-शंभु छंद-
श्री ऋषभदेव से महावीर तक चौबिस तीर्थंकर प्रभु हैंं।
इन सबके पंचकल्याणक से पावन तेईस तीर्थ भू हैं।।
मेरा भी हो कल्याण प्रभो! मैं पंचकल्याणक तीर्थ नमूँ।
आह्वानन स्थापन एवं सन्निधीकरण विधि से प्रणमूँ।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणाम् पंचकल्याणक तीर्थसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणाम् पंचकल्याणक तीर्थसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणाम् पंचकल्याणक तीर्थसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (शंभु छंद)-
इस जग में काल अनादी से, हर प्राणी तृषा समन्वित है।
तीरथ पद में जलधारा कर, हो सकती तृष्णा विस्मृत है।।
जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं।
उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।१।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य:
जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
तीरथ यात्रा से सचमुच ही, आत्मा में परमशांति मिलती।
चन्दन पूजा संसार ताप को, दूर हटा सब सुख भरती।।
जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं।
उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।२।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य:
संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षयपद पाकर जिनवर ने, आत्मा को तीर्थ बना डाला।
अक्षत ले शुभ्र धवल मुट्ठी में, मैंने पुंज चढ़ा डाला।।
जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं।
उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।३।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य:
अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुछ तीर्थंकर ने ब्याह किया, कुछ ने नहिं ब्याह रचाया है।
विषयों की इच्छा तजकर ही, सबने तप को अपनाया है।।
जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं।
उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।४।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य:
कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्गों का भोजन भी तजकर, तीर्थंकर प्रभु ने दीक्षा ली।
हर प्राणी को दीक्षा लेने के, हेतु प्रभू ने शिक्षा दी।।
जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं।
उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।५।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य:
क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज ज्ञान का दीप जलाकर प्रभु ने, जग को ज्ञान प्रकाश दिया।
हमने घृतदीप जला आरति, करके कुछ आत्मविकास किया।।
जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं।
उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।६।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य:
मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
निज शुक्लध्यान की अग्नी में, कर्मों की धूप दहन करके।
जिनवर ने शिवपद पाया हम भी, धूप अग्नि में दहन करें।।
जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं।
उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।७।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य:
अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस मोक्षमहाफल के निमित्त, प्रभु ने उग्रोग्र तपस्या की।
उसकी अभिलाषा करके ही, हमने फल थाली अर्पित की।।
जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं।
उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।८।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य:
मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध सुअक्षत पुष्प चरु, दीपक वर धूप फलादि लिया।
‘‘चन्दनामती’’ तीर्थंकर बनने, हेतु तीर्थ पद चढ़ा दिया।।
जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं।
उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।९।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य:
अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेरछंद-
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक की भूमियाँ।
पावन हैं सभी के लिए वे तीर्थभूमियाँ।।
तीर्थों की अर्चना में शांतिधारा करूँ मैं।
निज शांति के संग विश्वशांति भाव धरूँ मैं।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जिन उपवनों में जिनवरों ने की थी तपस्या।
सब ऋतु के फूल-फल से फलित वृक्ष थे वहाँ।।
इन पुष्पों में भी उन्हीं पुष्प की है कल्पना।
पुष्पांजली के द्वारा करूँ तीर्थ अर्चना।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:।
-शंभु छंर्द-
जो भवसमुद्र से तिरवाता, वह तीर्थ कहा जाता जग में।
वह द्रव्य तीर्थ औ भावतीर्थ, दो रूप कहा जिन आगम में।।
तीर्थंकर के जन्मादिक से, पावन हैं द्रव्यतीर्थ सच में।
हर प्राणी की आत्मा परमात्मा भावतीर्थ मानी जग में।।१।।
जय जय तीर्थंकर तीर्थनाथ, तुम धर्मतीर्थ के कर्ता हो।
जय जय चौबीस जिनेश्वर तुम, त्रिभुवन गुणमणि के भर्ता हो।।
जय ऋषभदेव से वीर प्रभू तक, सबकी महिमा न्यारी है।
इन पंचकल्याणक के तीर्थों को, नितप्रति धोक हमारी है।।२।।
चौबीसों जिन की जन्मभूमि का, अतिशय ग्रंथों में आया।
जहाँ पन्द्रह-पन्द्रह मास रतन-वृष्टि सुरेन्द्र ने करवाया।।
वह तीर्थ अयोध्या प्रथम तथा, कुण्डलपुर जन्मभूमि अन्तिम।
जहाँ तीर्थंकर माताओं ने, देखे सोलह सपने स्वर्णिम।।३।।
यूँ तो सब तीर्थंकर की शाश्वत जन्मभूमि है अवधपुरी।
लेकिन हुण्डावसर्पिणी में हो गईं पृथक् ये जन्मथली।।
इस कारण तीजे काल में ही, हुई कर्मभूमि प्रारंभ यहाँ।
तब नगरि अयोध्या धन्य हुई, हुआ प्रथम प्रभू का जन्म जहाँ।।४।।
उस शाश्वत तीर्थ अयोध्या में, इस युग के पाँच प्रभू जन्में।
ऋषभेश अजित अभिनंदन एवं, सुमति अनंत उन्हें प्रणमें।।
गणधर मुनि एवं इन्द्र आदि से, वंद्य अयोध्या नगरी है।
वृषभेश्वर की ऊँची प्रतिमा, जहाँ तीर्थ की महिमा कहती हैैै।।५।।
इन जन्मभूमियों की श्रेणी में, श्रावस्ती संभव प्रभु की।
कौशाम्बी पद्मप्रभ की वाराणसि सुपार्श्व पारस प्रभु की।।
चन्द्रप्रभ जन्में चन्द्रपुरी में, पुष्पदन्त काकन्दी में।
भद्रिकापुरी में शीतल जिन, जन्मे श्रेयाँस सिंहपुरि में।।६।।
चम्पापुर नगरी वासुपूज्य की, जन्मभूमि से पावन है।
पाँचों कल्याणक से केवल, चम्पापुर ही मनभावन है।।
कम्पिलापुरी में विमलनाथ, है धर्मनाथ की रत्नपुरी।
श्रीशांति कुंथु अरनाथ तीन की, जन्मभूमि हस्तिनापुरी।।७।।
मिथिलानगरी में मल्लिनाथ, नमिनाथ जिनेश्वर जन्मे हैं।
मुनिसुव्रत जिनवर राजगृही, नेमी प्रभु शौरीपुर में हैं।।
कुण्डलपुर में महावीर प्रभू का, नंद्यावर्त महल सुन्दर।
प्राचीन छवी के ही प्रतीक में, ऊँचा बना सात मंजिल।।८।।
ये सोलह तीर्थ सभी तीर्थंकर, के जन्मों से पावन हैं।
ये गर्भ जन्म तप ज्ञान चार, कल्याणक से भी पावन हैं।।
इनके वन्दन से निज घर में, लक्ष्मी का वास हुआ करता।
इनके वन्दन से आतम में, सुख शांती लाभ हुआ करता।।९।।
पूर्णार्घ्य महार्घ्य समर्पण कर, सब तीर्थ भाव से नमन करो।
पूजन का फल पाने हेतू, सब राग द्वेष को शमन करो।।
ज्यों राजहंस से मानसरोवर, की पहचान कही जाती।
त्यों ही जिनवर जन्मों से धरती, पावन पूज्य कही जाती।।१०।।
तीरथ प्रयाग में ऋषभदेव के दीक्षाज्ञान कल्याणक हैं।
अहिछत्र तीर्थ पर पार्श्वनाथ का हुआ ज्ञानकल्याणक है।।
जृंभिका ग्राम में ऋजुकूला नदि के तट पर महावीर प्रभू।
कैवल्यधाम को प्राप्त हुए, कर घातिकर्म का नाश प्रभू।।११।।
कैलाशगिरी से ऋषभदेव ने, मुक्तिश्री का वरण किया।
चम्पापुर से प्रभु वासुपूज्य ने, मोक्षधाम में गमन किया।।
गिरनार तीर्थ से नेमिनाथ, पावापुरि से महावीर प्रभू।
सम्मेदशिखर पर तप करके, निर्वाण गये हैं बीस प्रभू।।१२।।
यूँ तो जिनआगम में केवल, दो ही माने शाश्वत तीरथ।
शुभतीर्थ अयोध्या जन्मभूमि, निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर।।
पहले के सब तीर्थंकर नगरि अयोध्या में ही जनमते थे।
फिर कर्मनाश सम्मेदशिखर से मुक्तिप्रिया को वरते थे।।१३।।
निज जन्मभूमि से अलग ऋषभ प्रभु नेमिनाथ ने दीक्षा ली।
बाकी बाइस तीर्थंकर ने निज जन्मभूमि में दीक्षा ली।।
ऐसे ही तीन जिनेश्वर को अन्यत्र सु केवलज्ञान हुआ।
श्री ऋषभ-पार्श्व-महावीर प्रभू का समवसरण निर्माण हुआ।।१४।।
इन पंचकल्याणक तीर्थों को है मेरा बारम्बार नमन।
कुछ सिद्धक्षेत्र अतिशयक्षेत्रों को भी मेरा शत-शत वन्दन।।
मेरी आत्मा भी तीर्थ बने, मैं तीर्थंकर पद को पाऊँ।
कर धर्मतीर्थ का वर्तन मैं शाश्वत सुख में बस रम जाऊँ।।१५।।
इस युग की गणिनीप्रमुख ज्ञानमति माता की प्रेरणा मिली।
कल्याणक तीर्थों का विकास करने की नव चेतना मिली।।
उनकी शिष्या आर्यिका ‘‘चन्दनामति’’ की है याचना यही।
शिवपद पाने तक तीर्थों के प्रति भक्ति रहे भावना यही।।१६।।
दोहा-शब्दों की जयमाल यह, अर्पूं जिनपद मांहि।
अष्टद्रव्य का थाल ले, अर्घ्य चढ़ाऊँ आय।।१७।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य:
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
शेर छंद-तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं।
उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।
निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना भ्रमूँ।।
।। इत्याशीर्वाद:।।