पूर्वाण्ह समय पावन जल से, निज हाथ-पैर-मुख धो करके।
वर्णोत्तम श्रावक पूर्व दिशा में, मुख कर बैठे आसन से।।
गुरुवर से कहे मंत्र से नित, संध्यावदंन जो करते हैं।
वे धर्मध्यान में रत मानव, नित स्वस्थ सुखी ही रहते हैं।।१।।
(दोनों हाथ जोड़कर ऐसा संकल्प करें।)
ॐ अद्य भगवतो महापुरुषस्य श्रीमदादिब्रह्मणो मते अत्र स्थाने अमुकस्य प्रपौत्र: अमुकस्य पुत्र: अमुकगोत्रजोऽहं अमुकनामा प्रात:संध्यां वंदनं करिष्ये।
ॐ श्वेतवर्णे सर्वोपद्रवहारिणी सर्वजनमनोरंजिनी परिधानोत्तरीये धारिणी हं हं झं झं वं वं सं सं तं तं परिधानोत्तरीये धारयामि स्वाहा।
(इस मंत्र को बोलते हुए धोती और दुपट्टा ये दो वस्त्र धारण करें।)
ॐ क्ष्वीं भू: शुद्ध्यतु स्वाहा। (भूमि पर कुछ बूंद जल छिड़के।) ॐ ह्रीं अर्हं क्ष्मं ठं आसनं निक्षिपामि स्वाहा।
(आसन बिछावें।) ॐ ह्रीं अर्हं ह्युं ह्यूं णिसिहि णिसिहि आसने उपविशामि स्वाहा।
(आसन पर बैठें।) ॐ मम समस्तपापक्षयार्थं आयुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्ध्यर्थं पौर्वाण्हिक-संध्याचरणं करिष्ये।
(यह मंत्र बोलकर संकल्प करें।)
जटांतौ विंदुसंयुक्तौ कला वं पं सुवेष्टितौ।
सोममध्ये लिखित्वांभो मध्ये स्नानादिकं चरेत्।।
यह श्लोक बोलते हुए थाली या रकेबी में सीधे हाथ की मध्यमा उंगली से अर्धचंद्र बनावें। उसके बीच में झं ठं, अधोरेखा पर दक्षिण से १६ स्वर और ऊपर की रेखा पर मध्य में वं पं लिखें। उसमें थोड़ा पानी डालकर उसी से आगे के मंत्र बोलकर शुद्धि करें।
झ्वीं क्ष्वीं हं स:। (यह मंत्र बोलकर जलयंत्र को सुरभि मुद्रा दिखाना।) ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा इदं समस्ततीर्थनदीजलं भवतु स्वाहा।
(जलयंत्र है।) ॐ ह्रीं लां पं व्ह: प: झ्वीं क्ष्वीं स्वाहा। (शंखमुद्रा से बिन्दुमात्र जल लेकर तीन बार मुंह में डालें।)
ॐ ह्रीं झ्वीं—इस मंत्र को पढ़कर सीधे हाथ के अंगूठे में मूल में पानी लगाकर मुख बंद कर तीन बार पोछें। क्ष्वीं—यह मंत्र बोलकर अंगूठा एवं तर्जनी इन दोनों को मिलाकर शेष तीन उंगलियों से मुख का स्पर्श करें। वं मं—यह मंत्र बोलते हुए अंगूठे और अनामिका को मिलाकर जल समेत क्रम से दायें-बायें नेत्र का स्पर्श करें। हं सं—यह मंत्र बोलते हुए अंगूठा और देशनी अंगुली से दायें-बायें नासा का स्पर्श करें। तं पं—यह मंत्र बोलते हुए अंगूठा और कनिष्ठा अंगुली से क्रम से दायें-बायें कान का स्पर्श करें। द्रां—इस मंत्र को बोलते हुए अंगूठे से नाभि का स्पर्श करें। द्रीं—इस मंत्र को बोलकर हाथ के तल भाग से हृदय का स्पर्श करें। हं स:—इस मंत्र को बोलते हुए दाहिने हाथ की सर्व अंगुलियों के अग्रभाग से क्रम से दाहिनी एवं बायीं भुजा के अग्र भाग का स्पर्श करें। स्वाहा—इस बीजपद को बोलते हुए सर्व अंगुलियों से शिर का स्पर्श करें। (जल यंत्र का जल ले-लेकर इन मंत्रों से क्रम-क्रम से बारह अंगों का स्पर्श करना है।) पुन: प्राणायाम विधि से णमोकार मंत्र को जपें।
अंगूठा और अनामिका से नाक के दोनों स्वरों को पकड़कर दक्षिण स्वर से हवा को ऊपर की ओर खींचने को पूरक कहते हैं, पूरक के समय महामंत्र ‘णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं’ इन दो पदों का स्मरण करना चाहिए। पूरक द्वारा खींची हुई वायु को ‘णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं’ इन दोनों का स्मरण करते हुए धीरे-धीरे नाभि प्रदेश में रोकने को कुंभक कहते हैं। पुन: उस रोकी हुई वायु को ‘णमो लोए, सव्व साहूणं’ इस पद का स्मरण करते हुये धीर-धीरे बाहर निकालें, इसे रेचक कहते हैं। अथवा—ॐ भूर्भुव: स्व: असि आ उ सा प्राणायामं करोमि स्वाहा। (इस मंत्र का तीन बार उच्चारण कर कुंभक, पूरक और रेचक इन तीनों को करता हुआ प्राणायाम करें।) पुन: अंकुशमुद्रा से जल लेकर मस्तक पर और सर्वांग पर जल डालते हुए यह मंत्र पढ़ें— ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लूं ब्लूं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय स्वाहा। (यह प्रोक्षण मंत्र है।) पुन:- ॐ झं वं ह्व: प: ह: स्वाहा। (दिगंजलि:) इस मंत्र को बोलकर अंजुलि में जल जेकर सब दिशाओं में डाले। पुन: ॐ ह्रीं अ सि आ उ सा नम: स्वाहा। यह मंत्र पढ़कर पंचपरमेष्ठी को तीन बार जल से अर्घ देवें। पुन: आगे के १५ मंत्रों को क्रम से बोलते हुए दाहिने हाथ से थोड़ा-थोड़ा जल चढ़ाते हुए तर्पण करें— १. ॐ ह्रीं अर्हद्भ्य: स्वाहा। २. ॐ ह्रीं सिद्धेभ्य: स्वाहा। ३. ॐ ह्रीं सूरिभ्य: स्वाहा। ४. ॐ ह्रीं पाठकेभ्य: स्वाहा। ५. ॐ ह्रीं सर्वसाधुभ्य: स्वाहा। ६. ॐ ह्रीं जिनधर्मेभ्य: स्वाहा। ७. ॐ ह्रीं जिनागमेभ्य: स्वाहा। ८. ॐ ह्रीं जिनचैत्येभ्य: स्वाहा। ९. ॐ ह्रीं जिनचैत्यालयेभ्य: स्वाहा। १०. ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनेभ्य: स्वाहा। ११. ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानेभ्य: स्वाहा। १२. ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रेभ्य: स्वाहा। १३. ॐ ह्रीं सम्यक्तपोभ्य: स्वाहा। १४. ॐ ह्रीं अस्मद् गुरुभ्य: स्वाहा। १५. ॐ ह्रीं अस्मद्विद्यागुरुभ्य: स्वाहा। (इस प्रकार तर्पण मंत्र हुये ) पुन:—
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।
(इस अपराजित मंत्र का १०८ बार जाप करें अथवा ९ बार पढ़ें)
पूर्व दिशा विदिशा में, केवलि जिन सिद्ध साधुगण जितने।
ऋद्धि सहित योगीश्वर, उन सबको नित्य मैं वंदूँ।।१।।
(यह श्लोक बोलकर पूर्व दिशा में तीन आवर्त एक शिरोनति करके नमस्कार करें। ऐसे ही दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में नमस्कार करें।)
दक्षिण दिशि विदिशा में, केवलि जिन सिद्ध साधुगण जितने।
ऋद्धि सहित योगीश्वर, उन सबको नित्य मैं वंदूँ।।२।।
पश्चिम दिश विदिशा में, केवलि जिन सिद्ध साधुगण जितने।
ऋद्धि सहित योगीश्वर, उन सबको नित्य मैं वंदूँ।।३।।
उत्तर दिश विदिशा में, केवलि जिन सिद्ध साधुगण जितने। ऋद्धि सहित योगीश्वर, उन सबको नित्य मैं वंदूँ।।४।।
(इसके बाद बने हुए गंध यंत्र में चंदन रखकर या गंध यंत्र बनाकर उस चंदन को लेकर दाहिने हाथ की अनामिका से आगे के एक-एक मंत्र बोलते हुए उन-उन स्थानों में चंदन का तिलक लगावें।)
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: णमो अरिहंताणं रक्ष रक्ष स्वाहा। (ललाट में तिलक लगावें।)
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: णमो सिद्धाणं रक्ष रक्ष स्वाहा। (हृदय में लगावें।)
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: णमो आइरियाणं रक्ष रक्ष स्वाहा। (दाहिनी भुजा में लगावें।)
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: णमो उवज्झायाणं रक्ष रक्ष स्वाहा। (बायीं भुजा में लगावें।)
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: णमो लोए सव्व साहूणं रक्ष रक्ष स्वाहा। (कंठ में लगावें।)
यह संध्यावंदन विधि पूर्ण हुई।