(सरस्वती स्तोत्र)
बारह अंगंगिज्जा, दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा।
चोद्दसपुव्वाहरणा, ठावे दव्वाय सुयदेवी।।१।।
आचारशिरसं सूत्र-कृतवक्त्रां सुकंठिकाम्।
स्थानेन समवायांग-व्याख्याप्रज्ञप्तिदोर्लताम् ।।२।।
वाग्देवतां ज्ञातृकथो-पासकाध्ययनस्तनीम्।
अंतकृद्दशसन्नाभि-मनुत्तरदशांगतः ।।३।।
सुनितंबां सुजघनां, प्रश्नव्याकरणश्रुतात्।
विपाकसूत्रदृग्वाद-चरणां चरणांबराम् ।।४।।
सम्यक्त्वतिलकां पूर्व-चतुर्दशविभूषणाम्।
तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण-चारुपत्रांकुरश्रियम्।।५।।
आप्तदृष्टप्रवाहौघ-द्रव्यभावाधिदेवताम् ।
परब्रह्मपथादृप्तां, स्यादुक्तिं भुक्तिमुक्तिदाम् ।।६।।
निर्मूलमोहतिमिरक्षपणैकदक्षं,
न्यक्षेण सर्वजगदुज्ज्वलनैकतानम् ।
सोषेस्व चिन्मयमहो जिनवाणि ! नूनं,
प्राचीमतो जयसि देवि ! तदल्पसूतिम् ।।७।।
आभवादपि दुरासदमेव,
श्रायसं सुखमनन्तमचिंत्यम् ।
जायतेऽद्य सुलभं खलु पुंसां,
त्वत्प्रसादत् इहांब ! नमस्ते।।८।।
चेतश्चमत्कारकरा जनानां,
महोदयाश्चाभ्युदयाः समस्ताः।
हस्ते कृताः शस्तजनैः प्रसादात्,
तवैव लोकांब ! नमोस्तु तुभ्यम् ।।९।।
सकलयुवतिसृष्टेरंब ! चूडामणिस्त्वं,
त्वमसि गुणसुपुष्टेर्धर्मसृष्टेश्च मूलम् ।
त्वमसि च जिनवाणि ! स्वेष्टमुक्त्यंगमुख्या,
तदिह तव पदाब्जं, भूरिभक्त्या नमामः।।१०।।
अथ सरस्वती पूजा प्रतिज्ञापनाय पुुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
शंभु छंद
श्रुतदेवी बारह अंगों से, निर्मित जिनवाणी मानी हैं।
सम्यग्दर्शन है तिलक किया, चारित्र वस्त्र परिधानी हैं।।
चौदह पूर्वों के आभरणों से, सुंदर सरस्वती माता।
इस विध से द्वादशांग कल्पित, जिनवाणी सरस्वती माता।।१।।
श्रुत ‘आचारांग’ कहा मस्तक, मुख ‘सूत्रकृतांग’ सरस्वति का।
ग्रीवा है ‘स्थानांग’ कहा, श्री जिनवाणी श्रुतदेवी का।।
‘समवाय अंग’ ‘व्याख्या प्रज्ञप्ती’, माँ की उभय भुजाएं हैं।
द्वय ‘ज्ञातृकथांग’ ‘उपासकाध्ययनांग’ स्तन कहलाये हैं।।२।।
नाभी है ‘अंतकृद्दशांग’ वर नितंब ‘अनुत्तरदशांग’ है।
वर ‘प्रश्नव्याकरण अंग’ मात का, जघनभाग कहते श्रुत हैं।।
पादद्वय ‘विपाकसूत्रअंग’ ‘दृष्टिवादांग’ कहें श्रुत में।
‘सम्यक्त्व’ तिलक हैं अलंकार, चौदह पूरब मानें सच में।।३।।
‘चौदहों प्रकीर्णक’ श्रुत वस्त्रों में, बने बेल-बूटे सुंदर।
ऐसी ये सरस्वती माता, जो द्वादशांगवाणी सुखकर।।
संपूर्ण पदार्थों के ज्ञाता, तीर्थंकर की जो दिव्यध्वनी।
सब द्रव्यों के पर्यायों की, ‘श्रुतदेवी’ अधिष्ठात्रि मानी।।४।।
जो परमब्रह्मपथ अवलोकन, इच्छुक हैं भव्यात्मा उनको।
स्याद्वाद रहस्य बता करके, भुक्ती मुक्ती देती सबको।।
चिन्मयज्योती मोहांधकार, हरिणी हे जिनवाणी माता।
रवि उदय पूर्वदिशी जेत्री, त्रिभुवन द्योतित करणी माता।।५।।
जो अनादि से दुर्लभ अचिन्त्य, आनन्त्य मोक्षसुख है जग में।
हे सरस्वती मातः! वह भी, तव प्रसाद से अतिसुलभ बने।।
आश्चर्यकारि स्वर्गादिक सब, ऐश्वर्य प्राप्त हों भक्तों को।
मेरे सब वाञ्छित पूर्ण करो, हे मातः! नमस्कार तुमको।।६।।
संपूर्ण स्त्री की सृष्टी में, चूड़ामणि हो हे सरस्वती!
तुम से ही दयाधर्म की औ, संपूर्ण गुणों की उत्पत्ती।।
मुक्ती के लिए प्रमुख कारण, माँ सरस्वती! मैं नमूँ तुम्हें।
तव चरण कमल में शीश धरूँ, भक्तीपूर्वक नित नमूँ तुम्हें।।७।।
अथ सरस्वती पूजा प्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
चन्द्रार्क-कोटिघटितोज्ज्वल-दिव्य-मूर्ते!
श्रीचन्द्रिका-कलित-निर्मल-शुभ्रवस्त्रे!
कामार्थ-दायि-कलहंस-समाधिरूढे ।
वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।।१।।
देवा-सुरेन्द्र-नतमौलिमणि-प्ररोचि,
श्रीमंजरी-निविड-रंजित-पादपद्मे !
नीलालके ! प्रमदहस्ति-समानयाने!
वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।।२।।
केयूरहार-मणिकुण्डल-मुद्रिकाद्यैः,
सर्वाङ्गभूषण-नरेन्द्र-मुनीन्द्र-वंद्ये !
नानासुरत्न-वर-निर्मल-मौलियुक्ते !
वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।।३।।
मंजीरकोत्कनककंकणकिंकणीनां,
कांच्याश्च झंकृत-रवेण विराजमाने !
सद्धर्म-वारिनिधि-संतति-वर्द्धमाने !
वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि! ।। ४।।
कंकेलिपल्लव-विनिंदित-पाणियुग्मे !
पद्मासने दिवस-पद्मसमान-वक्त्रे !
जैनेन्द्र-वक्त्र-भवदिव्य-समस्त-भाषे !
वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि! ।। ५।।
अर्द्धेन्दुमण्डितजटाललितस्वरूपे !
शास्त्र-प्रकाशिनि-समस्त-कलाधिनाथे!
चिन्मुद्रिका-जपसराभय-पुस्तकांज्र् !
वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि!।।६।।
डिंडीरपिंड-हिमशंखसिता-भ्रहारे!
पूर्णेन्दु-बिम्बरुचि-शोभित-दिव्यगात्रे!
चांचल्यमान-मृगशावललाट-नेत्रे !
वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि! ।।७।।
पूज्ये पवित्रकरणोन्नत-कामरूपे!
नित्यं फणीन्द्र-गरुडाधिप-किन्नरेन्द्रैः!
विद्याधरेन्द्र-सुरयक्ष-समस्त-वृन्दैः,
वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि !।।८।।
सरस्वत्याः प्रसादेन, काव्यं कुर्वन्ति मानवाः।
तस्मान्निश्चल-भावेन , पूजनीया सरस्वती।।९।।
श्री सर्वज्ञ मुखोत्पन्ना, भारती बहुभाषिणी।
अज्ञानतिमिरं हन्ति, विद्या-बहुविकासिनी।।१०।।
सरस्वती मया दृष्टा, दिव्या कमललोचना।
हंसस्कन्ध-समारूढा, वीणा-पुस्तक-धारिणी।।११।।
प्रथमं भारती नाम, द्वितीयं च सरस्वती।
तृतीयं शारदादेवी, चतुर्थं हंसगामिनी।।१२।।
पंचमं विदुषां माता, षष्ठं वागीश्वरी तथा।
कुमारी सप्तमं प्रोक्ता, अष्टमं ब्रह्मचारिणी।।१३।।
नवमं च जगन्माता, दशमं ब्राह्मिणी तथा।
एकादशं तु ब्रह्माणी, द्वादशं वरदा भवेत् ।।१४।।
वाणी त्रयोदशं नाम, भाषा चैव चतुर्दशं।
पंचदशं श्रुतदेवी च , षोडशं गौर्निगद्यते।।१५।।
एतानि श्रुतनामानि, प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
तस्य संतुष्यति माता, शारदा वरदा भवेत् ।। १६।।
सरस्वती ! नमस्तुभ्यं, वरदे ! कामरूपिणि!
विद्यारंभं करिष्यामि, सिद्धिर्भवतु मे सदा।।१७।।
।। इति श्री सरस्वती नाम स्तोत्रम् ।।