-स्थापना-
तर्ज-आने से जिसके आए बहार……..
दर्शन से जिनके कटते हैं पाप, पूजन से मिटते हैं सब संताप,
मूरत सुहानी है-तेरी महावीरा, छवि जगन्यारी है-प्रभु महावीरा।।टेक.।।
भक्ति करके तेरी, मैं संताप मन का मिटाऊँ।
अपने मन में तेरी, प्रतिमा नाथ बिठाऊँ।।
तुम भगवन्, अतिपावन,
महिमा निराली है-तेरी महावीरा, छवि जग न्यारी है-तेरी महावीरा।।१।।
आज इस मण्डल पर, स्थापित करूँ नाथ! तुमको।
अपने मन मंदिर में, स्थापित करूँ नाथ! तुमको।।
तुम भगवन्, अतिपावन,
महिमा निराली है-तेरी महावीरा, छवि जग न्यारी है-प्रभु महावीरा।।२।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ
ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (स्रग्विणी छंद)-
क्षीरसिन्धु नीर को मैं भरूँ भृंग में।
तीन धारा करूँ वीर पद पद्म में।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।१।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-
विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीर की सुगन्धियुक्त केशर लिया।
घिस के नाथ चरण में उसे चर्चिया।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।२।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय संसारताप-
विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
वासमती के धुले तंदुलों को लिया।
श्रीजिनेन्द्र के निकट पुंज को चढ़ा दिया।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।३।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
भाँति भाँति के गुलाब पुष्प मैंने चुन लिया।
पुष्पमाल को बनाय प्रभु के पद चढ़ा दिया।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।४।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध नैवेद्य को बनाय थाल भर लिया।
स्वस्थता की प्राप्ति हेतु प्रभु समीप धर लिया।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।५।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णथाल में जले रत्नदीप जगमगे।
आरती उतारते ही मोह का तिमिर भगे।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।६।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप कर्पूर मिश्रित जला अग्नि में।
नाथ चाहूँ जलाना आज कर्म मैं।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।७।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव अंगूर अमरूद भर थाल में।
पादपद्म में चढ़ाय नाऊं निज भाल मैं।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।८।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलफलादिक अष्टद्रव्य को सजाय के।
‘‘चन्दनामती’’ अनर्घ्यपद मिले चढ़ाय के।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।९।।
ॐ ह्रीं मनोकामनासिद्धिकारक श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिधारा करूँ नाथ के पाद में।
शांति हो विश्व में यही मेरी आश है।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।
शांतये शांतिधारा।
कल्पवृक्ष के सुमन हैं नहीं पास में।
ये ही कोमल कुसुम मैं लिया हाथ में।।
वीर महावीर वर्धमान की अर्चना।
पूर्ण करती सभी की मनोकामना।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
-दोहा-
महावीर भगवान की, महिमा अपरम्पार।
उनकी पूजन से मिले, मनवाञ्छित फल सार।।१।।
अथ प्रथमवलये षोडशकोष्ठोपरिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
तीर्थंकर पद की प्राप्ति हेतु, सोलहकारणभावना कहीं।
उनमें पहली दर्शनविशुद्धि, सम्यक्त्वशुद्धि में हेतु कही।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।१।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनशुद्धिप्राप्तकारकाय दर्शनविशुद्धिभावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दर्शन व ज्ञान चारित्र और, उपचार विनय ये चार कहीं।
इनसे संयुक्त प्राणियों में, भावना विनयसम्पन्न हुई।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विधविनयगुणप्रापणसमर्थाय विनयसंपन्नताभावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
है तृतिय भावना शील व्रतों में, अनतिचार बुद्धी रखना।
निर्दोष व्रतों का पालन कर, आध्यात्मिक सुख वृद्धी करना।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।३।।
ॐ ह्रीं निरतिचारव्रतशीलादिपालनबुद्धिप्रदायकाय शीलव्रतेष्वनतिचार-
भावनाबलेन तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौथी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, भावना ज्ञान को शुद्ध करे।
जो सतत ज्ञान अभ्यास करें, वे निजआतम अवबुद्ध करें।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।४।।
ॐ ह्रीं निरतिचारव्रतशीलादिपालनबुद्धिप्रदायकाय शीलव्रतेष्वनतिचार-
भावनाबलेन तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संसार, शरीर व भोगों से, वैराग्य भाव जब होता है।
पंचम संवेग भावना से, संयुत मानव तब होता है।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।५।।
ॐ ह्रीं संसारशरीरभोगवैराग्यकरणबुद्धिप्रदायकाय संवेगभावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रयधारण की बुद्धी, आत्मा को धनी बनाती है।
तब निज शक्ती अनुसार त्याग में, स्वयं रुची बढ़ जाती है।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।६।।
ॐ ह्रीं रत्नत्रयधारणबुद्धिकरणसमर्थाय शक्तितस्त्यागभावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नानाविध तपश्चरण करने की, शक्ति पुण्य से मिलती है।
निज शक्ती सम तप करो सदा, तो आत्मशक्ति खुद बढ़ती है।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।७।।
ॐ ह्रीं नाविधतपश्चरणकरणशक्तिप्रदायकाय शक्तितस्तपो-भावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मुनिवर क्रमश: धर्म ध्यान से, शुक्लध्यान को प्राप्त करें।
वे साधु समाधि भावना के, द्वारा अज्ञान समाप्त करें।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।८।।
ॐ ह्रीं साधुगणधर्म्यशुक्लध्यानलीनभक्तिशक्तिप्रापकाय साधुसमाधि-
भावनाबलेन तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन वचन काय से गुरुओं की, वैयावृत्ती जो करें सदा।
वे नवम भावना को भाकर, निजकायिक शक्ती लहें मुदा।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।९।।
ॐ ह्रीं गुरुसेवाकरणशक्तिप्रदायकाय वैयावृत्यकरणभावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनवाञ्छित फल देने वाली, अरिहंत भक्ति है इस जग में।
सब विघ्न विलय करने वाली, यह दशम भावना है सच में।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।१०।।
ॐ ह्रीं मनोवाञ्छितफलदानसमर्थाय अर्हद्भक्तिभावनाबलेन तीर्थंकर-
पदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो संघ चतुर्विध के नायक, आचार्य पूज्य परमेष्ठी हैं।
उन भक्ती से सम्यक्चारित, धारण की शक्ती मिलती है।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।११।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रधारणशक्तिदानसमर्थाय आचार्यभक्तिभावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो द्वादशांग श्रुत सिन्धू में, अवगाहन सदा किया करते।
वे बहुश्रुतभक्ति भावना से, श्रुतज्ञान दिवाकर को वरते।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रुतज्ञानपूर्णकरणसमर्थाय बहुश्रुतभक्तिभावनाबलेन तीर्थंकर-
पदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो प्रवचन भक्ति भावना से, वृद्धिंगत आतमशक्ति करें।
मन वचन काय के द्वारा नित, वे संघचतुर्विध भक्ति करें।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।१३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विधसंघभक्तिभावनावर्द्धकाय प्रवचनभक्तिभावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समता स्तव वंदन आदिक षट्-क्रिया सदा जो मुनि करते।
अपने आवश्यक नहिं तजकर, वे परमावश्यक पद वरते।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।१४।।
ॐ ह्रीं षडावश्यकक्रियाकरणशक्तिप्रदाय आवश्यकापरिहाणि-भावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनधर्म प्रभावना करने से, निज की प्रभावना होती है।
फिर मोक्षमार्ग में लगने से, त्रय रत्न साधना होती है।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।१५।।
ॐ ह्रीं जिनधर्मप्रभावनाकरणबुद्धिवृद्धिंकराय मार्गप्रभावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साधर्मी जन के साथ सदा, वात्सल्यभाव जो रखता है।
वह ही समझो प्रवचन वत्सलता, गुण का पालन करता है।।
प्रभु महावीर ने भी इसके, बल पर तीर्थंकर पद पाया।
मनवाञ्छित फल पाने हेतू, मैं भी चाहूँ प्रभु पद छाया।।१६।।
ॐ ह्रीं साधर्मिवात्सल्यबुद्धिकरणसमर्थाय प्रवचनवत्सलत्वभावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
तर्ज-चाँद मेरे आ जा रे………..
भावना सोलह कारण की-२,
तीर्थंकरों के, सानिध्य में जो, भाते प्रभू वे बनते।।भावना……।।
महावीर ने पहले भव में, जिनवर के समवसरण में।
दर्शनविशुद्धि आदिक सब, भावना भाई थीं मन में।।
भावना सोलहकारण की….।।१।।
पूर्णार्घ्य चढ़ाकर प्रभु पद, निज को मैं शुद्ध बनाऊँ।
सोलहकारण व्रत को कर, इक दिन उन सम बन जाऊँ।।
भावना सोलहकारण की……।।२।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिप्रवचनवत्सलत्वपर्यन्तषोडशकारणभावनाबलेन
तीर्थंकरपदप्राप्त मनोवाञ्छितफलप्रदाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ द्वितीयवलये षोडशकोष्ठोपरिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शेर छंद-
कुण्डलपुरी में राजा सिद्धार्थ की रानी।
सोलह सुपन देखें वहाँ त्रिशला महारानी।।
पहला स्वपन ऐरावत हाथी का देखके।
त्रैलोक्य पूज्य पुत्र पाया, पूजूँ उन्हें मैं।।१।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्योत्तमपदधारिपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुरैरावत-
हस्तिशुभस्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज गर्भ में तीर्थंकर सुत के प्रभाव से।
माता ने महावृषभ को देखा था स्वप्न में।।
उस फल में ही त्रैलोक्य ज्येष्ठ पुत्र हुआ था।
उन वीर की पूजा करें हम आज भी यहाँ।।२।।
ॐ ह्रीं समस्तलोकज्येष्ठपदधारकपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुर्महावृषभ-
शुभस्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जब सिंह को देखा सुपन में त्रिशला मात ने।
पाया अनन्तबल से युक्त पुत्र आपने।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं अनन्तबलशालिपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुःसिंहशुभ-
स्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फूलों की युगल माला देखी थी स्वप्न में।
सद्धर्म तीर्थ को चलाने वाला सुत मिले।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं सद्धर्मतीर्थप्रवर्तनकारिपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुःस्रग्युग्म-
शुभस्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिषेकयुत लक्ष्मी दिखीं त्रिशला को स्वप्न में।
किया पुत्र का अभिषेक, मेरु गिरि पे इन्द्र ने।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं सुरेन्द्रकृतसुमेरुशिखराभिषेकप्राप्तपदधारिपुत्रजन्मफलसूचकाय
मातुर्लक्ष्मीशुभस्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
छट्ठे स्वपन में चन्द्रमा देखा था मात ने।
सब जन को सुखप्रदायि पुत्र दिया मात ने।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वजनाल्हादनकारिपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुश्चन्द्रशुभ-
स्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आकाश का सूरज दिखा त्रिशला को स्वप्न में।
उस फल में सूर्य कान्तिमान पुत्र थे जन्में।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं भास्करद्युतिधारकपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुःसूर्यशुभ-
स्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जल से भरे कलशयुगल जब स्वप्न में दिखे।
निधियों के स्वामी पुत्र को पाकर सभी हरषे।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं निधिस्वामिपुत्रजन्मफलसूचकाय मातु:कुंभयुगलशुभ-
स्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इक मत्स्ययुगल स्वप्न में देखा था मात ने।
अतिशय सुखों का धारी पुत्र दिया मात ने।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं अतिशयसौख्यधारकपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुर्मत्स्ययुग्म-
शुभस्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देखा कमल से युक्त सरोवर जो सुपन में।
इक सहस्र आठ लक्षणों युत पुत्र था फल में।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।१०।।
ॐ ह्रीं सहस्राष्टलक्षणोद्भासिपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुःसरोवरशुभ-
स्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लहरों से युक्त सागर जब स्वप्न में दिखा।
उस फल में त्रिशलापुत्र को वैवल्य पद मिला।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।११।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानोपलब्धिकृतपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुःसमुद्रशुभ-
स्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोने का सिंहासन दिखा माता को स्वप्न में।
त्रैलोक्यगुरु साम्राज्यधारि पुत्र को जन्में।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं जगद्गुरुसाम्राज्यधारिपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुःसिंहासन-
शुभस्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देखा विमान स्वर्ग से आता है स्वप्न में।
स्वर्गावतारि पुत्र आया उनके गर्भ में।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।१३।।
ॐ ह्रीं स्वर्गावतारिपुत्रजन्मफलसूचकाय मातु:स्वर्विमानशुभस्वप्न
प्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौदहवें स्वप्न में दिखा नागेन्द्र भवन है।
वह पुत्र मिला जिसके अवधिज्ञान नयन हैं।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं अवधिज्ञानलोचनधारिपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुर्धरणेन्द्रभवन-
शुभस्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नोंं की राशि स्वप्न में त्रिशला के आ गई।
उस फल में गुणाकरस्वरूप पुत्र पा गईं।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।१५।।
ॐ ह्रीं गुणाकरस्वरूपपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुःप्रोद्यद्रत्ननरा-
शीक्षणशुभस्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरज्िानेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्धूम अग्नि देखी सोलहवें स्वप्न में।
तब कर्मनष्टकारि पुत्र पाया उन्होंने।।
उन स्वप्नप्रदर्शक प्रभू की अर्चना करूँ।
महावीर वीर सन्मती की वन्दना करूँ।।१६।।
ॐ ह्रीं कर्मेन्धनदहनकारकपुत्रजन्मफलसूचकाय मातुर्निर्धूमज्वलनेक्षण-
शुभस्वप्नप्रदर्शकाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (शंभु छंद)-
सोलह स्वप्नों के बाद दिखा, त्रिशला रानी को इक सपना।
स्वर्णिम कांती युत एक वृषभ, मेरे मुख कमल प्रविष्ट हुआ।।
उस फल में ज्ञात हुआ उनको, तीर्थंकर सुत उदरस्थ हुए।
उन स्वप्न दिखाने वाले प्रभु को, पूजें हम पूर्णार्घ्य लिए।।१।।
ॐ ह्रीं मातु: ऐरावतहस्तिप्रभृतिनिर्धूमअग्निपर्यन्तअतिशयकारिषोडश-
स्वप्नप्रदर्शकाय मनोवाञ्छित फलप्रदाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ तृतीय वलये चतुस्त्रिंशत्कोष्ठोपरिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
जिनके परमौदारिक शरीर में, कभी पसीना नहिं आता।
शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करे, भक्तों को उनकी गुण गाथा।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर के तन में, जन्म से ही यह अतिशय था।
इस अतिशय गुणमण्डित जिनवर को, नमूँ अत: मैं अर्घ्य चढ़ा।।१।।
ॐ ह्रीं शरीरस्वास्थ्यप्रदायकाय नि:स्वेदत्वसहजातिशयगुणमण्डिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनके परमौदारिक शरीर में, मल का सदा अभाव रहा।
वे स्वात्मविशुद्धि प्रदान करें, भक्तों को निर्मल भाव सदा।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर के तन में, जन्म से ही यह अतिशय था।
इस अतिशय गुण मण्डित जिनवर को, नमूँ अत: मैं अर्घ्य चढ़ा।।२।।
ॐ ह्रीं स्वात्मविशुद्धिप्रदायकाय मलविरहितसहजातिशयगुणमंडिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनके परमौदारिक शरीर में, क्षीर समान रुधिर रहता।
समरसी भाव दायक वे प्रभु, भक्तों में समरस भरें सदा।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर के तन में, जन्म से ही यह अतिशय था।
इस अतिशय गुणमण्डित जिनवर को, नमूँ अत: मैं अर्घ्य चढ़ा।।३।।
ॐ ह्रीं समरसीभावप्रदायकाय क्षीरसमरुधिरत्वसहजातिशयगुण-
मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनके शरीर का वज्रवृषभ, नाराच संहनन माना है।
तन-मन शक्ती वर्धन हेतू, हमने प्रभु को पहचाना है।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर के तन में, जन्म से ही यह अतिशय था।
इस अतिशय गुणमण्डित जिनवर को, नमूँ अत: मैं अर्घ्य चढ़ा।।४।।
ॐ ह्रीं निजात्मशक्तिवर्धकाय वज्रवृषभनाराचसंहननसहजातिशय-
गुणमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समचतुरस्र संस्थान सदा, जिनके शरीर का रहता है।
उन स्वात्मसौख्यदायक प्रभुवर का, रूप मनोहर लगता है।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर के तन में, जन्म से ही यह अतिशय था।
इस अतिशय गुणमण्डित जिनवर को, नमूँ अत: मैं अर्घ्य चढ़ा।।५।।
ॐ ह्रीं स्वात्मसौख्यप्रदायकाय समचतुरस्रसंस्थान सहजातिशयगुण-
मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पृथ्वी के सब उत्तम परमाणू, जिनका रूप बनाते हैं।
सौंदर्यखान उन प्रभु का रूप, निरखने इन्द्र भी आते हैं।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर के तन में, जन्म से ही यह अतिशय था।
इस अतिशय गुणमण्डित जिनवर को, नमूँ अत: मैं अर्घ्य चढ़ा।।६।।
ॐ ह्रीं इन्द्रनरेन्द्र-धरणेन्द्रखगेन्द्रनेत्रमनोहारिसौंदर्यसमन्विताय अनुपमरूप-
सहजातिशयगुणमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनके शरीर की शुभ सुगंधि, सबके मन को सुरभित करती।
जिनगुणयश सुरभी लेने को, त्रिभुवन जनता इच्छुक रहती।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर के तन में, जन्म से ही यह अतिशय था।
इस अतिशय गुणमण्डित जिनवर को, नमूँ अत: मैं अर्घ्य चढ़ा।।७।।
ॐ ह्रीं स्वात्मसुयशोविस्तारकाय सौगन्ध्यसहजातिशयगुणमंडिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीवत्स आदि इक सहस आठ, लक्षण जिनमें प्रगटित होते।
शुभ कर्मों के कारण उनके, पद में देवादि विनत होते।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर के तन में, जन्म से ही यह अतिशय था।
इस अतिशय गुणमण्डित जिनवर को, नमूँ अत: मैं अर्घ्य चढ़ा।।८।।
ॐ ह्रीं अशुभकर्मनिवारकाय अष्टोत्तरसहस्रशुभलक्षणसहजाति-
शयगुणमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आतम बल को वृद्धिंगत करने, वाला बल जिनके तन में।
उनके अनंतबलवीर्य नाम का, अतिशय प्रगट हुआ सच में।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर के तन में, जन्म से ही यह अतिशय था।
इस अतिशय गुणमण्डित जिनवर को, नमूँ अत: मैं अर्घ्य चढ़ा।।९।।
ॐ ह्रीं आत्मबलवर्धकाय अनन्तबलवीर्यसहजातिशयगुणमंडिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हितमितप्रिय मधुर वचन जिनके, अतिशयस्वरूप पाया जाता।
सबका करते कल्याण तथा, निज का कल्याण भी हो जाता।।
तीर्थंकर प्रभु महावीर के तन में, जन्म से ही यह अतिशय था।
इस अतिशय गुणमण्डित जिनवर को, नमूँ अत: मैं अर्घ्य चढ़ा।।१०।।
ॐ ह्रीं कण्ठाकुंठितफलप्रदाय प्रियहितमधुरवचनसहजातिशय-
गुणमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु को कैवल्य प्रगट होते ही, क्षेम व सुख की वृद्धि हुई।
चउ शतक कोस तक हो सुभिक्षता, ईति भीतियाँ नष्ट हुईं।।
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभू में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।११।।
ॐ ह्रीं सर्वत्र क्षेमकराय गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षताकेवलज्ञाना-
तिशयगुणमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु को कैवल्य प्रगट होते ही, गगनगमन करने लगते।
धरती से बीस हजार हाथ, ऊपर ही समवसरण बनते।।
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभू में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।१२।।
ॐ ह्रीं उत्तमगतिप्रदायकाय गगनगमनत्वकेवलज्ञानातिशय-
गुणमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु को कैवल्य प्रगट होते ही, पूर्ण अहिंसक बन जाते।
अनुकम्पा गुण के कारण ही, सब प्राणी उनसे सुख पाते।।
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभू में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।१३।।
ॐ ह्रीं अनुकंपागुणविकसिताय प्राणिवधाभावकेवलज्ञानातिशय-
गुणमण्डिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु को कैवल्य प्रगट होते ही, कवलाहार अभाव हुआ।
आहारशुद्धि के फल स्वरूप, उनको यह अतिशय प्राप्त हुआ।।
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभू में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।१४।।
ॐ ह्रीं आहारशुद्धिफलप्रदायकाय कवलाहाराभावकेवलज्ञानातिशय-
गुणमण्डिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु को कैवल्य प्रगट होते ही, उपसर्गों का अभाव हुआ।
सम्पूर्ण उपद्रव नष्ट हुए, समता का पूर्ण विकास हुआ।।
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभू में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।१५।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारणसमर्थाय उपसर्गाभावकेवलज्ञानातिशय-
गुणमण्डिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु को कैवल्य प्रगट होते ही, चतुर्मुखी बनकर प्रगटे।
इक मुख होकर भी सब जन को, अपने-अपने सम्मुख दिखते।।
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभू में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।१६।।
ॐ ह्रीं सर्वजनमनोहराय चतुर्मुखत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमण्डिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु को कैवल्य प्रगट होते ही, छाया रहित शरीर हुआ।
उनकी छत्रच्छाया पाने को, मानस मेरा अधीर हुआ।।
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभू में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।१७।।
ॐ ह्रीं भगवच्छत्रछायाप्रापकाय छायारहितकेवलज्ञानातिशय-
गुणमण्डिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु कोकैवल्य प्रगट होते ही, पलक झपकना बन्द हुआ।
नासाग्र दृष्टि हो गई स्वयं, अब ज्ञाननेत्र अवलंब लिया।।
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभू में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।१८।।
ॐ ह्रीं ज्ञाननेत्रप्रदायकाय पक्ष्मस्पंदरहितकेवलज्ञानातिशयगुण-
विभूषिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु को कैवल्य प्रगट होते ही, विद्या ईश्वरता पाई।
निज आत्मतत्त्व का ज्ञान हुआ, लौकिक ईश्वरता ठुकराई।।
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभू में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।१९।।
ॐ ह्रीं स्वात्मतत्त्वज्ञानप्रापकाय सर्वविद्येश्वरताकेवलज्ञानातिशयगुण-
विभूषिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु को कैवल्य प्रगट होते ही, केश व नख नहिं बढ़ते हैं।
सब जन को अभयदान देते, हर मन को पावन करते हैं।।
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभू में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।२०।।
ॐ ह्रीं सर्वजनताभयदानदायकाय नखकेशवृद्धिरहितकेवलज्ञानातिशय-
गुणविभूषिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु कोकैवल्य प्रगट होते ही, दिव्यध्वनि प्रारंभ हुई।
वह द्वादशांग श्रुतज्ञानरूप, गणधर के द्वारा ग्रथित हुई।।
यह केवलज्ञानी का अतिशय, महावीर प्रभू में प्रगट हुआ।
उनके चरणों की पूजन से, मेरे मन में सुख प्रगट हुआ।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रुतज्ञानप्राप्तिकराय अक्षरानक्षरात्मकसर्वभाषामयदिव्यध्वनि-
केवलज्ञानातिशयगुणप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर के तप बल से सब, ऋतु के फल-फूल साथ फलते।
सूखे तरु भी फलवान बने, जिनको लख हृदय कमल खिलते।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।२२।।
ॐ ह्रीं सर्वजनमनःकमलविकासकाय सर्वर्तुफलादिशोभिततरुपरिणाम-
देवोपनीतातिशयगुणविभूषिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पथ के धूली कण्टक आदिक, सब वायुकुमार दूर करते।
उन प्रभु के सम्मुख उष्ण पित्त, आदिक सब रोग स्वयं टलते।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।२३।।
ॐ ह्रीं उष्णपित्तादिरोगनिवारकाय वायुकुमारोपशमितधूलिकण्टकादि-
देवोपनीतातिशयगुणविभूषिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के विहार से सभी जगह, आपस में मैत्री हो जाती।
हो जन्मजात शत्रुता किसी की, तो जिनसम्मुख नश जाती।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।२४।।
ॐ ह्रीं सर्वजनविरोधनिवारकाय सर्वजनमैत्रीभावदेवोपनीतातिशयगुण-
विभूषिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के विहार में इक योजन तक, पृथ्वी रत्नमयी बनती।
सब जन को सुख देने वाली, दर्पण तल सम निर्मल दिखती।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।२५।।
ॐ ह्रीं सर्वकष्टनिवारणकराय आदर्शतलप्रतिमारत्नमयीमहीदेवो-
पनीतातिशयगुणविभूषिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु श्रीविहार के पूर्व मेघ, गन्धोदक वृष्टी करते हैं।
वह बूंद भी जिस पर पड़ जाती, उसके सब रोग विनशते हैं।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।२६।।
ॐ ह्रीं रक्तपित्तिविस्फोटकादिनानाव्याधिनिवारकाय मेघकुमारकृत-
गंधोदकवृष्टिदेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के सन्निध से वृक्ष सभी, फलभार सहित हो झुक जाते।
सर्वोत्तम फल दायक प्रभु को, नम कर मानो वे फल जाते।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।२७।।
ॐ ह्रीं सर्वोत्तमफलप्रदानसमर्थाय फलभारनम्रशालिदेवोपनीता-
तिशयगुणमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन को परमानंद प्राप्त, हो जाता प्रभु दर्शन करके।
वह चुम्बकीय व्यक्तित्व भला, किसको सुख नहिं देता जग में।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।२८।।
ॐ ह्रीं परमसौख्यप्रदायकाय सर्वजनपरमानन्दत्वदेवोपनीताति-
शयगुणमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनुकूल वायु चलती सदैव ही, मन्द-मन्द प्रभु विहरण में।
प्रतिकूल नहीं कोई रहता, उनके सम्मुख अवनीतल पे।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।२९।।
ॐ ह्रीं प्रतिकूलजनापसारकाय अनुकूलविहरणवायुत्वदेवोपनीताति-
शयगुणविभूषिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्मल जल से परिपूर्ण कूप, सरवर आदिक हो जाते हैं।
जिनवर से स्वात्मसुधारस पा, मुनिगण निज में खो जाते हैं।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।३०।।
ॐ ह्रीं स्वात्मसुधारसप्रदायकाय निर्मलजलपूर्णकूपसरोवरादिदेवोपनी-
तातिशयगुणविभूषिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो शरदकालवत् गगन स्वच्छ, मानो प्रभु का गुणगान करे।
चउ दिश में यश पैले उनका, जो जिनवर चरण प्रणाम करें।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।३१।।
ॐ ह्रीं चतुर्दिग्यशोविस्तारकाय शरत्कालवन्निर्मलाकाशदेवोपनीता-
तिशयगुणविभूषिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन की रोग शोक बाधा, प्रभु समवसरण में टल जाती।
इसलिए स्वस्थता प्राप्ति हेतु, जनता प्रभु के सम्मुख आती।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।३२।।
ॐ ह्रीं परमस्वास्थ्यविधायकाय सर्वजनरोगशोकबाधारहितत्व-
देवोपनीतातिशयगुणविराजिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वाण्ह यक्ष निज मस्तक पर, ले धर्मचक्र आगे चलता।
जिनवर विहार के समय धरा पर, धर्मतीर्थ वर्तन करता।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।३३।।
ॐ ह्रीं सद्धर्मबुद्धिविवर्धकाय यक्षेन्द्रमस्तकोपरिस्थितधर्मचक्रचतुष्टय-
देवोपनीतातिशयगुणमण्डिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
प्रभु चरण कमल तल स्वर्ण-कमल की, रचना इन्द्र स्वयं करते।
चतुरंगुल अधर रहें जिनवर, फिर भी वे कमल पूज्य बनते।।
देवोपुनीत यह अतिशय भी, महावीर प्रभू ने प्राप्त किया।
मैं भी यह अतिशय प्राप्त करूँ, अतएव अर्घ्य का थाल लिया।।३४।।
ॐ ह्रीं चतुर्गतिभ्रमणनिवारणसमर्थाय तीर्थंकरदेवचरणकमलतलस्वर्ण-
कमलरचनादेवोपनीतातिशयगुणमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
दश अतिशय जन्म समय से ही, महावीर प्रभू में प्रगट हुए।
केवलज्ञानी बनते ही ग्यारह, अतिशय उनमें उदित हुए।।
तेरह देवोपुनीत अतिशय हैं, कहे तिलोयपण्णत्ती में।
इन चौंतिस अतिशय युक्त वीर, प्रभु को पूजूँ पूर्णार्घ्य लिये।।१।।
ॐ ह्रीं चतुस्त्रिंशत्अतिशयसमन्विताय मनोवाञ्छितफलप्रदाय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ चतुर्थवलये अष्टकोष्ठोपरिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।
दोहा- वृक्ष अशोक हरे सदा, सबका शोक अरिष्ट।
प्रातिहार्य पहला कहा, महावीर का इष्ट।।१।।
ॐ ह्रीं संपूर्णशोकनिवारणसमर्थाय अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्य
गुणमण्डिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छत्रत्रय प्रभु पर ढुरें, त्रिभुवन सौख्य करंत।
प्रातिहार्य दूजे सहित, पूजूँ सन्मति कंज।।२।।
ॐ ह्रीं त्रिभुवनसौख्यसाधनकराय छत्रत्त्रयमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सिंहासन पर राजते, अधर वीर भगवान।
प्रातिहार्य यह है तृतिय, पूजूँ सौख्य महान।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वजनपूज्यपददायकाय सिंहासनमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण बारह सभा, से वेष्टित भगवान।
प्रातिहार्य चौथा कहा, जजूँ वीर धर ध्यान।।४।।
ॐ ह्रीं असंख्यप्राणिगणानुग्रहकारकाय द्वादशगणवेष्टितमहाप्राति-
हार्यगुणमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दुंदुभि वाद्य बजाय के, देव करें उद्घोष।
प्रातिहार्य है पाँचवां, पूजूँ मन संतोष।।५।।
ॐ ह्रीं जिनधर्मप्रभावकाय देवदुंदुभिमहाप्रातिहार्यगुणविभूषिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष के पुष्प ले, वृष्टि करें सुरराज।
गुणपुष्पों की प्राप्ति हित, पूजूँ त्रिभुवननाथ।।६।।
ॐ ह्रीं जिनधर्मप्रभावकाय देवदुंदुभिमहाप्रातिहार्यगुणविभूषिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भामण्डल युत वीर प्रभु, स्वात्मप्रभा में मग्न।
प्रातिहार्य के प्रति मेरा, आज समर्पित अर्घ्य।।७।।
ॐ ह्रीं स्वात्मप्रभाविस्तारकाय भामंडलमहाप्रातिहार्यगुणविभूषिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौंसठ चंवर ढुरें सदा, महावीर के पास।
प्रातिहार्य अष्टम कहा, जजूँ नमाकर माथ।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वजनमनःप्रियकराय चतुःषष्टिचामरमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (शंभु छंद)-
अरिहंत अवस्था में प्रभु के, ये आठों प्रातिहार्य प्रगटें।
महावीर प्रभू इन को पाकर भी, सदा विरागी ही रहते।।
हर मन आनन्दित होता है, तीर्थंकर वैभव को लखके।
हम भी पूर्णार्घ्य चढ़ाने को, लाये हैं थाल सजा करके।।
ॐ ह्रीं अशोकवृक्षप्रभृतिचतुःषष्ठिचामरपर्यन्तअष्टमहाप्रातिहार्यसमन्विताय
मनोवाञ्छितफलप्रदाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ पंचमवलये चतुःकोष्ठोपरिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शेर छंद-
प्रभु वीर ने जब ज्ञानावरण कर्म क्षय किया।
उनमें अनन्तज्ञान गुण तब ही प्रगट भया।।
मैं भी करूँ अज्ञान का विनाश भक्ति से।
ले अर्घ्य थाल अर्पूं जिनपद में भक्ति से।।१।।
ॐ ह्रीं ज्ञानावरणकर्मक्षपणयुक्तिप्रदाय अनन्तज्ञानगुणविभूषिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर दर्शनावरण करम विनाश नाथ ने।
प्रगटा अनंतदर्शन गुण वीर! आप में।।
मैं भी करूँ इस कर्म का विनाश भक्ति से।
ले अर्घ्य थाल अर्पूं जिनपद में भक्ति से।।२।।
ॐ ह्रीं दर्शनावरणकर्मक्षपणयुक्तिप्रदाय अनन्तदर्शनगुणविभूषिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज मोहनीय कर्म नाश सौख्य पा लिया।
जो सुख कभी न नष्ट हो उसको दिखा दिया।।
मैं भी करूँ इस कर्म का विनाश भक्ति से।
ले अर्घ्य थाल अर्पूं जिनपद में भक्ति से।।३।।
ॐ ह्रीं मोहनीयकर्मनाशनबुद्धिप्रदाय अनंतसौख्यगुणसमन्विताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज में छिपे अनंतवीर्य गुण को पा लिया।
जब अन्तराय कर्म को तप से नशा दिया।।
मैं भी करूँ इस कर्म का विनाश भक्ति से।
ले अर्घ्य थाल अर्पूं जिनपद में भक्ति से।।४।।
ॐ ह्रीं अन्तरायकर्मविनाशनबुद्धिप्रदाय अनंतवीर्यगुणविभूषिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
तर्ज-आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं………
चार घातिया कर्म नाश कर, तीर्थंकर अरिहंत बने।
निज आतम के गुण विकास कर, क्षेमंकर भगवंत बने।।
जय जय वीर प्रभो, बोलो जय महावीर प्रभो।।टेक.।।
केवलज्ञानी वर्धमान आकाश में अधर विराज रहे।
समवसरण के मध्य अनंत चतुष्टय संयुत राज रहे।।
अक्षय सुख के सागर जिनवर, सिद्धिप्रिया के कंत बने।
निज आतम के गुण विकास कर, क्षेमंकर भगवंत बने।।
जय जय वीर प्रभो, बोलो जय महावीर प्रभो।।१।।
ॐ ह्रीं अनंतचतुष्टयगुणसमन्विताय मनोवाञ्छितफलप्रदाय
श्रीमहावीर-जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ षष्ठमदले अष्टादशकोष्ठोपरिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।
तर्ज-जहाँ डाल-डाल पर………..
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम पूजन करने आए।।टेक.।।
केवलज्ञानी तीर्थंकर को, नहिं भूख कभी लगती है।
ज्ञानामृत भोजन से आत्मा में, तृप्ति बनी रहती है।।
तृप्ति बनी रहती है……
आतम सन्तुष्टि मिले हमको भी, रोग क्षुधा नश जाए,
हम पूजन करने आए।।१।।
ॐ ह्रीं स्वात्मसंतुष्टिकारकाय क्षुधामहादोषविरहिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम पूजन करने आए।।
है दोष तृषा जिससे प्राणी, संतप्त सदा रहते हैं।
जिनवर यह दोष नष्ट करके, संतृप्त सदा रहते हैं।।
संतृप्त सदा……..
संताप जगत का दूर करो, इस भाव से अर्घ्य चढ़ाएं,
हम पूजन करने आए।।२।।
ॐ ह्रीं संसारसंतापनिवारकाय तृषामहादोषविरहिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
भयदोष नाश के कारण भय भी, प्रभु से भय खाता है।
इनकी भक्ती से हर प्राणी, भयविरहित हो जाता है।।
भयविरहित………
सम्यक्त्व बने निर्दोष हमारा, यही भावना भाएँ,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।३।।
ॐ ह्रीं सप्तभयविरहितनिर्दोषसम्यक्त्वप्रदाय भयमहादोषविरहिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
जिनवर ने क्षमाभाव द्वारा ही, क्रोध शत्रु को जीता।
उनके नेत्रों में इसीलिए, दिखती न लालिमा रेखा।।
दिखती…….
हो क्रोध नष्ट हम सबका भी, बस यही भावना भाएं,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।४।।
ॐ ह्रीं क्षमाभावप्रदायकाय क्रोधमहादोषविरहिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
चिन्ता है चिता सम्ाान कही, प्रभु में न कभी वह रहती।
स्वात्मा के चिन्तन में उनकी, बस दृष्टि सदा ही रहती।।
बस दृष्टि सदा ही……..
चिन्ता को तजकर निज चिन्तन का, भाव हृदय में लाएं,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।५।।
ॐ ह्रीं स्वात्मचिंतनबुद्धिप्रदाय चिन्तामहादोषविरहिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
तीर्थंकर प्रभु के तन में कभी, बुढ़ापा नहिं आता है।
इसलिए जरा यह दोष प्रभू में, पाया नहिं जाता है।।
पाया………..
उनकी पूजन से इक दिन परमौदारिक तन मिल जाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।६।।
ॐ ह्रीं परमौदारिकदिव्यदेहप्रदाय जरामहादोषविवर्जिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
संसार में राग के कारण ही, कर्मों का बंधन होता।
वैराग्य के बल पर जिनवर ने, उस राग दोष को जीता।।
उस राग……..
हम भी सराग सम्यक्त्व से उसको, क्रमशः शीघ्र नशाएं,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।७।।
ॐ ह्रीं सरागवीतरागसम्यक्त्वप्रदाय रागमहादोषविवर्जिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
आठों कर्मों में सबसे प्रबल है, मोह कर्म का नाता।
इस महादोष को जिनवर ने, निज ध्यान के बल से घाता।।
निज ध्यान………..
बहिरात्म बुद्धि का हो विनाश, तो मोह स्वयं नश जाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।८।।
ॐ ह्रीं बहिरात्मबुद्धिनिवारकाय मोहमहादोषविवर्जिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
यूँ तो हर प्राणी का शरीर, रोगों का घर कहलाता।
लेकिन प्रभु वीर ने रोग नाम के, महादोष को नाशा।।
महादोष को………
इसलिए प्रभू की पूजन से, तन रोग शीघ्र नश जाएं,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।९।।
ॐ ह्रीं नानाव्याधिनिवारणसमर्थाय रोगमहादोषविरहिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
इस जग में जन्म के साथ मरण, हर प्राणी का होता है।
पर मृत्यु दोष से रहित प्रभू का, मोक्षगमन होता है।।
मोक्षगमन……
बस इसीलिए प्रभु पूजन से, यमराज दूर भग जाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।१०।।
ॐ ह्रीं यमराजजयबुद्धिप्रदाय मृत्युमहादोषविवर्जिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्री महावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
शारीरिक श्रम के कारण तन में, पसीना आ जाता है।
पर स्वेददोषविरहित प्रभु तन में, नहिं पसेव आता है।।
नहिं पसेव…………
प्रभु पूजन से शारीरिक श्रम में भी नहिं तन मुरझाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।११।।
ॐ ह्रीं शरीरश्रमापनुदनयुक्तिप्रदाय स्वेदमहादोषविवर्जिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्रीमहावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
संसारी प्राणी विषम परिस्थिति, में विषाद करते हैं।
इस महादोष विरहित प्रभुवर, न विषाद कभी करते हैं।।
न विषाद कभी……..
बस इसीलिए अर्चना प्र भू की परमाल्हाद दिलाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।१२।।
ॐ ह्रीं परमाल्हादसौख्यप्रदायकाय विषादमहादोषविरहिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्रीमहावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
अज्ञानी जन निज तुच्छ ज्ञान, आदिक का मद करते हैं।
लेकिन मददोष रहित जिनवर में, कोई न मद रहते हैं।।
कोई न……..
उनकी पूजन से अष्टभेदयुत अहंकार नश जाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।१३।।
ॐ ह्रीं अष्टविधमदनिवारणबुद्धिप्रदायकाय मदमहादोषविवर्जिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्रीमहावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
रतिदोष सहित मानव इन्द्रिय, विषयों में रत रहते हैं।
पर स्वात्मरमण में रत जिनवर, रति महादोष तजते हैं।।
रति महा…….
उन पूजन से निज में रत रहने की बुद्धी आ जाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।१४।।
ॐ ह्रीं स्वात्मरमणबुद्धिप्रदायकाय रतिमहादोषविवर्जिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्रीमहावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
अपना अपूर्व वैभव लखकर भी, प्रभु विस्मित नहिं होते।
तीर्थंकर जैसी पुण्य प्रकृति से, दिव्य विभवमय होते।।
दिव्य विभवमय…….
उनका अर्चन परमाश्चर्य सिद्धीपद प्राप्त कराए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।१५।।
ॐ ह्रीं परमाश्चर्यस्वरूपसिद्धिपदसाधनकराय विस्मयमहादोष-
विवर्जिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्रीमहावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
निज शुक्लध्यान में स्थित प्रभु को, नींद कभी नहिं आती।
उस निद्रा महादोष को आखिर, निद्रा खुद आ जाती।।
निद्रा खुद……….
मुक्तीपद के साधक में आलसभाव स्वयं नश जाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।१६।।
ॐ ह्रीं मुक्तिपदसाधनालस्यनिवारकाय निद्रामहादोषविवर्जिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्रीमहावीर प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
जिनवर ने पुनः पुनर्भव नाशा, सार्थक जन्म कराया।
इसलिए जन्म महादोष रहित, उनका यश जग में छाया।।
उनका यश…….
जब तक नहिं जन्म का दोष नशे हम सार्थक जन्म कराएं,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।१७।।
ॐ ह्रीं पुन: पुनर्भवनिवारकाय जन्ममहादोषविवर्जिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर श्रीमहाव्र प्रभू ने सारे दोष नशाए,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।
संसार में अरति महादोष से, द्वेषबुद्धि बढ़ती है।
सन्मति प्रभु की यह दोष रहितता, सबका मन हरती है।।
सबका मन……..
प्रभु भक्ति करें तो द्वेष बुद्धि नाशन की युक्ती पाएं,
हम अर्घ्य चढ़ाने आए।।१८।।
ॐ ह्रीं द्वेषबुद्धिनाशनयुक्तिप्रदाय अरतिमहादोषविवर्जिताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (स्रग्विणी छंद)-
अठारह महादोष विरहित प्रभू हैं।
क्षुधा से अरति तक न उनमें कोई हैं।।
जलादि का पूर्णार्घ्य लेकर जजूँ मैं।
तभी पूर्र्ण निर्दोष पद को लहूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टादशमहादोषविरहिताय मनोवाञ्छितफलप्रदाय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ सप्तमदले द्वादशकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
महावीर प्रभू जी चैत्र शुक्ल, तेरस की रात्री में जन्मे।
तब उनका जन्मोत्सव करके , सौधर्म इन्द्र भी धन्य बने।।
जन्माभिषेक हो गया मेरु पर, पुन: इन्द्र ने नाम रखा।
तुम वीर और प्रभु वर्धमान हो, मैं भी पूजूँ तुम्हें सदा।।१।।
ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुपर्वतोपरिजन्माभिषेकानन्तर इंद्रकृतवीरवर्धमानद्वय-
नामप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुण्डलपुर नंद्यावर्त महल में, वर्धमान पलना झूलें।
तब संजय विजय मुनी चारण-ऋद्धीधारी नभ से उतरे।।
पलना की त्रय प्रदक्षिणा दे, मन की शंका निर्मूल हुई।
तब वर्धमान को ‘‘सन्मति’’ कह, मुनिद्वय की इच्छा पूर्ण हुई।।२।।
ॐ ह्रीं बाल्यकालेसंजयविजयमुनिद्वयशंकासमाधानप्राप्तसमय-
महामुनिकृतसन्मतिनामसमन्विताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
इक दिन कुण्डलपुर उपवन में, सन्मति देवों संग खेल रहे।
तब संगमदेव परीक्षा करने, आया सर्प रूप धरके।।
सब बालक डरकर भगे किन्तु, ये चढ़े सर्प फण के ऊपर।
तब देव ने महावीर कह कर, पूजा मैं भी पूजूँ रुचिधर।।३।।
ॐ ह्रीं देवबालकसार्धक्रीडासमयसंगमदेवकृतमहाफणधरोपसर्ग-
विजयितद्देवकृतमहावीरनामविभूषिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अतिमुक्तक वन प्रभु महावीर के, ध्यान से इक दिन पावन था।
तब रुद्र ने आ उपसर्ग किया, पर प्रभु मन ध्यान का सावन था।।
उनको अविचल लख रुद्र ने भी, महति महावीर नाम रक्खा।
वह महादेव तव चरण झुका, मैंने भी अर्घ्य सजा रक्खा।।४।।
ॐ ह्रीं अतिमुक्तकवनमध्यध्यानस्थकालरुद्रकृतमहोपसर्गविजय-
समयतन्महादेवकृतमहतिमहावीरनाममण्डिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री इन्द्रभूति गौतम आदिक, ग्यारह गणधर के स्वामी थे।
प्रभु महावीर द्वादश गण के, अधिपति त्रिभुवन में नामी थे।।
उन महायोगि के चरणों में, मैं अर्घ्य चढ़ाकर नमन करूँ।
मैं भी योगी बन सवूँ इसी, अभिलाषा से संस्तवन करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं गणधरदेवादिस्वामिने महायोगीश्वरगुणविशिष्टाय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब द्रव्यकर्म को नाश वीर ने, सिद्ध अवस्था प्राप्त किया।
इसलिए कहाए द्रव्यसिद्ध, सारे गुण तुमने प्राप्त किया।।
आत्मा की सिद्ध अवस्था तो, प्राकृतिक अमूर्तिक रहती है।
उस पद की प्राप्ती हेतु सभी को, दीक्षा लेनी पड़ती है।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वकर्मनिर्मुक्तसाक्षात्सिद्धपदप्राप्ताय द्रव्यसिद्धगुणसमन्विताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्वाण प्राप्ति के बाद देह-विरहित अदेहगुण को वंदन।
पावापुरि के जलमंदिर से, शिवनारि वरी जगदानंदन।।
परमौदारिक तैजस कार्मण, तीनों शरीर का हुआ दहन।
उन देहरहित जिनवर पद में, मेरा है कोटि नमन अर्चन।।७।।
ॐ ह्रीं परमौदारिकतैजसकार्मणत्रयदेहविरहिताय अदेहगुणविभूषिताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर का ऐसा जनम हुआ, जिससे वे बने अजन्मा थे।
तब अपुनर्भव गुण से विशिष्ट, होकर संसार के ब्रह्मा थे।।
संसार में होने वाले पुनरागमन चक्र से छूट गये।
उनकी पूजन से मेरे भी, दुर्गति के बंधन टूट गये।।८।।
ॐ ह्रीं संसारमध्यपुनरागमनविरहिताय अपुनर्भवगुणविशिष्टाय श्रीमहावीर
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा के क्षायिकज्ञान का जिनको, आस्वादन है प्राप्त सदा।
चैतन्य गुणों के साथ ज्ञान का, चूँकि रहा संबंध सदा।।
बस उसी ज्ञान की प्राप्ति हेतु, रत्नत्रय धारण करना है।
नहिं जब तक उपलब्धी होती, जिनवर का अर्चन करना है।।९।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानमयीचेतनागुणविशिष्टाय ज्ञानैकचिद्गुणसमन्विताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा निश्चय नय से संश्लेष, रहित स्वात्मा में स्थित है।
स्वात्मा से ही निष्पन्न जीव, अपने स्वरूप में संस्थित है।।
इसलिए जीवघनगुण से युत, प्रभु वर्धमान का यजन करूँ।
मुझमें भी यह गुण प्रगटित हो, इस इच्छा से पद नमन करूँ।।१०।।
ॐ ह्रीं अन्यसंश्लेषरहितस्वात्मनिष्पन्नजीवमयाय जीवघनगुण-समन्विताय
श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमेष्ठी सिद्ध कहे जाते, इस नाम से कार्य सिद्ध होते।
स्वात्मोपलब्धि हो चुकी जिन्हें, उपलब्ध न वे हमको होते।।
उनकी उपलब्धि कराने का, मारग गुरुजन बतलाते हैं।
उन सिद्धनामयुत महावीर को, हम सब अर्घ्य चढ़ाते हैं।।११।।
ॐ ह्रीं स्वात्मोपलब्धिरूपपदप्राप्ताय सिद्धनामसमन्विताय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब गुण में सर्वोपरि गुण सिद्ध-शिला पर गमनस्वभाव कहा।
उसको कर प्राप्त जिनेश्वर ने, अपना गुण सिद्धस्वभाव लहा।।
तनुवातवलय में स्थित पावन, सिद्धशिला को वंदन है।
लोकाग्र प्राप्ति के इच्छुक उन, प्रभु वीर को अर्घ्य समर्पण है।।१२।।
ॐ ह्रीं तनुवातवलयस्थितसिद्धशिलोपरिगमनस्वभावाय लोकाग्रगामुक-
गुणविशिष्टाय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
हैं पाँच नाम से जो प्रसिद्ध, कुण्डलपुर के प्रभु अवतारी।
सिद्धारथसुत त्रिशला नन्दन, प्रभुवीर बालब्रह्मचारी।।
उनके ये इक सौ आठ गुणों के, मंत्र बड़े अतिशयकारी।
ये मनोकामनासिद्धी व्रत में, जपते हैं सब नर-नारी।।१।।
श्री गणिनीप्रमुख ज्ञानमति माताजी ने मंत्र बनाया है।
उनकी शिष्या ‘‘चन्दनामती’’ ने उनसे अर्घ्य बनाया है।।
पच्चीस सौ तीस वीर संवत्, वैशाख कृष्ण दुतिया आई।
प्रभु जन्मभूमि कुण्डलपुर में, अर्घावलि माला पहनाई।।२।।
-दोहा-
गुण अनंत प्रभु आप के, वैसे वरणूं नाथ।
पूरण अर्घ्य चढ़ाय के, मैं भी बनूँ सनाथ।।३।।
ॐ ह्री शताष्टगुणसमन्विताय मनोवाञ्छितफलप्रदाय श्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं मनोवाञ्छितफलप्रदाय श्री महावीरजिनेन्द्राय नमः। (१०८ बार)
-शंभु छन्द-
जय जय तीर्थंकर महावीर, तुम सर्वसिद्धि के दाता हो।
जय जय जिनवर हे नाथ! वीर, तुम तो शिवमार्ग विधाता हो।।
जय जय सन्मति! अतिवीर प्रभो! तुम सम्यक्बुद्धि प्रदाता हो।
जय जय हे वर्धमान भगवन्! तुम आत्मशक्ति के दाता हो।।१।।
महावीर से दश भव पूर्व सिंह, पर्याय में सम्बोधन पाया।
फिर अणुव्रत धारण कर क्रम क्रम से, देव मनुज का भव पाया।।
उत्थान किया निज जीवन का, तो जग का भी उत्थान हुआ।
जिसने तुमसे शिक्षा पाई, उसका ही जनम महान हुआ।।२।।
कुण्डलपुर नंद्यावर्त महल में, चैत्र शुक्ल तेरस तिथि को।
राजा सिद्धारथ की रानी, त्रिशला ने जन्मा इक सुत को।।
वह ही संसार प्रसिद्ध हुआ, चौबिसवाँ तीर्थंकर बन कर।
नहिं उनके बाद हुआ कोई, इस भरतक्षेत्र में तीर्थंकर।।३।।
इसलिए इन्हें अंतिम तीर्थंकर, कहा गया इस भारत में।
लेकिन आगे भी जन्मेंगे, चौबिस तीर्थंकर भूतल पे।।
महावीर शिष्य श्रेणिक उनमें से, प्रथम जिनेश्वर पद लेंगे।
जो नगरि अयोध्या में तीर्थंकर ‘‘महापद्म’’ बन जन्मेंगे।।४।।
महावीर के पांचों कल्याणक से, जो जो धरा पवित्र हुईं।
वे आज बनीं गौरवशाली, सुरगण मुनिगण से वंद्य हुईं।।
है गर्भ जन्म तप कल्याणक से, पावन कुण्डलपुर नगरी।
उस निकट जृम्भिका ग्राम में, ऋजुकूला नदि तट है ज्ञानथली।।५।।
राजगृह का विपुलाचल पर्वत, प्रथम देशना स्थल है।
पावापुर का जलमंदिर प्रभु के, मोक्षगमन से पावन है।।
कुण्डलपुर राजगृह पावापुर, जिनवर तीर्थ त्रिवेणी है।
इसमें स्नान करें जो भी, वे आते मोक्ष की श्रेणी में।।६।।
महावीर के छब्बिस सौवें जन्मकल्याणक उत्सव बेला में।
श्री गणिनी ज्ञानमती माता ने रचा विधान अनोखा है।।
वह विश्वशांति महावीर विधान, छब्बिस सौ अर्घ्य समन्वित है।
प्रभु वीर के छब्बिस सौ गुण उसमें, मंत्रों द्वारा वर्णित हैं।।७।।
उसमें से इक सौ आठ मंत्र का, महावीरव्रत नाम पड़ा।
उस व्रत को धारण करने वालों, पर साक्षात् प्रभाव पड़ा।।
उन मंत्रों का आश्रय लेकर, यह नया विधान बनाया है।
महावीर प्रभू की पूजन का, शुभ भाव हृदय में आया है।।८।।
इस नवविधान में सर्वप्रथम, सोलहकारण के अर्घ्य दिया।
जिनको भाकर प्रभु महावीर ने, तीर्थंकर पद प्राप्त किया।।
जिन सोलह स्वप्नों के फल में, माँ ने तीर्थंकर सुत पाया।
उनका वर्णन भी है इसमें, फिर चौंतिस अतिशय दर्शाया।।९।।
अठ प्रातिहार्य आनन्त्य चतुष्टय, गुण हैं जो प्रभु ने पाया।
फिर दोष अठारह नाशक प्रभु को, अर्घ्य चढ़ा मन हरषाया।।
बारह गण के बारह अर्घ्यों में, सिद्धशिला तक पहुँच गये।
इन सात वलय में इक सौ आठ, गुणों के अर्घ्य समर्प्य दिये।।१०।।
गुणमाला प्रभु के चरणों में, अर्पण कर निजगुण प्राप्त करूँ।
महावीर प्रभू के चरणों में, वन्दन कर सुख साम्राज्य वरूँ।।
अतिवीर वीर सन्मति भगवन्! मुझको सद्बुद्धि प्रदान करो।
भक्ती में रत निज भक्तों को, संसारजलधि से पार करो।।११।।
हो मनोकामना पूर्ण मेरी, रत्नत्रय मेरा सुदृढ़ बने।
जब तक शिवपद की प्राप्ति न हो, सम्यक्त्व भी मेरा सुदृढ़ बने।।
पूर्णार्घ्य समर्पण करूँ प्रभो! पूजन की इस जयमाला में।
‘‘चन्दनामती’’ भव भव में मुझको, जिनवर भक्ती मिला करे।।१२।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय मनोवाञ्छितफलप्रदायश्रीमहावीर-
जिनेन्द्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो भव्य मनोकामनासिद्धि, महावीर विधान करें रुचि से।
प्रभु जी के इक सौ आठ गुणों में, रमण करें तन मन शुचि से।।
वे लौकिक सुख के साथ-साथ, आध्यात्मिक सुख भी प्राप्त करें।
‘‘चन्दनामती’’ जिनवर भक्ती का, फल शिवपद भी प्राप्त करें।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।