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब के स्वामी इष्ट, अत: ‘अधिप’ सुरगण कहें।
नाशो सर्व अनिष्ट, नमिनाथ तुम पूजहूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं अधिपाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामैत्रिमय’ नाथ! सबसे मैत्रीभाव है।
श्री नमिजिन तुम जाप, त्रिभुवन को वश में करे।।१३।।
ॐ ह्रीं महामैत्रीमयाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनवधि गुण के नाथ, तुम्हें ‘अमेय’ मुनी कहें।
पूजत बनूँ सनाथ, नमिनाथ प्रभु आपके।।१४।।
ॐ ह्रीं अमेयाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महोपाय’ तुम नाथ! शिव के श्रेष्ठ उपाययुत।
जजत सर्व सुखसाथ, नमिनाथ को नित जपूँ।।१५।।
ॐ ह्रीं महोपायाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘महोमय’ आप, अति उत्सव अरु ज्ञानयुत।
श्री नमिजिन तुम जाप, सर्व उपद्रव नाशता।।१६।।
ॐ ह्रीं महोमयाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकारुणिक’ आप दया धर्म उपदेशिया।
श्री नमिजिन का जाप्य, करत जन्म मृत्यु टले।।१७।।
ॐ ह्रीं महाकारुणिकाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मंता’ आप महान, सब पदार्थ को जानते।
जजूँ नाम गुणखान, पूर्ण ज्ञान संपति मिले।।१८।।
ॐ ह्रीं मंत्रे श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व मंत्र के ईश, ‘महामंत्र’ तुम नाम है।
तुम्हें नमें गणधीश, नमिनाथ मैं भी जजूँ।।१९।।
ॐ ह्रीं महामंत्राय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यतिगण में अतिश्रेष्ठ, नाम ‘महायति’ आपका।
पूजत ही पद श्रेष्ठ, नमिनाथ को पूजहूँ।।२०।।
ॐ ह्रीं महायतये श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानाद’ प्रभु आप, दिव्यध्वनी गंभीर धर।
नमत बनूँ निष्पाप, नमिनाथ को मैं जजूँ।।२१।।
ॐ ह्रीं महानादाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिव्यध्वनी गंभीर, योजन तक सुनते सभी।
जजत मिले भव तीन, ‘महाघोष’ तुम नाम को।।२२।।
ॐ ह्रीं महाघोषाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘महेज्य’ सुनाम, महती पूजा पावते।
सौ इन्द्रों से मान्य, नमिनाथ मैं पूजहूँ।।२३।।
ॐ ह्रीं महेज्याय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महसांपति’ प्रभु आप, सर्व तेज के ईश हो।
तुम प्रताप भवताप, हरण करे मैं पूजहूँ।।२४।।
ॐ ह्रीं महासांपतये श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान यज्ञ को धार, नाम ‘महाध्वरधर’ प्रभू।
मिले सर्व सुखसार, नमिनाथ को पूजहूँ।।२५।।
ॐ ह्रीं महाध्वरधराय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धुर्य’ हो मुक्ति के मार्ग में श्रेष्ठ हो।
कर्म-भू आदि में सर्व में ज्येष्ठ हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।२६।।
ॐ ह्रीं धुर्याय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महौदार्य’ अतिशायि ऊदार हो।
आप निर्ग्रंथ भी इष्ट दातार हो।।आप.।।२७।।
ॐ ह्रीं महौदार्याय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूज्य वाक्याधिपति सु ‘महिष्ठवाक्’ हो।
दिव्यवाणी सुधावृष्टि कर्ता सु हो।।आप.।।२८।।
ॐ ह्रीं महिष्ठवाचे श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक आलोक व्यापी ‘महात्मा’ तुम्हीं।
अंतरात्मा पुन: सिद्ध आत्मा तुम्हीं।।आप.।।२९।।
ॐ ह्रीं महात्मने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व तेजोमयी ‘महासांधाम’ हो।
आत्म के तेज से सर्व जग मान्य हो।।आप.।।३०।।
ॐ ह्रीं महासांधाम्ने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व ऋषि में प्रमुख हो ‘महिर्षि’ तुम्हीं।
ऋद्धि सिद्धि धरो आप सुख की मही।।आप.।।३१।।
ॐ ह्रीं महर्षये श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ भव धार के आप ‘महितोदया’।
तीर्थकर नाम से पूज्य धर्मोदया।।आप.।।३२।।
ॐ ह्रीं महितोदयाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘महाक्लेशअंकुश’ परीषहजयी।
क्लेश के नाश हेतू सुअंकुश सही।।आप.।।३३।।
ॐ ह्रीं महाक्लेशांकुशाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शूर’ हो कर्मक्षय दक्ष हो लोक में।
नाथ! मेरे हरो कर्म आनन्द हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।३४।।
ॐ ह्रीं शूराय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाभूतपति’ गणधराधीश हो।
नाथ! रक्षा करो आप जगदीश हो।।आप.।।३५।।
ॐ ह्रीं महाभूतपतये श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आपही हो ‘गुरू’ धर्म उपदेश हो।
तीन जग में तुम्हीं श्रेष्ठ हो सौख्य दो।।आप.।।३६।।
ॐ ह्रीं गुरवे श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘महापराक्रम’ के धनी।
केवलज्ञान से सर्ववस्तू भणी।।आप.।।३७।।
ॐ ह्रीं महापराक्रमाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय् अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘अनंत’ आपका अंत ना हो कभी।
नाथ! दीजे अनंतों गुणों को अभी।।आप.।।३८।।
ॐ ह्रीं अनन्ताय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाक्रोधरिपु’ क्रोध शत्रु हना।
सर्व दोषारिनाशा सुमृत्यु हना।।आप.।।३९।।
ॐ ह्रीं महाक्रोधरिपवे श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप इंद्रिय ‘वशी’ लोक तुम वश्य में।
आत्मवश मैं बनूँ चित्त को रोक के।।आप.।।४०।।
ॐ ह्रीं वशिने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! हो ‘महाभवाब्धिसंतारि’ भी।
आप संसार सागर तरा तारते।।आप.।।४१।।
ॐ ह्रीं महाभवाब्धिसंतारिणे श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही ‘महामोहाद्रिसूदन’ कहे।
मोह पर्वत सुभेदा सुज्ञाता बनें।।आप.।।४२।।
ॐ ह्रीं महामोहाद्रिसूदनाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘महागुणाकर’ लोक में।
रत्नत्रय की खनी भव्य पूजूँ तुम्हें।।आप.।।४३।।
ॐ ह्रीं महागुणाकराय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षान्त’ हो सर्वपरिषह उपद्रव सहा।
आपकी भक्ति से हो क्षमा गुण महा।।आप.।।४४।।
ॐ ह्रीं क्षान्ताय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘महायोगिश्वर’ गणधरादी पती।
योगियों में धुरंधर जगत के पती।।आप.।।४५।।
ॐ ह्रीं महायोगीश्वराय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शमी’ शांतपरिणाम से विश्व में।
पूर्ण शांती मिले पूजहूँ नाथ! मैं।।आप.।।४६।।
ॐ ह्रीं शमिने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाध्यानपति’ शुक्लध्यानीश हो।
शुक्ल परिणाम हों नाथ! वरदान दो।।आप.।।४७।।
ॐ ह्रीं महाध्यानपतये श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ध्यातमहाधर्म’ सब जीव रक्षा करो।
शुभ अिंहसामयी धर्म के हो धुरी।।आप.।।४८।।
ॐ ह्रीं ध्यातमहाधर्माय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाव्रत’ प्रभो! पाँच व्रत श्रेष्ठ धर।
पूर्ण होवें महाव्रत बनूँ मुक्तिवर।।आप.।।४९।।
ॐ ह्रीं महाव्रताय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाकर्मअरिहा’ महावीर हो।
कर्म अरि को हना आप अरिहंत हो।।आप.।।५०।।
ॐ ह्रीं महाकर्मारिघ्ने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन स्वरूप विदित ‘आत्मज्ञ’ हो।
सब चराचर लोक सुविज्ञ हो।।
जजतहूँ नमिनाथ सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५१।।
ॐ ह्रीं आत्मज्ञाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व देवन मधि ‘महादेव’ हो।
सुर असुर पूजित महादेव हो।।जजतहूँ.।।५२।।
ॐ ह्रीं महादेवाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महत समरथवान ‘महेशिता’।
सकल ऐश्वर धारि जिनेशिता।।जजतहूँ.।।५३।।
ॐ ह्रीं महेशित्रे श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरवक्लेशापह’ दुख नाशिये।
सकल ज्ञान सुधामय साजिये।।जजतहूँ.।।५४।।
ॐ ह्रीं सर्वक्लेशापहाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज हितंकर ‘साधु’ कहावते।
स्वपर हित साधन बतलावते।।जजतहूँ.।।५५।।
ॐ ह्रीं साधवे श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरवदोषहरा’ जिन आप हो।
सकल गुणरत्नाकर नाथ हो।।जजतहूँ.।।५६।।
ॐ ह्रीं सर्वदोषहराय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हर’ तुम्हीं सब पाप विनाशते।
प्रभु अनंतसुखाकर आप ही।।जजतहूँ.।।५७।।
ॐ ह्रीं हराय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ‘असंख्येय’ प्रभु आप ही।
गिन नहीं सकते गुण साधु भी।।जजतहूँ.।।५८।।
ॐ ह्रीं असंख्येयाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्रमेयात्मा’ जिन आप हो।
अनवधी शक्तीधर नाथ हो।।
जजतहूँ नमिनाथ सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५९।।
ॐ ह्रीं अप्रमेयात्मने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ‘शमात्मा’ शांतस्वरूप हो।
सकल कर्मक्षयी शिवभूप हो।।जजतहूँ.।।६०।।
ॐ ह्रीं शमात्मने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रगट ‘प्रशमाकर’ शमखानि हो।
जगत शांतिसुधा बरसावते।।जजतहूँ.।।६१।।
ॐ ह्रीं प्रशमाकराय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरवयोगीश्वर’ मुनि ईश हो।
गणधरादि नमावत शीश हो।।जजतहूँ.।।६२।।
ॐ ह्रीं सर्वयोगीश्वराय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भुवन में तुम ईश ‘अचिन्त्य’ हो।
निंह किसी जन के मन चिन्त्य हो।।जजतहूँ.।।६३।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्याय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘श्रुतात्मा’ सब श्रुत रूप हो।
सकल भाव श्रुतांबुधि चन्द्र हो।।जजतहूँ.।।६४।।
ॐ ह्रीं श्रुतात्मने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल जानत ‘विष्टरश्रव’ कहे।
धरम अमृतवृष्टि करो सदा।।जजतहूँ.।।६५।।
ॐ ह्रीं विष्टरश्रवसे श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वश किया मन ‘दान्तात्मा’ प्रभो।
सुतप क्लेश सहा जिन आपने।।जजतहूँ.।।६६।।
ॐ ह्रीं दान्तात्मने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम्हीं ‘दमतीरथईश’ हो।
सकल इन्द्रियनिग्रह तीर्थ हो।।जजतहूँ.।।६७।।
ॐ ह्रीं दमतीर्थेशाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल ध्यात सु ‘योगात्मा’ तुम्हीं।
शुकल योगधरा जिन आपने।।जजतहूँ.।।६८।।
ॐ ह्रीं योगात्मने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सदा तुम ‘ज्ञानसुसर्वगा’।
जगत व्याप्त किया निज ज्ञान से।।जजतहूँ.।।६९।।
ॐ ह्रीं ज्ञानसर्वगाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्रधान’ तुम्हीं त्रय लोक में।
प्रमुख हो निज आतम ध्यान से।।जजतहूँ.।।७०।।
ॐ ह्रीं प्रधानाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुमहि ‘आत्मा’ ज्ञान स्वरूप हो।
सकल लोक अलोक सुजानते।।जजतहूँ.।।७१।।
ॐ ह्रीं आत्मने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रकृति’ हो तिहुँलोक हितैषि हो।
प्रकृतिरूप धरम उपदेशि हो।।जजतहूँ.।।७२।।
ॐ ह्रीं प्रकृतये श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परम’ हो सबमें उत्कृष्ट हो।
परम लक्ष्मीयुत जिनश्रेष्ठ हो।।जजतहूँ.।।७३।।
ॐ ह्रीं परमाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगत ‘परमोदय’ जिननाथ हो।
परम वैभव से तुम ख्यात हो।।जजतहूँ.।।७४।।
ॐ ह्रीं परमोदयाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्रक्षीणाबंध’ जिनेश हो।
सकल कर्म विहीन तुम्हीं कहे।।जजतहूँ.।।७५।।
ॐ ह्रीं प्रक्षीणबंधाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘कामारी’ जग सिद्ध।
किया तुम काम महाअरि विद्ध।।
जजूँ नमिनाथ महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान्।।७६।।
ॐ ह्रीं कामारये श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘क्षेमकृता’ अभिराम।
जगत् कल्याण किया सुखधाम।।जजूँ.।।७७।।
ॐ ह्रीं क्षेमकृते श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘क्षेमसुशासन’ सिद्ध।
किया मंगल उपदेश समृद्ध।।जजूँ.।।७८।।
ॐ ह्रीं क्षेमशासनाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रणव’ तुमही ओंकार स्वरूप।
सभी मंत्रों मधि शक्तिस्वरूप।।जजूँ.।।७९।।
ॐ ह्रीं प्रणवाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रणय’ सबका तुमही में प्रेम।
नहीं तुम बिन होता सुख क्षेम।।जजूँ.।।८०।।
ॐ ह्रीं प्रणयाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं प्रभु ‘प्राण’ जगत् के त्राण।
दिया सब ही को जीवन दान।।जजूँ.।।८१।।
ॐ ह्रीं प्राणाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘प्राणद’ बलदातार।
सभी जन रक्षक नाथ उदार।।जजूँ.।।८२।।
ॐ ह्रीं प्राणदाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रणतेश्वर’ भव्यन ईश।
नमें तुमको उनके प्रभु ईश।।जजूँ.।।८३।।
ॐ ह्रीं प्रणतेश्वराय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रमाण’ तुम्हीं जग ज्ञान धरंत।
तुम्हें भवि पा होते भगवंत।।
जजूँ नमिनाथ महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान्।।८४।।
ॐ ह्रीं प्रमाणाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रणिधी’ निधियों के स्वामि।
अनंत गुणाकर अंतर्यामि।।जजूँ.।।८५।।
ॐ ह्रीं प्रणिधये श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं प्रभु ‘दक्ष’ समर्थ सदैव।
करो मुझ कर्म अरी का छेव।।जजूँ.।।८६।।
ॐ ह्रीं दक्षाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘दक्षिण’ हो सर्व प्रवीण।
सरल अतिशायि महागुणलीन।। जजूँ.।।८७।।
ॐ ह्रीं दक्षिणाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘अध्वर्यु’ सुयज्ञ करंत।
महा शिवमार्ग दिया भगवंत।।जजूँ.।।८८।।
ॐ ह्रीं अध्वर्यवे श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अध्वर’ शिवपथ दर्शंत।
सदा ऋजु ही परिणाम धरंत।।जजूँ.।।८९।।
ॐ ह्रीं अध्वराय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुमही ‘आनंद’ अनूप।
मुझे सुखदेव सदा सुखरूप।।जजूँ.।।९०।।
ॐ ह्रीं आनन्दाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा सबको आनंद करंत।
तुम्हीं प्रभु ‘नन्दन’ नाम धरंत।।जजूँ.।।९१।।
ॐ ह्रीं नन्दनाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘नन्द’ समृद्ध निधान।
सदा करते तुम ज्ञान सुदान।।जजूँ.।।९२।।
ॐ ह्रीं नंदाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘वंद्य’ सुरासुर पूज्य।
सभी वंदन करते अनुकूल्य।।जजूँ.।।९३।।
ॐ ह्रीं वंद्याय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनिंद्य’ तुम्हीं सब दोष विहीन।
अनंत गुणों के पुंज प्रवीण।।जजूँ.।।९४।।
ॐ ह्रीं अनिंद्याय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अभिनंदन’ जग आनंद।
प्रशंसित हो त्रिभुवन में वंद्य।।जजूँ.।।९५।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘कामह’ काम हनंत।
विषयविषमूर्च्छित को सुखकंद।।जजूँ.।।९६।।
ॐ ह्रीं कामघ्ने श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘कामद’ हो जग इष्ट।
सभी अभिलाष करो तुम सिद्ध।।जजूँ.।।९७।।
ॐ ह्रीं कामदाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोहर ‘काम्य’ सभी जन इष्ट।
तुम्हें नित चाहत साधु गणीश।।जजूँ.।।९८।।
ॐ ह्रीं काम्याय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोरथ पूरण ‘कामसुधेनु’।
करो मुझ वांछित पूर्ण जिनेंद्र।।जजूँ.।।९९।।
ॐ ह्रीं कामधेनवे श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अरिंजय’ आप करम अरि जीत।
हरो मुझ कर्म तुम्हीं जगमीत।।जजूँ.।।१००।।
ॐ ह्रीं अरिंजयाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमितशासना’ धर्म अनुपम कहा।
मुझे आप सम नाथ कीजे अबे।।
जजूँ मैं नमिनाथ को भक्ति से।
पियूँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।१०१।।
ॐ ह्रीं अमितशासनाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितक्रोध’ हो आप शांती सुधा।
महा शांति से क्रोध जीता सभी।।जजूँ.।।१०२।।
ॐ ह्रीं जितक्रोधाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितामित्र’ कोई न शत्रु रहा।
प्रभो! आप ही सर्वप्रिय लोक में।।जजूँ.।।१०३।।
ॐ ह्रीं जितामित्राय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितक्लेश’ सब क्लेश जीता तुम्हीं।
सभी क्लेश मेरे निवारो अबे।।जजूँ.।।१०४।।
ॐ ह्रीं जितक्लेशाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितांतक प्रभो! मृत्यु को नशियां।
समाधी मिले अंत में भी मुझे।।जजूँ.।।१०५।।
ॐ ह्रीं जितांतकाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘जिनेन्द्र’ हो विश्व में।
तुम्हीं श्रेष्ठ हो कर्मजयि साधु में।।जजूँ.।।१०६।।
ॐ ह्रीं जिनेंद्राय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो आप ही ‘परमआनंद’ हो।
मुझे आत्म आनंद दीजे अबे।।जजूँ.।।१०७।।
ॐ ह्रीं परमानंदाय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘मुनींद्र हो लोक में।
मुनीनाथ मानें नमें साधु भी।।जजूँ.।।१०८।।
ॐ ह्रीं मुनींद्राय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु महामुनी से लेकर इक सौ, आठ नाम तुम जग पूजें।
जो भक्ति वंदना नित्य करें, वो भव भव के दुख से छूटें।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके, मेरी भव भव की व्याधि हरो।
प्रभु सात परमस्थान देय, जिनगुण संपत्ती पूर्ण करो।।१।।
ॐ ह्रीं महामुनि—आदिअष्टोत्तरशतनाममंत्रसमन्विताय श्रीनमिनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकराय नम:।
-सोरठा-
तीर्थंकर नमिनाथ, अतुल गुणों के तुम धनी।
नमूँ नमाकर माथ, गाऊँ गुणमणिमालिका।।१।।
-नरेन्द्र छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, गणधर मुनिगण वंदे।
जय जय समवसरण परमेश्वर, वंदत मन आनंदे।।
प्रभु तुम समवसरण अतिशायी, धनपति रचना करते।
बीस हजार सीढ़ियों ऊपर, शिला नीलमणि धरते।।२।।
धूलिसाल परकोटा सुंदर, पंचवर्ण रत्नों के।
मानस्तंभ चार दिश सुंदर, अतिशय ऊँचे चमकें।।
उनके चारों दिशी बावड़ी, जल अति स्वच्छ भरा है।
आसपास के कुंड नीर में, पग धोती जनता है।।३।।
प्रथम चैत्यप्रासाद भूमि में, जिनगृह अतिशय ऊँचे।
खाई लताभूमि उपवन में, पुष्प खिलें अति नीके।।
वनभूमी के चारों दिश में, चैत्यवृक्ष में प्रतिमा।
कल्पभूमि सिद्धार्थ वृक्ष को, नमूँ नमूँ अतिमहिमा।।४।।
ध्वजा भूमि की उच्च ध्वजाएँ, लहर लहर लहरायें।
भवनभूमि के जिनबिम्बों को, हम नित शीश झुकायें।।
श्रीमंडप में बारह कोठे, मुनिगण सुरनर बैठे।
पशुगण भी उपदेश श्रवण कर, शांतचित्त वहाँ बैठे।।५।।
सुप्रभमुनि आदिक गुरु गणधर, सत्रह समवसरण में।
मुनिगण बीस हजार वहाँ पे, मगन हुए जिनगुण में।।
गणिनी वहाँ मंगिनी माता, पिच्छी कमण्डलु धारी।
पैंतालीस हजार आर्यिका, श्वेत शाटिकाधारी।।६।।
एक लाख श्रावक व श्राविका, तीन लाख भक्तीरत।
असंख्यात थे देव देवियाँ, सिंहादिक बहु तिर्यक्।।
साठ हाथ तनु दश हजार, वर्षायु देह स्वर्णिम था।
नीलकमल नमि चिन्ह कहाया, भक्ति भवोदधि नौका।।७।।
गंधकुटी के मध्य सिंहासन, जिनवर अधर विराजें।
प्रातिहार्य की शोभा अनुपम, कोटि सूर्य शशि लाजें।।
सौ इन्द्रों से पूजित जिनवर, त्रिभुवन के गुरु मानें।
नमूँ नमूँ मैं हाथ जोड़कर, मेरे भवदु:ख हानें।।८।।
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि प्रभो! चिंतित फल दातार।
ज्ञानमती सुख संपदा, दीजे निजगुण सार।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य नमिनाथ का विधान करेंगे।
वे मनुज देव के सुखों को प्राप्त करेंगे।।
फिर कर्मभूमि में जनम ले ध्यान करेंगे।
आर्हन्त्य ज्ञानमती सूर्य उदय करेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।