जय जय जिनेश्वर निलय त्रिभुवन के अकृत्रिम मणिमयी।
अर्हंत सिद्ध सुसाधुगण जिनधर्म त्रिभुवन सुखमयी।।
जिनवर ध्वनी जिनभवन कृत्रिम क्षेत्र कल्याणक जजूँ।
त्रैलोक्य की पूजा रचाकर लोकमस्तक जा बसूं ।।१।।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्र समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्र समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्र समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
भव जावे पूरा त्रिभुवन भी, प्रभु इतना नीर पिया मैंने।
फिर भी नहिं प्यास बुझी अब तक, इसलिये नीर से पूजूँ मैं।।
त्रैलोक्य जिनालय जिनप्रतिमा, कृत्रिम अकृत्रिम अगणित हैं।
अर्हंत सिद्ध साधू आदिक, इन सबकी पूजा शिवपद है।।१।।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्रेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभु त्रिभुवन में भी घूम घूम, शीतलता चाही चंदन से।
पर अब शीतलता होवेगी, चंदन तुम पद में चर्चन से।।त्रैलोक्य.।।२।।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्रेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
त्रिभुवन में सब पद प्राप्त किया, वे खंड खंड हो बिखर गये।
अक्षत से पूजूँ पद पंकज, हो मुझ अखंड पद इसीलिये।।
त्रैलोक्य जिनालय जिनप्रतिमा, कृत्रिम अकृत्रिम अगणित हैं।
अर्हंत सिद्ध साधू आदिक, इन सबकी पूजा शिवपद है।।३।।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्रेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
तुम कीर्ति सुगंधी त्रिभुवन में, प्रभु पैल रही गणधर गायें।
इसलिये सुगंधित कुसुम लिये, तुम पद पूजें निज यश पायें।।त्रैलोक्य.।।४।।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्रेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभु तीनलोक से अधिक अन्न, पकवान खा चुका मैं जग में।
फिर भी नहिं भूख मिटी इनसे, अतएव चरु से पूजूँ मैं।।त्रैलोक्य.।।५।।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्रेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अज्ञान अंधेरा त्रिभुवन में, नहिं देख सका निज आत्मा को।
इसलिए दीप से मैं पूजूँ, निज ज्ञानज्योति मुझ प्रगटित हो।।त्रैलोक्य.।।६।।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्रेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
ये कर्म त्रिजग में दुख देते, इनको अब शीघ्र जलाने को।
मैं धूप अग्नि में खेऊँ अब, प्रभू पूजा यश पैâलाने कौ।।त्रैलोक्य.।।७।।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्रेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
नानाविध फल की प्राप्ति हेतु, मैं घूम चुका प्रभु त्रिभुवन में।
अब एक मोक्षफल प्राप्ति हेतु, फल मधुर चढ़ाऊँ तुम पद में।।त्रैलोक्य.।।८।।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्रेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
निज आत्मनिधी को भूल गया, बस मूल्य विषय सुख का आंका।
अब अर्घ चढ़ाकर पूूजूँ मैं, प्रभु पाऊँ रत्नत्रय सांचा।।त्रैलोक्य.।।९।।
ॐह्रीं त्रिलोकसंबंधिकृत्रिमअकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बअर्हत्सिद्धसाधुकेवलि-प्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीतीर्थक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रभु पद त्रयधारा करूँ, तिहुं जग शांती हेतु।
तीनभुवन के जिनभवन, जिनवर भवदधि सेतु।।
शांतये शांतिधारा।।१०।।
त्रिभुवनपति पदकमल में, पुष्पांजलि करंत।
तिहुंजग यश विस्तार के, त्रिभुवन सौख्य भरंत।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।११।।
बत्तीस इंद्र पूजित जिनालय अर्घ-
मणिमय जिनवर बिंब, जिनचैत्यालय सासते।
पूजें बत्तिस इंद्र, पुष्पांजलि कर मैं जजूँ।।
इति सर्वतोभद्रविधानमंडलस्योपरि आसमंतात् पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
असुरकुमार इंद जिन परिकर, इन्द्राणि सक भक्ती से।
तीन लोक को शाश्वत जिनवर, प्रतिमा पूजें भक्ती से।।
श्री अर्हंत सिद्ध साधू को, धर्म जिनागम को जजते।
जो जन पूजें जिनवर जिनकृति, निज आतम अनुभव चखते।।१।।
ॐह्रीं असुरकुमारेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नागकुमार इंद्र निजवैभव, परिकर सहित भक्तिवश हो।
जिनवर बिंब जिनालय जिनवर, सिद्ध साधु जजते खुश हो।।
धर्म जजें जिनवाणी पूजें, जिन कल्याणक थल जजते।
हम भी इनको जजें भक्ति से, रोग शोक दारिद नशते।।२।।
ॐह्रीं नागकुमारेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सुरपति सुपर्णभावनसुर के, निजपरिकर वैभव सहिते।
श्रीजिनबिंब जिनालय जिनवर, सिद्धों को मुनि को नमते।।धर्म जजें.।।३।।
ॐह्रीं सुपर्णकुमारेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
द्वीपकुमार सुराधिप वैभव परिकर सहित मुदित होके।
जिनप्रतिमा जिनमंदिर जिनवर, सिद्ध साधु को अवलोकें।।धर्म जजें.।।४।।
ॐह्रीं द्वीपकुमारेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
उदधिकुमार भवनवासी के, इंद्र सपरिवार सह रुचि से।
जिनप्रतिमा जिन आलय जिनवर, सिद्ध साधु पूजें रुचि से।।धर्म जजें.।।५।।
ॐह्रीं उदधिकुमारेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधि-सर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्मजिनवाणी-जिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
भवनवासि स्तनितकुमारधिप निजपरिकर सह पूजें।
जिनप्रतिमा जिनधाम जिनेश्वर, सिद्ध साधु रुचिसे पूजें।।धर्म जजें.।।६।।
ॐह्रीं स्तनितकुमारेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्व-कृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विद्युत्कुमार सुरपति निजपरिवार सहित जिनभक्ति करें।
जिनमूर्ती जिनमंदिर जिनवर, सिद्ध साधु के गुण उचरें।।धर्म जजें.।।७।।
ॐ ह्रीं उदधिकुमारेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्व-कृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणी-जिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
दिक्कुमार सुराधिप निजदेवी परिवार सहित रुचि से।
जिनमूर्ति जिनधाम जिनेश्वर, सिद्ध साधु पूजें मन से।।धर्म जजें.।।८।।
ॐ ह्रीं दिक्कुमारेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अग्निकुमार सुराधिप निजवैभवपरिवार देव मिलके।
जिनप्रतिमा जिनगेह जिनेश्वर, सिद्ध साधु जजतें रुचि से।।धर्म जजें.।।९।।
ॐ ह्रीं अग्निकुमारेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वायुकुमार इंद्र निजदेवी, देवसहित अतिभक्ती से।
जिनवरबिंब जिनालय जिनवर, सिद्ध साधु वंदें रुचि से।।धर्म जजें.।।१०।।
ॐ ह्रीं वायुकुमारेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
किन्नरसुरों के इंद्र स्वपरिवार साथ में।
पूजा करें नीरादि द्रव्य लेय हाथ में।।
जिनबिम्ब जैनधाम व जिन सिद्ध साधु को।
वंदे सदा जिनधर्म औन जैनवाणि को।।११।।
ॐ ह्रीं किन्नरेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
परिवार साथ लेय किंपुरुष के इंद्र भी।
पूजा करें जिननाथ की वसु द्रव्य ले सभी।।जिन.।।१२।।
ॐ ह्रीं किंपुरुषेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
परिवार सहित महोरग सुरों के इंद्र भी।
चर्चें जिनेंद्रदेव को वसुद्रव्य ले सभी।।जिन.।।१३।।
ॐ ह्रीं महोरगेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
गंधर्व सुरों के अधिप परिवार को लिये।
जिनराज की वसु द्रव्य से अर्चाविधि किये।।जिन.।।१४।।
ॐ ह्रीं गंधर्वेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
यक्षेंद्र देव देवियों को साथ में लिये।
अर्चें जिनेंद्रदेव को बहु भक्ति धर हिये।।जिन.।।१५।।
ॐ ह्रीं यक्षेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
राक्षस सुरों के इंद्र स्वपरिवार साथ ले।
अर्चा करें जिनदेव की बहुभक्ति कर भले।।।।जिन.।।१६।।
ॐ ह्रीं राक्षसेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
परिवारसहित भूतसुरों के अधिप वहां।
पूजें जिनेन्द्र पादपद्म भक्ति से वहाँ।।
जिनबिम्ब जैनधाम व जिन सिद्ध साधु को।
वंदे सदा जिनधर्म औन जैनवाणि को।।७।।
ॐ ह्रीं भूतेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
परिवार सहित देव पिशाचों के इंद्र भी।
नीरादि द्रव्य लेय नाथ पूजते सभी।।जिन.।।१८।।
ॐ ह्रीं पिशाचेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्ववृâत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
ज्योतिषसुरों के सुरपती हैं चंद्रमा इस लोक में।
निजदेव देवी साथ ले जिनदेव पूजें हर्ष में।।
जिनबिंब जिनआलय जिनेश्वर सिद्ध साधू को नमेंं।
जिनधर्म जिनवरवाणि को नमि सर्व मिथ्याविष वमें।।१९।।
ॐ ह्रीं चंद्रेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शशि के प्रतीन्द्र दिवाधिपति निजदेव देवी सह सदा।
जिनदेव की अर्चा करें सम्यक्त्वमणि लें शर्मदा।।जिन.।।२०।।
ॐ ह्रीं सूर्येंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सौधर्म इंद्र इंद्राणी सह, निजपरिकर देव असंख्य सहित।
जिनदेवदेव की भक्ति करें, वसु द्रव्य लिये सम्यक्त्व सहित।।
जिनबिंब जिनालय सिद्ध साधु, जिनधर्म जिनेश्वर वाणी को।
नित नमन करें पूजें वंदें, पाने हित शिव रजधानी को।।२१।।
ॐ ह्रीं सौधर्मेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
ईशान इंद्र नित भक्ती से, निज देव देवियों को लेकर।
जिनदेवदेव की अर्चा कर, संस्तुति करते गुण गा गाकर।।जिन.।।२२।।
ॐ ह्रीं ईशानेंद्रेणस्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सानत्कुमार सुरपति नितप्रति, निज देवियों के संघ में।
जिनदेवदेव की भक्ति करें, नाचें गावें हरषें उर में।।जिन.।।२३।।
ॐ ह्रीं सानत्कुमाररेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधि-सर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सुरपति महेंद्र परिवार सहित, जिनदेवदेव की भक्ति करें।
जिनवर की अर्चा कर करके, इक दो भव लें भव अब्धि तरें।।जिन.।।२४।।
ॐ ह्रीं माहेंद्रेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
दिवब्रह्म ब्रह्मोत्तर के अधिपति, ब्रह्मेंद्र जिनेश्वर भक्ति करें।
परिवार देव देवी असंख्य, लेकर जिनवंदे पाप हरें।।जिन.।।२५।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मोंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
लांतव कापिष्ठ स्वर्ग सुरपति, जिनवर की अर्चा करते हैं।
निज देव देवियों से युत हो, जिनवर गुण चर्चा करते हैं।।
जिनबिंब जिनआलय जिनेश्वर सिद्ध साधू को नमेंं।
जिनधर्म जिनवरवाणि को नमि सर्व मिथ्याविष वमें।।२६।।
ॐ ह्रीं लांतवेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
दिव शुक्र महाशुक्राधिपती, निज देव देवियों के संग में।
तीर्थंकर जिनवर को पूजें, गुण गावें नाचें भक्ती में।।जिन.।।२७।।
ॐ ह्रीं महाशुक्रेंद्रण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
दिवयुगल शतार सहस्राराधिप, देव देवियों से युत हों।
जिनराज वंदना करते हैं, बहु भक्ति करें अतिहर्षित हो।।जिन.।।२८।।
ॐ ह्रीं सहस्रारेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
आनत दिव इंद्र स्वपरिकर सह, जिनदेव वंदना करते हैं।
सम्यक्त्व रत्न से भूषित हो, भवदु:ख भंजना करते हैं।।जिन.।।२९।।
ॐ ह्रीं आनतेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्राणत सुरेन्द्र जिनदेवदेव की, भक्ति में रत रहते हैं।
परिवार देव देवी लेकर, तीर्थंकर कीर्ति उचरते हैं।।जिन.।।३०।।
ॐ ह्रीं प्राणतेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
आरण सुरपति परिवारसहित, निज देव देवियों को लेकर।
जिनदेव वंदना करते हैं, जिनगुणकीर्तन में रुचि लेकर।।जिन.।।३१।।
ॐ ह्रीं आरणेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अच्युत सुरेंद्र निज देव देवियों, को लेकर जिनभक्ति करें।
तीर्थंकर के कल्याणक में, उत्सव कर जीवन धन्य करें।।जिन.।।३२।।
ॐ ह्रीं अच्युतेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
भावनसुर के दश इंद्र व्यंतरों के हैं आठ इंद्र माने।
ज्योतिष के दो अधिपती कल्पवासी के बारह श्रुत माने।।
ये सब बत्तीस इंद्र मिलकर, जिनवर की अर्चा करते हैं।
जिन सिद्ध साधु जिनबिंब धाम, जिन धर्म वचन को यजते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं द्वात्रिंशदिन्द्रै: स्वपरिवारसहितै: पादपद्मार्चितत्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिम्बजिनालयजिनसिद्धसाधुजिनधर्म-जिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोकसंबंधिअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म-जिनागमजिन-चैत्यालयेभ्यो नम:।
त्रिभुवन के चूड़ामणी, त्रिभुवन जन आधार।
गाऊँ उन जयमालिका, करो त्रिजग से पार।।१।।
जय जय जय भवनवासिसुरके, जिनभवन अकृत्रिम रत्नमय।
जय जय जय सात करोड़, बहत्तर लाख जिनालय सौख्यमही।।
जय मध्यलोक के चार शतक, अट्ठावन मंदिर शाश्वत हैं।
जय जय व्यंतर सुर के जिनगृह, सब असंख्यात भी शाश्वत हैं।।२।।
जय जय ज्योतिषसुर के जिनगृह, सब असंख्यात शाश्वत मानें।
जय जय वैमानिक देवों के, जिनमंदिर स्वर्णिम दुख हानें।।
जय ये चौराीस लाख, सत्यानवे हजार तेइस माने हैं।
जय जय जय इनके वंदन से, भविजन भवभव दुख हाने हैं।।३।।
जय जय अकृत्रिम जिनमंदिर, ये आठ कोटि छप्पन लक्षा।
जय सत्यानवे हजार चार सौ, इक्यासी मणिमय स्वच्छा।।
प्रतिजिनगृह प्रतिमा इकसौ आठ, सब नव सौ पच्चिस कोटी हैं।
जय त्रेपन लाख सहस सत्ताइस, नव सौ अड़तालिस ये हैं।।४।।
जय जय व्यंतर ज्योतिष सुर के, जिन भवनों की जिनप्रतिमायें।
सब जिनगृह में हैं इकसौ आठ, सब असंख्यात ही प्रतिमायें।।
जय जय जय शाश्वत जिनमंदिर, हम इनका वंदन करते हैं।
जय जय शाश्वत जिनप्रतिमायें, हम शिरनत प्रणमन करते हैं।।५।।
जय पाँच भरत के तीर्थंकर, जय पाँच ऐरावत के जिनवर।
जय जय जय पाँच विदेहों के, सीमंधर आदि बीस जिनवर।।
जय इक सौ सत्तर कर्मभूमि, के अर्हत् सिद्ध साधु सबही।
जिनधर्म जिनागम जिनमंदिर, जिन प्रतिमायें कृत्रिम सबहीं।।६।।
मैं ढाईद्वीप के तीर्थंकर, केवलि श्रुतकेवली को प्रणमूँ।
गणधर सूरी पाठक साधू, इनके चरणों का नित्य नमूँ।।
जिनधर्म जिनागम जिनमंदिर, जिनबिंब अकृत्रिम कृत्रिम हैं।
मैं इनको वंदूँ बार बार, ये समरस सुखप्रद अनुमप हैं।।७।।
धन धन्य घड़ी यह आज मिली, मेरी मनकलियाँ आज खिलीं।
धन धन्य जनम यह सफल हुआ, मुझको रत्नत्रय निधी मिली।।
प्रभु तीनों जग में घूम चुका, अब मेरा भ्रमण समाप्त करो।
मम तीन रत्न देकर मेरा, त्रैलौक्य शिखर पर वास करो।।८।।
त्रिभुवन के सब जिनभवन, पंचपरमगुरुदेव।
नमूँ नमूँ वैवल्यमय, ‘ज्ञानमती’ मुझ देव।।९।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकसंबंधिसर्वकृत्रिम अकृत्रिमजिनालयजिनबिंबअर्हत्सिद्ध-साधुकेवलिप्रज्ञप्तधर्मजिनवाणीजिनक्षेत्रेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन ‘‘सर्वतोभद्र’’ जिन, पूजा करते बहु रुचि से।
चतुर्मुखी कल्याण प्राप्तकर, चक्रवर्ति पद लें सुख से।।
पंचकल्याणक पूजा पाकर, लोक शिखामणि हो चमकें।
उनके ‘‘ज्ञानमती’’ दर्पण में, लोकालोक सकल झलके।।
इत्याशीर्वाद:।