शंभु छंद
तीर्थंकर के मुख से खिरती, अनअक्षर दिव्यध्वनी भाषा।
बारह कोठों में सबके हित, परिणमती सर्वजगत् भाषा।।
गणधर गुरु जिन ध्वनि को सुनकर, बारह अंगों में रचते हैं।
हम दिव्यध्वनी का आह्वानन, करके भक्ती से यजते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीमातः!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीमातः!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीमातः!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक-भुजंगप्रयात छंद
मुनीचित्त सम नीर पावन लिया है।
सरस्वति चरण तीन धारा दिया है।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै जलं…….।
तपे स्वर्णरस सम घिसा गंध लाया।
सरस्वति चरण चर्च कर सौख्य पाया।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै चंदनं…….।
धुले श्वेत अक्षत अखंडित लिये हैं।
प्रभो कीर्ति को पुंज अर्पण किये हैं।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै अक्षतं…….।
जुही मोगरा केतकी पुष्प लेके।
चढ़ाऊँ प्रभू की ध्वनी को रुची से।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै पुष्पं……।
मलाई पुआ खीर पूरी बनाके।
चढ़ाऊँ प्रभू कीर्ति को क्षुध विनाशे।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै नैवेद्यं…….।
जले दीप ज्योती दशों दिक् प्रकाशे।
जजें नाथ ध्वनि को स्वपर ज्ञान भासे।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै दीपं……।
अगनिपात्र में धूप खेऊं सुगंधी।
सरस्वति कृपा से करूँ मोह बंदी।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै धूपं…….।
अनंनास अंगूर केला फलों को।
चढ़ाऊँ महामोक्ष फल हेतु ध्वनि को।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै फलं…….।
जलादी लिये स्वर्ण पुष्पों सहित मैं।
करूँ अर्घ अर्पण सरस्वति चरण में।।
जजूँ तीर्थकर दिव्यध्वनि को सदा मैं।
करूँ चित्त पावन नहा ध्वनि नदी में।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै अर्घ्यं…..।
दोहा-
गंगा नदि को नीर ले, शारद माँ पद कंज।
त्रय धारा देते मिले, मुझे शांति सुखकंद।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्वेत कमल नीले कमल, अति सुगंध कल्हार।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य भंडार।।११।।
पुष्पांजलिः।
अर्हद्वक्त्राब्जसंभूतां, गणाधीशावतारितां।
महर्षिधारितां स्तोष्ये, नाम्नामष्टशतेन गां।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
१. ॐ ह्रीं श्री आदिब्रह्ममुखाम्भोज प्रभवायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
२. ॐ ह्रीं द्वादशांगिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
३. ॐ ह्रीं सर्वभाषायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
४. ॐ ह्रीं वाण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
५. ॐ ह्रीं शारदायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
६. ॐ ह्रीं गिरे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
७. ॐ ह्रीं सरस्वत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
८. ॐ ह्रीं ब्राह्म्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
९. ॐ ह्रीं वाग्देवतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१०. ॐ ह्रीं देव्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
११. ॐ ह्रीं भारत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१२. ॐ ह्रीं श्रीनिवासिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१३. ॐ ह्रीं आचारसूत्रकृतपादायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१४. ॐ ह्रीं स्थानसमवायांगजंघायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१५. ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्ति-ज्ञातृ-धर्मकथांग चारूरूभासुरायै नमः अर्घ्यं….।
१६. ॐ ह्रीं उपासकांगसन्मध्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१७. ॐ ह्रीं अंतकृद्दशांगनाभिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१८. ॐ ह्रीं अनुत्तरोपपत्तिदशप्रश्नव्याकरणस्तन्यै नमः अर्घ्यं……।
१९. ॐ ह्रीं विपाकसूत्रसद्वक्षसे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
२०. ॐ ह्रीं दृष्टिवादांगकंधरायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
२१. ॐ ह्रीं परिकर्ममहासूत्रविपुलांसविराजितायै नमः अर्घ्यं….।
२२. ॐ ह्रीं चन्द्रमार्तंडप्रज्ञप्तिभास्वद्बाहुसुबल्ल्यै नमः अर्घ्यं….।
२३. ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसागरप्रज्ञप्तिसत्करायै नमः अर्घ्यं….।
२४. ॐ ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्तिविभ्राजत्पंचशाखामनोहरायै नमः अर्घ्यं….।
२५. ॐ ह्रीं पूर्वानुयोगवदनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
२६. ॐ ह्रीं पूर्वाख्यचिबुकांचितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
२७. ॐ ह्रीं उत्पादपूर्वसन्नासायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
२८. ॐ ह्रीं अग्रायणीयदंतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
२९. ॐ ह्रीं वीर्यानुप्रवाद-अस्तिनास्तिप्रवादोष्ठायै नमः अर्घ्यं…..।
३०. ॐ ह्रीं ज्ञानप्रवादकपोलायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
३१. ॐ ह्रीं सत्यप्रवादरसनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
३२. ॐ ह्रीं आत्मप्रवादमहाहनवे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
३३. ॐ ह्रीं कर्मप्रवादसत्तालवे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
३४. ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानललाटायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
३५. ॐ ह्रीं विद्यानुवाद-कल्याणनामधेयसुलोचनायै नमःअर्घ्यं…..।
३६. ॐ ह्रीं प्राणावाय-क्रियाविशालपूर्वभ्रूधनुर्लतायै नमःअर्घ्यं…..।
३७. ॐ ह्रीं लोकबिन्दुमहासारचूलिकाश्रवणद्वयायै नमःअर्घ्यं….।
३८. ॐ ह्रीं स्थलगाख्यलसच्छीर्षायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
३९. ॐ ह्रीं जलगाख्यमहाकचायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
४०. ॐ ह्रीं मायागतसुलावण्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
४१. ॐ ह्रीं रूपगाख्यसुरूपिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
४२. ॐ ह्रीं आकाशगतसौंदर्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
४३. ॐ ह्रीं श्रीकलापिसुवाहनायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
४४. ॐ ह्रीं निश्चयव्यवहारदृङ्नूपुरायै नमःअर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
४५. ॐ ह्रीं बोधमेखलायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
४६. ॐ ह्रीं सम्यव्चारित्रशीलहारायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
४७. ॐ ह्रीं महोज्ज्वलायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
४८. ॐ ह्रीं नैगमामोघकेयूरायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
४९. ॐ ह्रीं संग्रहानघचोलकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
५०. ॐ ह्रीं व्यवहारोद्घकटकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
५१. ॐ ह्रीं ऋजुसूत्रसुकंकणायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
५२. ॐ ह्रीं शब्दोज्ज्वलमहापाशायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
५३. ॐ ह्रीं समभिरूढमहांकुशायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
५४. ॐ ह्रीं एवंभूतसन्मुद्रायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
५५. ॐ ह्रीं दशधर्ममहाम्बरायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
५६. ॐ ह्रीं जपमालाल-सद्हस्तायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
५७. ॐ ह्रीं पुस्तकांकितसत्करायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
५८. ॐ ह्रीं नयप्रमाणताटंकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
५९. ॐ ह्रीं प्रमाणद्वयकर्णिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
६०. ॐ ह्रीं केवलज्ञानमुकुटायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
६१. ॐ ह्रीं शुक्लध्यानविशेषकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
६२. ॐ ह्रीं स्यात्कारप्राणजीवन्त्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
६३. ॐ ह्रीं चिदुपादेयभाषिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
६४. ॐ ह्रीं अनेकांतात्मकानंदपद्मासननिवासिन्यै नमःअर्घ्यं…..।
६५. ॐ ह्रीं सप्तभंगीसितच्छत्रायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
६६. ॐ ह्रीं नयषट्कप्रदीपिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
६७. ॐ ह्रीं द्रव्यार्थिकनयानूनपर्यायार्थिकचामरायै नमः अर्घ्यं….।
६८. ॐ ह्रीं कैवल्यकामिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
६९. ॐ ह्रीं ज्योतिर्मय्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
७०. ॐ ह्रीं वाङ्मयरूपिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
७१. ॐ ह्रीं पूर्वापराविरुद्धायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
७२. ॐ ह्रीं गवे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
७३. ॐ ह्रीं श्रुत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
७४. ॐ ह्रीं देवाधिदेवतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
७५. ॐ ह्रीं त्रिलोकमंगलायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
७६. ॐ ह्रीं भव्यशरण्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
७७. ॐ ह्रीं सर्ववंदितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
७८. ॐ ह्रीं बोधमूर्तये नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
७९. ॐ ह्रीं शब्दमूर्तये नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
८०. ॐ ह्रीं चिदानन्दैकरूपिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
८१. ॐ ह्रीं शारदायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
८२. ॐ ह्रीं वरदायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
८३. ॐ ह्रीं नित्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
८४. ॐ ह्रीं भुक्तिमुक्तिफलप्रदायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
८५. ॐ ह्रीं वागीश्वर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
८६. ॐ ह्रीं विश्वरूपायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
८७. ॐ ह्रीं शब्दब्रह्मस्वरूपिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
८८. ॐ ह्रीं शुभंकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
८९. ॐ ह्रीं हितंकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
९०. ॐ ह्रीं श्रीकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
९१. ॐ ह्रीं शंकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
९२. ॐ ह्रीं सत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
९३. ॐ ह्रीं सर्वपापक्षयंकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
९४. ॐ ह्रीं शिवंकर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
९५. ॐ ह्रीं महेश्वर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
९६. ॐ ह्रीं विद्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
९७. ॐ ह्रीं दिव्यध्वन्ये नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
९८. ॐ ह्रीं मात्रे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
९९. ॐ ह्रीं विद्वदाल्हाददायिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१००. ॐ ह्रीं कलायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१०१. ॐ ह्रीं भगवत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१०२. ॐ ह्रीं दीप्तायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१०३. ॐ ह्रीं सर्वशोकप्रणाशिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१०४. ॐ ह्रीं महर्षिधारिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१०५. ॐ ह्रीं पूतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१०६. ॐ ह्रीं गणाधीशावतारितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१०७. ॐ ह्रीं ब्रह्मलोकस्थिरावासायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
१०८. ॐ ह्रीं द्वादशाम्नाय देवतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
पूर्णार्घ्य – शंभु छन्द
श्रुतज्ञान सकल यह द्वादशांग-मय जिनवर ध्वनि से प्रगट सांच।
इक सौ बारह करोड़ तेरासी, लाख अठावन सहस पांच।।
इन द्वादशांग अरु अंगबाह्य को, नित प्रति वंदन करता हूँ।
भक्ती से अर्घ्य चढ़ा करके, श्रुतज्ञान ज्योति को धरता हूँ।।१०९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गत द्वादशांगमयी सरस्वतीदेव्यै पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य मंत्र – ॐ ह्रीं श्रीं वद वद वाग्वादिनि भगवति सरस्वति ह्रीं नमः।
(सुगंधित पुष्प, लवंग या पीले चावल से १०८ बार मंत्र को जपें।)
शंभु छंद
जय जय तीर्थंकर धर्म चक्रधर, जय प्रभु समवसरण स्वामी।
जय जय त्रिभुवन त्रयकाल एक, क्षण में जानो अंतर्यामी।।
जय सब विद्या के ईश आप की, दिव्यध्वनी जो खिरती है।
वह तालु-ओष्ठ-कंठादिक के, व्यापार रहित ही दिखती है।।१।।
अठरह महाभाषा सातशतक, क्षुद्रक भाषामय दिव्य धुनी।
उस अक्षर अनक्षरात्मक को, संज्ञी जीवों ने आन सुनी।।
तीनों संध्या कालों में वह, त्रय त्रय मुहूर्त स्वयमेव खिरे।
गणधर-चक्री अरु इंद्रों के, प्रश्नों वश अन्य समय भि खिरे।।२।।
भव्यों के कर्णों में अमृत, बरसाती शिव सुखदानी है।
चैतन्य सुधारस की झरणी, दुखहरणी यह जिनवाणी है।।
जन चार कोश तक इसे सुनें, निजनिज के सब कर्तव्य गुनें।
नित ही अनंत गुण श्रेणिरूप, परिणाम शुद्ध कर कर्म हनें।।३।।
छह द्रव्य पांच हैं अस्तिकाय, अरु तत्त्व सात नवपदार्थ भी।
इनको कहती ये दिव्यध्वनी, सबजन हितकर शिवमार्ग सभी।।
आनन्त्य अर्थ के ज्ञान हेतु, जो बीज पदों का कथन करे।
अतएव अर्थकर्ता जिनवर, उनकी ध्वनि मेघ समान खिरे।।४।।
उन बीजपदों में लीन अर्थ, प्रतिपादक बारह अंगों को।
गणधर गुरु गूंथे अतएव ग्रन्थ-कर्ता मानें वंदूं उनको।।
जिन श्रुत ही महातीर्थ उत्तम, उसके कर्ता तीर्थंकर हैं।
ये सार्थक नाम धरें जग में, इससे तिरते भवसागर हैं।।५।।
जय जय प्रभुवाणी कल्याणी, गंगाजल से भी शीतल है।
जय जय शमगर्भित अमृतमय, हिमकण से भी अति शीतल है।।
चंदन अरु मोतीहार चंद्र-किरणों से भी शीतलदायी।
स्याद्वादमयी प्रभु दिव्यध्वनी, मुनिगण को अतिशय सुखदायी।।६।।
वस्तू में धर्म अनंत कहे, उन एक एक धर्मों को जो।
यह सप्तभंगि अद्भुत कथनी, कहती है सात तरह से जो।।
प्रत्येक वस्तु में विधि निषेध, दो धर्म प्रधान गौण मुख से।
वे सात तरह से हों वर्णित, नहिं भेद अधिक अब हो सकते।।७।।
प्रत्येक वस्तु है अस्तिरूप, अरु नास्तिरूप भी है वो ही।
वो ही है उभयरूप समझो, फिर अवक्तव्य भी है वो ही।।
वो अस्तिरूप अरु अवक्तव्य, फिर नास्ति अवक्तव्य भंग धरे।
फिर अस्तिनास्त अरु अवक्तव्य, ये सात भंग हैं खरे खरे।।८।।
इस सप्तभंगमय सिंधू में जो, नित अवगाहन करते हैं।
वे मोह-राग-द्वेषादिरूप, सब कर्मकालिमा हरते हैं।।
वे अनेकांतमय वाक्यसुधा, पीकर आतमरस चखते हैं।
फिर परमानंद परमज्ञानी, होकर शाश्वत सुख भजते हैं।।९।।
मैं निज अस्तित्व लिये हूँ नित, मेरा पर में अस्तित्व नहीं।
मैं चिच्चैतन्य स्वरूपी हूँ, पुद्गल से मुझ नास्तित्व सही।।
इस विध निज को निज के द्वारा, निज में ही पाकर रम जाऊँ।
निश्चयनय से सब भेद मिटा, सब कुछ व्यवहार हटा पाऊँ।।१०।।
भगवन्! कब ऐसी शक्ति मिले, श्रुत दृग् से निज को अवलोवूँ।
फिर स्वसंवेद्य निज आतम को, निज अनुभव द्वारा मैं खोजूँ।।
संकल्प विकल्प सभी तज के, बस निर्विकल्प मैं बन जाऊँ।
फिर केवल ‘ज्ञानमती’ से ही, निज को अवलोकूं सुख पाऊँ।।११।।
दोहा- सब भाषामय दिव्यध्वनि, वाङ्मय गंगातीर्थ।
इसमें अवगाहन करूँ, बन जाऊँ जग तीर्थ।।१२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरमुखकमलविनिर्गतद्वादशांगमयीसरस्वतीदेव्यै जयमाला
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
इदमष्टोत्तरशतं, भारत्याः प्रतिवासरं।
यः प्रकीर्तयते भक्त्या, स वै वेदांतगो भवेत् ।।१।।
कवित्वं गमकत्वं च , वादितां वाग्मितामपि।
समाप्नुयादिदं स्तोत्र-मधीयानो निरंतरंं।।२।।
आयुष्यं च यशस्यं च, स्तोत्रमेतदनुस्मरन्।
श्रुतकेवलितां लब्ध्वा, सूरिर्ब्रह्म भजेत्परं।।४।।
इत्याशीर्वादः। पुष्पाञ्जलिः