सिद्धों का नाम स्मरणमात्र, संपूर्ण मनोरथ सिद्ध करे।
सिद्धों की भक्ती पूजा कर, मानव संसार समुद्र तिरें।।
सिद्धों को ध्याते जो चित में, वे निज को सिद्ध बना लेते।
सिद्धों की जो माला जपते, वे जिनगुण संपति पा लेते।।१।।
सिद्धों कीे अर्चा करने से, सब आधि व्याधि संकट टलते।
सब दु:ख शोक दारिद्र नशें, जन जन के मनवाञ्छित फलते।।
सब जात विरोधी प्राणी भी, आपस में प्रीती से मिलते।
श्री सिद्धचक्र की पूजा से, भविजन के हृदय कमल खिलते।।२।।
सब क्रूर अनिष्ट नवों ग्रह भी, अनुकूल स्वयं हो जाते हैं।
सब व्यंतर भूत पिशाच देव, प्रभु पूजा से भग जाते हैं।।
व्यंतरियां डाकिनि शाकिनि भी, नहिं किंचित् हानी पहुंचातीं।
जिन भक्तों की सहयोगी बन, सब इच्छित कार्य बना जातीं।।३।।
श्री सिद्धचक्र की महिमा यह, धन धान्य समृद्धी हो जाती।
इस भव में भी तत्क्षण देखो, रोगादि व्यथाएँ नश जातीं।।
परभव में चक्रवर्ति वैभव, इन्द्रों का वैभव मिलता है।
इस पूजा से तीर्थंकर पद, पाकर मन पंकज खिलता है।।४।।
श्रीसिद्धचक्र की पूजा से, नर पूज्य स्वयं बन जाते हैं।
जो सिद्धों का वंदन करते, स्वयमेव वंद्य हो जाते हैं।।
जो शीश झुकाते चरणों में, त्रिभुवन भी उनको नमन करे।
जो सिद्धों के गुण गाते हैं, सुरपति भी उनका यश उचरें।।५।।
इस सिद्धचक्र की पूजा में, दुगने दुगने गुण की पूजा।
पहली पूजा में आठ सुगुण, दूजी में सोलह गुण पूजा।।
क्रम से बत्तीस व चौसठ, इक सौ अट्ठाइस गुण को जजते।
दो सौ छप्पन पण शत बारह, इस सहस्र चौबिस गुण भजते।।६।।
श्री सिद्धचक्र पूजन विधान, रचने की इच्छा प्रगट हुई।
यह धन्य घड़ी धन धन्य दिवस, धन धान्य भाग्य सद्बुद्धि हुई।।
मुझ नेत्र युगल भी सफल हुये, हो गया सफल जीवन मेरा।
रसना रसवती हुई गुण गा, हो गया चित्त पावन मेरा।।७।।
जय जय श्री सिद्धचक्र की जय, इससे दुर्भिक्ष अकाल टलें।
सब रोग भगंदर महाकुष्ठ, मिट जाते नर हों स्वस्थ भले।।
जय जय श्री सिद्धों की जय हो, शत शत वंदन अभिनंदन हो।
मैं नमूँ अनंतों बार नमूँ, मुझमें गुणमणि का प्रगटन हो।।८।।
श्री सिद्धचक्र पूजा विधि के, उपदेष्टा महामुनी जानो।
रत्नत्रयनिधि के स्वामी भी, आकिंचन महाव्रती मानो।।
ऐसे आचार्य प्रवर गुरु की, आज्ञा आशीष ग्रहण करिये।
अथवा गणिनी आर्यिका मात, की आज्ञा शिरोधार्य करिये।।९।।
मैना सुन्दरि ने मुनिमुख से, सुनकर यह पाठ रचाया था।
पति श्रीपाल के महाकुष्ठ, को दूर किया फल पाया था।।
तुम भी गुरु सन्निधि में विधिवत् , यह महायज्ञ प्रारंभ करो।
श्री सिद्धचक्र अनुपम विधान, करके मनवांछित प्राप्त करो।।१०।।
विधानाचार्य कैसे हो?
प्रथम विधानाचार्य पुरुष, सज्जाती सम्यक्त्वी हो।
देशव्रती श्रद्धालु पापभीरू, निर्लोभि सुधी हो।।
ज्योतिविद् हो मंत्रतंत्रविद्, विधि विधान का ज्ञानी।
प्रभावना करने का इच्छुक, भविजन हितकर वाणी।।११।।
चारों अनुयोगों का ज्ञाता, वक्ता श्रेष्ठ कुशल हो।
पूजा जयमाला के अर्थों, का उपदेशक भी हो।।
आगम के अनुकूल बोलता, गुरु उपासना करता।
ऐसा विधानकारक विद्वन्, जग में शांती करता।।१२।।
विधानकर्ता यजमान के गुण
श्रावक सम्यक्त्वी श्रद्धालू, अणुव्रती गेही हो।
जातीसंकर जातीच्युत, दुर्व्यसन दोष वर्जित हो।।
मद्य मांस मधु पाँच उदुंबर, त्याग मूलगुणधारी।
संकल्पी हिंसा निशि भोजन, अनछन जल परिहारी।।१३।।
पूजा दान नित्य करता हो, गुरूभक्त स्वाध्यायी।
कम से कम जिनमंदिर जाकर, दर्श करे सुखदायी।।
अंधे लंगड़े लूले गूंगे, बहिरे तथा दरिद्री।
अंगहीन या अंग अधिक हों, नहिं विधान के पात्री।।१४।।
कुष्ठ जलोदर तथा भगंदर, ज्वर क्षय रोग शरीरी।
नहिं विधान के हैं अधिकारी, तथा हीन व्यापारी।।
न्यायोपार्जित धनी होंय, कंजूस मूर्ख नहिं होवें।
ऐसे जन विधान करने से, सब जग के सुख लेवें।।१५।।
हो विधान करने का इच्छुक, मुनिवर सन्निध जावे।
श्रीफल लेकर करे प्रार्थना, संघ विहार करावे।।
श्रीगुरु का आशीर्वाद ले, धर्मपत्नि के साथे।
निज परिवार मित्र जन पुरजन, सब जन को भी साधे।।१६।।
अन्य विधर्मी राज्य राष्ट्र को, भी अनुकूल बनावे।
विश्व शांतिकर महायज्ञ यह, अतिशय धर्म बढ़ावे।।
आमंत्रण पत्रिका छपाकर, जगह जगह पहुँचावे।
पत्र पत्रिका सबको देकर, जैनधर्म चमकावे।।१७।।
इन्दों की वेशभूषा
नर के श्वेत वस्त्र या पीले, धोती और दुपट्टा।
महिलाओं के हों केशरिया, विधवाओं के श्वेता।।
मुकुट हार कंकण बाजूबंध, भूषण स्वर्णादिक के।
ब्रह्मसूत्र१ रत्नत्रय सूचक, धारें धर्मरुची से।।१८।।
पाँच मंत्र से पाँच तिलक कर, जिन पूजन जो करते।
नर सुर के अभ्युदय भोगते, विश्व तिलक वो बनते।।
शुभ मुहूर्त में महायज्ञ को, करना शुरू करें जब।
तब आचार्य निमंत्रण करके, पंडित लावें विधिवत्।।१९।।
वस्त्राभूषण इतने सुन्दर, बढ़िया एक सदृश हों।
मानों दिव२ से ही उतरे क्या, इन्द्र इन्द्राणी सच हों।।
सौ दंपती इन्द्र इन्द्राणी, या फिर बत्तिस होवें।
अथवा जितने भी बन सकते, कमतर बारह होवें।।२०।।
मंडल मांडने की विधि
सबसे पहले जिन पूजाकर, मंडप वेदी रचना कीजे।
उत्तम मुहूर्त में प्रागंण में, ऊँचा ध्वज आरोहण कीजे।।
हीरा मोती माणिक्य रतन, अभ्रक औ स्वर्णिम रंग लाके।
बहुविध रंगे चावल से या, मंडल रचिये रांगोली से।।२१।।
मंडल में बीचोंबीच ह्रीं, फिर आठ व्ालय करिये सुंदर।
या कमल आठ दल का खींचो, या शिखराकार चित्र सुंदर।।
पहले दल में हों आठ द्वितिय में, सोलह फिर बत्तिस चौंसठ।
इक सौ अट्ठाइस दो सौ छप्पन, पण सौ बारह इक सहस चौबिस।।२२।।
वेदी मंडल को गन्ध लेप, चन्द्रोपक१ वन्दनवारों से।
ध्वज चामर मंगलद्रव्य आठ, मंगल घट तोरण द्वारों से।।
बहुरंग बिरंगे रत्नदीप, सदृश बहु विद्युत दीपों से।
बहुविध उपकरणों धूप घड़े, सुरभित मालाओं फूलों से।।२३।।
ककिणियों के रुनझुन रव से, मंडपवेदी भूषित करिये।
जिनबिम्ब चतुर्मुख स्थापित, कर सिद्धचक्र पूजा करिये।।
इस विधि गुरु आज्ञा औ आशिष, लेकर मंडप वेदी रचिये।
मंडल की रचना ऐसी हो, नर क्या सुर का भी मन हरिये।।२४।।
पूजामुख सकलीकरण विधी कर, जिनवर का अभिषेक करो।
मंडल आराधन इंद्र प्रतिष्ठा, यज्ञ सुदीक्षा विधी करो।।
यह सिद्धचक्र उत्तम विधान, प्रारंभ करो जय जय ध्वनि से।
नवदेव अर्चना आदि नित्य, पूजा करिये अतिशय रुचि से।।२५।।
मंडल पर मध्य ह्रीं ऊपर, चौकी पर सिंहासन रखिये।
उसमें श्रीसिद्धिंबब अथवा, जिनप्रतिमा स्थापित करिये।।
श्रीसिद्धयंत्र स्थापित कर, भामंडल छत्र चंवर धरिये।
मंडल पर बीच व चार कोण, में मंगलकुंभ स्थापित करिये।।२६।।
श्री सिद्धचक्र पूजा विधि में, मंडल पर आह्वानन करना।
सब अर्घ्य बोलकर अर्घ्य चढ़ा, मंडल पर ही श्रीफल रखना।।
इसमें हैं पूजा आठ अर्घ्य, सब दो हजार चालिस उत्तम।
पूर्णार्घ्य आठ जयमाला भी, नौ बनी यहाँ अतिशय उत्तम।।२७।।
संगीत वाद्य नृत्यादिक कर, प्रतिदिन मनहर पूजन करिये।
प्रतिदिन जप का कर अनुष्ठान, अंतिम दिन पूर्ण हवन करिये।।
रथयात्रा महामहोत्सव कर, अतिशय प्रभावना को करिये।
हो उठे गगन में भी हलचल, ऐसी बाजों की ध्वनि करिये।।२८।।
फिर गुरुवर्य की पूजा कर, चउसंघ की भी पूजा कीजे।
आहार औषधि पिच्छी पुस्तक, उपकरण आदि वस्तू दीजे।।
आर्यिका आर्य को वस्त्रदान, आवश्यक योग्य वस्तु दीजे।
सहधर्मी जन को दान मान, आादिक देकर हर्षित कीजे।।२९।।
पूजा दानादिक करने में, जितना धन खर्चा जावेगा।
कूएं के जल के ही समान, दिन पर दिन बढ़ता जावेगा।।
इस भव में सुख औ यश देकर, परभव में भी संग आयेगा।
फिर फले अनंतगुणा होके, अंतिम शिवपद दिलवायेगा।।३०।।
सिद्धचक्र का पाठ यह, करो करावो भव्य।
सिद्धिरमा को वश्यकर, सुख पावो नित नव्य।।३१।।
(इति पीठिकाबंध:)