-स्थापना (शंभु छंद)-
जिनशासन का प्राचीन ग्रंथ, षट्खंडागम माना जाता।
प्रभु महावीर की दिव्यध्वनि से, है इसका सीधा नाता।।
जब द्वादशांग का ज्ञान धरा पर, विस्मृत होने वाला था।
तब पुष्पदंत अरु भूतबली ने, आगम यह रच डाला था।।१।।
-दोहा-
षट्खंडागम ग्रंथ की, पूजन करूँ महान।
मन में श्रुत को धार कर, पा जाऊँ श्रुतज्ञान।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथराज! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथराज! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथराज! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
-अष्टक –
(तर्ज-मैं चंदन बनकर……..)
हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक गं्रथों की।
हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।
ज्ञानामृत पीने से, भव बाधा नशती है।
हम जल की झारी लाए, त्रयधारा करने को।।हम.।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रंथों की।
हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।
चन्दन की शीतलता तो, कुछ क्षण ही रहती है।
शाश्वत शीतलता हेतू, श्रुतपूजन कर लूँ मैं।।हम.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रंथों की।
हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।
श्रुतवारिधि में रमने से, अक्षय पद मिलता है।
हम अक्षत लेकर आए, श्रुत पूजन करने को।।हम.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रंथों की।
हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।
स्वाध्याय परमतप द्वारा, विषयाशा नशती है।
हम पुष्पों को ले आए, पुष्पांजलि करने को।।हम.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रंथों की।
हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।
ज्ञानामृत का आस्वादन, ही सच्चा भोजन है।
नैवेद्य थाल ले आए, श्रुत अर्चन करने को।।हम.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रन्थों की।
हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।
सम्यग्दर्शन का दीपक, मन का मिथ्यात्व भगाता।
इक दीप जलाकर लाए, श्रुत अर्चन करने को।।हम.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
हम पूजा करने आए, सैद्धांतिक ग्रंथों की।
हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।
कर्मों की धूप जलाऊँ, निज ध्यान की अग्नी में।
हम धूप सुगंधित लाए, श्रुत अर्चन करने को।।हम.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रंथों की।
हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।
फल के स्वादों में फँसकर, नहिं मुक्ति सुफल को पाया।
अब थाल फलों का लाए, श्रुत पूजन करने को।।हम.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रंथों की।
हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।
कोमल मृदु वस्त्रों द्वारा, निज तन को सदा ढका है।
अब वस्त्र बनाकर लाए, श्रुत पूजन करने को।।हम.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्यो वस्त्रं निर्वपामीति स्वाहा।
हम पूजा करने आए, सैद्धान्तिक ग्रंथों की।
हम थाल सजाकर लाए, हैं आठों द्रव्यों की।।टेक.।।
‘चन्दनामती’ श्रुत अर्चन, से पद अनर्घ्य मिलता है।
हम अर्घ्य थाल ले आए, श्रुत पूजन करने को।।हम.।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीषट्खंडागमसिद्धान्तग्रंथेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
–दोहा-
षट्खंडागम ग्रंथ के, सम्मुख कर जलधार।
ज्ञान और चारित्र से, करूँ भवाम्बुधि पार।।१०।।
शान्तये शांतिधारा।
विविध पुष्प की वाटिका, से पुष्पों को लाय।
पुष्पांजलि अर्पण करूँ, श्रुत समुद्र के मांहि।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रथमवलये नवकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
१. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य प्रथमखण्डान्तर्गत-सप्तसप्त्यधिकशतसूत्र-
समन्वित-सत्प्ररूपणानाम-जीवस्थानेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
२. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य प्रथमखण्डान्तर्गत-द्विनवत्यधिकशतसूत्र-
समन्वित-द्रव्यप्रमाणानुगमनाम-जीवस्थानेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
३. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य प्रथमखण्डान्तर्गत-द्विनवतिसूत्रसमन्वित-
क्षेत्रानुगमनाम-जीवस्थानेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
४. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य प्रथमखण्डान्तर्गत-पंचाशीत्यधिकशतसूत्र-
समन्वित-स्पर्शनानुगमनाम-जीवस्थानेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
५. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य प्रथमखण्डान्तर्गत-द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशत-
सूत्रसमन्वित-कालानुगमनाम-जीवस्थानेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
६. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य प्रथमखण्डान्तर्गत-सप्तनवत्यधिकत्रिशत-
सूत्रसमन्वित-अन्तरानुगमनाम-जीवस्थानेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
७. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य प्रथमखण्डान्तर्गत-त्रिनवतिसूत्रसमन्वित-
भावानुगमनाम-जीवस्थानेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
८. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य प्रथमखण्डान्तर्गत-द्वयशीत्यधिकत्रिशतसूत्र-
समन्वित-अल्पबहुत्वानुगमनाम-जीवस्थानेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
९. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य प्रथमखण्डान्तर्गत-पञ्चदशाधिकपञ्चशत-
सूत्रसमन्वित-नवचूलिकानाम-जीवस्थानेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
-पूर्णार्घ्य-
पहला है जीवस्थान खण्ड, छह पुस्तक की टीका इसमें।
दो सहस तीन सौ पिचहत्तर, सूत्रों का सार भरा इसमें।।
अनुयोग आठ नव चूलिकाओं, में सत्प्ररूपणा आदि कथन।
यह ज्ञान मुझे भी मिल जावे, इस हेतु करूँ श्रुत का अर्चन।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टअनुयोगनवचूलिकासमन्वितजीवस्थाननामप्रथमखण्ड-जिनागमाय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अथ द्वितीयवलये त्रयोदशकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
१. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-त्रिचत्वारिंशत्सूत्र-
समन्वित-बन्धकसत्त्वप्ररूपणानाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।१०।।
२. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-एकनवतिसूत्रसमन्वित-
स्वामित्वानुगमनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
३. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-षोडशोत्तरद्विशतसूत्र-
समन्वित-एकजीवापेक्षाकालानुगमनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।१२।।
४. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-एकपंचाशदधिकशत-
सूत्रसमन्वित-एकजीवापेक्षान्तरानुगमनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।१३।।
५. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-त्रयोविंशतिसूत्र-
समन्वित-नानाजीवापेक्षाभंगविचयानुगमनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।१४।।
६. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-एकसप्तत्यधिकशत-
सूत्रसमन्वित-द्रव्यप्रमाणानुगमनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।१५।।
७. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-चतुर्विंशत्यधिकशत-
सूत्रसमन्वित-क्षेत्रानुगमनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
८. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-एकोनाशीत्यधिकद्वि-
शतसूत्रसमन्वित-स्पर्शनानुगमनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।१७।।
९. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-पंचपंचाशतसूत्र-
समन्वित-नानाजीवापेक्षयाकालानुगमनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।१८।।
१०. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-अष्टषष्टिसूत्रसमन्वित-
नानाजीवापेक्षयान्तरानुगमनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
११. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-अष्टाशीतिसूत्र-समन्वित-
भागाभागानुगमनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
१२. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-षडुत्तरद्विशतसूत्र-
समन्वित-अल्पबहुत्वानुगमनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
१३. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य द्वितीयखण्डान्तर्गत-एकोनाशीतिसूत्र-
समन्वित-महादण्डकनाम-क्षुद्रकबंधेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
-पूर्णार्घ्य-
षट्खण्डागम का दुतिय खण्ड, है क्षुद्रकबंध कहा जाता।
पन्द्रह सौ चौरानवे सूत्र से, सहित ग्रंथ यह कहलाता।।
सप्तम पुस्तक में है निबद्ध, यह बंध का प्रकरण बतलाता।
इस श्रुत का अर्चन करूँ कर्म, ज्ञानावरणी तब नश जाता।।१।।
ॐ ह्रीं कर्मबंधप्रकरणसमन्वितक्षुद्रकबंधनामद्वितीयखण्डजिनागमाय पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अथ तृतीयवलये पंचदशकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
१. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-द्विचत्वारिंशत्सूत्र-
समन्वित-गुणस्थानसंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।२३।।
२. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-एकोनषष्टिसूत्रसमन्वित-
गतिमार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
३. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-पंचत्रिंशतसूत्रसमन्वित-
इन्द्रियमार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।२५।।
४. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-त्रिसूत्रसमन्वित-
कायमार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।२६।।
५. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-एकोनत्रिंशत्सूत्रसमन्वित-
योगमार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।२७।।
६. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-एकोनविंशतिसूत्र-
समन्वित-वेदमार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।२८।।
७. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-एकोनविंशतिसूत्र-समन्वित-
कषायमार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।२९।।
८. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-अष्टादशसूत्रसमन्वित-
ज्ञानमार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।३०।।
९. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-अष्टाविंशतिसूत्र-समन्वित-
संयममार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।३१।।
१०. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-पंचसूत्रसमन्वित-
दर्शनमार्गणासंंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।३२।।
११. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-सप्तदशसूत्रसमन्वित-
लेश्यामार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।३३।।
१२. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-त्रिसूत्रसमन्वित-
भव्यत्वमार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।३४।।
१३. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-द्विचत्वारिंशत्सूत्र-समन्वित-
सम्यक्त्वमार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।३५।।
१४. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-त्रिसूत्रसमन्वित-
संज्ञिमार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।३६।।
१५. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य तृतीयखण्डान्तर्गत-द्विसूत्रसमन्विताहार-
मार्गणासंबंधि बंधस्वामित्वविचयेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७।।
-पूर्णार्घ्य-
है तृतियबंधस्वामित्वविचय, का खण्ड आठवीं पुस्तक में।
त्रय शतक व चौबिस सूत्रों के, द्वारा सिद्धान्त कथन इसमें।।
जो मन वच तन की शुद्धि सहित, इस आगम का अध्ययन करें।
वे कर्मबंध से छुट जाते, हम अर्घ्य चढ़ाकर नमन करें।।१।।
ॐ हीं कर्मबंधादिसिद्धान्तकथनसमन्वितबंधस्वामित्व-विचयनामतृतीयखण्ड-
जिनागमाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अथ चतुर्थवलये सप्तदशकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
१. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-णमोजिणाणमित्यादि-
गणधरमंत्रयुत सप्तभेदसहित षट्सप्ततिसूत्रसमन्वित-कृति-अनुयोगद्वारनाम –
वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८।।
२. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-त्रिसूत्रसमन्वित-वेदना-
निक्षेपानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९।।
३. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-चतुस्सूत्रसमन्वित-
वेदनानयविभाषणतानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।४०।।
४. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-चतु:सूत्रसमन्वित-
वेदनानामविधानानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।४१।।
५. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-चूलिकासमेतत्रयो-
दशोत्तरद्विशतसूत्रसमन्वित-वेदनाद्रव्यविधानानुयोगद्वारनाम-
वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२।।
६. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-नवनवतिसूत्रसमन्वित-
वेदनाक्षेत्रविधानानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।४३।।
७. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-द्वयचूलिकासमेत एकोनाशीत्यधिक
द्विशतसूत्रसमन्वित-वेदनाकालविधानानुयोगद्वारनाम-वेदना-खण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।४४।।
८. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-त्रिचूलिकासमेत-चतुर्दशोत्तर-
त्रिशत्सूत्रसमन्वित-वेदनाभावविधानानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।४५।।
९. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-षोडशसूत्रसमन्वित-
वेदनाप्रत्ययविधानानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।४६।।
१०. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-पंचदशसूत्रसमन्वित-
वेदनास्वामित्वविधानानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।४७।।
११. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-अष्टपंचाशत्सूत्र-समन्वित-
वेदनावेदनाविधानानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।४८।।
१२. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-द्वादशसूत्रसमन्वित-
वेदनागतिविधानानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।४९।।
१३. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-एकादशसूत्रसमन्वित-
वेदनानन्तरविधानानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।५०।।
१४. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-विंशत्युत्तरत्रिशतसूत्र-
समन्वित-वेदनासन्निकर्षविधानानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।५१।।
१५. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-त्रिपंचाशत्सूत्रसमन्वित-
वेदनापरिमाणविधानानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।५२।।
१६. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-एकविंशतिसूत्र-समन्वित-
वेदनाभागाभागविधानानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।५३।।
१७. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य चतुर्थखण्डान्तर्गत-सप्तविंशतिसूत्र-समन्वित-
वेदनाल्पबहुत्वानुयोगद्वारनाम-वेदनाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।५४।।
-पूर्णार्घ्य-
वेदनाखण्ड नामक चतुर्थ है, खण्ड चार पुस्तक निबद्ध।
नौ से बारह तक चारों में, पन्द्रह सौ चौदह सूत्र बद्ध।।
इन शास्त्रों की पूजन से मन का, कर्म असाता नश जाता।
गौतमगणधर विरचित मंगल-सूत्रों की है इसमें गाथा।।१।।
ॐ ह्रीं ऋद्ध्यादिवर्णनसमन्वितवेदनाखण्डनामचतुर्थखण्डजिनागमाय पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अथ पंचमवलये द्वाविंशतिकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
१. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-त्रयस्त्रिंशत्सूत्रसमन्वित-
स्पर्शानुयोगद्वारनाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।५५।।
२. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-एकत्रिंशत्सूत्रसमन्वित-
कर्मानुयोगद्वारनाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५६।।
३. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-द्विचत्वारिंशदधिकशत-
सूत्रसमन्वित-प्रकृत्यनुयोगद्वारनाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।५७।।
४. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-चूलिकायुत बंध-बंधक-
बंधनीयसमेत-सप्तनवत्यधिक-सप्तशत-सूत्रसमन्वित-बंधनानुयोगद्वारनाम-
वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५८।।
५. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-विंशतिसूत्रसमन्वित-
निबंधनानुयोगद्वारनाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।५९।।
६. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-प्रक्रमानुयोगद्वारनाम-
वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६०।।
७. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-उपक्रमानुयोगद्वारनाम-
वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६१।।
८. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-उदयानुयोगद्वारनाम-
वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६२।।
९. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-मोक्षानुयोगद्वारनाम-
वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६३।।
१०. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-संक्रमानुयोगद्वारनाम-
वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६४।।
११. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-लेश्यानुयोगद्वारनाम-
वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६५।।
१२. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-लेश्याकर्मानुयोगद्वार-
नाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६६।।
१३. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-लेश्यापरिणामानुयोगद्वार-
नाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६७।।
१४. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-सातासातानुयोगद्वार-
नाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६८।।
१५. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-दीर्घह्रस्वानुयोगद्वारनाम-
वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६९।।
१६. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-भवधारणीयानुयोगद्वार-
नाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७०।।
१७. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-पुद्गलतानुयोगद्वार-
नाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७१।।
१८. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-निधत्तानिधत्तानुयोगद्वार-
नाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७२।।
१९. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-निकाचितानिकाचिता-
नुयोगद्वारनाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७३।।
२०. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-कर्मस्थित्यनुयोगद्वार-
नाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७४।।
२१. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-पश्चिमस्कन्धानुयोगद्वार-
नाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७५।।
२२. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य पंचमखण्डान्तर्गत-अल्पबहुत्वानुयोगद्वार-
नाम-वर्गणाखण्डेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७६।।
-पूर्णार्घ्य-
षट्खण्डागम का पंचम है, वर्गणा खण्ड आचार्य ग्रथित।
हैं एक सहस तेईस सूत्र, तेरह से सोलह तक पुस्तक।।
धरसेनसूरि सम गिरि से गिरती, गंगा मानो प्रगट हुई।
श्री पुष्पदंत अरु भूतबली के, अन्तस्तल से उदित हुई।।१।।
ॐ ह्रीं गणितादिनानाविषयसमन्वितवर्गणाखण्डनामपंचमखण्डजिनागमाय पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
अथ षष्ठवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
१. ॐ ह्रीं अर्हं षट्खण्डागमस्य षष्ठखण्डान्तर्गत-चत्वारिंशत्सहस्रसूत्र-समन्वित-
महाबन्धेभ्यो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७७।।
-पूर्णार्घ्य-
षट्खण्डागम के छठे खण्ड में, महाबंध का नाम सुना।
उसको ही महाधवल कहते, श्री भूतबली स्वामी ने रचा।।
इस तरह बना षट्खण्डागम, महावीर दिव्यध्वनि अंश कहा।
ये सूत्र ग्रंथ कहलाते हैं, इनकी पूजन से सौख्य महा।।१।।
ॐ ह्रीं महाबंधअपरनाममहाधवलनाम षष्ठखण्डजिनागमाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री पुष्पदंत अरु भूतबली, गुरु की कृति षट्खण्डागम है।
नौ हजार सूत्रों से युत, इस युग का यह श्रुत अनुपम है।।
बानवे सहस्र श्लोकों प्रमाण, टीका भी इसकी लिखी गई।
श्रीवीरसेन स्वामी कृत धवला, टीका को मैं जजूँ यहीं।।२।।
ॐ ह्रीं धवलाटीकासमन्वित षट्खंडागम जिनागमाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अथ सप्तमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
१. ॐ ह्रीं अर्हं चूर्णिसूत्रसमन्वितद्विशतत्रयस्त्रिंशत्गाथा-सूत्रस्वरूप- कषायप्राभृतेभ्यो नम:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७८।।
-पूर्णाघ्र्य-
श्रीगुणधर भट्टारक विरचित, है कषायप्राभृत ग्रंथ कहा।
जयधवला टीका संयुत सोलह, पुस्तक में उपलब्ध यहाँ।।
है द्वादशांग का पूर्ण सार, इन सब ग्रंथों में भरा हुआ।
इनके अतिरिक्त न सार कोई, अर्चन का मन इसलिए हुआ।।१।।
ॐ ह्रीं जयधवला टीकासमन्वितकषायप्राभृत जिनागमाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
षट्खण्डागम के सूत्रों पर, गणिनी श्री ज्ञानमती जी ने।
संस्कृत टीका सिद्धान्तसुचिन्तामणि रचकर दी इस युग में।।
श्रीवीरसेन आचार्य सदृश यह, टीका भी निधि इस युग की।
चिन्तामणि सम फल दात्री उस, टीकायुत ग्रंथ को करूँ नती।।२।।
ॐ ह्रीं सिद्धान्तचिन्तामणिटीकासमन्वितषट्खण्डागम जिनागमाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं सिद्धान्तज्ञानप्राप्तये षट्खण्डागम जिनागमाय नम:।
-शेर छंद-
जैवन्त हो महावीर दिव्यध्वनि जगत में।
जैवन्त हो गौतम गणीश ज्ञान जगत में।।
जैवन्त हो उन रचित द्वादशांग जगत में।
जैवन्त हो उपलब्ध शास्त्र अंश जगत में।।१।।
गौतम ने अपना ज्ञान फिर लोहार्य को दिया।
लोहार्य स्वामी से वो जम्बूस्वामी ने लिया।।
क्रमबद्ध ये त्रय केवली निर्वाण को गये।
फिर पाँच मुनी चौदह पूर्व धारी हो गये।।२।।
नंतर विशाखाचार्य आदि ग्यारह मुनि हुए।
एकादशांग पूर्व दश के पूर्ण ज्ञानी थे।।
अरु शेष चार पूर्व का इक देश ज्ञान पा।
परिपाटी क्रम से उसको जगत में भी दिया था।।३।।
नक्षत्राचार्य आदि पाँच मुनियों ने क्रम से।
पाया था वही ज्ञान एक देश अंश में।।
नंतर सुभद्र आदि चार मुनियों ने पाया।
इक अंग ज्ञान देश अंश ज्ञान भी पाया।।४।।
यह ज्ञान पुनः क्रम से श्रीधरसेन को मिला।
अतएव वर्तमान में श्रुत का कमल खिला।।
इस श्रुत की कहानी सुन रोमांच होता है।
शिष्यों के समर्पण का परिज्ञान होता है।।५।।
निज आयु अल्प जान दो मुनियों को बुलाया।
निज ज्ञान उन्हें सौंप मन में हर्ष समाया।।
मुनिराज नरवाहन तथा सुबुद्धि ने सोचा।
गुरु ज्ञानवाटिका की मैं समृद्धि करूँगा।।६।।
तब संघ चतुर्विध ने श्रुत की अर्चना कर ली।
देवों ने भी आकर गुरु की वंदना कर ली।।
मुनिवर सुबुद्धि जी की दंतपंक्ति बनाई।
कह पुष्पदंत उनकी महापूजा रचाई।।७।।
गुजरात अंकलेश्वर में चौमासा रचाया।
फिर ज्ञान को लिपिबद्ध करना मन में था आया।
मुनिवर सुबुद्धि जी ने सत्प्ररूपणा रची।
मुनिराज नरवाहन के पास उसे भेज दी।।८।।
आगे उन्होंने द्रव्यप्रमाणानुगम आदी।
षट्खण्डों में छह सहस सूत्रों की भी रचना की।
फिर ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी की तिथि आ गई।
आगम की रचना पूर्र्ण कर संतुष्टि छा गई।।९।।
मुनिराज नरवाहन को पूजा भूत सुरों ने।
बलिविधि के साथ भूतबली कहा उन्होंने।।
वे इस प्रकार पुष्पदंत भूतबलि बने।
षट्खंड जिनागम को जीत चक्रपति बने।।१०।।
सिद्धांतचक्रवर्ती थे धरसेन जी सचमुच।
श्री पुष्पदंत भूतबली में भी थे ये गुण।।
पश्चात्वर्ति मुनि भी उनके अंशरूप हैं।
जिनको मिला सिद्धान्त ज्ञान साररूप है।।११।।
त्रयखण्ड पे परिकर्म टीका कुन्दकुन्द की।
थी पद्धति द्वितीय टीका शामकुण्ड की।।
श्रीतुम्बुलूर सूरि ने टीका की पंचिका।
स्वामी समन्तभद्र ने चौथी रची टीका।।१२।।
श्री बप्पदेव गुरु ने लिखी व्याख्याप्रज्ञप्ती।
धवलादि टीकाओं के कर्ता वीरसेन जी।।
इन छह में मात्र धवला उपलब्ध आज है।
पाँचों ही शेष टीका के नाम मात्र हैं।।१३।।
सदि बीसवीं में भी मिले सिद्धान्त ग्रंथ ये।
चारित्रचक्रवर्ति शांतिसिंधु कृपा से।।
इन सबको ताम्रपत्र पे उत्कीर्ण कराया।
विद्वानों से टीकाओं का अनुवाद कराया।।१४।।
संस्कृत तथा प्राकृत में मिश्र है धवल टीका।
अतएव मणिप्रवालन्याय युक्त है टीका।।
इसका ही ले आधार ज्ञानमती मात ने।
टीका रची सिद्धान्तचिन्तामणि नाम से।।१५।।
इन सबकी टीकाओं को बार-बार मैं नमूँ।
षट्खण्ड जिनागम में मूलग्रंथ को प्रणमूँ।।
मुझको भी इन्हें पढ़ने की शक्ति प्राप्त हो।
माता सरस्वती मुझे तव भक्ति प्राप्त हो।।१६।।
षट्खण्ड धरा जीत चक्रवर्ति ज्यों बनें।
षट्खंडजिनागम को भी त्यों ही जो पढ़ें।।
सिद्धान्तचक्रवर्ति वे हों ‘चन्दनामती’।
पूर्णार्घ्य चढ़ाऊँ करूँ मैं वंदना-भक्ती।।१७।।
-दोहा-
षट्खण्डागम ग्रंथ को, वंदन बारम्बार।
अर्घ्य समर्पण कर लहूँ, जिनवाणी का सार।।१८।।
ॐ ह्रीं षट्खण्डागमसिद्धान्तग्रंथेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
जो पूजें चितलाय, षट्खंडागम शास्त्र को।
निज अज्ञान नशाय, वे पावें श्रुतसार को।।
इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: