अथ स्थापना-अडिल्ल छंद
समवसरण जिन खिले कमलसम शोभता।
गंधकुटी है मानो उसमें कर्णिका।।
ऋषभदेव के समवसरण की अर्चना।
मनवांछित फल देती प्रभु की वंदना।।१।।
-दोहा-
अनंत चतुष्टय के धनी, तीर्थंकर आदीश।
आह्वानन कर मैं जजूँ, नमूँ नमूँ नत शीश।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडित श्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर
संवौषट् आह्वाननम्।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडित श्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ
तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडित श्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक-चाल-नंदीश्वर पूजा
जिनवचसम शीतल नीर, कंचन भृंग भरूँ।
मैं पाऊँ भवदधि तीर, जिनपद धार करूँ।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय जन्मजरामृत्यु-
विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन तनु सम सुरभित गंध, कंचन पात्र भरूँ।
मैं चर्चूं जिनपद पद्म, भव संताप हरूँ।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय संसारताप-
विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ध्वनि सम अमल अखंड, तंदुल थाल भरूँ।
मैं पुंज धरूँ जिन अग्र, सौख्य अखंड भरूँ।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अक्षयपद-
प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन यश सम सुरभित पुष्प, चुन चुन कर लाऊँ।
जिन आगे पुष्प समर्प्य, निज के गुण पाऊँ।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय कामबाण-
विध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन वच अमृत के पिंड, सदृश चरु लाऊँ।
जिनवर के निकट चढ़ाय, समरस सुख पाऊँँ।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन तनु की कांति समान, दीपक ज्योति धरे।
मैं करूँ आरती नाथ, मम सब आर्त हरे।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय मोहांधकार-
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन यश सम सुरभित धूप, खेउँ अग्नी में।
हो अशुभ कर्म सब भस्म, पाऊँ निज सुख मैं।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं
निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवच सम मधुर रसाल, श्रीफल फल बहुते।
जिन निकट चढ़ाऊँ आज, अतिशय भक्तियुते।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय मोक्षफल-प्राप्तये फलं
निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन आदि मिलाय, अर्घ बनाय लिया।
निज पद अनर्घ के हेतु, आप चढ़ाय दिया।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
शांतीधारा मैं करूँ, जिनवर पद अरविंद।
आत्यंतिक शांती मिले, प्रगटे सौख्य अनिंद।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
लाल श्वेत पीतादि बहु, सुरभित पुष्प गुलाब।
पुष्पाँजलि से पूजते, हो निजात्म सुख लाभ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
—सोरठा—
जिनवर चरण सरोज, पुष्पांजलि से पूजते।
मिटे सर्व दुख शोक, सुख संपति होवे सदा।।
इति मण्डलस्योपरि मानस्तम्भेषु पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—रोला छंद—
वृषभदेव के समवसरण में चारों दिश में।
वीथी दो दो कोश चौड़ी उन पूरब में।।
मानस्तंभ अपूर्व, चारों दिश जिनप्रतिमा।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, होवे सौख्य अनुपमा।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभदेवसमवसरणस्थितपूर्वदिक्मानस्तम्भस्य चतुर्दिक्चतु:
जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण में दक्षिण दिश में शोभ रहा है।
मानस्तंभ विचित्र मुनिगण पूज्य कहा है।।
उसमें शिखर समीप चहँदिश जिनप्रतिमायें।
पूजूँ अर्घ समर्प्य अनुपम सौख्य दिलाएँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभदेवसमवसरणस्थितदक्षिणदिक्मानस्तम्भ चतुर्दिक्चतु:
जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम दिश की महा, गलि में रत्नविनिर्मित।
मानस्तंभ जिनेश, का मिथ्यात्वी मदहृत्।।
उसमें शिखर समीप चहँुदिश जिनप्रतिमायें।
पूजूँ अर्घ समर्प्य अनुपम सौख्य दिलाएँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभदेवसमवसरणस्थितपश्चिमदिक्मानस्तम्भ चतुर्दिक्चतु:
जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर दिश में तुुंग, मानस्तंभ विराजे।
जो वंदें धर प्रीत उनके पातक भाजें।।
उसमें शिखर समीप चहँुदिश जिनप्रतिमायें।
पूजूँ अर्घ समर्प्य अनुपम सौख्य दिलाएँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभदेवसमवसरणस्थितउत्तरदिङ्मानस्तम्भचतुर्दिक्चतु-
र्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
—दोहा—
भूमि प्रथम जिनगृह धरे, हरे सकल संताप।
पुष्पांजलि से पूजते, भक्त बनें निष्पाप।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—नरेन्द्र छंद—
वृषभदेव के समवसरण में, चैत्य महल भू प्रथमा।
पाँच पाँच महलों के अंतर, इक इक जिनगृह सुषमा।।
जिनमंदिर जिनप्रतिमा पूजूँ, मिटे सर्व दुख आपत्।
पाँच परावर्तन से छूटूँ, मिले स्वात्मसुख संपत्।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभदेवसमवसरणस्थितचैत्यप्रासादभूमिसंबंधिजिनमंदिर-
जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
—सोरठा—
द्वितिय खातिका भूमि, चारों तरफी घिर रही।
कुसुमांजली समीप, करके पूजूँ जिनचरण।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—नरेन्द्र छंद—
प्रथम भूमि के आगे वेदी, चारों तरफी घेरे।
चारों गोपुर द्वारों से युत, इस पर बने कंगूरे।।
उसके आगे बनी खातिका, भूमी समवसरण में।
पूजूँ नितप्रति अर्घ चढ़ाकर, जिनवर समवसरण मैं।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं खातिकाभूमिमंडितश्रीऋषभदेवसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
—सोरठा—
चििंच्चतामणिरत्न, चिंतित फल देवो मुझे।
मिलें शीघ्र त्रयरत्न, पुष्पांजलि से पूजते।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
छंद—हे दीन बंधु…..
है तीसरी भूमी लता में पुष्प लतायें।
जिनमें भ्रमर गुंजारते जिनराज गुण गायें।।
बल्लीवनी फूले कुसुम से सर्वमन हरे।
हम पूजते जिनवर विभव को निज विभव भरें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं लतावनभूमिमंडितश्रीऋषभदेवसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
—सोरठा—
समवसरण प्रभु आप, त्रिभुवन की लक्ष्मी धरे।
पुष्पांजली समर्प, चैत्यवृक्ष जिन पूजहूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरिउपवनभूमिचैत्यवृक्षस्थाने पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—गीता छंद—
वृषभेश जिनके समवसृति में वनधरा में पूर्वदिश।
वन है अशोक कहा वहाँ तरु हैं कुसुम पत्रों भरित।।
उन मध्य एक अशोक तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभदेवसमवसरणस्थितउपवनभूमिपूर्वदिक्अशोक-चैत्यवृक्षसंबंधि-
चतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृषभेश जिनके समवसृति दक्षिण दिशी वनभूमि में।
तरु सप्तछद शोभें बहुत फल पुष्प पत्रों से घने।।
उन मध्य सप्तच्छद तरू में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभदेवसमवसरणस्थितउपवनभूमिदक्षिणदिक्सप्तच्छद-चैत्यवृक्ष-
संबंधिचतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृषभेष प्रभु के समवसृति में पश्चिमी वनभूमि में।
चंपक तरू शोभें बहुत सुरभित कुसुम पत्ते घने।।
उन मध्य चंपक चैत्य तरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभदेवसमवसरणस्थितउपवनभूमिपश्चिमदिक्चंपक-चैत्यवृक्षसंबंधि-
चतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री आदिनाथ समवसरण में उत्तरी वनभूमि में।
तरु आम्र के फल पुष्प पत्तों युत वहाँ शोभें घने।।
उन मध्य आम्र सुचैत्यतरु में चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभदेवसमवसरणस्थितउपवनभूमिउत्तरदिक्आम्र-चैत्यवृक्षसंबंधि-
चतुर्मानस्तम्भसहितचतुर्जिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
—दोहा—
परमानंद पियूष घन, वर्षा करें जिनंद।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सर्व सुख कंद।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—स्रग्विणी छंद—
जो समोशर्ण में नाथ को पूजते।
वे जनम मृत्यु के दु:ख से छूटते।।
पाँचवीं ध्वज धरा शोभती है वहाँ।
मैं जजूँ जिन समोसर्ण को नित यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं ध्वजभूमिमंडितश्रीऋषभदेवसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
—सोरठा—
नित्य निरंजन सिद्ध, परमहंस परमातमा।
पाऊँ निजगुण सिद्धि, पुष्पांजली चढ़ाय के।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
चाल—हे दीनबंधु
श्री आदिनाथ का समोसरण विशाल हैं।
ध्वजभू को वेढ़ रजतमयी तृतिय साल१ है।।
सिद्धार्थ नमेरू तरू है कल्पभूमि में।
पूजूँ सदा चउसिद्ध की प्रतिमा प्रसिद्ध मैं।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपूर्वदिक्नमेरुसिद्धार्थ-
वृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य:अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
दक्षिण सुकल्प भूमि में मंदार तरू है।
उस मूल में चतुर्दिशा में सिद्धबिंब हैं।।
प्रत्येक बिंब के समक्ष मानथंभ हैं।
पूजूँ सदा चउसिद्ध की प्रतिमा अनिंद हैं।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिदक्षिणदिक्मंदार-
सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम सुकल्पभूमि में संतानकांघ्रिपा१।
सिद्धार्थ वृक्ष है इसी के चार हों दिशा।।
एकेक सिद्ध बिंब साधु वृंद वंद्य हैं।
पूजूँ सदा इन्हें ये चक्रवर्ति वंद्य हैं।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिपश्चिमदिक्संतानक-
सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर सुकल्प भू में पारिजात वृक्ष है।
ये सिद्ध की प्रतिमाओं से सिद्धार्थ सार्थ है।।
जो इनको जजें उनके सर्वकार्य सिद्ध हैं।
पूजं सदा चउसिद्ध की प्रतिमा अनिंद हैं।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिउत्तरदिक्पारिजात-
सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुर्मानस्तम्भसहितचतु:सिद्धप्रतिमाभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
—सोरठा—
पुण्यराशि जिनबिंब, अतिशय महिमा को धरें।
जो पूजें हर डिंभ२, वो न भ्रमें भव वन विषे।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—नरेन्द्र छंद—
श्री वृषभदेव की पूर्व गली में, नव स्तूप बखाने।
उसमें जिन सिद्धों की प्रतिमा, भविजन के अघ हाने।।
नव पदार्थ की श्रद्धा करके, सम्यक्रत्न धरूँ मैं।
नव केवललब्धी हेतू ही, नितप्रति यजन करूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितभवनभूमिप्रथमवीथीसंबंधिनवस्तूप-
मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण की दक्षिण वीथी, नव स्तूप खड़े हैं।
उनमें जिनप्रतिमा को पूजत, धन जन सुयश बढ़े हैं।।
नव पदार्थ की श्रद्धा करके, सम्यक्रत्न धरूँ मैं।
नव केवललब्धी हेतू ही, नितप्रति यजन करूँ मैं।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितभवनभूमिद्वितीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-
मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समसरण में तृतीय गली में, नवस्तूप मनोहर।
गणधर मुनिगण जिनप्रतिमा को, वंदत सर्व तमोहर।।
नव पदार्थ की श्रद्धा करके, सम्यक्रत्न धरूँ मैं।
नव केवललब्धी हेतू ही, नितप्रति यजन करूँ मैं।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितभवनभूमितृतीयवीथीसंबंधिनवस्तूप-
मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवनभूमि चौथी वीथी में, नव स्तूप दिपे हैं।
पूजत ही दुख दारिद संकट, तन मन व्याधि खिपे१ हैं।।
नव पदार्थ की श्रद्धा करके, सम्यक्रत्न धरूँ मैं।
नव केवललब्धी हेतू ही, नितप्रति यजन करूँ मैं।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितभवनभूमिचतुर्थवीथीसंबंधिनवस्तूप-
मध्यविराजमानसर्वजिनसिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
—सोरठा—
त्रिभुवन का साम्राज्य, प्राप्त किया कर्मारि हन।
मिले निजातम राज्य, पुष्पांजलि से पूजहूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—शंभु छंद—
श्रीवृषभदेव का समवसरण, बारह योजन२ मुनि गाते हैं।
उसमें श्रीमंडपभूमी में, बारह कोठे बन जाते हैं।।
मुनि आर्या देव देवियाँ नर, पशुगण अगणित वहाँ बैठे हैं।
हम पूजें अर्घ चढ़ा करके, ये भव भव के दुख मेटे हैं।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमंडपभूमिमंडितश्रीऋषभदेवसमवसरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
—सोरठा—
धर्मचक्र चमकंत, तिहुंजग को उद्योतते।
पुष्पांजलि अर्पंत, पूजत भेद विज्ञान हो।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—नाराच छंद—
समोसरण जिनेश आदिनाथ का विशाल है।
सुपीठ उपरि धर्मचक्र सहस रश्मि जाल है।।
जिनेन्द्र के विहार में सुअग्र अग्र ये चलें।
सहस्रआर धर्मचक्र पूजहूँ सदा भले।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितप्रथमकटनी-उपरिपूर्वदिक्धर्मचक्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेंद्र आदिनाथ पीठ दाहिनी दिशी दिपे।
सुधर्मचक्र भव्य के हजार पाप को खिपे।।
जिनेन्द्र के विहार में सुअग्र अग्र ये चलें।
सहस्रआर धर्मचक्र पूजहूँ सदा भले।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितप्रथमकटनी-उपरिदक्षिणदिक्-
धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समोसरण जिनेश के सुपीठ पे अपर दिशा।
सुधर्मचक्र भक्त के हजार दोष टालता।।
जिनेन्द्र के विहार में सुअग्र अग्र ये चलें।
सहस्रआर धर्मचक्र पूजहूँ सदा भले।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितप्रथमकटनी-उपरिपश्चिमदिक्-
धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र आदिनाथ के हि उत्तरीय पीठ पे।
सुयक्ष शीश पे विराजमान चक्र बहु दिपे।।
जिनेन्द्र के विहार में सुअग्र अग्र ये चलें।
सहस्रआर धर्मचक्र पूजहूँ सदा भले।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभदेवसमवसरणस्थितप्रथमकटनी-उपरिउत्तरदिक्-
धर्मचक्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
—सोरठा—
महाध्वजा के खंभ, द्वितिय पीठ पर हैं खड़े।
यजन हेतु अठ द्रव्य, वहीं मिले जन पूजते।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—स्रग्विणी छंद—
आदि तीर्थेश के श्री समोशर्ण में।
हैं द्वितीय पीठ पे सीढ़ियाँ दिक्क१में।।
पूजहूँ मैं ध्वजा आठ भक्ती भरे।
सिद्ध के आठ गुण सम धवल फरहरें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीऋषभजिनसमवसरणस्थितद्वितीयकटनी-उपरिअष्टअष्ट-
महाध्वजाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
—सोरठा—
चंदन अगर सुगंध, रत्न दीप धूपादि से।
गंधकुटी मुनि वंद्य, कुसुमांजलि कर पूजहूं।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—गीता छंद—
सब रत्नमय यह पीठ सुंदर देवनिर्मित तीसरा।
श्री आदिनाथ जिनेश का यह शोभता अतिशय भरा।।
वर ज्ञान आदिक क्षायिकी मिल जाएं केवल लब्धियां।
जिन गंधकुटि को पूजहूँ मिल जाएं आतम सिद्धियाँ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्री ऋषभदेवसमवसरणस्थिततृतीयकटनी-उपरिगंधकुट्यै अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-नरेन्द्र छंद—
समवसरण में आठ भूमियाँ, त्रय कटनी सुंदर हैं।
गंधकुटी में सिंहासन पर, तिष्ठें नाथ अधर हैं।।
इन सबमें जिनप्रतिमा पूजूँ, वंदन करूँ रुची से।
पूर्णार्घ्य से जिनवर पूजत, स्वात्मस्द्धि भक्ती से।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिप्राप्ताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिविभूषिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय नम:।
(१०८ बार या ९ बार पुष्प या पीले तंदुल से जाप्य करें)
—दोहा—
चिन्मय चिंतामणि प्रभो, गुण अनंत की खान।
समवसरण वैभव सकल, वह लवमात्र समान।।१।।
—शंभुछंद—
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, तुम धर्मचक्र के कर्ता हो।
जय जय अनंतदर्शन सुज्ञान, सुखवीर्य चतुष्टय भर्त्ता हो।।
जय जय अनंत गुण के धारी, प्रभु तुम उपदेश सभा न्यारी।
सुरपति की आज्ञा से धनपति रचता है त्रिभुवन मनहारी।।२।।
प्रभु समवसरण गगनांगण में, बस अधर बना महिमाशाली।
यह इंद्र नीलमणि रचित गोल आकार बना गुणमणिमाली।।
सीढ़ी इक एक हाथ ऊँची, चौड़ी सब बीस हजार बनी।
नर बाल वृद्ध लूले लंगड़े, चढ़ जाते सब अतिशायि घनी।।३।।
पहला परकोटा धूलिसाल, बहुवर्ण रत्न निर्मित सुंदर।
कहिं पद्मराग कहिं मरकतमणि, कहिं इन्द्रनीलमणि से मनहर।।
इसके अभ्यंतर चारों दिश, हैं मानस्तंभ बने ऊँचे।
ये बारह योजन से दिखते१, जिनवर से द्विदश गुणे ऊँचे।।४।।
इनमें चारों दिश जिनप्रतिमा उनको सुरपति नरपति यजते।
ये सार्थक नाम धरें दर्शन से मानी मान गलित करते।।
इस समवसरण के चार कोट अरु पाँच वेदिकायें ऊँची।
इनके अंतर में आठ भूमि फिर प्रभु की गंधकुटी ऊँची।५।।
इस धूलिसाल अभ्यंतर में है भूमि चैत्य प्रासाद प्रथम।
एकेक जैनमंंदिर अंतर से पाँच-पाँच प्रासाद सुगम।।
चारों गलियों में उभय तरफ दो दोय नाट्यशालायें हैं।
अभिनय करतीं जिनगुण गातीं सुर भवनवासि कन्यायें हैं।।६।।
फिर वेदी वेढ़ रही ऊँची गोपुर द्वारों से युक्त वहाँ।
द्वारों पर मंगलद्रव्य निधी ध्वज तोरण घंटा ध्वनी महा।।
फिर आगे खाई स्वच्छ नीर से भरी दूसरी भूमी है।
फूले कुवलय कमलों से युत हंसों के कलरव की ध्वनि है।।७।।
फिर दूजी वेदी के आगे तीजी है लताभूमि सुन्दर।
बहुरंग बिरंगे पुष्प खिले जो पुष्पवृष्टि करते मनहर।।
फिर दूजा कोट बना स्वर्णिम, गोपुर द्वारों से मन हरता।
नवनिधि मंगल घट धूप घटों युत में प्रवेश करती जनता।।८।।
आगे उद्यान भूमि चौथी चारों दिश बने बगीचे हैं।
क्रम से अशोक वन सप्तपर्ण चंपक अरु आम्र तरू के हैं।।
प्रत्येक दिशा में एक एक तरु चैत्यवृक्ष अतिशय ऊँचे।
इनमें जिनप्रतिमा प्रातिहार्ययुत चार चार मणिमय दीखें।।९।।
इसके आगे वेदी सुन्दर फिर ध्वजाभूमि ध्वज से शोभे।
फिर रजतवर्णमय परकोटा गोपुर द्वारों से युत शोभे।।
फिर कल्पवृक्ष भूमी छट्ठी दशविध के कल्पवृक्ष इसमें।
प्रतिदिश सिद्धार्थ वृक्ष चारों हैं सिद्धों की प्रतिमा उनमें।।१०।।
चौथी वेदी के बाद भवनभूमी सप्तमि के उभय तरफ।
नव नव स्तूप रत्न निर्मित, उनमें जिनवर प्रतिमा सुखप्रद।।
परकोटा स्फटिकमयी चौथा मरकत मणि गोपुर से सुन्दर।
उस आगे श्रीमंडप भूमी बारह कोठों से जनमनहर।।११।।
फिर पंचम वेदी के आगे त्रय कटनी सुन्दर दिखती है।
पहली कटनी पर यक्ष शीश पर धर्मचक्र चारों दिश हैं।।
दूजी कटनी पर आठ महाध्वज नवनिधि मंगल द्रव्य धरें।
तीजी कटनी पर गंधकुटी पर जिनवर दर्शन पाप हरें।।१२।।
जय जय जिनवर सिंहासन पर चतुरंगुल अधर विराज रहे।
जय जय जिनवर की दिव्यध्वनी सुनकर सब भविजन तृप्त भये।।
सब जातविरोधी प्राणीगण, आपस में मैत्री भाव धरें।
जो पूजें ध्यावें गुण गावें वे जिनगुण संपति प्राप्त करें।।१३।।
—दोहा—
चतुर्मुखी ब्रह्मा तुम्हीं, ज्ञान व्याप्त जग विष्णु।
देवों के भी देव हो, महादेव अरि जिष्णु।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं समवसरणविभूतिमंडिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय जयमाला
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पाँजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
ऋषभदेव के समवसरण को, जो जन पूजें रुचि से।
मनवांछित फल को पा लेते, सर्व दुखों से छुटते।।
धर्मचक्र के स्वामी बनते, तीर्थंकर पद पाते।
केवल ‘ज्ञानमती’ किरणों से भविमन ध्वांत नशाते।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।